26.11.12

पोखरा की यात्रा-3

भाग-1

भाग-2

से आगे.....

अन्नपूर्णा रेंज की धवल पर्वत श्रृखंलाएँ ही नहीं, झीलों, झरनों और गुफाओं के मामले में भी प्रकृति ने पोखरा को दोनो हाथों से सुंदरता से नवाज़ा है। यहाँ तीन झीलें हैं फेवा ताल, बेगनास ताल और रूपा ताल। मजे की बात यह है कि सभी प्रकृति प्रदत्त झीलें हैं।  पहाड़ों में यत्र-तत्र गिरने वाले झरने तो हैं ही, डेविस फॉल जैसा प्रसिद्ध झरना भी है। महेंन्द्र गुफा और गुप्तेश्वर महादेव की गुफाएँ हैं। ओशो ध्यान केंद्र से लौटकर भोजनोपरांत हमने फेवा ताल की ओर रूख किया। 




इस झील के चारों तरफ पहाड़ों में कई खूबसूरत दर्शनीय स्थल हैं। बुद्ध का स्तूप तो है ही, ग्लाडिंग के शौकीनों के लिए विश्वस्तरीय पैराग्लाइडिंग की भी व्यवस्था है।      








झील का पानी एकदम साफ है। गर्मियों में यहाँ स्वीमिंग की जा सकती है। पानी में बादलों की परछाईं पड़ रही है। यही अगर सुबह का समय होता तो अन्नपूर्णा हिमालय की चोटियाँ, माछा पुछ्रे (फिश टेल) का प्रतिबिंब दिखलाई पड़ता। सूर्य की करणें जब तेज होती हैं तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे चाँदी बिखरी पड़ी हो और सूर्योदय-सूर्यास्त के समय ऐसा लगता है मानो सोने की खदान डूबी पड़ी हो। फेवा झील के चारों तरफ बिखरी पहाड़ियों में भी छोटे-छोटे झरने बहते रहते हैं। यदि आपके पास समय हो तो आप इन झरनों का आनंद ले सकते हैं।  पर्यटक इन पहाड़ी कंदराओं का खूब आनंद लेते हैं। इन झरनों का पानी काफी ठंडा होता है। गर्मियों में ही इसमें नहाया जा सकता है।











झील के बाचों बीच बाराही देवी का मंदिर है। यह शक्ति की देवी हैं। यह स्थल भी काफी रमणीक है। यहाँ से चारों ओर झील और हिमालय काफी खूबसूरत दिखलाई पड़ते हैं। 






यहाँ पेड़-पौधे भी खूब लगे हैं। भांति-भांति के फूल खिले हैं। कबूतरों का झुण्ड  विशेष आकर्षण का केंद्र है।



बाराही देवी का भी दर्शन कर ही लीजिए।





इस झील के पास ही डेविस फॉल है। जुलाई-अगस्त के महीनों में यहाँ  पानी इतने तेज रफ्तार से गिरता है कि चारों तरफ पानी का धुंध ही दिखलाई पड़ता है। इस समय पानी बहुत कम था। इसकी कहानी यह है कि 31 जुलाई सन् 1961 की दोपहरी में एक स्विस महिला अपने पति के साथ यहाँ स्नान कर रही थी कि अचानक फेवा झील की लहरें उसे बहा ले गईँ। काफी प्रयासों के बाद उसकी लाश बरामद हो पाई। तभी से यह झरना डेविस फॉल के नाम से जाना जाता है।



डेविस फॉल के सामने ही गुप्तेश्वर महादेव की गुफा है। महादेव मंदिर का मेरा खींचा चित्र पुजारी ने डिलीट करवा दिया। आप गुफा देखिये। गुफा लम्बी, चौड़ी और गहरी है। नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी हैं। पानी टप-टप टपकता रहता है। नीचे उतरने पर एक दद्भुत दृश्य देखलाई पड़ता है!


