जाड़े की
कुनकुनी धूप तो वैसे ही सुखदायी होती है। गंगा का तट हो, बनारस के घाट हों और जेब
में भुनी मूंगफली का थैला हो तो कहना ही क्या ! कदम अनायास ही बढ़ने लगे अस्सी घाट से दशाश्वमेध घाट की ओर। साथ में
अस्सी निवासी शुक्ला जी भी थे। शुक्ला जी रह रह कर घाटों के बारे में अपनी जानकारी
दे रहे थे और मैं उनकी जानकारी से बेपरवाह गंगा की लहरों, यात्रियों को लेकर
आती-जाती नावों, विदेशी यात्रियों की चहल कदमियों, बच्चों के खिलंदड़पने और घाटों
पर दिखने वाले अनगिनत रोचक दृश्यों को मुग्ध भाव से देखता, शुक्ला जी की बातें सुन
सुन कर हाँ.. हूँ.. करता, मुंगफली छीलता, कुटकुटाता चला जा रहा था।
जब ‘तुलसी घाट’ आया तो शुक्ला जी फिर शुरू हो गये... यह तुलसी घाट है। यहीं गुफा में
बैठकर तुलसीदास जी ने रामचरित मानस की रचना की थी। रामचरित मानस की हस्तलिखत
पांडुलिपी तो चोरी हो गई लेकिन उनकी नाव और खड़ाऊँ अभी भी वहां ऊपर, हनुमान मंदिर
में रखी हुई है। आपने तो अखबार...
हाँ शुक्ला जी ! ई तो हम जान ही गये हैं। तुलसी घाट आजकल समाचार
पत्रों की सुर्खियों में है। यहां के हनुमान मंदिर से 450 वर्षों से भी अधिक समय
से रखी रामचरित मानस की हस्तलिखित पाण्डुलिपी चोरी हो गई है। जनता मांग कर रही है
पुलिस प्रशासन से। भारत सरकार का खुफिया तंत्र सक्रीय है। कुछ की गिरफ्तारियाँ भी हुई
हैं, तलाश जारी है। मगर वहां देखिये ...हम मफलर, टोपी, स्वेटर, जैकेट, लादे घूम
रहे हैं और वे कैसे नंग धड़ंग कच्छा-लिंगोट पहने ठंडे पानी में कूदे जा रहे हैं
!
हाँ ! इनकी तो यह रोज की दिनचर्या है। घाटों के किनारे रहने
वाले बहुत से लोग रोज गंगा तट पर नहाते-धोते हैं। यहाँ की जुबान में इसे साफा-पानी
लगाना कहते हैं।
हम अनवरत चले जा
रहे थे और शुक्ला जी अपनी लय में घाटों की जानकारी दिये जा रहे थे..
तो मैं कह रहा
था कि यह जो तुलसी घाट के बगल में भदैनी घाट है इसका महत्व इतना ही है कि
यहां वो.. जो देख रहे हैं न ! विशाल पंपिंग सेट है।
अब भले चुल्लू भर मिलने लगा है लेकिन किसी जमाने में यहीं से पूरे बनारस को
पर्याप्त पानी की सप्लाई होती थी।
क्यों ? महारानी लक्ष्मी बाई का जन्म भी तो इसी मोहल्ले में
हुआ था ?
हाँ, वह तो है लेकिन उस जमाने में अस्सी घाट का विस्तार
असी नदी से भदैनी घाट तक था।
मतबल आप यह कहना
चाहते हैं कि महारानी लक्ष्मी बाई का जन्म आपके मोहल्ले में हुआ था ?
अरे नहीं..! भदैनी ही मान लीजिए। मैं यह नहीं कह रहा कि इस घाट का
महत्व नहीं है लेकिन बनारस के लोग भदैनी घाट को ‘लक्ष्मी बाई’ के नाम से नहीं इसी ‘पंपिंग सेट’ के कारण जानते हैं ! जिससे पीने के पानी की सप्लाई
होती थी।
वह देखिये
शुक्ला जी ! बूढ़ा माझी कितनी मेहनत से कुछ
सुलझा रहा है ! 10-12 साल का लड़का (शायद उसका नाती होगा)
कितनी तनमयता से उनकी मदद कर रहा है ! वह कर क्या रहा है ?
