जब भी दिवाली के अवसर पर कुछ लिखने का मन बनाता हूँ स्व0 चकाचक बनारसी की यह कविता इस कदर सर पर सवार हो जाती है कि कुछ लिखते नहीं बनता। आज भी इससे अच्छा क्या लिखा जा सकता है भला ! यही सोचकर रह जाता हूँ। इस कविता में उफ्फर पड़े शब्द का प्रयोग किया गया है। जिसका अर्थ हुआ भाड़ में जाय। निराशा की चरम अवस्था...उफ्फर पड़े।
स्व0 चकाचक बनारसी हास्य-व्यंग्य के चलते फिरते गोदाम थे। इनका जन्म 22 दिसम्बर सन् 1932 को हुआ। आपका वास्तविक नाम श्री रेवती रमण श्रीवास्तव था । बनारस के काली महल नामक मोहल्ले में रहते थे। आपने ऐसे समय हास्य-व्यंग्य के क्षेत्र में अपनी जगह बनाई जब बनारस में ही बेढब बनारसी और भैया जी बनारसी जैसे उन्ही की विधा में लिखने वाले राष्ट्रीय स्तर के प्रसिद्ध रचनाकार सक्रीय थे। वे जब तक जीवित रहे तब तक उन्होने अपनी एक भी पुस्तक प्रकाशित नहीं करवाई। चाहते तो कर सकते थे। उनके जाने के बाद उनके प्रेमियों ने विभिन्न मौकों पर उनके द्वारा बनारसी मंच पर सुनाई जाने वाली कविताओं का संकलन कर उसे एक पुस्तक का आकार दिया जो ई राजा काशी हौ के नाम से प्रकाशित है। वे काशिका में ही लिखते थे । बनारसी कविता प्रेमी श्रोताओं के लिए सिर्फ यह जानना ही पर्याप्त होता था कि बनारस में कहां कवि सम्मेलन हो रहा है, चकाचक तो वहां होंगे ही। दिवाली के अवसर पर उनकी प्रसिद्ध कविता दसमी दिवारी पढ़वाने का मन हो रहा है। प्रस्तुत है उनकी कविता....
दसमी दिवारी
अदमी के दुई जून रोटी हौS भारी,
त उफ्फर पड़े अब ई दसमी दिवारी।
मेहररूआ गुस्से में नइहर हौS बइठल,
ऊ साड़ी बिना दसमियैं से हौS अइंठल,
बाऊ क उप्पर से चटकल नशा हौS,
लड़िकन क घर में बड़ी दुरदसा हौS।
झनखत हौS हमरे पे बुढ़िया मतारी,
त उफ्फर पड़े अब ई दसमी दिवारी।
रासन में गइली त गेहूँ नदारद,
गेहूँ जो आयल त चीनी नदारद,
दुन्नो जो आयल त पइसा नदारद,
पइसा जुटवली त दुन्नो नदारद।
त्यौहारा दिन में इ आफत हौS भारी,
त उफ्फर पड़े अब ई दसमी दिवारी।
ऊ दिन लद गयल जब की सोरही फेकउली,
एक्कै फड़े पर हजारन गंवउली,
जो धइलेस पुलिस सबके हमही बचउली,
जे नाहीं बचल हम जमानत करउली।
न वइसन हौS जूआ न वइसन जुआरी,
त उफ्फर पड़े अब ई दसमी दिवारी।
दारू पियै वाला पीयत हौ ताड़ी,
गोदी कS लड़िका भी पीयत हौ माड़ी,
ई कइसे चली देस कS अपने गाड़ी,
कि मंत्री हो गइलन अबाड़ी कबाड़ी।
मुंहे से सबहन के निकसत हौS गारी,
त उफ्फर पड़े अब ई दसमी दिवारी।
सबत्तर कS मूड़े प कर्जा चपल हौS,
चिन्ता के मारे न आँखी झपल हौS,
कमाई औ खर्चा बरोबर नपल हौS,
उप्पर से मंहगी प महंगी तपल हौS।
दरिद्दर कS घर में डटल हौS सवारी,
त उफ्फर परै अब ई दसमी दिवारी।
सबै चीज त हमरे मूढ़े मढ़ल हौS,
ई लावा, मिठाई सबै त पड़ल हौS,
खेलउना बदे कल से लड़िका अड़ल हौS,
मकाने क भी टैक्स मूड़े चढ़ल हौS।
बिना टैक्स अबकी हौ कुड़की क बारी,
त उफ्फर पड़े अब ई दसमी दिवारी।
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कमेंट के बाद......
