सुबह
सारनाथ के लॉन में
कर रही थीं योगा
शांति की तलाश में आई
दो गोरी, प्रौढ़, विदेशी महिलाएँ
इक दूजे के आमने-सामने खड़ी
हिला रही थीं हाथ
नीचे से ऊपर, ऊपर से नीचे
बज रही थी धुन
ओम नमः शिवाय।
दो ग्रामीण महिलाएँ
एक स्कूली छात्र
कॉलोनी के एक वृद्ध
तोड़ रहे थे फूल
पूजा के लिए
चाहते थे पाना
कष्ट से मुक्ति।
घूम रहे थे गोल-गोल
मंदिर के चारों ओर
मार्निंग वॉकर।
कर रहा था
बुद्ध की परिक्रमा
श्रीलंकाई तीर्थ यात्रियों का जत्था
जप रहे थे श्रद्धालु
समझ में न आने वाले मंत्र
हाथों में ले
ताजे कमल के पुष्प
सुनाई दे रहा था उद्घोष....
सा.s.s.धु, सा.s.s.धु, सा.s.s.धु ।
कर रहे थे
फूलों की बिक्री का हिसाब
गिन रहे थे सिक्के
गाँव के किशोर।
मंदिर के बाहर
दुत्कारे जा रहे थे भिखारी
झुकी कमर, लाठी टेक
मुश्किल से चल पा रहा था
एक वृद्ध
गुजरा था जनाजा
अभी-अभी
चीख रहे थे लोग
राम नाम सत्य है।
मंदिर के भीतर
पीपल के वृक्ष के नीचे
बैठे थे
बुद्ध और उनके पाँच शिष्य
मूर्ति बन।
इतना कड़वा यथार्थ दिखा दिया इस कविता में आपने तो
ReplyDeleteअच्छी कविता बन पडी है
साधुवाद
बहुत सुन्दर देवेन्द्र जी
ReplyDeleteआपकी रचना यथार्थ को खंगाल रही है
मंदिर का नज़ारा --अद्भुत रूप में प्रस्तुत किया है आपने ।
ReplyDeleteसच दिखा दिया, सदियों से यही हाल रहा होगा।
ReplyDeleteचुक गया जो बताया था अंत, बुद्ध बस बैठे है मूर्तिमंत॥
ReplyDeleteयथार्थपरक रचना। बधाई।
ReplyDeleteऔर बैठे रहेंगे ऐसे ही ...
ReplyDelete6/10
ReplyDeleteपठनीय
सारगर्भित व मौलिक रचना
बुद्ध के जाने के बाद उनका पथ-प्रदर्शन भी खत्म हो गया.रह गई तो बस नासमझियाँ.प्रत्येक काल-खंड में नए सतगुरु की आवश्यकता होती है,हम नासमझ ब्यक्तियों के लिये.और कुछ लोग ही पहचान पाते हैं नए सतगुरु को.ये भी उन्ही की प्रेरणा से होता है.मगर ये बहुत आस्चर्य की बात है कि ,ये प्रेरणा भी कुछ लोगों को गुरु कृपा से ही प्राप्त होता है.
ReplyDeleteआप भी वहां थे। और हम यहां हैं।
ReplyDeleteबहुत दुखद लेकिन सत्या से भरपुर दर्शय खिंचा आप ने इस कविता मे , धन्यवाद
ReplyDeletePanday Ji
ReplyDeleteKya kahun, sab kuch aise abhivyanjit kiya hai jaise ki samne ghatit ho raha ho, yathart ki abhibyaki aasan nahi hoti per aapne yeh kar dikhaya hai ......!
Aati sunder
सच तो यही है की मंदिरों में अब बस मुर्तिया ही होती है |बहुत ही अच्छी रचना मेरे सामने तो पूरा सीन आ गया काफी साल हो गये वहा गये मेरे शहर की याद दिला दी | धन्यवाद |
ReplyDeleteयथार्थ दर्शन का आभार...उम्दा रचना के माध्यम से.
ReplyDeleteयही तो शाश्वत बिम्ब है जीवन के नैरन्तर्य का
ReplyDeleteशीर्षक बांचते ही कविता का अहसास होनें लगा था ! आपसे चिंतन का कुछ नाता सा जुड गया लगता है वर्ना कविता यूं महसूस कैसे होती ?
ReplyDelete[ एक निवेदन इस सुन्दर कविता से इक दाग हटाया जाये ,आखिरी पंक्ति में "मुर्ती" के स्थान पर "मूर्ति" करियेगा ]
अली सा..
