कटे बांस के
दो टुकड़ों संग
बंधी हुई डोरी।
मैं पतंग हूँ
उड़ना चाहूँ
उड़ा मुझे होरी।।
अरे ! संभल के
ठुमकी ठुमकी
नील गगन आया
ढील न इतना
खींच मुझे अब
फटती है काया
शातिर दुनियाँ
छूट ना जाए
अपनी यह जोरी।
एक न मानी
पेंच लड़ाई
सौतन से तूने
कटी मैं मगर
मेरी नज़र से
तू ही लगा गिरने
लगे लूटने
कई हाथ अब
मैं तो थी कोरी।
......................
...सब कुछ करना मगर पतंग कोरी ही रखना :-)
ReplyDeleteबाद में ही टीपता हूँ !
यह कैसे संभव है!
Deleteउन्हें कोरी पे ही संतोष होना है तो कोई क्या कर सकता है :)
Deleteअली साब ,आपको जूठी पसंद है क्या ?
Deleteसंतोष जी..
Deleteजहां गहरी संवेदना होनी चाहिए वहाँ उपहास..! थोड़ा ध्यान दें.. कविता असहाय नारी के प्रति लोकभावना भी उजागर करती है।
@ देवेन्द्र जी ,
Deleteआपकी भावनाओं का सम्मान करते हुए साइड वाली लाइन से गेंद गोल में डाल रहा हूं :)
@ संतोष जी ,
अब आपसे दोनों अर्थों में बातें कर ली जायें :)
(१) आप को 'कोरी' पसंद , हमें सब 'जात' की :)
(२) हमें तो कोरी / जूठी / झूठी / सब पसंद हैं इस मामले में भेदभाव कैसा :) ये तो आप हो जो मर्यादा पुरुषोत्तम से सबक नहीं लेते ! उन्होंने तो साबित ही किया कि जूठन भी खाई जा सकती है अगर खिलाने वाला प्रिय हो तो :)
Devendra ji
Deleteआपकी भावनाओं तक न पहुँच पाने का बड़ा अफ़सोस है .कृपया अन्यथा न लें.
संतोष जी...
Deleteआपने मेरी भावनाओं को समझा इसके लिए हम आपके आभारी हुए। जो, जितना लेता हूँ बता देता हूँ कोई उधारी खाता नहीं रखता।..कृपया अफसोस न करें।
डोर, खपच्ची, पन्नी, हवा, उड़ान
ReplyDeleteपतंग को जीवन सा बना दिया आपने। हम तो कब से कटने को तैयार बैठे हैं।
संक्रांत के आते ही चरों तरफ पतंग उड़ाने की ललक ....लड़कों में अजीब सा जोश दीखता है ...पर पतंग के मनोभावों को जिस खूबसूरती से आपने उकेरा है ...जैसे जीवन से जोड़ा है ...काबिले तारीफ़ है ...गहन ...दार्शनिक अभिव्यक्ति है ...जीवन से जुड़ी हुई ...
ReplyDeleteतो आप रात में भी पतंग उड़ाते हैं।
ReplyDeleteअफसोस! आप दिन में भी देख कर नहीं बताते कि कैसी उड़ाई:)
Deletenaye bimb liye hain aapne jindgi ke ......
ReplyDeleteहाँ देवेन्द्र भाई, पतंग डोर से बंधी रहे...डोर किसी के हाथ में रहे तब तक ठीक है, वरना समझो कटना-फटना-लुटना तो तय है...!!
ReplyDeletePatang aur nari man .... Dono ki bhavnayen Bahut Kemal hoti hain ... Preet ki dor se bandhni padti hain ...
ReplyDeleteबहुत खूब , अंत में;
ReplyDeleteतू डोर मैं पतंग तोरी
ना कर जोरा- जोरी :) :)
चली चली रे देव बाबू की पतंग :-)
ReplyDeleteमजे ले ले तू भी मेरे संग:)
Deleteबहुत अच्छी है पतंग की व्यथा कथा ..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteआभार!
