बहुत दिनो के
बाद
सुबह-सुबह
हवा से
घर की कुण्डी
खड़खड़ाई
ठंड से अकुलाये/कठुआये अज़गर की नींद टूटी
दिल ने ली
अंगड़ाई
जूतों ने फीते
कसे
हाथों ने
मचलकर द्वार
खोले
मन में जगी
उमंग
आया क्या बसंत ?
बाहर कोई न था
मेन गेट के पास
ठंडी राख पर
हमेशा की तरह
सो रहा था
सहमा सिकुड़ा
वही
मरियल कुत्ता
बसंत की आस में
बौराया
निकल पड़ा बाहर
सड़क पर
जहां घूम रहे थे
स्वेटर, मफलर,
शाल, जैकेट, ट्रैक-सूट
और कुछ
भागते पहिये
जूते
टहलते रहे
देर तक
झांकती रहीं
मंकी कैप में
छिपी
दो आँखें
रास्ते में दिखे
धूल उड़ाते
मेहनती झाड़ू,
बाजार जा रही
ग्रामीण औरतों
के सर पर
ताजी सब्जियों
के बोझ से लदी
भारी गठरियाँ,
मैले कुचैले
वस्त्रों में
दमकता चेहरा,
चमकती आँखेँ,
झिलमिलाते स्वेद
कण,
शहर क्या जाने
सरसों के खेत !
नहीं दिखी एक भी
पीली चुनरी
या फिर
खेत फुल्ली
कुसुम्मी ही
नहीं दिखे
पियराकर झरे
एक भी पत्ते
पूर्ण नग्न हो
नव पल्लवों से अंकुरित/आच्छादित हो रही
शाखाएं
एक कोने
मौन खड़ा था
बूढ़ा
धूरियाया/हरियाया
पीपल
जब से सुना है
बड़े भाई सा के
ऊँचे बंगले की
मोटी चहारदिवारी
के भीतर
अरूणोदय के साथ
ठिठोली करते
आम्र वृक्ष की फुनगियों पर
इठलाते
बौर को देखकर
चांदनी में
रश्क करती हैं
रातरानी
दिल से
एक आह! ही निकलती है
अभी तो
वहीं कैद है
हमारा बसंत।
.........................
वाह...
ReplyDeleteलाजवाब रचना...
दिल को छू गयी..
आपके द्वार भी वसंत आये...फूल खिलाए..रंग बिखराए :-)
शुभकामनाएँ..
वाह ! बसंत की माया ! बहुत खूब ।
ReplyDelete'बसंत' की 'माया' ! वाह ! बहुत बहुत मुबारकबाद दोनों को !
Deleteपाण्डे जी!
ReplyDeleteवसंत के अटके होने का दुःख तो हमें भी है.. वसंत पंचमी के बाद जीवन के बोझ के साथ इस माटी की देह पर से कपड़ों का बोझ भी कम कर दिया था कि बसंत आ गया.. मगर भेदती हवाओं ने तो बस-अंत ही कर दिया..! लंबे अंतराल के उपरांत आपकी उपस्थिति ऊष्णता लेकर आयी!
पुनश्च:
इसके पूर्व कि अली सा टोकें, मैं ही टोक देता हूँ कि चांदनी में 'रश्क' के स्थान पर 'रक्स' कर लें.
सलिल जी ,
Deleteप्रेम में रश्क हो तो रक्स किया ही नहीं जा सकता ! रक्स तो वो ही करेगा जिससे रश्क किया जा रहा है :)
यहां पाण्डेय जी रात रानी के रश्क पे फोकस कर रहें हैं क्योंकि उन्हें पता है कि चांद एक है जबकि रात रानियां दो :)
इधर आप सोच रहे हैं कि चांद भी एक और रात रानी भी एक इसलिए आपको रक्स की सूझ रही है :)
मेरे ख्याल से आपके सुझाए हालात में आप सही हैं पर पाण्डेय जी के बनाये हालात में वे ही सही हैं :)
सलिल जी..
Deleteभेदती हवाओं ने बस-अंत ही कर दिया। बिलकुल मेरे मन की बात है। रश्क जानबूझ कर लिखा है, सुधारने का मन नहीं कर रहा।
अली सा...
आम के बौर पर रश्क करे रातरानी
रातरानी रक्स करे तो आम बौराये
सुधारने की आवश्यकता नहीं.. अली सा ने स्पष्ट कर दिया!! मैं दूसरी तरह पढ़ रहा था.. क्षमा!!
Deleteबहुत सुन्दर रचना ..
ReplyDeleteसुन्दर!