यह कविता आम
आदमी की पीड़ा को उसी के द्वारा बोली-समझी जाने वाली भाषा में की गई सफल अभिव्यक्ति है। कुछ ब्लॉगरों के कमेंट से ऐसा
एहसास हुआ कि वे क्लिष्ट हिंदी तो समझते हैं पर ठेठ भोजपुरी (काशिका) ठीक से नहीं
समझ पा रहे हैं। ऐसे पाठकों के लिए अपनी समझ से इसका अर्थ बताने का प्रयास कर रहा
हूँ।
जहां दुई जून
रोटी...दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करना भी कठिन हो वहां हर त्यौहार आम आदमी के लिए
मुसीबत का सबब बनकर आते हैं। उनके मुख से यही निकलता है कि हाय ! अब क्या करूं..? कैसे पत्नी को
मनाऊँ...? कैसे बच्चों को समझाऊँ..? कैसे
बूढ़ी हो चली माई को बताऊँ कि यह आप वाला जमाना नहीं है.....अब
महंगाई अपने चरम पर है। वह आक्रोश और गहन वेदना से चीखता है...उफ्फर पड़े...!
मतलब भाड़ में जाय, मर खप जाय..बिला जाय। उफ्फर पड़े अब ई दसमी
दिवाली। अदमी के दुई जून...दसमी दिवाली। इन दो पंक्तियों में जहाँ आम आदमी का दर्द
है, वहीं हास्य भी है। कह लीजिए यह वह करूण हास्य है जिसे कहने वाला तो रो-रो कर
कहता है..सुनने वाला सुनकर बरबस ही हंस देता है।
मेहररूआ...दुरदसा
हौ।
ये पंक्तियाँ
सभी के समझ में आ गई होंगी। कुछ भी कठिन नहीं है। हौ..काशिका में... है के लिए है।
हौ बनारसी बोली में जरा खींच कर बोलते हैं..हौs।
पति के त्यौहार में कुछ न करने से पत्नी नाराज हो कर अपने मयके चली गई है। एक
साड़ी भी नहीं दिला सकता मेरा पति ! बाबू जी का भी नशे का मूड
बन रहा है..वे भी अपने कमाऊ पूत की ओर ही निहार रहे हैं। पत्नी के रूठ कर चले जाने
से बच्चे बेहाल हैं। झनखत हौ....क्रोध में झुंझला रही है बूढ़ी माई...तो ऐसे में
क्या कहे...उफ्फर पड़े..! भाड़ में जाय यह दसमी दिवाली।
रासन...नदारद।
शहरी आम आदमी
अन्न के लिए रासन की ओर देखता है। रासन की दुकान में एक चीज मिलती है तो दूसरी खतम
हो जाती है। पैसा जुटवली...पैसा जुटाया…
तो दुन्नो नदारद—दोनो चीज गायब हो गई। त्यौहार के दिन में घर में अन्न न हो तो
कितना बड़ी आफत है। ऐसे में वह क्या कहे....उफ्फर पड़े ई.....!
ऊ दिन...जुआरी।
कवि इन
पंक्तियों में उन दिनो को याद कर रहा है जब दिवाली के अवसर पर धूम धाम से जुआ होता
था। महीनो जुए के अड्डे चलते थे। लोग बाग,
खाना पीना भूलकर रात-दिन जुए में लिप्त रहते थे। सोरही
फेकउली...जूए का एक खेल जो कौड़ियों से खेला जाता था। पासे फेंके जाते थे। फड़...जुए
के अड्डे पर की बैठकी जिसमें कई लोग सम्मिलित होते हैं। एक बैठकी में ही हजारों
रूपिया हार जाने वाले जुआरी। पुलिस का छापा...धर पकड़...जमानत कराने का वो रोमांच।
दिवाली के दिन में अब न वैसा जुआ होता है और न वैसे जुआरी ही रह गये हैं। मतलब अब
तो दीवाली का रोमांच ही जाता रहा। अब क्या मजा है दिवाली में..सब बेकार। उफ्फर
पड़े ई....!