सीढ़ियाँ उतरने पर अंत में गुफा के मध्य एक दरार दिखलाई पड़ती है। जिससे प्रकाश की एक लकीर-सी छन-छन कर आती है। ध्यान से देखने पर सामने डेविस फॉल का गिरता जल प्रपात दिखलाई पड़ता है। पानी कहाँ चला जाता है समझ में ही नहीं आता! चंद्रकांता के तिलिस्म की तरह खिड़की खुलने पर एक दूसरी ही दुनियाँ नज़र आती है। इसे देख कर मात्र मुग्ध हुआ जा सकता है। इस दृश्य को देखकर मुख से बस यही निकलता है..अद्भुत! 

काश! माँ सरस्वती मुझे कुछ और शक्ति देतीं कि मैं इस सुंदरता का सही-सही वर्णन कर पाता!

जारी.....

25.11.12

पोखरा की यात्रा-2


पोखरा में मेरे बड़े भाई साहब रहते हैं, श्री प्रेम बल्लभ पाण्डेय जी। पोखरा जाना मेरे लिए घर जाने जैसा ही है। वे यहाँ पृथ्वी नारायण क्यांपस में भूगोल विषय के रीडर पद पर कार्यरत हैं। कभी ये पक्के बनारसी थे लेकिन अब पूरे पोखरावासी हो चुके हैं। लगभग 32 वर्षों से यहाँ अध्यापन कार्य कर रहे हैं। पोखरा इनको इतना सुंदर लगा कि एक बार यहाँ आये तो यहीं के होकर रह गये। ये हिंदी में थोड़ी बहुत ब्लॉगिंग भी करते हैं। लेकिन इनके ब्लॉग का नाम अंग्रेजी में है..हॉऊ टू युनाइट। ओशो के परम भक्त हैं। इनका दूसरा नाम 'स्वामी चेतन वर्तमान' है। इन्हीं की प्रेरणा से ओशो को थोड़ा बहुत पढ़ सका। कैंपस के ही आवास में रहते हैं। मैं जब यहाँ पहुँचा तो दोपहर के दो बज रहे थे। घर में भाभी श्री नहीं थीं। वे मेरे लिए चाय बनाने लगे और मैं आदतन उनकी फोटू खींचने लगा...


इन्होने कीचन भी अपने अंदाज में सजा रखा है। 

चाय पी कर थोड़ा कैंपस में ही घूमने लगा। यह बहुत शांत स्थान है। आवास की खिड़की खोलो तो सामने माछा पुछ्रे की हिम आच्छादित चोटी दिखलाई पड़ती है। पीछे सेती नदी बहती है। इस नदी के पानी में चूना बहुत ज्यादा है। इसलिए यहाँ लोग पानी उबालकर फिर फिल्टर से छानकर पीते हैं। 


पहाड़ों में हिमालय का दिखना किस्मत की बात होती है। कभी-कभी हफ्तों प्रतीक्षा करके भी लोग निराश लौट जाते हैं। यह मौसम अनुकूल है। इस समय वर्षात नहीं होती। बादल भी एकाध दिन के बाद छंट ही जाते हैं। सुबह हिमालय साफ दिखता है दिन चढ़ते-चढ़ते यह बादलों की ओट में छुप जाता है।

सूर्योदय के बाद क्वाटर से बाहर कैंपस में अन्नपूर्णा हिमालय कुछ ऐसा दिख रहा था।  

दूसरी सुबह वे बोले.."तुम मार्निंग वॉक करते हो मैं यहाँ से तीन किमी तेज चाल में पैदल चलकर, ओशो ध्यान केंद्र में जाकर डांस करता हूँ, ध्यान करता हूँ, प्रवचन सुनता हूँ। तुम भी चलो, आनंद आयेगा!" मैं झट से तैयार हो गया। हम दोनो तेज चाल से चलकर ओशो ध्यान केंद्र पहुँचे। मेरी समझ में आ चुका था कि मैदान में तीन किलो मीटर चलना और पहाड़ी चढ़ाई वाले रास्तों पर तीन किमी चलने में क्या फर्क होता है!  मैं थककर आराम करने लगा और वे मस्ती में डांस करने लगे। मैने सोचा इनकी एक तस्वीर हो जाय..जब तक ये डांस करते रहे मैं वहीं आसन पर बैठकर ध्यान कम आराम अधिक करता रहा। डांस करने के बाद ध्यान और ओशो का प्रवचन सुनते रहे। मुझे पहली बार एक अलग सा अनुभव हुआ। अच्छा लगा।  



