26.10.13

नइखे नूंssss

कल फेसबुक में इसे पोस्ट किया था। जिन्होंने इसे समझा खूब पसंद किया जिन्होने नहीं समझा उन के सर के ऊपर से गुजर गया। जब मैने बलिया में नइखे नूं... इस शब्द को एक-दूसरे से कहते सुना तो थोड़ा और ध्यान से सुनने लगा। बलिया, बिहार के निवासी इसका प्रयोग बड़े रोचक ढंग से करते हैं। उनके कहने के अंदाज से पता चलता है कि वे प्यार से.. ‘नहीं है, नsss..’ कह रहे हैं, कठोरता से... ‘नहीं है!‘ कह रहे हैं या फिर पूछ रहे हैं...नहीं है न ? 

जितना सुनता उतना आनंद आता। इस शहर में टेसन से उतरते ही एक कतार में लिट्टी-चोखे की दुकाने  हैं। मैने खाया लेकिन बढ़िया नहीं लगा। शायद बढ़िया दुकान तक मैं अभी पहुँचा नहीं। यहाँ का पानी पीने लायक नहीं है। पीने के लिए पानी खरीदना पड़ता है। सोचने लगा.. गरीब जनता कहाँ से पानी खरीद पाती होगी! इसी पानी में ही दाल-भात बनाती होगी। लिट्टी तो आंटे-सत्तू से बनता है लेकिन चोखा! चोखे के लिए प्याज, बैगन और टमाटर तो चाहिए। क्या गरीबों के लिए प्याज, बैगन खरीदना इत्ता आसान है? गरीबों के इस सर्वसुलभ प्रिय भोजन पर किसकी नज़र लग गई! यही सब सोचते हुए इस शब्द नइखे नूं को और ध्यान से सुनने लगा। सुनते-सुनते बेचैन मन ने कुछ अधिक ही सुन लिया। देखिये मैने क्या सुना.....
  

नइखे नूंsss


बाटी तs बटले बिया 
नsssरम,
थलिया मा चोखवा 

नइखे नूंsssssss 

बजरिया मा 
भांटा-पियाज 
खूब होखे,
जेबवा मा नोटिया

नइखे नूंssssss

हाय दइया!
दलिया मा
पानी बाटे
गंगाजी कs मटियर
देखा तनि,
रंग एकर!
पीsssयर?

नइखे नूंsssss

दू बूँद
तेलवा मा
चुटकी नमकिया
चला खाईं
नून-रोटी
पेट भर सानि के
हमनी के जीये के बा
होई न अजोरिया...
मरे के बा?

नइखे नूं ssssss
.....................


जो इसे नहीं समझ रहे उनके लिए शब्द अनुवाद करने का प्रयास करता हूँ। भाव तो आप समझ ही जायेंगे----

नहीं है नssss

बाटी तो ही ही 
नरम 
थाली में चोखा

नहीं है नsssss :(

बाजार में
बैगन-प्याज 
खूब है
जेब में नोट

नहीं है नssss :(

हे भगवान!
दाल में 
गंगी जी का 
मटमैला पानी है
देखो जरा
इसका रंग
पीला?

नहीं है न ?

(मतलब दाल में गंदे पानी की मात्रा इतनी अधिक है कि इसका रंग अब पीला भी नहीं रह गया है। यहां 'नइखे नूं' कहते हुए बता नहीं रहा है, पूछ रहा है। जब जान गया कि दाल, प्याज, बैगन, टमाटर सभी उसकी पहुँच से दूर हैं तो दुखी होकर आगे कहता है...)

दो बूँद
तेल में
चुटकी भर नमक
चलो
नून-रोटी
मिलाकर
पेटभर खायें
हम लोगों को जीवित रहना है
एक दिन उजाला होगा न!
मरना है?

नइखे नूं sssss

नहीं नssssss !

.......................