ReplyDelete..कभी-कभी तो अपने आप पर क्रोध आता है..कैसी-कैसी बेवकूफियाँ हो जाती हैं!
..आभार।
कटु सत्य.
ReplyDeleteदुर्गा नवमी एवम दशहरा पर्व की हार्दिक बधाई एवम शुभकामनाएं.
रामराम.
त्योहारी पे इस कविता को पढ़ते पढ़ते ऐसा लगता है कि उस धार्मिक स्थान का सजीव चलता-फिरता फोटो खींच कर सजा दिया हो..अलग-अलग कोणों से जीवन्त प्रेम जो उस समय के सारे शेड्स को समाये हो..कविता की गिरह आखिरी पंक्तियों मे खुलती है..
ReplyDelete..उपदेश के दो हजार सात सौ साल किसी महापुरुष को मूर्ति मे बदल देने के लिये काफ़ी होते हैं..चीजें कर्मकांड मे बदलती जाती हैं...मगर हमारा भरोसा उन लोगों मे दृढ रहता है..जो सिर्फ़ मूर्तियों के परिक्रमा न कर के इतने सालों बाद भी उन्ही आदर्शों को जीते हुए चलते हैं..सारनाथ ऐसी जागती मूर्तियों मे जिंदा रहता है..
सुंदर कविता के लिये आभार
बहुत ही कडवा सच
ReplyDeleteपर ये उपदेशो का नही गलत मूलभूत शीख का असर है
बहुत अच्छा लेख आभार
हमारा भी ब्लॉग पड़े और मार्गदर्शन करे
http://blondmedia.blogspot.com/2010/10/blog-post_16.
देवेन्द्र जी,
ReplyDeleteशानदार रचना.....बहुत पसंद आई ये रचना..........ये इस देश का दुर्भाग्य ही है की इतने वर्ष बीत जाने पर भी ये देश को बुद्ध को वो सम्मान नहीं दे पाया, जिसके वो हकदार थे .....उन्होंने लोगों को वो मशाल दी जिससे अँधेरे में भटकते लोगो को रौशनी में ले जाया जा सके|
आखिरी पंक्तियों ने दिल को छू लिया, मुझे नहीं पता की ये लिखते समय आपके मन में क्या रहा होगा.......लेकिन मेरा निष्कर्ष ये कहता है की ये सिर्फ बुद्ध हैं, जो जीवन-मृत्यु और सुख-दुःख से ऊपर उठ चुके हैं |
@उस्ताद जी-
ReplyDeleteइससे अधिक अंक तो मैं किसी परीक्षा में नहीं ला सका...आभार।
@प्रेम बल्लभ पाण्डेय जी—
हर काल खण्ड ने सतगुरू दिए हैं, सत्य का ज्ञान कराया है, अफसोस यह कि जब तक वे रहते हैं हम उन्हें पहचान नहीं पाते उनके जाते ही उनके उपदेशों पर चलना छोड़, एक अलग धर्म की स्थापना कर, उनकी मूर्ति बना कर पूजना प्रारंभ कर देते हैं। दुःख, दर्द तो समाज में वैसे के वैसे ही रहते हैं जिनके लिए सतगुरू ने संघर्ष किया था।
@राजेश जी- ठीक कहा आपने, हम जहाँ के तहाँ हैं।
@अरंविद जी- यह शास्वत बिंब है. प्रश्न यही है कि यह क्यों है ? क्या कोई महापुरूष हमारी दशा और दिशा नहीं सुधार पाएंगे ? क्या जीवन अगले 2700 वर्षों तक ऐसे ही चलेगा ?
अपूर्व भाई- महापुरूष मूर्तियों में बदल जाते हैं, उपदेश कर्मकाण्ड में, मनुष्य मात्र के दुःख कम नहीं होते।.. सुंदर पक्ष रखने के लिए आभार।
....इसके अतिरिक्त मैं उन सभी का आभारी हूँ जिन्होने मेरा उत्साह बढ़ाया और उनसे निराश जिन्होने कविता नहीं पढ़ी।
आज तक कुछ अभी नहीं बदला परिस्थितियां जैसी तब थी वैसी ही आज भी हैं. अच्छा सधा हुआ कटाक्ष
ReplyDeleteविजय दशमी की हार्दिक शुभकामनाएं.
ReplyDeleteकाफी सुन्दर और अर्थपूर्ण.
ReplyDeleteदशहरा की ढेर सारी शुभकामनाएँ!!
देवेन्द्र जी ,
ReplyDeleteसात चित्र आपने दिखाए ..
पहला दो गोरी, प्रौढ़, विदेशी महिलाओं का योगा ....