वह मछली के जाल
सुलझा रहा है। अपनी तैय्यारी में लगा है।
यह माता
आनंदमयी घाट है। माँ आनंदमयी की कर्मभूमि है। 1944 में माँ आनंदमयी ने
अंग्रेजों से घाट की जमीन खरीदी और घाट तक एक आश्रम का निर्माण कराया। आज भी यहाँ
कन्याएं संस्कृत का अध्ययन करती हैं। उनके लिए हॉस्टल बना है।
हूँ.....
इस कच्चे घाट को
मीलिया घाट कहते हैं......
हूँ.....
यह वच्छराज
घाट है। जिसे एक व्यापारी वक्षराज ने बनवाया...
हूँ........
यह जैन घाट
है। इसका निर्माण जैनियों ने 1931 में कराया।
हूँ....
यह निषादराज
घाट है। निषादराज घाट नाम इसलिए पड़ा कि इसके आसपास निषादों की बस्ती है।
हूँ....
यह प्रभु घाट
है। इसका निर्माण बीसवीं शती के मध्य में बंगाल के निर्मल कुमार ने कराया।
हूँ...अब यहाँ
धोबी कपड़े धोते हैं। वह देखिये शुक्ला जी!
वहाँ लड़के गुल्ली डंडा खेल रहे हैं। जरा बचके रहियेगा, बड़ी तगड़ी टीम लग रही है।
रूकिये ! देखते हैं। तभी एक ‘कोरियन
युवक’ बगल से गुजरा..फोटू हींचते हुए। उसे तश्वीर खींचते देख
मुझे कैमरा न लाने का अफसोस हुआ और सारा दोष शुक्ला जी पर मढ़ दिया, “बहुत बोर करते हैं शुक्ला जी ! जब घाट पर घूमना था
तो अपना कैमरा लेकर आना था। वह इत्ती दूर से आकर फोटू हींच हींच कर मजे ले रहा है
और आप हमें बनारस के घाटों का इतिहास भूगोल सुनाये जा रहे हैं। रूकिये ! हमी कुछ करते हैं..” मैने उस कोरियन युवक को पलट कर रोका...”एक्सक्यूज
मी...! वन स्नैप प्लीsssज !” उसने मेरा आशय समझ कर कहा...”ओ..! व्हाई नॉट !!” उधर उस युवक ने कैमरा मेरी ओर किया
इधर मैं झट से मूंगफली फोड़ते हुए घाट किनारे मुस्कुराते हुए पोज देकर खड़ा हो
गया। क्लिक...! उसने फोटू दिखाया..”भेरी
नाइस ! वन मिनट ...टेक माई ई मेल एड्रेस...!! मे यू विल सेंड इट टू माई ई मेल...प्लीsssज?”
वह सुनकर खुश हो गया। खुशी से बोला... “यsस !..आई प्रॉमिस। बट ऑफ्टर वन मंथ। आई हैव नो
कम्प्यूटर हीयर।“ मैने उससे हाथ मिलाया और उसे धन्यवाद दिया,
“ओके! ओके! थैंक यू ।“ वह मुस्कुराता, हाथ हिलाता आँखों से ओझल हो रहा था
और मैं सोच रहा था कि मौन तोड़ने पर, प्रेम से मिलने पर,
अजनबी भी कैसे एक दूसरे से जुड़कर खुशी का अनुभव करते हैं !
