मुझे याद है
घनी बरसात में
तुम चाहती थी
भींगना
और मैं
भींड़ की दुहाई दे
कोने में अड़ा था।
मुझे याद है
रिमझिम फुहार में
जिस पल
वृक्ष की सबसे ऊँची फुनगी पर बैठी चिड़िया
सुखा रही थी पंख
सज रहे थे
तुम्हारी बंद पलकों में
इंद्रधनुष
जग रही थी
उड़ने की चाह
और मैं
उड़न खटोले की जगह
छाता लिये
खड़ा था !
तपती धूप में
चलते-चलते
भूल जाता हूँ
सब कुछ
याद रहती है
मंजिल की दूरी
या जिस्म की थकान
मगर सावन में
याद आता है
बहुत कुछ
जैसे कि याद है
चोरी छुपे ही सही
जिंदगी के कुछ पल
जी लिया करता था
इतनी बुरी भी नहीं कटी
अपनी जिंदगी।
.............................................
मुझे याद है
ReplyDeleteरिमझिम फुहार में
जिस पल
वृक्ष की सबसे ऊँची फुनगी पर बैठी चिड़िया
सुखा रही थी पंख
सज रहे थे
तुम्हारी बंद पलकों में
इंद्रधनुष
जग रही थी
उड़ने की चाह
और मैं
उड़न खटोले की जगह
छाता लिये
खड़ा था !
.... waah
बहुत सुन्दर...बधाई
ReplyDeleteबहुत सुंदर ...स्वप्न और यथार्थ का बंधन ...!!
ReplyDeleteसुंदर रचना ..badhai.
पांडे जी
ReplyDelete......चोरी छुपे ही सही
जिंदगी के कुछ पल
जी लिया करता था
इतनी बुरी भी नहीं कटी
अपनी जिंदगी।
अति सुन्दर रचना....
अद्भुत पोस्ट!!
bahut sunder abhivykti........
ReplyDeletedono hee sapne dekhne wale ho jae to poora koun karega sapne........ha na......aapkee rachanae yatharth kee dhara par upajtee hai roots se judee hai...
Aabhar.
Aha ! quite romantic !
ReplyDeleteआपकी किसी पोस्ट की चर्चा नयी-पुराणी हलचल पर होगी.शनिवार (६-८-११)को.कृपया अवश्य पधारें...!!
ReplyDeleteसचमुच, सावन उतर आया है इस कविता में
ReplyDeleteनिहायत ही खूबसूरत रचना.
ReplyDeleteरामराम.
अद्भुत रचना.........
ReplyDeleteज़िन्दगी सावन में बरसती है, झरती है, टपकटी है, जबकि बाक़ी के साल भर कटती है।
ReplyDeleteचोरी छुपे ही सही
ReplyDeleteजिंदगी के कुछ पल
जी लिया करता था
इतनी बुरी भी नहीं कटी
अपनी जिंदगी।
क्या बात है
संतोष सबसे बड़ी बात है...
बस यही बात तो है देव बाबू........ज़िन्दगी को काटना नहीं है......जीना है.....जिंदगी न मिलेगी दुबारा |
ReplyDeleteबहुत सटीक अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति , बधाई
ReplyDeleteयथार्थ-परक सुन्दर अभिब्यक्ति,मगर सिर्फ सावन में ही ?
ReplyDeleteहमने भी मर्यादा के छाते में जिन्दगी निकाल दी।
ReplyDeleteइस बेकसिये हिज्र में मजबूरिये इश्क
ReplyDeleteहम उन्हे पुकारें तो पुकारे न बने .....
वाह ..एक मनःस्थति की कविता !
मुझे याद है
ReplyDeleteरिमझिम फुहार में
जिस पल
वृक्ष की सबसे ऊँची फुनगी पर बैठी चिड़िया
सुखा रही थी पंख
सज रहे थे
तुम्हारी बंद पलकों में.
गज़ब का अहसास. यही है जिंदगी.
आहा ! कहाँ गए वो सावन के jhoole ? अब तो बस यादें ही रह गई हैं ।
ReplyDeleteबढ़िया कल्पना और बेहतरीन शब्द चित्र उकेरते हैं आप ! हार्दिक शुभकामनायें !
ReplyDelete@इतनी बुरी भी नहीं कटी
ReplyDeleteअपनी जिंदगी।
..........................
बेहतरीन भाव,आभार.
वाह, काफी रोमांटिक कविता है...
ReplyDeleteअच्छी कविता... सावन तो है ही ऐसा महीना..
ReplyDeleteबहुत ही खूबसूरत कविता।
ReplyDeleteसादर
मुझे याद है
ReplyDeleteरिमझिम फुहार में
जिस पल
वृक्ष की सबसे ऊँची फुनगी पर बैठी चिड़िया
सुखा रही थी पंख
सज रहे थे
तुम्हारी बंद पलकों में
इंद्रधनुष
वाह ..बहुत खूब कहा है आपने ।
खूबसूरत अभिव्यक्ति. आभार.
ReplyDeleteसादर,
डोरोथी.
बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत खूब कहा है आपने
ReplyDeleteचोरी छुपे ही सही
जिंदगी के कुछ पल
जी लिया करता था
इतनी बुरी भी नहीं कटी
अपनी जिंदगी।
..........
वाह ! जी,
ReplyDeleteइस कविता का तो जवाब नहीं !
वाह! यहाँ तो सावन झूम के बरस रहा है.
ReplyDeleteगज़ब देवेन्द्र जी ... इतनी बुरी भी नहीं कटी जिन्दगी ... फिर उनके भीने की इचा की यादें भी तो हैं पास में ... रूहानी समा बाँध दिया इस रचना ने ...
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