उद्देश्य अभिव्यक्ति है। तस्वीरें अभिव्यक्ति का अच्छा माध्यम है। जब मेरे पास तस्वीरें हैं तो मैं शब्दों का अधिक इस्तेमाल क्यों करूँ ? आज की पोस्ट आदरणीय स्वामी 'चेतन वर्तमान' जी का परिचय कराने में ही हो गई लगती है । पोखरा की यात्रा का वर्णन बिना इनसे परिचय कराये अधूरा था। अब एक लाभ यह भी होगा कि जो कुछ मुझसे छूटेगा, चूक होगी, वे पढ़ेंगे तो अपने कमेंट से बताते/सुधारते भी रहेंगे। :)

जारी....  

23.11.12

पोखरा की यात्रा-1

पोखरा नेपाल का बेहद खूबसूरत हिल स्टेशन है। वर्षा के मामने में इसे आप भारत का चेरापूँजी कह सकते हैं। हिमालय, झरनों और झीलों की सुंदरता के मामले में अद्वितीय है। मैं चारों ओर पहाड़ों से घिरे इस खूबसूरत घाटी की भोगौलिक लम्बाई-ऊँचाई या क्षेत्रफल की बात नहीं करना चाहता। गूगल में सर्च करके यह सब जाना जा सकता है। ढूँढकर लिख भी सकता हूँ लेकिन यह तो बस मगज़मारी हुई। मैं तो बस इसकी प्राकृतिक सुंदरता की बातें करना चाहता हूँ और यहाँ की कुछ तस्वीरें दिखाना चाहता हूँ। 

गोरखपुर से 97 किमी दूर नेपाल बार्डर है सुनौली। यहाँ से पोखरा के लिए बसें मिलती हैं। पोखरा यहाँ से लगभग 260 किमी दूर होगा। यहाँ से पोखरा जाने के लिए दो रास्ते हैं। एक अधिक घुमावदार पहाड़ी मार्ग जो स्यांग्जा होते जाता है तथा दूसरा नारायण गढ़, मुंग्लिंग होते । मैं नारायण गढ़ वाले मार्ग से गया। सुनौली से नारायण गढ़ (बीच में एक पहाड़ी पार करने के बाद) लगभग 100 किमी का सीधा सपाट तराई मार्ग है। नारायण गढ़ में रात्रि विश्राम के बाद सुबह पोखरा के लिए बस में बैठा। मैं अकेला था और मेरे हाथ में मेरा कैमरा। नारायण गढ़ से मुग्लिंग तक बस नारायणी नदी के किनारे-किनारे चलती है। यह रास्ता भी अधिक घुमावदार नहीं है। दायें पहाड़ ,सामने सड़क और बायें तेज धार में बहती पहाड़ी नदी। रास्ते में बस एक स्थान पर यात्रियों को खाना खिलाने के लिए रूकी। मेरे पेट में भूख नहीं, आँखों में वहाँ के नज़ारों को कैद करने की प्यास थी। बस से उतरते ही एक लड़का सड़क के किनारे-किनारे चलता दिखाई दिया। सामने नदी बह रही है।


पोखरा पहुँचने पहले यहीं से प्राकृतिक सुंदरता आपके सफर की थकान को पल में दूर कर देती है। रास्ते भर आप खिड़कियों से बाहर झांकते, अपलक इन पहाड़ों की सुंदरता को देखते हुए चलते जायेंगे। मैं कुल्लू से मनाली तक कार से गया हूँ। यहाँ का सफर भी वैसा ही खूबसूरत है। 