इधर शुक्ला जी
अपनी धुन में थे....यह चेतसिंह घाट है। यह जो घाट पर विशाल किला देख रहे
हैं न ! इसका निर्माण काशी राज्य के संस्थापक राजा ‘बलवंत सिंह’ ने कराया था। घाट और महल शिवाला मोहल्ले
में है इसलिए इसे ‘शिवाला घाट’ भी कहते
हैं। 1781 में अंग्रेजों से युद्ध में हारकर काशी नरेश ‘चेतसिंह’ किला छोड़कर भाग गये थे। तब से लगभग सवा सौ साल तक यह अंग्रेजों के अधीन
रहा। फिर 19वीं शती के उत्तरार्द्ध में महाराजा ‘प्रभु नारायण
सिंह’ ने यह किला पुनः प्राप्त कर लिया।
हूँ.....मैने
किले को ध्यान से देखते हुए कहा, अभी भी कितना शानदार है ! सैकड़ों वर्षों से गंगा की बाढ़ झेल रहा है मगर जस का
तस खड़ा है। बनारसी मस्ती की तरह इसने भी हार नहीं मानी। कित्ते ढेर सारे कबूतरों
ने यहाँ अपने घर बना रखे हैं! आप जानते हैं इन जंगली कबूतरों
को लोग ‘गोला’ कबूतर कहते हैं।
शुक्ला जी बोले,
इन्हें कोई नहीं पालना नहीं चाहता। ये बेवफा होते हैं, टिकते नहीं।
मैने कहा, “नहीं शुक्ला जी ! यह हमारी फितरत
है कि हम खूबसूरती के दीवाने हैं। जो खूबसूरत नहीं हैं उन पर आसानी से बेवफाई का
आरोप मढ़ कर चल देते हैं जबकि मैं जानता हूँ कि ये सुफैद कबूतरों से अधिक
स्वामिभक्त होते हैं। मैने एक गोला कबूतर को पालकर देखा है। उसकी कहानी फिर कभी
सुनाउंगा। अच्छा ही है कि ये खूबसूरत नहीं हैं। आदमियों के कैद से दूर ये परिंदे
कितने आनंद से खुली हवा में गंगा किनारे परवाज भर रहे हैं !”
शुक्ला जी जारी
थे....मानो वे हमें आज बनारस के सभी घाटों का इतिहास भूगोल सुनाकर ही मानेंगे और
हम सुनकर याद रखेंगे...! यह हनुमान घाट
है। यहाँ 18 वीं शती का प्रसिद्ध हनुमान मंदिर है। इसकी स्थापना गोस्वामी तुलसी
दास ने की है। 16 वीं शती में बल्लभाचार्य ने यहीं निवास किया। यहाँ दक्षिण
भारतीय अधिक संख्या में रहते हैं।
वह देखिये
शुक्ला जी...! यहाँ लड़के क्या मस्त क्रिकेट
खेल रहै हैं। लगता है इनका मैच चल रहा है। रुकिये देखते हैं। बॉलर ने गेंद फेंकी
और बैट्समैन ने जोर की शॉट मारी। गेंद हवा में उड़ती हुई पानी में गिरी..छपाक। सभी
खिलाड़ी चीखे...ऑउट ऑउट. बॉलर खुशी के मारे चीखा..”अउर
मारा..भोंस...के ( अरे वही शब्द, जिसे 21 वीं शदी में शराफत से फिल्मों में चीख-चीख
कर बॉस डी के कहा गया और शरीफ घरों के बच्चों ने भी खुल्लमखुल्ला शराफत से गाया।)
ले लेहले छक्का..! तोहें
जान के ऐसन गेंद फेंकले रहली कि तू मरबा अउर मरते घुस जइबा ओकरे संगे अपने बीली में।“ (..और
मारो छक्का, मैने जानकर तुम्हें ऐसी गेंद फेंकी थी कि तुम मारोगे और आउट हो जाओगे) यह पक्के बनारसियों कि खास विशेषता
होती है। एक पंक्ति भी बिना गाली घुसेड़े नहीं बोल सकते। वे हमारी तरह शराफत का
नकाब ओढ़कर मुँह नहीं खोलते, कलम नहीं चलाते। सीधे-सीधे गाली देते हैं। हम आगे
बढ़े.....
