लोहे के घर में आज एक सदस्य आया. नाम...जुबेर खान। बनारस से चढ़ा था और इसे मुजफ्फरनगर जाना था. इसके साथ इसका जीजा भी सफ़र कर रहा था जो इसे यहाँ ले आया था. यह एक कारीगर था जो आटा बनाने वाली फैक्टरी में छप्पर डालने के काम के सिलसिले में बिहार गया था और काम करने के दौरान छत से गिर जाने के कारण पैर की हड्डी टूट गई थी. वहां डाक्टरों ने बनारस ले जाने की सलाह दी. इसका जीजा मुजफ्फर नगर से सब काम छोड़-छाड़ कर भागा-भागा आया और इसे बनारस के एप्पेक्स हास्पिटल में २९मई को एडमिट कराया.८ जून तक इसका ईलाज चला और इसे डिस्चार्ज कर दिया गया. ईलाज इनकी उम्मीदों से इतना मंहगा पड़ा कि चुकाने के लिए पैसे पूरे नहीं पड़े. आपरेशन सहित कुल खर्च का बिल ६००००/- से अधिक का आया. पैसे जुटाने में इन्हें दो दिन और रुकना पड़ा. ८ के बदले १० जून को अस्पताल से मुक्त हो पाये.
सब ठीक था लेकिन इनको कष्ट इस बात का था कि ईलाज चाहे जितना भी मंहगा हो. वह उनका रेट था, उन्होंने लिया. दो दिन रुकने का रूम का किराया भी ले लिया, कोई बात नहीं. लेकिन दो दिन का नर्स का चार्ज, और भी दूसरे ईलाज का चार्ज क्यों लिया? यह तो वैसे ही हुआ कि होटल में रुकने का किराया लिया और साथ में उस भोजन का पैसा भी ले लिया जो मैंने खाया ही नहीं. आपके बनारस में तो लोग बाहरी लोगों को ऐसे ठगते हैं! इतना बड़ा अस्पताल और ऐसी हरकत! मेरे मुजफ्फर नजर में होता तो अपने भीे भी टांगों का ईलाज उनको कराना पड़ता. अब एक महीने बाद फिर बुलाया है. मैं तो नहीं आउंगा दुबारा कभी बनारस.
अब मैं क्या बोलता! दुखी आदमी अजनबी से झूठ क्यों बोलेगा भला? चुपचाप सुनता रहा और एक फोटू खींच ली टूटे टांग की. पता नहीं सच क्या है! अस्पताल वालों के बिलिंग सिस्टम को समझने में इन्हें धोखा हुआ है या अस्पताल का बिलिंग सिस्टम ही लोगों के साथ धोखा करता है! थोड़े वक्त का साथ. जुबेर खान अपने रस्ते, मैं अपने रस्ते. भगवान करे इसकी टांग ठीक हो जाय और इसे ईलाज के लिए दुबारा बनारस न आना पड़े.
लोहे का घर
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मेरे घर मे छक्के रहते
मेरे घर भिखमंगे
मेरे घर मे बूढे रहते
मेरे घर मे बच्चे।
सभी तरह के लोग यहाँ पर।
मेरे घर मे पानी मिलता
मेरे घर मे दाना
मेरे घर मे गरम पकौडे़
मेरे घर मे खाना।
चाय तो हरदम मिलता।
कोई काम नहीं करता है
बैठ के सब बतियाते
लेटे, सोते, बात-बात मे
भारत घूम के आते।
पटरी पर गाड़ी चलती है।
तुम चाहो तो
मेरे घर मे
आ सकते हो
आभासी
दुनियाँ मे भी
जा सकते हो।
लोहे का
घर है अपना
बहुत बड़ा है
पूरा देश
इसी के दम से
खूब जुड़ा है।
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आज फिफ्टी मिल ही गई। मुझे लगा पूछेगी-कहाँ थे इतने दिन? मगर हाय! न पूछना न बात करना रुकने के बाद जोर से हारन बजाने लगी-बैठना हो तो बैठो वरना चली! पूरी लोहे की बनी है, ललमुँही। मरता क्या न करता, बैठ गया। हाड़-मांस वाली भाव नहीं देती, यह तो है ही काले इंजन वाली।