यह चलते बस से खींची गई तस्वीर है। नजदीक का पत्थर आपको भागता हुआ दिखाई देगा। मुग्लिंग तक ऐसे ही बस नदी के किनारे-किनारे चलती है और आपको रास्ते का पता ही नहीं चलता। लगता है यहीं कहीं पहाड़ों में घर बनाकर रहा जाय तो कितना अच्छा हो! दूसरे ही पल पहाड़ों की कठिन जिंदगी का खयाल आता है और मन उदास हो जाता है।


सोचिए, जब चलती बस से इतनी खूबसूरत तस्वीरें खींची जा सकती हैं तो बस रूकी हो और दमदार कैमरा हो तो फिर यहाँ के नजारे कितने खूबसूरत दिखेंगे!

मुग्लिंग में जाकर रास्ते दो भाग में बंट जाते हैं। सीधे काठमांडू चला जाता है और बायें पोखरा। दोनो की दूरी यहाँ से लगभग समान है। काठ के मार्ग में मुंग्लिंग से 4-5 किमी की दूरी पर मनकामना देवी का प्रसिद्ध मंदिर हैं जहाँ जाने के लिए रोप वे की सुविधा उपलब्ध है। सुना कि इस मंदिर तक जाने के लिए रोप वे का  सफर सबसे खूबसूरत है। मैं पोखरा की बस में सवार था इसलिए यहाँ नहीं जा पाया। एक बात समझ में आई कि इस पहाड़ी सफर का आनंद  अपनी गाड़ी से चलने पर दुगुना हो जाता।

मुग्लिंग से आगे का मार्ग भी कम खूबसूरत नहीं है। ऐसे नजारे भी देखने को मिलते हैं..


और ऐसे भी...



सफर की सुंदरता का यह आलम था! मंजिल की कल्पना मुझे रोमांचित किये जा रही थी।

क्रमशः

18.11.12

ये गहरी झील की नावें....


यह पोखरा-नेपाल की झील - फेवा ताल है। इस झील में नाव चलाते हुए मैने इसकी तुलना गंगा जी से की तो इस गीत का जन्म हुआ। आप भी देखिए और गीत से जुड़ने का प्रयास कीजिए।


ये गहरी झील की नावें
नदी की धार क्या जानें !

रहती हैं ये पहरों में,
डरती हैं ये लहरों से।
उछलती हैं किनारों में,
थिरकती हैं हवाओं से।

जो आशिक हैं किनारों के
भला मझधार क्या जाने !

वो गिरना तुंग शिखरों से,
अज़ब का दौड़ मैदानी।
फ़ना होना समन्दर में,
गज़ब का प्रेम हैरानी।

ये ठहरे नीर की नावें
नदी का प्यार क्या जानें !

अगर है मौत रूकना तो,
बहना ही तो जीवन है।
यदि हों शूल भी पथ में,
चलना ही तो जीवन है।

जो डरते हैं खड़े हो कर
भला संसार क्या जाने !

ये गहरी झील की नावें
नदी की धार क्या जानें !

नोटः दोनो तस्वीरें मेरे कैमरे की हैं। ऊपर वाली अभी की, नीचे वाली पहले कभी किसी समय की।

17.11.12

सूर्योदय

आज बनारस लौट आया हूँ। यात्रा के बारे में थकान मिटने के बाद ही लिख पाउँगा। अभी तो हैडर और सूर्योदय का आनंद लीजिए।




              सरांगकोट, पोखरा-नेपाल की पहाड़ी से सूर्योदय का दृश्य। हेडर का चित्र भी उसी समय का है। जिसमे  अन्नपूर्णा हिमालय की चोटियाँ दिख रही हैं। इस हिमालय की चोटी को 'माछा पुछ्रे' कहते हैं। माछा पुछ्रे मतलब मछली की पूँछ। इन्हीं पहाड़ियों में और ऊँचाई पर जाने पर एक स्थान ऐसा है जहाँ से बीच वाली चोटी दो फाँक में ऐसी बटी दिखलाई पड़ती है मानो स्वर्ग से एक बड़ी मछली औंधे मुँह धरती पर आ गिरी है और उसकी पूँछ ही दिखाई दे रही है। ये ठीक दिवाली के दिन खींची गई तस्वीरें हैं।

8.11.12

जलाओ दिए पर.....



जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
जरूरत से ज्यादा कहीं जल न जाए। 

मुद्रा पे हरदम वकुल ध्यान रखना
करो काग चेष्टा कि कैसे कमायें
बनो अल्पहारी रहे श्वान निद्रा
फितरत यही हो कि कैसे बचायें।


पूजा करो पर रहे ध्यान इतना
दुकनियाँ से ग्राहक कहीं टल न जाए।

दिखो सत्यवादी रहो मिथ्याचारी
प्रतिष्ठा उन्हीं की जो हैं भ्रष्टाचारी।
'लल्लू' कहेगा तुम्हे यह ज़माना
जो कलजुग में रक्खोगे ईमानदारी।

मिलावट करो पर रहे ध्यान इतना
खाते ही कोई कहीं मर न जाए।

नेता से सीखो मुखौटे पहनना
गिरगिट से सीखो सदा रंग बदलना
पंडित के उपदेश सुनते ही क्यों हो
ज्ञानी मनुज से सदा बच के रहना।

करो पाप लेकिन घड़ा भी बड़ा हो
मरने से पहले कहीं भर न जाए।

...................................


6.11.12

चित्र पहेली



प्रश्नः- ऊपर दो चित्र हैं। दोनो चित्र लगभग एक ही स्थान पर खड़े होकर मैने दो दिन पहले खींचे हैं। क्या आप इन चित्रों को देखकर बता सकते हैं कि इन  चित्रों में घाट किनारे बैठकर ये लोग क्या कर रहे हैं?

उत्तरः-यह बनारस के घाट हैं। साधारण से दिखने वाले दृश्यों में अगर डूबा जाय तो बहुत कुछ मिल जाता है। एक ही घाट पर मात्र 10 कदम की दूरी पर दो मिजाज के लोग बैठे हैं। दोनो के धर्म अलग-अलग हैं। दोनो के कर्म भी अलग-अलग हैं। पहले चित्र में मौलाना मछलियों को आँटे की छोटी-छोटी गोलियाँ खिला रहे हैं और उनके ठीक सामने दूसरे चित्र में तीन लोग धागे में काँटा लगाकर मछलियाँ फंसा रहे हैं। मैने मौलाना से पूछा, "आप मछलियों को चारा खिला रहे हैं और आपके सामने वे लोग मछली मार रहे हैं आपको कैसा लग रहा है?" उन्होंने हंसकर कहा, "हम अपना काम कर रहे हैं, वे अपना काम कर रहे हैं, उनकी वो जाने मैं तो अपनी जानता हूँ।" मैने हंसकर कहा, "आप उनके शिकार को आँटे की गोली खिलाकर मोटा ही तो कर रहे हैं!" मौलाना हंसकर कहने लगे, "अब कोई गलत काम करे तो हम अच्छा काम करना छोड़ दें?" 

मुझे लगा मौलाना बड़ी बात कह रहे हैं। कह ही नहीं रहे हैं कर भी रहे हैं। अपने सामने ही मछली मारते लोगों को देखकर भी उन्होने मछली को आँटे की गोली खिलाना नहीं छोड़ा। 

मुझे इन घाटों पर घूमते-घूमते कभी-कभी ऐसा भी लगता है है कि तुलसी को तुलसी और कबीर को कबीर बनाने में उनकी अपनी प्रतिभा चाहे जो भी रही हो लेकिन इसमें बहुत बड़ा योगदान गंगा के इन घाटों का भी है।