15.10.13

त्योहार और आम आदमी

दशहरा, बकरीद या दिवाली खास आदमी धन से, आम आदमी मन से मनाते हैं। अर्थशास्त्र कहता है-पूँजी के द्वारा अर्जित किये हुए उस पैसे को धन कहते हैं जिसमें निरंतर वृद्धि होती रहती है। समाज शास्त्र कहता है-परिवार के सदस्यों की उस इच्छा को मन कहते हैं जिसकी पूर्ति लिए आम आदमी को कर्ज़ लेना पड़ता है। यही कारण है कि ये त्योहार खास के लिए खुशी, आम के लिए दुःख के कारण बनते हैं। गणित की भाषा में दोनो में एक शब्द कॉमन है-आदमी। हारता यही है, जीतता यही है। मरता यही है, मारता यही है। कलयुग में यही भक्त है, यही भगवान है।

मांसाहारी परेशान हैं। दशहरे और बकरीद ने मछलियों, मुर्गों, बकरों और भी दूसरे खाये जाने वाले जानवरों का भाव बढ़ा दिया है। शाकाहारी भी कम परेशान नहीं। टमाटर चालीस से नीचे नहीं उतर रहा, प्याज साठ पर डटा हुआ है और अब तो गोभी, नयां आलू और मटर भी बाज़ार में आ गया है। सभी त्योहार आम आदमी कर्ज़ लेकर रोते हुए मनायेगा। खास के पास धन है। सभी त्योहार हँसते हुए मनायेगा। रोते हुए मने, चाहे हँसते हुए, त्योहार आयेंगे और मनाये जाते रहेंगे। गरीब यह नहीं समझ पाते कि ये त्योहार खास के द्वारा, खास के लिए, खास के हित में बनाये गये हैं। ये व्यापारियों के लिए आते हैं। मुल्लों, पंडितों के लिए आते हैं। पूँजीपतियों के लिए आते हैं। ये त्योहार सर्वहारा वर्ग की खून-पसीने की गाढ़ी कमाई को बाज़ार तक ले जाने के लिए आते हैं। इन त्योहारों में गरीब के घर ढिबरी भी कर्ज़ के तेल से जलती है, बाजार लाभ से जगमगाते हैं।  

आम आदमी की परेशानी खास को समझ में नहीं आती। हँसते हुए कहता है-अब भारत में गरीब कहाँ रह गया? रिक्शा चलाने वाले के पास भी मोबाइल है! गरीब आदमी के बच्चों के पास भी लैपटॉप है। नेट पर बैठकर बड़े-बड़ों से चैट करता है! भाड़ में जाये तुम्हारा मोबाइल! भाड़ में जाय तुम्हारा यह जंजाल। तुमने मोबाइल देकर मजदूरों को और 24 घंटे का गुलाम बना दिया। रात में भी चैन से सो नहीं पाता। थका-मांदा रात मे 12 बजे घर आया है। दो रोटी खाकर गहरी नींद सोया है। तुम्हें कोई जरूरी काम याद आ जाता है और तुम उसे भोर में ही घर आने का आदेश सुना देते हो। जब मोबाइल नहीं था, रात तो उसकी अपनी थी। लोटा लेकर निपटने जाता था तो देख पाता था सूरज़ की लाली कैसी होती है! अब तो दोनो जहान से गया। मगर मजे की बात यह कि यह भी नहीं कह पाता- यह लो अपनी लकुटी कमरिया, बहुत ही नाच नचायो।

आम आदमी को तो श्रम के बदले पेट भर भोजन चाहिए। पहनने के लिए कपड़ा चाहिए। बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा चाहिए। रहने के घर चाहिए, घर में बिजली-पानी चाहिए। चलने के लिए सड़क चाहिए। बीमार पड़े तो अस्पताल चाहिए। इतना सब मिल जाय तब जाकर धन्यवाद देने के लिए भगवान चाहिए। उत्सव मनाने के लिए त्योहार चाहिए। मगर यहाँ सब उल्टा-पुल्टा हो रहा है। घर में खाने के लिए रोटी नहीं मगर त्योहार मनाना जरूरी है। पैसा नहीं है तो कर्ज़ लेकर ही सही, मनाना जरूरी है। दौड़ लगा रहे हैं मंदिरों में..हे ईश्वर! चमत्कार कर दो। भाग रहे हैं भीड़ में। भगदड़ मची तो खास एक भी नहीं, सबके सब आम ही मरे। चालाक नहीं जाते भीड़ में। कर्ज़ दे सकते हैं ब्याज़ पर। जाओ! मनाओ भगवान, मनाओ त्योहार, काटो बकरे, चढ़ाओ परसाद। तरह-तरह के ऑफर, तरह-तरह के प्रलोभन।