दूसरा पूजा के फूल तोडना ...
तीसरा मार्निंग वॉक...
चौथा बुद्ध की परिक्रमा...
पांचवां फूलों की बिक्री, सिक्कों का हिसाब ...
छठा ....दुत्कारे जा रहे भिखारी...
और जनाजा...
मैं अभी तक समझ नहीं पाई हूँ बुद्ध और उनके पाँच शिषयों से इनका क्या ताल्लुक है ....
स्पष्ट कीजियेगा ....भाव क्या हैं ....
विजय दशमी की बहुत बहुत शुभकामनाएं और बधाई
ReplyDelete@हरकीरत जी-
ReplyDelete...इसे कहते हैं, समझ के न समझने का अभिनय करना ! आप चाहती हैं कि इस बारे में मैं कुछ और लिखूं..जितना ऊपर लिखा जा चुका है उतना पर्याप्त है। मेरा और मेरे कमेंट में अंकित विद्वान साथियों का कमेंट पढ़ें और आपकी सजा यही है कि पढ़ने के बाद एक बार फिर अपने विचारों से सभी को अवगत कराएँ। अपनी कविता के बारे में कवि को स्वयं अधिक नहीं लिखना चाहिए..मैं यह गलती पहले ही कर चुका हूँ ..अब तो आलोचकों, समीक्षकों का कार्य प्रारंभ हुआ है। अपने कर्तव्यों से मुख मोड़ना अच्छी बात नहीं है।
बहुत सुन्दर कविता है देवेन्द्र जी, हमेशा की तरह.
ReplyDeleteविजयादशमी की अनन्त शुभकामनाएं.
बहुत सुंदर रचना ... ताज़ी ताज़ी सुबह का एहसास ...
ReplyDeleteyou rocks.
ReplyDeletethanks.
WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
दिखावे की दुनिया में यह भी एक भय युक्त अज्ञानी दिखावी प्रक्रिया है, और इसी के साक्षात दर्शन मिलते हैं आपकी इस कविता में...........
ReplyDeleteसंवाहक कथ्य पर हार्दिक बधाई...........
चन्द्र मोहन गुप्त
देवेन्द्र जी फिर आई थी .....
ReplyDeleteआपका जवाब पढ़ा और शीर्षक से लेकर सारी कवितायेँ भी .....
सवाल इसलिए पूछा था आपकी और एम् वर्मा जी की कवितायेँ हमेशा गहरे अर्थ लिए होती हैं ....
कविताओं का सम्पूर्ण अर्थ तो शीर्षक में ही छिपा है ...
@ओम नमः शिवाय.....की धुन में ....'योग' ....
@ समझ में न आने वाले मंत्र.....
सा.s.s.धु, सा.s.s.धु, सा.s.s.धु ।
@ मंदिर के बाहर...
दुत्कारे जा रहे थे भिखारी झुकी कमर, लाठी टेक मुश्किल से चल पा रहा था एक वृद्ध....
और मंदिर के भीतर बुद्ध के उपदेश थे ........
आपकी कलम हमेशा गंभीर व सशक्त विषयों पर ही चलती है ....
सुन्दर कविता है।
ReplyDeleteसब अपनी अपनी आवश्यकता की वस्तु ढूँढ रहे हैं, जिसके पास जो नहीं है वही।
एक बार फिर से सारनाथ ले जाने के लिए आभार।
घुघूती बासूती
...
ReplyDeletejab shabd nahi hote...
ReplyDeleteसशक्त
ReplyDeleteनिशब्द हूँ !!!!
ReplyDeleteA realistic composition,i liked it.
ReplyDeleteMandir ke saare nazare tatha aaspaas ghatne waalee ghatnayen aankhon ke aage se ghoom gayeen. Badee hee chitrmay shaili hai aapki.
ReplyDeleteसब अपने में खोये हैं.
ReplyDeleteबहुत ख़ूब देवेन्द्र जी! आपके ब्लॉग पर आना सार्थक हुआ...भाई!
ReplyDeleteसत्य सॉफ, सपाट और कड़ुवा भी होता है .... बहुत प्रभावी लिखा है ... गहरी छाप छोड़ता है ... बहुत ख़ूब देवेन्द्र जी ...
ReplyDelete2700 सौ साल बाद मूर्ति भी बची है,यही बहुत है।
ReplyDeleteजो भगवान हुआ मूर्ति बन कर रह गये जाने क्यों!
ReplyDeleteवचन उनके बस छप कर रह गये जाने क्यों
शब्दों से चित्रकारी...गजब!
ReplyDelete