पतंग को कस कर ही पकडे रहना पड़ता है ।
ReplyDeleteज़रा ढील दी नहीं कि लगी डगमगाने । :)
जी अच्छा! लैपटॉप छोड़ते ही पकड़ लुंगा:)
Deleteदेवेन्द्र भाई! कविता तो बिलकुल सीधी मस्तिष्क से ब्लॉग में उतारी है.. सुधार, कमी वगैरह दूर करने बैठे तो कविता कोरी न रह जायेगी..
ReplyDeleteऔर इस पतंग के बारे में क्या कहूँ.. कोरी ही धर दीनी पतंगिया!! :)
धन्यवाद..छेड़छाड़ न करने के लिए:)
Deleteपतंगिया हो या हो चदरिया..मूरख मैली कीन्हीं...
ओढ़ सको तो ऐसे ओढ़ो जैसे ओढ़े...कबीरा
दास कबीर ने ओढ़ी चदरिया..ज्यों की त्यों धरी दीन्हीं।
बांस अमूमन कच्चा नहीं हो तभी पतंग का फायदा है और चलन भी यही है ,प्रतीकात्मक रूप से बांस की कमचियां पतंग के साथ अपने से दूर करने / त्यागने का अर्थ आप उभार पाये हैं ! होरी के संग और होरी से दूर पतंग की उड़ने की इच्छा ,नील गगन का असीम विस्तार और पतंग की देह सीमाओं का अदभुत खाका खींचा है आपने ! बिछड़ने की आशंका , दुनिया का शातिरपन और सौतन नाम की प्रतिस्पर्धा के ताने बाने में आपने मानवीय संबंधों के बदलते आयाम उजागर किये हैं ! कुल मिलाकर कविता के बहाने समाज की बखिया उधेड़ दी आपने !
ReplyDelete( आज देर रात लिखी है यह टिप्पणी , अभी वैसे ही पोस्ट किये दे रहा हूं ! संभव है इसमें कुछ कमियां शेष रह गई हों ! अगर आपकी आपत्ति हुई तो पुनर्लेखन का प्रयास करूँगा ! साभार :) )
आपका कमेंट, पतंग के अर्थ बता कर स्पैम में घुस गया था। सुबह पकड़ कर निकाला और आदर के साथ पोस्ट में बिठा दिया। ...आभार।
Deleteआज देर रात...को जैसे आपने लौटाया उससे यही नसीहत मिलती है कि कविता के साथ कुछ भी भूमिका या सफाई लिखना कविता की जान निकालने के लिए पर्याप्त होता है।..पुनः आभार।
माने आपने हमारा नाम स्पैम स्क्वाड को नोट करा रखा है :)
Deleteसुंदर प्रस्तुति के लिए आभार।
ReplyDeleteलोहड़ी की शुभकामनाएं।
धन्यवाद। लोहड़ी के साथ मकर संक्रांति की भी शुभकामनाएं।
Deleteआज देर रात पढी है यह कविता ....जैसी लिखी वैसी ही पढी .......जैसी पढी वैसी ही समझी .....समझने में कुछ कमी रह गयी होगी तो आज देर रात फिर से पढ़ कर समझने की कोशिश करूंगा ......
ReplyDeleteवैसे आपने जयपुर की याद दिला दी पाण्डेय जी ! जोकि मौसम को देखते हुए अच्छी बात नहीं है .....खैर, आप अपनी पतंग को कस कर पकड़े रहिएगा ...मोहल्ले के छोरे बांस में झाँखर लगा कर वो लूटा......वो लूटा ......करने के लिए घात लगाए बैठे हैं.
पतंगें जब आसमान में एक दूसरे को देखती हैं तो बातें भी करती हैं आपस में ...."कमला" की तर्ज़ पर पूछती हैं-"तुझे कित्ते में खरीदा रे ?" दूसरी बोलती है - "अरे ! वो छोड़ ....ये सोच कि ये मुए हमें खरीदते भी हैं और आसमान में ले जाकर आपस में लड़वाते भी हैं ...हम शहीद होती हैं तो भी नहीं छोड़ते ...इनके पीलामन ( बच्चे ) ज़मीन पर आने से पहले ही लूट भी लेते हैं.....हम कब तक लुटते रहेंगे यूँ ही ?"