कहाँ जायेगा भागकर आम आदमी? कर्ज़ ले लो कर्ज़। सस्ते दर पर ले लो। सिम भराओ..बतियाओ सढ़ुआइन से। ऐ बहिनी, फोन लगाय द जरा मौसी के! दशहरा ऑफर है, दीवाली ऑफर है..ले लो, ले लो, कर्ज़ ले लो। कर्ज लेकर नई टीवी ले आओ, फ़्रिज ले आओ, जिसकी जितनी हैसियत उससे बढ़कर चीजें ले आओ। पेट्रोल भराने की ताकत नहीं, साइकिल छोड़कर मोटर साइकिल ले आओ। रखने लायक घर नहीं, कार ले आओ। शामिल हो जाओ दौड़ में। रोटी से दूर, दवा से दूर, अच्छी शिक्षा से दूर जिये जा रहे हैं झूठे भ्रम जाल में। भले छत चू रहा हो, मोबाइल भरा होना चाहिए, केबिल चालू रहना चाहिए। देखना है सीरियल...आनंदी, बिग बॉस, महाभारत। ललचते जाना है देख-देखकर तरह-तरह के विज्ञापन। सब देखकर भी सुख नहीं हैं। भरनी है आह! करना है क्रंदन। नौ दिन व्रत रखो, माई खुश होंगी तो मिल जायेगा सब कुछ। लक्ष्मी की पूजा करो, घर धन से भर जायेगा। 

उच्च शिक्षा पर खास का कब्जा है। अच्छे इलाज खास के ही वश में हैं। आम आदमी को रहना ही है भगवान भरोसे। इस जाल से निकल पाना अब तो असंभव लगता है। यह और कुछ नहीं अपराधियों, पूँजीपतियों, धर्मगुरूओं का एक सम्मिलित चमत्कार है। इस चमत्कार को नमस्कार है।
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12.10.13

'घर' (चार शब्द चित्र।)


पिछले दिनों फेसबुक में चार स्टेटस लिखे। सभी का संबंध 'घर' से है इन्हें यहाँ सहेजने की इच्छा हुई इसलिए पोस्ट कर दिया। 
  

(1) 

एक घर होता है जिसमें चार लोग रहते हैं। पति, पत्नी, बिटिया और बेटा। फुरसत के पलों में पति फेसबुक से चिपका है, पत्नी बिटिया संग बिग बॉस देख रही है, बेटा कोर्स बुक देख रहा है। सभी जब अपने चिपके स्थान से हटते हैं तो खाना खाकर सो जाते हैं। सुबह होती है सब अपने-अपने रस्ते चले जाते हैं। घर हमेशा की तरह अकेला रहता है। सदस्यों के होने या न होने से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह कहता है- 

पहले घर में बच्चे रहते और रहती थीं दादी-नानी
गीतों के झरने बहते थे, झम झम झरते कथा-कहानी।
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(2)

भाई-भाई नहीं
पति-पत्नी 
निकले हैं साथ-साथ
स्वर्णमृग की तलाश में
और खींच दी है
घर के चारों ओर
लक्ष्मण रेखा से भी तगड़ी 
एक आर्थिक रेखा!

