अपने शहर में, घने कोहरे और हाड़ कंपा देने वाली ठंड के बीच 'वसंत पंचमी' का त्यौहार कब आया और चला गया पता ही नहीं चला. हाँ, ब्लॉग जगत में बसंत झूम कर आया. इधर ४-५ दिनों से इस शहर के मौसम में ऐसा बदलाव आया कि लगा ..यही तो है बसंत. आज मैंने भी ठान लिया कि बसंत पर कुछ लिखा जाय. २ घंटे की मेहनत के बाद जो भी बन सका उसे ज्यों का त्यों पोस्ट कर दे रहा हूँ ..अभी इस पर संपादक की नज़र भी नहीं गयी है अतः यह गुरुतर दायित्व भी मैं आप पर ही छोड़ता हूँ. प्रस्तुत है एक गीत.
आयो रे बसंत चहुँ ओर
धरती में पात झरे
अम्बर में धूल उड़े
अमवां में झूले लगल बौर
आयो रे बसंत चहुँ ओर.
कोयलिया 'कुहक' करे
मनवां का धीर धरे
चनवां के ताकेला चकोर
आयो रे बसंत चहुँ ओर.
कलियन में मधुप मगन
गलियन में पवन मदन
भोरिए में दुखे पोर-पोर
आयो रे बसंत चहुँ ओर.
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basant rhitu ka abhinandan !
ReplyDeletenice poem.
बहुत अच्छी कविता।
ReplyDeleteभई वाह, बसंत का भी अपना ही मज़ा है। लगता है एक बार गाँव की सैर करके आना पड़ेगा।
ReplyDeleteपीले पीले सरसों के खेत देखकर आनंद आ जाता है।
ओह ! तो बसंत की यह प्रतीक्षा की है
ReplyDeleteतभी तो बसंत भी इतराता है ... अच्छा गीत है ... आभार ,,,
देवेन्द्र जी आदाब
ReplyDeleteदो घंटे में ऐसी रचना खिल उठी..!
बसंत का कमाल है, बधाई
बेहतरीन रचना । आभार ।
ReplyDeleteBasant ki shubhkaanayeN. Rachna me Lokgeet ki mahak hai. Achchha laga.
ReplyDeleteओह ! तो बसंत की यह प्रतीक्षा की है
ReplyDeleteतभी तो बसंत भी इतराता है ... अच्छा गीत है ... आभार ,,,
आपने तो दिल और दिमाग दोनों को बसंती कर दिया।
ReplyDeleteआभार...
बधाई बसंत के स्वागत मे इतने खूबसूरत बसंतमय गीत के लिये..एक लोकगीत सी मधुरता लिये इस गीत की गेयता पर बसंत खुद भी मुग्ध हुए बिना नही रह सकता...हाँ चनवां के ताके लगल चोर नही समझ आया कुछ..
ReplyDeletesundar....
ReplyDeleteaabhar mere blog par aane ke liyen....
बसंत तो बसंत है
ReplyDeleteबेहद खुबसूरत रचना
बहुत बहुत आभार ग़ज़ल
बहुत सुंदर कविता .......साधुवाद !
ReplyDeleteदेवेन्द्र जी .... जो गुरुतर हैं वो संपादकीय नज़र डालेंगे .......... हमे तो बस रस-स्वाद करना है ........ सो वो हम कर रहे हैं आपकी इस खूबसूरत लोक-भाषा में रची रचना का .......... मज़ा आ गया ........ सचमुच लग रहा है बसंत आ गया .....
ReplyDeletechanawa ko takal lage chor to khet me chane ko dekhakar likha gaya hoga magar basant ke geet me dukhal lage por por kuchh jama nahin ,thandi me aagayaa basantpanchami.....magar basant to falgun aur chaitr ke mahino me aata hai ,fir ye basant panchami itane jaldi kaise aa gaya? Ye basant-panchami nischit karane wale log lagata hai kuchh galti kar gaye....ha....ha
ReplyDeletebasanti geet ka aanand deri se le rahaa hu magar in shbdo me sarabor hokar basant ka ahsaas bad jata he
ReplyDeleteउत्साह वर्धन के लिए आभार।
ReplyDeleteजरा यहाँ देखिए: http://kavita-vihangam.blogspot.com/2010/02/blog-post.html
हाँ, अपूर्व के प्रश्न का उत्तर दीजिए।
अपूर्व जी,
ReplyDelete'पहले चनवां के ताकेला चकोर' लिखा था फिर सोंचा, बिचारा 'चकोर' अकेला ही बदनाम है! चाँद को तो हर कोई चुप-छुप देखता है....सो 'चनवां के ताके लगल चोर' लिख दिया.
अब आप और गिरजेश जी मिल के जो तय करें वही बना दूँ.
वैसे भी संपादन का अधिकार तो मैंने पहले ही दे रक्खा है.
गीत का लालित्य चोर ले उड़ा है। इसे ‘चकोर’ के ही हवाले कीजिए। सबकुछ भूलकर चाँद को अपलक निहारने का काम कोई चोर कैसे कर पाएगा। ऐसा दीवानापन उसी के पास है जो चकोर है।
ReplyDeleteलीजिए कर दिया 'चकोर' के हवाले...
ReplyDeleteबसंती हवा में बहक गया था...आप सब ने संभाल दिया...
..आभार.
इस गीत की चर्चा यहाँ भी है। एक नजर डालिए। आपने बसन्त की मस्ती का संक्रमण खूब फैलाया है।
ReplyDeleteप्रेम में सराबोर
ReplyDeleteसही कहा सिद्धार्थ जी ने, यह सचमुच संक्रमनकारी कविता है -चकोर ही होना था -कभी चकवा चकई को रात में भी वसंत में मिलवा दे न प्लीज -यी कवी लोग कुछौ कर सकते हैं .चकवा चकई मिल जायं बसंत में तबई हम मानी की बसंत आयी गवा !
ReplyDeleterachna se koyal ki kook , amra manjari ki khushboo fail gai
ReplyDeleteBasant par itnee sundar rachna likhne ke baad aap kah rahe hain ki jo bhi likha... azi bahut shandar likha...
ReplyDeleteJai Hind...
बहुत ही खूबसूरत कविता.....
ReplyDeleteसच में, सहज, सरल भावमय कविता.
ReplyDeleteबसंत की ब्यार की तरह तन मन भिगो गयी आपकी कविता। धन्यवाद्
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