उठल डंड़ौकी, चलल हौ बुढ़वा, दिल में बड़ा मलाल बा।
बड़कू क बेटवा चिल्लायल, निन्हकू चच्चा भाग जा
गरजत हौ छोटकी क माई, भयल सबेरा जाग जा
घर से निकसल, घूमे-टहरे, चिन्ता धरल कपार बा
उठल डंड़ौकी, चलल हौ बुढ़वा, दिल में बड़ा मलाल बा।
घर में बिटिया सयान हौ, बेटवा बेरोजगार हौ
सुरसा सरिस, बढ़ल महंगाई, बेईमान सरकार हौ
काटत-काटत, कटल जिंदगी, कटत न ई जंजाल बा
उठल डंड़ौकी, चलल हौ बुढ़वा, दिल में बड़ा मलाल बा।
हमके लागला दहेज में, बिक जाई सब आपन खेत
जिनगी फिसलत हौ मुठ्ठी से, जैसे गंगा जी कs रेत
मन ही मन ई सोंच रहल हौ, आयल समय अकाल बा
उठल डंड़ौकी, चलल हौ बुढ़वा, दिल में बड़ा मलाल बा।
कल कह देहलन, बड़कू हमसे, का देहला तू हमका ?
खाली आपन सुख की खातिर, पइदा कइला तू हमका !
सुन के भी ई माहुर बतिया, काहे अटकल प्रान बा!
उठल डंड़ौकी, चलल हौ बुढ़वा, दिल में बड़ा मलाल बा।
ठक-ठक, ठक-ठक, हंसल डंड़ौकी, अब त छोड़ा माया जाल
राम ही साथी, पूत न नाती, रूक के सुन लs, काल कs ताल
सिखा के उड़ना, देखा चिरई, तोड़त माया जाल बा
उठल डंड़ौकी, चलल हौ बुढ़वा, दिल में बड़ा मलाल बा।
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कठिन शब्द..
डंड़ौकी = लकड़ी की छड़ी जिसे लेकर बुजुर्ग टहलने जाते हैं। बच्चों को नींद से जगाने के लिए सोटे के रूप में भी इसका इस्तेमाल कर लेते हैं।
माहुर बतिया = जहरीली बातें।
दिल में बड़ा मलाल बा.....पर कबिता पढ़के कौनो मलाल नय है !
ReplyDeleteबड़ा नीक लागल हो ई परयास !
बुढवा की आत्मा को भगवान् शान्ति दें -कहीं राजघाट से नीचे न झाँकने लगे बुढवा:)
ReplyDeleteअद्भुत रचना -हमारे परिवारों की रोज रोज की खिच खिच का सहज दृश्य साकार गयी यह कविता !
आपसे कविता स्वयमेव झर झर निकल पड़ती है !
देवेन्द्र जी बहुत ही सुन्दरता से भाव व्यक्त किये हैं ....कई बार पढ़ी ...
ReplyDeleteबधाई इस रचना के लिए ...
वाह! गज़ब्ब!
ReplyDeleteदेवेन्द्र जी ! रउरा त बड़ा सुघर भोजपुरी लिखले हई ! बहुत बहुत बधाई !
ReplyDeleteभले थोड़ा कम बुझाया हो पर आनन्द पूरा आया।
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteसुन्दर......शानदार......'लाग' को दर्शाती ये पोस्ट बहुत ज़बरदस्त है और आपकी बोली चार चाँद लगा रही है.........बहुत पसंद आई |
ReplyDeleteलागत हौ ई हमे याद कर लिखले हौआ. हमार भी यही हाल हौ.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति.
ReplyDeleteदेवेन्द्र जी यी भोजपुरी कविता बड़ा अच्छ लागल ! अगर एके गीत में बदल दिहल जाय तब और सुन्दर हो जाई ! बधाई बा
ReplyDeleteबहुते नीमन !
ReplyDeleteमूलत ; हम भी बनारस के ही हैं लेकिन इ भाषा बुझ तो लेते है पर बोल नाहीं सकत :)
ReplyDeleteगाँव की याद आ गयी. माहुर शब्द बहुत दिनों बाद सुना. ये गीत कहीं बिहार के जट्टा-जट्टी वाले गीत की तर्ज पर तो नहीं है?
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...
ReplyDeleteक्या बात है!!
ReplyDeleteबहुत ही मीठी सी रचना .बस दो -चार बार पढ़ना पड़ा . बढ़िया लिखा है.
ReplyDeleteभोजपुरी में इतनी सुंदर कविता पहली बार पढ़ी। बेहतरीन लय और रस में डूबी...सादी, सरल, गाँव के चित्र जैसी मोहक। मन खुश हो गया। पटना में काफी दिन रही हूँ और कुछ करीबी मित्र भोजपुरी बोलते थे इसलिए समझ तो लेती हूँ अच्छे से पर बोल नहीं पाती।
ReplyDeleteकुछ साल पहले टूटा-फूटा बोल लेती थी, अब तो वो भी नहीं। बहुत बहुत बधाई इस कविता के लिए।
Where is my comment sir? (check your spam comments)
ReplyDeleteबहुतै जब्बर, गुरु .
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति...
ReplyDeleteवाह देवेन्द्र जी ... मजा आइल गया ... का जम के धोल जमाये हो आज ...
ReplyDeleteवां ... बहुत ही मस्त लगा ये गीत ...
धन्यवाद इमरान भाई। 10 कमेंट स्पैम थे। मैं हैरान था कि लोग पढ़ रहे हैं तो कमेंट काहे नहीं कर रहे हैं!
ReplyDeleteपांडे जी! मस्त है भाई! एकदम चकाचक... चौचक!! अब का कहें पाबंदी है नहीं त काशी नाथ सिंह चेप देते!!
ReplyDelete@mukti...
ReplyDeleteबिहार का जट्टा-जट्टी वाला गीत..!.. मैने नहीं सुने।
@सलिल भैया..
काशी नाथ सिंह लिखना ही पर्याप्त है।
इस पोस्ट पर पूजा जी, भाई ओझा और prkant के कमेंट देख तबियत हरियर हो गई है। घूरे के भाग जगे:-)
बहुत ही मार्मिक कविता....
ReplyDeleteलगा..गाँव का कोई वृद्ध अपने मन की बातें बोल रहा हो...
भोजपुरी इस कविता को ख़ास बना गयी...
जिंदगी का सार, खास कर आखिरी चार पंक्तियों मे! बहुत बढ़िया लिखा है, देवेन्द्र भाई!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति ||
ReplyDeleteThe more different are among them, in my point of view, Very well written and certainly a pleasure to get into a blog
ReplyDeleteFrom everything is canvas
हमके लागला दहेज में, बिक जाई सब आपन खेत
ReplyDeleteजिनगी फिसलत हौ मुठ्ठी से, जैसे गंगा जी कs रेत
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सच्ची बात।
मैं सवा-डेढ़ हाथ लम्बा बेटन ले कर जाता हूं सैर को। उसका भी कोई भोजपुरी/अवधी नाम है? या मात्र छोटी डंडौकी कहा जायेगा उसे?
ReplyDeleteआपसे पूर्वानुमति के बिना इसे फेसबुक पर सांझा कर दिया है...
ReplyDeleteहृदयहारी...अद्वितीय !!!!
वाह, बहुतै मस्त।
ReplyDeleteनिर्झर प्रतापगढी की याद हो आई। वह भी इसी तरह देशज शब्दों से गजब के भाव प्रकट करते हैं। बहूत खूब।
उठ जाग मुसाफ़िर भोर भई ...
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