माता-पिता को मिली है
सख़्त हिदायत
सावधान!
इससे बाहर मत निकलना
जंगलराज है
भेष बदलकर
कभी भी लूट सकता है
महंगाई का रावण।
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(3)

पड़ोस में
सास-बहू के झगड़े नहीं होते
बहू 
तीन चार साल में 
तभी घर आ पाती है
जब वह
माँ बनने वाली होती है।

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(4)

रोटी पर बैठकर
उड़ गये
सभी लड़के

घर में 
बुढ्ढा-बुढ्ढी
कमरों में 
किरायेदार रहते हैं।
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3.10.13

सनातन काल यात्री कौन...?




सनातन काल यात्री कौन? ट्रेन, उसमें बैठे लोग, या फिर दूर वो ढलता सूरज।  पैदल और साइकिल सवार की दूरी इतनी कम है कि इन्हे यात्री के बदले कामकाजी कहना ठीक होगा। ट्रेन में बैठे लोगों के भी अपने-अपने स्टेशन हैं, दूरी निर्धारित हैं। ये अपनी दूरी के यात्री हैं। ट्रेन भी अपनी निर्धारित दूरी तय करने के बाद रूक जायेगी, पलटेगी और फिर वहीं के लिए चलना शुरू कर देगी जहाँ से आई है। रूकने के बावजूद ट्रेन की यात्रा भी निरंतर जारी रहती है। बावजूद इसके ट्रेन स्वयम् यात्रा नहीं करती, लोगों को उनकी मनमर्जी के मुताबिक लाती, ले जाती है। सूरज कभी नहीं रूकता। चलता रहता है। असली यात्री तो यही लगता है। सनातन काल यात्री।

इन सब के अतिरिक्त दूसरे यात्री भी हैं जो दिखलाई नहीं पड़ते। वह है-आत्मा। सुना है प्रत्येक मनुष्य के भीतर आत्मा रहती है। शरीर ऐसे बदलती है जैसे मनुष्य कपड़े। एक के बाद दूसरा, दूसरे के बाद तीसरा....। सिर्फ सुना है। देखा नहीं, जाना नहीं। गीता में पढ़ा है। विज्ञान ने सिद्ध नहीं किया। जो विज्ञान सिद्ध न कर पाये वह असत्य है ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। कई बातें मनुष्य के ज्ञान के परे होती हैं। जिसे अधिसंख्य स्वीकार करते हैं उसे सही मान लिया जाता है। भले ही वह सही न हो। ऐसी बातें तब तक सही मानी जाती हैं जब तक गलत सिद्ध न हो जांय। धरती को भी पहले चपटी कहा जाता था। बाद में ज्ञान हुआ धरती चपटी नहीं गोल है। आत्मा के होने और मनुष्य के मरने के बाद भी जीवित रहने की बात अभी तक गलत नहीं सिद्ध हुई। यदि सही है तो यह आत्मा ही सनातन काल यात्री हुई।

सूरज दिन में दिखलाई पड़ता है। जब नहीं दिखलाई पड़ता, रात होती है। विज्ञान ने सिद्ध किया कि जब यहाँ नहीं दिखलाई पड़ता तो वहाँ दिखलाई पड़ता है। पृथ्वी गोल है। वह सूरज के चक्कर लगाती रहती है। दिन और रात भी इसी के कारण होता है। आत्मा दिखलाई नहीं पड़ती।  अब प्रश्न यह उठता है कि  जो दिखलाई न पड़े उसे यात्री कैसे कहा जाय? सूरज ही यात्री-सा दिखता है। आत्मा ?  पता नहीं निरंतर यात्रा करती भी है या नहीं! सुना है मोक्ष भी प्राप्त करती है! मोक्ष प्राप्त करने के बाद उसकी यात्रा समाप्त हो जाती है। जिसकी यात्रा समाप्त हो जाय वह सनातन यात्री कैसा ? हम सूरज और आत्मा को भूल स्वयम् को ही यात्री मान बैठते हैं। अभी तो यात्री बनने के लिए इन्हीं में संघर्ष छिड़ा हुआ है!

