मेरी पलकों से पहले
खुलती हैं
तुम्हारी पलकें
उठकर देखता हूँ
फेंक चुके हो
अंधेरे की चादर
गिरा चुके हो
लाल चोला
मेरे मुँह धोने, खाने-पीने, कपड़े पहनकर काम पर निकलने तक तो
टंच हो
झक्क सफेद धोती-कुर्ता पहन
घोड़े के रथ पर बैठ
दौड़ने लगते हो आकाश में
न जाने कहाँ जाना रहता है तुम्हें !
मियाँ की दौड़ मस्जिद तक
पूरब से निकलते हो
पश्चिम में ओझल हो जाते हो
न नमाज़ी सी सहृदयता न ईश्वर का भय
है तो बस
रावणी अहंकार!
ठहरो!
इतना आग मत उगलो
अभी असाढ़ है
आगे....
सावन, भादों
तुम्हें
कीचड़ में डुबो कर
गेंद की तरह खेलेंगे
गली के बच्चे
मेरे देश में
किसी की तानाशाही
नहीं चलती ।
..........
वाह वाह ! लगता है गर्मी से बेहद परेशान हैं आप .सूरज को भी तानाशाह बना दिया .वैसे तानाशाही किसी भी देश में ज्यादे समय तक नहीं चल सकती.
ReplyDeleteवाह ! सूरज से इतनी नाराजगी..यही सूरज ही तो कर रहा है चुपके चुपके बादलों का इंतजाम आपको सरप्राइज देने के लिए..
ReplyDeleteगर्मी से त्रस्त तन- मन से निकली अच्छी कविता है . लेकिन सूरज के लिये इतना गुस्सा कि इतनी की जगह इतना लिख गए ...
ReplyDelete:) क्या करें ! हमको बीमार कर दिया।
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (12-06-2015) को चर्चा मंच के 2000वें अंक "उलझे हुए शब्द-ज़रूरी तो नहीं" { चर्चा - 2004 } पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
वाह. सुंदर.
ReplyDeleteवाह. सुंदर.
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी भावपूर्ण प्रस्तुति.बहुत शानदार ,बधाई. कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.
ReplyDeleteवाह, बहुत बढ़िया
ReplyDeleteवाह लाजवाब, सही हेकड़ी निकाली है आजकल कुछ ज्यादा ही दादागिरी चल रही है महाशय की
ReplyDelete