ReplyDeleteएक तो देर तक सोकर जागे
ReplyDeleteऔर फिर बसंत की तलाश में
घर से निकल भागे
ढूंढते रहे तारकोल की सड़कों में
इधर उधर पीछे आगे
नहीं झांका तो बस अपने मन में
और नहीं सोचा कि
बाहर तैनात श्वान के भय से
बड़े भाई सा वहीं छुप गए हैं
वर्ना छोटे के लिए लाया हुआ
बसंत उसे दे ही देते :)
श्वान तैनात नहीं है अली सा, यह तो नियति बन चिपक गया है जीवन से।
Deleteबड़े भाई चाहते भी हैं कभी लौटाना बसंत तो मुआँ डराकर भगा देता है।:)
बसंत कहीं नहीं है क़ैद,
ReplyDeleteवह छितराया हुआ है हर जगह,
समाया हुआ है हर किसी की देह में,
बस उसे देख-सुन नहीं पा रहे हैं हम,
आप फिर भी पहचान रहे हैं !
बहुत सुन्दर रचना.....निराला-टाइप !
मानवीकरण अलंकार बिलकुल सजा हुआ !
आप कह रहे हैं कि बसंत बड़े भाई सा की कोठी में कैद है, लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं कि बसंत की भी रजामंदी हो...!!
ReplyDeleteबसंत को ढूंढना कैसे ... वह कभी कैद नहीं होता , वह ठिठुर सकता है , रूठ सकता है - पर कृत्रिमता में नहीं जीता ... जो जी ले वह बसंत नहीं !
ReplyDeleteगहरे भाव लिए सुंदर रचना।
ReplyDeleteBasant to kaid mein nahi par sabki soch aur basant ko dekhne waali aankhen jaroor kaid ho gayee hain aaj .... Shayad haalat ki Maar hai ...
ReplyDeleteBahut hi khoobsoorti se Poora drishy khada kiya hai basant ki Subha ka ... Lajawab Devendr Ji ...
जन्मदिन (09.02.12) की बधाई! मंगलकामनायें।
ReplyDeleteई वाले जन्मदिन को तो हम भूलही गये थे! धन्यवाद।
Deleteभूली हुई यादो मुझे इतना ना सताओ :)
Deleteजन्मदिन पर बसंत से इस कदर छेड़छाड :)
बढ़िया प्रस्तुति ||
ReplyDeleteये बडे भाई साहब कौन हैं ? कहीं कांग्रेस के नेता की तरफ तो इशारा नहीं ? मगर,अगर ये सच है तो मेरे विचार से सभी नेता की तर्फ इशारा करना ठीक होगा.
ReplyDeleteचलते जुटे, भागते पहिये........छा गए देव बाबू....बड़े दिन बाद कोई पोस्ट आई आपकी....पर शानदार है ।
ReplyDeleteअभी शहर के बाहर 2000 किलोमीटर की यात्रा कर आ रहा हूं। नागपुर ले उस पार वसंत मिला। आम के पेड़ों पर खूब लदा था।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रस्तुति
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
वसंत पंचमी के दिन से ढूंढ रहा हूँ वसंत को
ReplyDeleteबहुत खोजा......अगल-बगल, गली-सड़क
कमरे में ...सोफे पर ...
घर की छत पर....
पर वह कहीं नहीं मिला.
आज बहुत दिन बाद जंगल गया
तो वह दिख गया ....
मैंने पूछा -
कब से खोज रहा हूँ तुम्हें....
यहाँ क्यों बैठे हो?
वह बोला-
शहर में लोग मुझे खरीदने लगते हैं
मुझ पर बोलियाँ लगती हैं
डरता हूँ
मैं कैद नहीं होना चाहता
गमले का गुलाब नहीं बनना चाहता
इसलिए यहाँ अपनी पुरानी झोपड़ी से
बाहर नहीं निकलता हूँ
बिचारे को नहीं पता जंगल भी काटे जा रहे हैं:)
Deleteमौसम कितने ही बदलेंगे,
ReplyDeleteकिसकी अँगड़ाई शापित है
जिसने जनम लिया दीन बन
Deleteबस उसकी अंगड़ाई शापित है।
एक अच्छी रचना बधाई
ReplyDeleteसुंदर शाब्दिक अलंकरण लिए एक उत्कृष्ट रचना .....
ReplyDeleteअब तक तो बंसत आपको मिल ही गया होगा। वैसे खूब खबर ली आपने।
ReplyDeleteबसंत, बसंता और\या बसंती की तो देखी जायेगी, फ़िलहाल जन्मदिन की विलंबित शुभकामनायें स्वीकार करें। सुकुलजी तक धन्यवाद पहुँचे।
ReplyDeleteबसंत की छटा अद्भुत रूप में प्रस्तुत की है. बहुत उत्कृष्ट कोटि की रचना.
ReplyDeleteयह दृष्टि भेद है या दृश्य भेद! :)
ReplyDeleteबसंत ना मिला देखने को, अभी तक तो. ... आपकी लाइनों ने कई दृश्य याद दिलाये.
ReplyDelete...गर बसंत ना होता तो .....यही सोच कर बसंत को जी लेंगे !
ReplyDeleteतू नहीं तो तेरी याद सही !
"joote tehelte rahe, jhaankti rahi monkey cap me chhipi do aankhein" ... to think of expressions like these itself it commendable!
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