ठंडी और बसंत की
मिट्ठी नहीं होती है
लौट-लौट आती है
लौट-लौट जाती है
गंगा के लहरों में
बसंत की कोई
चिट्ठी नहीं होती है
वही साइबेरियन पंछी
वही नावें
वही यात्री
वही सहमें-सिकुड़े
बनारस के घाट
बूढ़ा पीपल
हमेशा की तरह हंस रहा है
ललिता घाट पर
दो-चार पतंग क्या फंसा लिए अपने जाल में
अपने को बड़ा
तीस मार खाँ समझता है !
ठंडी जानती है
मेरे जाने पर ही
आयेगा बसंत
फिर भी
इतनी बेकरारी क्यों है?
तू जा न,
जा!
कि आएगा बसंत
तूने जो कलियाँ खिलाईं हैं
उन्हें चूमकर
फूल बनाने के लिए
आयेगा बसंत
........................
agar yahi bat kisi ki shrimati apane shriman se khe to ? ha ha ha
ReplyDeleteबवाल हो जायेगा!
Deleteबवाल हो जायेगा!
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (18-01-2016) को "देश की दौलत मिलकर खाई, सबके सब मौसेरे भाई" (चर्चा अंक-2225) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद।
Deleteआपकी कविता तो है ही सुंदर, प्रेम बल्लभ पांडे जी की टिप्पणी पठ कर हँसी छूट गई।
ReplyDelete:)
Deleteललिता घाट का बुढा पीपल का पेड़ और पतंग का उसमें फसना ..बहुत खूब ...तभी तो कहते हैं जहाँ न पहुंचे रवि वह पहुंचे कवि ...
ReplyDeleteAh...Lovely!!!
ReplyDeleteआभार।
ReplyDeleteथैंक्स
ReplyDeleteथैंक्स
ReplyDeleteबस, बसंत की याद ही तो संत नहीं बनने देती। बहुत सुन्दर पंक्तियाँ।
ReplyDeleteबसंत के स्वागत में सुंदर शब्द..
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