दारू...गारी।
इन पंक्तियों
में महंगाई का दर्द है। नशेड़ी जहां शराब भी नहीं पी पा रहे हैं वहीं माएँ अपने
बच्चों को चावल की माड़ पिलाकर चुप करा रही हैं। मंत्री हैं कि कुछ कर ही नहीं रहे
हैं..! अबाड़ी-कबाड़ी..मतलब बेकार के हैं। आम जन का कुछ भी
भला नहीं कर रहे हैं। इनके कारनामे को याद कर तो मुंह से गाली ही निकलती है। ऐसे
मे क्या करे...? उफ्फर पड़े ई......!
सबत्तर....सवारी।
इन पंक्तियों
में चपल..झपल..नपल..तपल जैसे बनारसी शब्दों का सुंदर प्रयोग है। चपल हौ...दबाव है।
झपल हौ...झपकी नहीं लग रही है। बरोब्बर नपल हौ.....आमदनी और खर्च दोनो का अनुपात
एकदम बराबर है। जरा सा भी आमदनी कम हुई तो भूखे सोना तय। तपल हौ...ताप, यहां
महंगाई की ताप। जैसे जेठ धूप में आदमी झुलस जाता है वैसे ही महंगाई की गर्मी महसूस
करता है। दिवाली में मान्यता है कि घर से गरीबी दूर करने के लिए दरिद्दर खदेड़ा
जाता है। दरिद्दर भगाया जाता है। मगर यहां तो उल्टा ही है। दरिद्रता की सवारी डंटी
हुई है ! घर से जाने का नाम ही नहीं ले रही है। ऐसे में वह
क्या कहे...? उफ्फर पड़े ई....!
सबै चीज...बारी।
सब कुछ तो मुझे
ही खरीदनी है। मैं ही तो घर का कमाऊ पूत हूँ। सब कुछ तो मेरे ही...मूड़े मढ़ल
हौ...मेरे ही सर लदा है। दिवाली में लावा, मिठाई और बच्चों के खेल के लिए
बम-फुलझड़ियाँ खरीदना अत्यंत जरूरी है। सब कुछ तो खरीदना बाकी ही है। इतना ही
नहीं...अभी तक मकान का टैक्स भी जमा नहीं किया !
सरकार की तरफ से टैक्स न जमा कर पाने पर घर को कुर्क करने..नीलाम करने का फरमान भी
जारी किया जा चुका है। ऐसे में क्या करे...क्या कहे आम आदमी जब दिवाली आ जाय...?
उफ्फर पड़े ई दसमी दिवारी।
इस कविता को जब
चकाचक मंच से सुनाते थे तो उनके कहने के अंदाज पर लोग कहकहे लगाते थे और अर्थ समझ नम होती पलकें, चुपके से आँसू पोछती भी नज़र आती थीं। हास्य
व्यंग्य की इसी गहराई का नाम था....चकाचक बनारसी। मुझे लगता है कि आज भी यह कविता प्रासंगिक है। अवसर देखकर इनकी और भी बेहतरीन
कविताएँ पढवाउंगा।
...इस पोस्ट से
जुड़ने के लिए सभी का आभार।
चकाचक को हम गाण्डीव के माध्यम से नियमित पढ़ते थे। उनका जवाब नहीं था। आपका शुक्रिया इस पोस्ट को लगाने के लिए। चकाचक की यह किताब किस प्रकाशन से छपी है ?
ReplyDeleteआपका शुक्रिया |||
ReplyDeleteउफ्फरते बाबा करें, व्यंग चकाचक खूब |
कवि-सम्मेलन में सभी, सुन-सुन जाते डूब ||
साड़ी पर खरचे रकम, पूरी भी दरमाह |
मेहरारू जइबे करी, मइके को दो माह ||
उफ्फर पड़ कोई कितो, पड़ा करे नित-मार |
इधर गिरानी मारती, उधर काटती नार ||
बनारसी बाबा अमर, रहे चकाचक नाम |
गंगा की धारा रहे, विश्वनाथ का धाम ||
जितना समझे, उतना हँसे।
ReplyDeleteवाह ... ये रचना इतनी ही चका चक आज भी है ... मज़ा आ गया ...
ReplyDeleteek aamadami ki sata katha.....
ReplyDeletejai baba banaras.....
पइसा जुटउली ,तो दुन्नौ नदारद ..... बड़ी बात कहि दियो चकाचक के सौजन्न ते !
ReplyDeleteदिवाली पर उनकी यह रचना और आपका चयन लाज़वाब !