हा..हा..हा..तबियत खुश हो गई। आपको पता है जब मैं यह कविता लिख रहा था तो मैने कई बार पतंगों से उनकी बातचीत भी लिखी थी, आपकी ही तर्ज पर। फिर उसे मिटा दिया। कविता के खाके से बाहर जा रही थी बातचीत। इसी अंदाज में एक व्यंग्य आलेख लीखिए..नहीं तो मुझे ही मेहनत करनी पड़ेगी। ..शुक्रिया।
Deleteबहुत सुन्दर है यह देर रात लिखी कविता ..
ReplyDeleteबिम्बात्मक और जीवन दर्शन से युक्त
धन्यवाद सर जी।
Deleteजीवन दर्शन का क्या है! रात में ही आते हैं सुबह विस्मृत हो जाते हैं:)
पतंग के माध्यम से जीव और सामाजिक बंधन के साथ ही
ReplyDeleteअसहाय नारी के प्रति लोकभावना का अच्छा विश्लेषण किया है ।
घाटों वाला लेख कुछ जमा नहीं । घर ने भी मुझे प्रभावित नहीं किया ॥
आपको पतंग पसंद आई इसी पर मगन हूँ। क्या हुआ जो घर के रहे न घाट के!:)
Deleteआपकी बेबाक टिप्पणी और मन से ब्लॉग को पढ़ने के लिए ह्रदय से आभारी हुआ।
ee nayka tip-pranali samajh nahi aa raha isliye yahin tip raha hoon...
Deletepichle 3 din se 'apko apne nirnay pe afsos na ho' pe vichar kar raha hoon.........jald hi kuch prayas kiya jayega.....bharosa banaye rakhenge......
pranam.
बनाये हूँ..मगर आप लिख ही डालिए:) इत्ता काहे सोच रहे हैं!
Deletearre waah.good imagination.
ReplyDeleteशनिवार 14-1-12 को आपकी पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
कटी फटी फिर भी लुटी पतंग :)
ReplyDeleteपतंग के बारे में हमारे ख्यालात कितने मिलते हैं !
DeleteWah, bahut khub...bahut sundar
ReplyDeletewww.poeticprakash.com
प्रकाश जैन जी..इस अढ़ी में आपकी स्वागत है।..आभार।
Deletebahut sundar. thode shabdon mein bahut kuchh kah diya.
ReplyDeleteधन्यवाद।
DeleteKavita to sundar hai hee...' Makar Sankranti' ye aalekh bhee bahut badhiya laga!
Deleteपतंग पर आलेख और कविता दोनों पढ़ी...
ReplyDeleteबचपन की यादों में शामिल रहती है,पतंग....और धीरे-धीरे वह भावनाओं को व्यक्त करने का माध्यम बन जाती है..
सुन्दर कविता
कटती लुटती उड़ती पतंग....सुन्दर अभिव्यक्ति...मकरसंक्रांति की शुभकामनाएँ
ReplyDeleteवाह पांडेयजी मजा आ गइल।
ReplyDeleteपतंग के माध्यम से सुरु में लगा कि इश्वरीय शक्ति का आदमी को चलाने का भाव ब्यक्त हो रहा है,मगर बाद में ये बात नजर नहीं आई.हाँ,पतंग के बारे में अछ्छी कविता है.
ReplyDeleteऐसे सुबह सुबह सेंटी करने का तो नहीं हो रहा था देवेन्द्र जी। :)
ReplyDeleteपतंग उड़ाना नहीं सीख पाया मैं ढंग से. पर बावजूद उसके खिचड़ी पर बनारसियों की रग-रग से सद्दी-मांझा ही बोलता है।
कविता तो खैर है ही बढ़िया।
बचपन में हम कहते थे, पतंगबाज़ आपने हाथ की लकीरें खुद लिखता है, मांझे से काट-काट के।
आपको और आपके सभी प्रियजनों को मकर-संक्रांति (खिचड़ी) की हार्दिक शुभकामनाएँ।
आपको भी खिचड़ी की बधाई। अरे..! आप बनारस आते और चले जाते हैं। एक मेल ही कर देते..ऐसी क्या नाराजगी?
Deleteनाराजगी!! नहीं तो?
Deleteअबकी जब आना हुआ तो सूचित करूँगा। :)