वह
श्रमजीवी
होता है
मगर खुद
को
बुद्धिजीवी
समझता है।
दशहरा-दीवाली
पर
रात-रात भर जागकर
सुनता है
पत्नी के
ताने
पूरी
करता है
स्वप्न
में
बच्चों
की मुरादें
सुबह
पूछती
हैं
कमरे की
दीवारें...
“क्यों
जी!
क्यों
उड़ गई है तुम्हारी रंगत
हमारी
तरह?”
ईद-होली
में
बार-बार देखता
है
बच्चों
की फटी कमीज
आर-पार हो जाती हैं उँगलियाँ
कुर्ते
की जेब से
जानता है
उबड़-खाबड़
रास्तों पर
चलाते-चलाते
साइकिल
खत्म हो
जाती है
हवा
पंचर हो
जाता है
नया
ट्यूब भी।
वह
दिन रात
बहाता है
पसीना
रोटी,
कपड़ा, मकान, दवा और बच्चों की फीस के लिए
लड़की की
शादी तो
बड़े
ख्वाब पूरे होने जैसा है
जिसके
बाद
चढ़ा
सकता है
मज़ार पर
चादर
ले सकता है
अंतिम
सांस
धार्मिक
त्यौहार तो
आफ़त
वाले दिन होते हैं !
वह
ढूँढता
है
आजादी के
मायने
पंद्रह
अगस्त के दिन
तलाशता है
मौलिक
अधिकार
गणतंत्र
दिवस के दिन
नोचता है
सर के
बाल
उखाड़
कुछ नहीं पाता
पूछता है
प्रश्न,
“हे
राष्ट्रपिता !
क्या यही
है आजादी ?”
राह चलते
बड़बड़ाता
है,
(वैसे
ही जैसे
बड़बड़ाता
है शेखचिल्ली
टूटने पर
सुनहरे
ख्वाब)
“अब
नहीं होती
नेतृत्व
की हत्या
अब होता
है
सरे आम
आँदोलन
का खून
मार्ग से
भटका
दिये जाते हैं
आंदोलनकारी
ठहरा
दिये जाते हैं
अपराधी !”
वह
चाव से मिलाता
है
कंधे से
कंधा
बुद्धिजीवियों
के
हर
आह्वाहन पर
मनाता है
आजादी का
उत्सव
कभी-कभी
गिरा
देता है
हाथ से
दो वक्त
की
रोटियाँ
भी।
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