यहाँ नागा साधुओं
का प्रसिद्ध निरंजनी अखाड़ा है। इसलिए इस घाट का नाम निरंजनी घाट पड़ा।
हूँ.....वह
देखिये शुक्ला जी। गज़ब ! उस साधू की तो सूंड़
की तरह लम्बी नाक है और एक ही आँख है !! कितना रंग रोगन पोते
है ये साधू !!! ई खाता कैसे होगा ? मैने
वहीं एक सीधे से दिखते आदमी से पूछा....”का ई हमेशा यहीं
रहलन? कहाँ से आयल हउवन?” उसने कउवे की तरह चीखते हुए जवाब दिया... “का मालिक ! रमता जोगी बहता पानी...एन्हने क कौनो
ठिकाना हौ ! दुई दिना से दिखात हउवन,
जब मन करी चल देहियें, कवन ठिकाना! रोजे इहाँ कौनो न कौनो मिला
आवल करलन...।“( क्या भाई साहब! चलते
फिरते धूनी रमाने वाले साधू का कोई निश्चित स्थान होता है!
दो दिन से दिख रहे हैं, जब मन करेगा चलते बनेंगे, इनका कौन ठिकाना ! यहां तो रोज ही कोई न कोई आते रहते हैं।) हम आँखे फाड़े उसे देखते हुए
आगे बढ़े..। कैमरा न लाना वाकई खटक रहा था।
(जारी.....)
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महाराज ई कई कई बार काहे पोस्ट कर रहे हो ?
ReplyDeleteअब इहमा भी एक गलती रह गयी कि टाइटल तो डर्बी नहीं भैव?
का बतायें त्रिवेदी जी! ई ससुरा अपने आप पोस्ट हुई गवा! अभहिन त हम सजाइये रहे थे। आपो बिना पढ़े टिपिया के चल दिये लगता है:)
ReplyDeleteनहीं जी!
ReplyDeleteआज हम आपै के दुआरे धरना धरे बैठे हैं रीडर पर पढ़ आये तो देखा कि दुकाने गोल तब तक रीडर मा दूसर पोस्ट धमकी ....सो शुकुल जी पीछे पड़े और आपका गायब टाइटिल पहिले दिमाग मा चढ बैठा !
बहुत मस्त पोस्ट पर वही कैमरा बिन सब सून !
हाँ ऊ शुकुल महाराज को हमरा भी जय राम जी की आपै के हवाले...मिले तो तनिक थमा देहव
जय राम जी की !
Bahut rochak aalekh...Banaras me rah chukee hun....wahan ke ghaat aur irdgird baithe babalog aapne yaad dila diye!
ReplyDeleteघाट-घाट की सैर अच्छी लगी..
ReplyDeleteबहुत रोचक अभिव्यक्ति| धन्यवाद|
ReplyDeleteयाद तो होईए गइल महाराज सुन-सुन के सभीहिन घाट के इतिहास अउ भूगोल तुहरा के....आउ का चाहा ह..अयं....गंगा जी के किनारे किनारे.....मूंगफली खा रह ल हे....तनि डूबकी मारला कि न गंगा जी में.....
ReplyDeleteअब तो बनारस आकर सब देखना होगा..
ReplyDeleteबहुत नीक लगा बनारस के घाटन पर घूम घूम के ..
ReplyDeleteअगली बार कैमरवा ले जाना मत भूलिएगा ... शुकुल जी को कहे दोष देते हैं गए तो आप भी थे
वाह पाण्डेय जी बनारस के घाटों की अच्छी व रोचक शैर कराई आपने। अब तो अगली बार बनारस आने पर आप और शुक्लाजी के साथ बनारस के घाटों को एक बार घूमने का मजा लेने का मजा लेने का मन करने लगा।
ReplyDeleteघाट घाट की जानकारी देने के लिए आभार मान गए आपको आपने घाट घाट का पानी पिया हैं
ReplyDeleteआपके शुक्ला जी ने तो बड़े मज़े में हमें भी बनारस के गंगा घाटों के दर्शन करा दिए । वो भी बिना कैमरे के ।
ReplyDeleteबढ़िया लेख , पाण्डे जी । आनंद आ गया ।
कुनकुनी धुप में भुनल मूंगफली ....
