कहारिन
ठीक से तोहार सेवा करत हई न?
काहे
गुस्सैले हऊ!
पंद्रह
दिना में घरे आवत हई, ई खातिर?
का बताई
माई
तोहार
पतोहिया कs
तबियत खराब रहल
अऊर
ओ शनीचर
के
छोटका कs स्कूल में, ऊ का कहल जाला,
पैरेंट मीटिंग रहल
तू तs जानलू माई!
शहर कs जिनगी केतना हलकान करsला!
तोहसे से
तs कई दाईं कहली,
चल संगे!
उहाँ रह!
तोहें तs बप्पा कs माया घेरले हौ!
ऊ गइलन
सरगे,
इहाँ बैठ
कबले जोहबू?
हाली न
अइहें।
का कहत
हऊ माई?
ई कथरी
से जाड़ा नाहीं जात?
दूसर आन
देई?
तोहें
मोतियाबिंद भईल हो, एहसे दिखाई नाहीं देत !
ले!
कहत हऊ तs नई कथरी ओढ़ाय देत हई।
(पलटकर, वही रजाई फिर ओढ़ा देता है!)
माई!
नींद आयल
राति के?
का कहली?
नवकी
कथरी खूबे गरमात रही!
खूब नींद
आयल!
ठीकै हौ
माई,
चलत हई!
सब सौदा
धs देहले हई कोठरी में
कहरनियाँ
के समझाय देहले हई
नौकरी से
छुट्टी नाहीं मिलत माई
जाना
जरूरी हौ।
तोहार
विश्वास बनल रहे,
कथरी तs
जबे आईब
तबे बदल
देब!
पा लागी।
...........
(कथरी का यह चित्र बड़े भाई ज्ञानदत्त जी के ब्लॉग से साभार।)
बहुत बढ़िया शब्द चित्र ।
ReplyDeleteबधाई भाई जी ।।
कथरी का इक अर्थ है, नागफनी हे मित्र ।
उलट पलट के ओढ़ना, देखे चित्र विचित्र ।
देखे चित्र विचित्र, मोतियाबिंद पालती ।
आँखों का वह नूर, उसी की दवा डालती ।
रहता उनका साथ, छोड़ कर कैसे जाऊं ।
नई कथरिया ओढ़, शीघ्र ही साथ निभाऊं ।।
आप के ब्लॉग में वो शब्द भी पढ़ने को मिल जाते है जो धीरे धीरे मेरे शब्दकोशों से गायब होते जा रहे थे :)
ReplyDeleteपूरा समझ नहीं आया पर लोकभाषा की मिठास महसूस पूरी हुई.चित्र भी शानदार .
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रस्तुति!
ReplyDeleteउम्दा...मार्मिक...कारुणिक...
ReplyDeleteह्र्दय की गहराई से निकली अनुभूति रूपी सशक्त रचना
ReplyDeleteRecent Post…..नकाब
पर आपका स्वगत है
आंचलिक भाषा की मिठास परोसती हुई रचना .
ReplyDeleteहमसे बदला लेने का अच्छा तरीका निकाला है देवेन्द्र भाई!! सोचा ऐसी बात लिख दें कि ई सलिल भैया भी कुच्छो नहीं कह पावें.. बस हम चुप्पे हो जाते हैं भाई!!
ReplyDeleteजी, इंतजार तो कर रहा था आपके कमेंट का। चु्प्पी भी तृप्त कर गई। :)
Deleteहमहूँ चुप्प!
Deleteरंगनाथ जी से सहमति !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना..
ReplyDeleteएकदम हृदयस्पर्शी..
:-)
लगा जैसे आपने मेरी बातें लिख दी हो, बस भाषा यदि भोजपुरी की जगह मैथिली होती है ...
ReplyDeleteबस यही और्पचारिकता निभाते हैं हम ...
और उन्हें गांव की मिट्टी से लगाव है।
समझने का प्रयास कर रहे हैं..आ रही है..
ReplyDeleteमन उदास हो गया. जाने क्यों वो दिन याद आ गए, जब बाउजी को घर पर अकेले छोड़कर पढ़ने के लिए आना पड़ता था. कई दिन तक ये ख़याल सताता रहता था कि इतने दिनों मेरे वहाँ रहने के कारण बाऊ की खाना बनाने की आदत छूट गयी होगी, तो अब खाना बनाने में आलस न करते हों :(
ReplyDeleteखैर, बाउजी खाना बनाते खाते दुनिया से चले गए...लेकिन आख़िरी दिनों में गाँव में रहने का मोह नहीं छोड़ पाए. आखिर ज़िंदगी भर शहर में नौकरी करके गाँव में घर ही उन्होंने इसीलिये बनवाया था.
हृदयस्पर्शी रचना.............
ReplyDeleteआंचलिक भाषा का मार्दव एवं सौन्दर्य लिए हुए है यह सहज रचना .बधाई .
ReplyDeleteकथरी के बहाने बुजुर्ग माता पिता और जीते जी बिसराने वाले बेटों की घर घर की कहानी बयान कर दी .
ReplyDeleteमार्मिक !
पूरी कविता ही अपने सीधे सीधे सपाट बोली -भाषा के कारण अद्भुत बन गयी है ...
ReplyDeleteयथार्थ साहित्य की एक अनुपम बानगी!
bahut hi marmik evam hrdaysparshi rachna
ReplyDeleteमरदे रोवा दिहला .
ReplyDeleteबनारसी बोली के आपन अलगे मिठास हौ। हिन्दी के समरिद्ध करे में आंचलिक भाषा के महत्वपूर्ण योगदान हs। माई अ बेटवा के बीच इहए रिश्ता बन गइल बा..
ReplyDeleteबढ़िया प्रस्तुति |
ReplyDeleteमेरी नई पोस्ट:-
♥♥*चाहो मुझे इतना*♥♥
इसके बाद की पोस्ट पर कमेंट का लिंक कहाँ छुपा दिया?
ReplyDeleteइसलिये यहीं पर लिख दे रहे हैं !
तीनो फोटो में बैचेन आत्मा की फोटो
सबसे सुंदर नजर आ रही है
दो फोटो में हमको पता चल गया है
रविकर की कविता आ रहे है !
बहुत सुंदर प्रस्तुति |
ReplyDeleteइस समूहिक ब्लॉग में पधारें और हमसे जुड़ें |
काव्य का संसार
इस भाषा में यह भाव बहुत सज रहा है !
ReplyDeleteआदमी की लाचारी की कहानी है,अगर माँ, जहां वो काम करता है वहाँ जाने को तैयार हो जाये तो उसकी खोपडी ही उलट जाती.
ReplyDeleteका कहा जाय !
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