प्रश्न उठता है मोक्ष के लिए प्रयास कौन करता है?  क्या यह आत्मा का प्रयास है मैने तो मनुष्य को ही प्रयास करते अनुभव किया है। जीवन के दुखों से घबड़ाकर प्रार्थना करता रहता है- हे ईश्वर! आपकी कृपा हो तो इस रोज-रोज के फेरे से मुक्ति मिले। सुनता है.. काशी में मरने से, मणीकर्णिका में फुँकाने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। प्रयास करता है कि काशी में मरें ताकि मोक्ष की प्राप्ति हो। दुर्भाग्य से कहीँ और मरा तो उसके परिजन लाद-फाँद कर ले आते हैं उनकी अस्थियों को कलश में सहेजकर। विसर्जित करते हैं गंगा में..मेरे प्रियजन की आत्मा को मोक्ष मिले। मैने भी विसर्जित किये हैं अपने माता-पिता के 'अस्थिकलश सबकी इच्छानुसार, गंगा में। प्रश्न उठता है कि क्या यह मोझ आत्मा चाहती है या मनुष्य के मन की बेचैनी मात्र है! आत्मा, यात्रा से इतना घबराती क्यों है? निरंतर यात्रा करती है,घबराती भी रहती है! क्या पड़ी है आत्मा को घबराने की? क्या यह भी यात्रा हमारी तरह मजबूरी में करती है? हर वक्त मोक्ष की कामना करते हुए यात्राएँ करती रहती है! मुझे लगता है यह मनुष्य के मन की उकताहट है। यात्रा से थक जाने, मुश्किलों से घबराने का उसका स्वभाव मात्र है।



अहो भाग्य मानुष तन पावा! यह कौन कहता है ? बुद्धि कहती है ! फिर बुद्धू की तरह मोक्ष की कामना क्यों करती है ? आत्मा के लिए!  आत्मा की चिंता उसे क्यों होने लगी? वह होता कौन है आत्मा की चिंता करने वाला? वस्त्र क्या जिस्म की चिंता करते हैं ?  जिस्म जीर्णशीर्ण हुआ तो मनुष्य घबराये आत्मा क्यों घबराती है ? उसके लिए तो तैयार हैं कई नये जिस्म!  जहाँ मर्जी वहाँ चला जाये। वैसे ही जैसे कई ट्रेन हैं, चाहे जिसमें बैठकर यात्रा करे। यहाँ सीट न मिले तो दूसरे में टिकट बुक करा ले। यात्रा से घबराने का स्वभाव आत्मा का नहीं लगता। आत्मा तो बेखौफ होकर यात्रा करती रह सकती है। मोझ क्यों चाहेगी? सूरज तो कभी नहीं घबराता! कहीं सूरज ने भी यात्रा से घबराकर मोक्ष की कामना कर ली तो!! अब आप क्यों घबराने लगे?  आप भी मोक्ष ही चाहते हैं न! एक बार सूरज को मोक्ष मिले तो न रहे बांस न बजे बासुंरी। आत्मा को भी मोक्ष मिल जाये, मनुष्य को भी । मगर इस मोक्ष की कल्पना से भी रूह काँप जाती है! रूह यानि की आत्मा !!! सभी कांपते रहते हैं तो फिर सनातन यात्री कौन ? 


एक और चक्कर है। सूरज यात्री-सा दिखता है इसलिए कि हम निरंतर पृथ्वी से उसे उगते-ढलते देखते रहते हैं। मगर असल यात्री तो पृथ्वी है! यह वैसे ही है जैसे ट्रेन की खिड़की से बाहर देखने पर स्थिर पेड़-पौधे पीछे भागते हुए दिखते हैं। इस दृष्टि से देखा जाय तो फिर सनातन कालयात्री तो यह पृथ्वी ही हुई! पृथ्वी के अलावा और भी ग्रह हैं, चाँद-तारे हैं जो सूरज की परिक्रमा करते रहते हैं। तो फिर सनातन काल यात्री कौन ? क्यों न संपूर्ण प्रकृति को ही सनातन काल यात्री मान लिया जाय ?
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