ReplyDeleteहर बाक्य में गाली के एगो तड़का ....
बनारसी पान के जिकर काहे नाहीं कईल ?
सुकुल जी की जानकारी के परनाम करतानी. आज हम आपन कैमरा लईके गइल रहीं "गढ़िया पहाड़" ....कांकेर रियासत के फांसी देय बाला जगह पर पहुँचलीं त कैमरा के बैटरिये बुता गइल.
क्या कहने, यही तो साहित्य है .....
ReplyDeleteबहुत अछ्छी सुरुवात है.बहुत रोचक रचना है,मूगफली खाते रहिये और शुक्लाजी के साथ घुमते रहिये.
ReplyDeleteघाट घाट का पानी अच्छा है।
ReplyDeleteपांडे जी!! अब जाकर लगता है कि जिसने बनारस नहीं देखा उसके जीवन में सुबह ही नहीं हुई!! जिसने बनारस के घाट नहीं देखे उसने क्या देखा! धन्यवाद!!
ReplyDeleteबढ़िया घुमक्कड़ी रही :)
ReplyDeleteशुक्ला जी तो वाकई जानकारी का भंडार हैं. कोरिया से आये चित्र के लिए कल्लेंगे इंतज़ार एक महीने तक, लेकिन अगली कड़ी तो जल्दी ही आनी चाहिए. बनारस सरीखा कोई नगर नहीं इस ब्रह्माण्ड में.
ReplyDeleteआप और संतोष त्रिवेदी जी इन दिनों मूंगफली पे मेहरबान हैं :)
ReplyDeleteआपके शुक्ला जी तो बड़े घाट घाट का पानी पिये हुए (मनईं) लगते हैं ! कहीं ये भी ब्लागर तो नहीं हैं :)
शुक्ला जी के साथ आपकी बातचीत पूरी लम्बाई से हुंकारे तक सिमट गयी ! ये जुगलबंदी ऐसी लगी जैसे तू डाल डाल मैं पात पात :)
जुगलबंदी कहें तो सेंटर फ्रेश का एक विज्ञापन याद आया :)
सफ़ेद और काले की विश्वसनीयता माने कबूतरों में भी नस्ल भेद :)
आपके संस्मरण का इंतज़ार रहेगा !
टिप्पणी में क्या कहूं ? आपको या आपका साधुवाद :)
अच्छी सैर.... वाह!
ReplyDeleteआज कमेंट के साथ-साथ कमेंट में आये सुंदर मुखड़ों को भी ध्यान से देख रहा हूँ। सभी सेव के फूल की तरह सुंदर-सुंदर हैं। सभी को इस पोस्ट पर आने और मेरा उत्साह बढ़ाने के लिए धन्यवाद।
ReplyDeleteघाटों के बारे में जानकारी इकठ्ठी करना टेढ़ी खीर है, शुक्ला जी की मौखिक जानकारी के साथ-साथ प्रमाणिक साक्ष्य भी ढूंढने पड़ रहे हैं। शुक्ला जी ने तो चेतसिंह किले के संबंध में यह भी बताया है कि इसके भीतर ही भीतर से गंगा उस पार जाने के लिए रामनगर किले तक एक बड़ा सुंरग बना था जहां से सेना आती जाती थी। अब यह बंद हो चुका है। इसका साक्ष्य नहीं मिला, सो नहीं लिखा। शुक्ला जी ब्लॉगर नहीं हैं। पोस्ट देख कर अचंभित और इस पर आये कमेंट पढ़कर कल शाम बड़े प्रसन्न थे।
यहां न धूप के दर्शन हो रहे हैं न घुमाई हो रही है। अवसर मिलने पर दूसरी किश्त जरूर लिखूंगा। मेरी इच्छा है कि बनारस के सभी घाटों का चित्र सहित वर्णन प्रस्तुत कर सकूं।
..सादर।
पता नहीं,हमरे रीडर मा यह पोस्ट कैसे मिस हो गई ,हो सकता है कुहरे की वजह से हमें ही न दिखी हो !