दिवाली की असीम शुभकामनाएँ !
देवेन्द्र जी. इस दिवाली के लिए क्या '' कैटरीना बम '' ले कर आयें हैं.खूब चलेगी..
ReplyDeletesach mein deewali to unhi ki sahi mayane mein hoti hai jo hansi khushi ghar-grahsthi chala paate hai varna chakachak ji ni sabkuch khari-khari kah dee hai, yahi sab hota hai....
ReplyDeletebahut hi saarhak aur prerak prastuti hetu aabhar!
सच्चे देवेंदर भाई इ ऊफ्फर पडे ...बड़ी नीमन और चौचक कविता बा हो चकाचक बनारसी का
ReplyDeleteतबौ दिवाली का शुभकामना तोःके बच्चन और मैडम क
Bahut sundar
ReplyDeleteगिरिजेश जी ने आलस त्याग कर बताया....
ReplyDeleteहमलोगों की ओर भोजपुरी में एक बददुआत्मक गाली होती है - 'उखरि परे' माने 'मर जाय'।
...उफ्फर पड़े का भी लगभग वही अर्थ है। भाड़ मे जाय..मर खप जाय।
रंगनाथ सिंह जी....
पुस्तक का प्रकाशन
चकाचक बनारसी जनसेवा ट्रस्ट
सी.13/117 काली महल, वाराणसी-221001
..द्वारा सन् 2002 में किया गया है।
शुभकामनाएं ||
ReplyDeleteरचो रंगोली लाभ-शुभ, जले दिवाली दीप |
माँ लक्ष्मी का आगमन, घर-आँगन रख लीप ||
घर-आँगन रख लीप, करो स्वागत तैयारी |
लेखक-कवि मजदूर, कृषक, नौकर व्यापारी |
नहीं खेलना ताश, नशे की छोडो टोली |
दो बच्चों का साथ, रचो मिलकर रंगोली ||
:)
ReplyDeleteबढ़िया चीज पढ़ाये। मस्त।
आपको व आपके परिवार को दीपावली कि ढेरों शुभकामनायें
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति ..
ReplyDelete.. सपरिवार आपको दीपावली की शुभकामनाएं !!
बहुत सारे भूले-बिसरे शब्द याद आ गए.दीपोत्सव की शुभकामनायें.
ReplyDeleteइस चकाचक कविता के लिये आभार!
ReplyDeleteWaah kya baat hai bahut khoob.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रस्तुति ... दीपावली की शुभकामनाएँ
ReplyDeleteचकाचक जी का जवाब नहीं....
ReplyDeleteदीप पर्व की सादर शुभकामनाएं....
५ साल बाद दिवाली में बनारस उतर के ही दिवाली का सुख फिर से समझ आया है।
ReplyDeleteधन्यवाद इस कविता के लिए, दिवाली की हार्दिक शुभकामनाएँ।
निहायत उम्दा कविता ......
ReplyDeleteदेव बाबू आपका जवाब नहीं.........ज़बरदस्त बम है ये चकाचक जी की कविता और आपने उनका परिचय दिया इसका आभार |
ReplyDeleteआपको और आपके प्रियजनों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें|
चर्चा मंच पर आपके ब्लॉग का लिंक मिला, सच में आज के हालत से मिलती कविता पढवाई आपने..|
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति|
दिवाली की हार्दिक शुभकामनायें!
जहां जहां भी अन्धेरा है, वहाँ प्रकाश फैले इसी आशा के साथ!
chandankrpgcil.blogspot.com
dilkejajbat.blogspot.com
पर कभी आइयेगा| मार्गदर्शन की अपेक्षा है|
आपको दीपावली की शुभकामनाएं !!
ReplyDeleteआपकी व्याख्या /भाष्य ने इस पोस्ट को और भी संग्रहनीय बना दिया है -
ReplyDeleteदीपावली पर आपको व परिवार को हार्दिक शुभकामनायें !
ReplyDeleteकविता के भाव समझ आते हैं और दर्द भी महसूस करवाती है....
ReplyDeleteआभार इस प्रस्तुति के लिए.
दीपावली कि हार्दिक शुभकामनाएं.
चकाचक जी की यह रचना आम आदमी की दशा का चित्रण करती है और उसकी तटस्थता के कारण का भी विस्तार करती है.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और आज के हालात के समकक्ष रचना