ReplyDeleteबनारस में रहते हुए अभी तक आप को भी घाटों की जानकारी नय है.बहरहाल,सुकुल महाराज बड़े बतकहा अउर हुशियार निकरे !कई घाटों का पानी हमें भी पीले दिया.बनारस आने का बहुतै मन होइ रहा है.
अली साब के यहाँ मूंगफली नहीं मिलती का ? जाड़े मा हम गरीबन क यही सहारा हवै !
बहुत खूबसूरत प्रस्तुति ||
ReplyDeleteबहुत सुन्दर......कभी बनारस जाना तो नहीं हुआ.....एक बार जौनपुर तक गया पर बनारस नहीं जा पाया......मन की इच्छा थी पर समय नहीं मिल पाया......पर आपकी पोस्टों से लगता है जैसे वहां घूम कर भी इतना मज़ा न आता शायद और इतनी जानकारी तो कभी न मिलती..........हाँ फोटू के साथ और भी मज़ा आता.......बेहतरीन लगी पोस्ट|
ReplyDeleteवाह घाटों की यात्रा आपके साथ साथ हो ली. आशा है अगली कड़ी में कैमरा साथ लेकर जाएंगे :)
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति ।
ReplyDeleteaa-oor blogger ghat kahan gaeel.....
ReplyDeletesadar.
लो! फिर हमारा कमेन्ट गायब है...जांच आयोग बिठवाएँ, पांडेजी!
ReplyDeleteसंतोष त्रिवेदी...
ReplyDeleteबनारस में पूरा जीवन बिताने के बाद भी अधिसंख्य नहीं जान पाते कि बनारस क्या है! मैं भी अभी जानने का प्रयास ही कर रहा हूँ। अली सा मूंगफली से ऊँचे उठकर बदाम तक पहुँच चुके हैं:)
इमरान भाई..
एक पोस्ट हो जिसमें सभी घाटों की करीने से फोटू लगी होगी हो..मौका मिलने दीजिए।
त्यागी सर..
जांच आयोग ने बताया कि कोई कमेंट आपके क्षेत्र में नहीं है जिसे आप पोस्ट कर सकें। स्पैम में भी नहीं।
रविकर जी, काजल कुमार जी, सदा जी, संजय जी, सभी को प्रोत्साहन के लिए आभार।
मंदिर और घाट यही तो हैं बनारस में. कुछ दिनों पहले गया था मैं भी एक दिन के लिए... थक गया. फिर पता चला की कुछ देखा ही नहीं !
ReplyDeleteबनारस के बारे में अच्छी जानकारी मिली । मेरे नए पोस्ट "लेखनी को थामा सकी इसलिए लेखन ने मुझे थामा": पर आपका बेसब्री से इंतजार रहेगा । धन्यवाद। .
ReplyDeleteआपकी रचना ने १९९५ से १९९८ तक बनारस में बिताये यो चार साल ताज़ा करवा दिए .
ReplyDeleteउन दिनों में प्रात: कल लहुराबीर और bhu की तरफ घुमने निकल जाता था और सडक
किनारे चाय की दुकान पे चाय पीने के बहाने वहां दूध वालों का भोजपुरी भाषा में सवांद
बहुत मस्त लगता था | वैसे भी बनारस की सुबह में कुछ खास सा अनुभव होता है
तभी किसी ने कहा "सुबह बनारस सामे अवध". बहुत अच्छी सुचना और लेख , बधाई
आना है बनारस एक बार ....शुभकामनायें !!
ReplyDeleteलाजवाब!
ReplyDeleteबहुत कुछ जानने का सुअवसर हाथ लगा। पता नहीं कब होंगे दर्शन।
ये तो सही है की ब्लोगेरों के ठाठ हैं ... आपके साथ साथ बनारस के घाटों के दर्शन हो रहे हैं और चर्चा भी हो रही है ... एक बार तो मन में आस है बनारस आने की ...
ReplyDeleteवाह! :)
ReplyDelete