सूरज ढलने के बाद लोहे के घर का मौसम सुहाना है। हवा चल रही है। खिड़कियों से दिख रहे हैं सूखे खेत और भूखे चौपाये। नीम से मिल कर हँस रहा है पीपल। लड़के नही खड़े हैं आम के नीचे, पत्थर लेकर। टूट चुके हैं आम। शायद इसीलिए खामोश हैं। पगडंडियों पर साइकिल चलाते घरों को लौट रहे हैं ग्रामीण। लोहे के घर में शोर मचा रहे हैं चाय-मटर-पानी बेचने वाले। बंगाली में बतिया रहे हैं हावड़ जाने वाले। अपने में मशगूल हैं रोज के यात्री। डूब रहा है सूरज, जाते-जाते घर में झांक रही है गर्मी वाली धूप।
#ट्रेन चल रही है। वैसे ही जैसे कल चल रही थी, वैसे ही जैसे परसों। बरसों से चल रही है ट्रेन। ट्रेन के साथ मैं भी चल रहा हूँ। मेरे साथ और भी हैं। सबका अपना-अपना ठहराव है, सबकी अपनी-अपनी मंजिल। मेरा न ठहराव न मंजिल। मेरे लिए ट्रेन लोहे का एक घर है जहाँ सुबह-शाम एक/डेढ़ घंटे के लिए रहना फिर उतर जाना है। एक भटकती आत्मा जो कभी इस, कभी उस जिस्म में पनाह पाती है। कुछ देर हंसती-बोलती फिर चुप हो जाती है। मैं कोई यात्री नहीं, दृष्टा हूँ असंख्य यात्राओं का। अक्षीसाक्षी हूँ सुख-दुख का। मेरे लिए हर दिन एक समान।
सामने बर्थ पर पूड़ी-सब्जी खाने के बाद, पति की निगरानी में बच्चे के साथ निश्चिंत सो रही महिला या बगल में बैठे यात्रियों की लम्बी बातचीत से बेखबर अंधेरे में पटरी पर दोड़ रही है अपनी ट्रेन।
आखिर आ ही गई फिफ्टी। प्रतीक्षा करते-करते जब मेरा मन पूरी तरह डाउन हो गया तब हारन बजाती आ ही गई फिफ्टी डाउन। बोगी में चढ़ते ही मन बम-बम हो गया। ऊपर-नीचे जिधर देखो उधर बोल बम। मुड़ी से मुड़ी सटाये, टांग से टांग भिड़ाये। कहीं चित्त लेटे हैं तो कहीं पट। कहीं बैठे-बैठे कर रहे खट पट, खट पट। सभी एक से बढ़कर एक। के केहू से का कम! बोल बम-बोल बम। इन्हें देख ऐसा लगता है कि हनुमान जी के नेतृत्व में सीता जी का पता लगाने वानरी सेना निकल पड़ी है। पानी भले न बरसे इन्हें देख अंग्रेज का बच्चा भी समझ जाता है कि सावन आ गया।
फिफ्टी अपने रंग में है। कछुए की तरह सो चुकी। हमें बिठाने के बाद खरगोश की तरह फुदक रही है। आगे लोअर बर्थ में बैठी कुछ महिलाएं हरा मटर खरीद कर खा रहीं हैं। एक हाथ से अखबार में मटर और दूसरे हाथ में लकड़ी का चम्मच। चहक-चहक कर खा रहीं हैं स्वाद से। बीच-बीच में तीखे दांतों से कट्ट से काटतीं हैं हरा मिर्च। उजाले में भी चमकते हैं सुफेद दांत।
हर स्टेशन पर रूकती है #ट्रेन और चढ़ते हैं बोल बम। अब सावन भर रोज के यात्रियों को नींद में भी बोल के सपने आते रहें तो कोई अचरज नहीं।
फिफ्टी डाउन में बोल बम की भीड़ आज भी है। वैसे भी आज सावन का पहला सोमवार है। रिजर्वेशन वाले परेशान हैं। एक तो रोज के यात्रियों की भीड़ ऊपर से बोल बम। राहत की बात यह कि मौसम सुहाना है। बारिश यहाँ नहीं हो रही लेकिन बनारस मे जोरदार होने की खबर है। धीरे-धीरे लोग एडजस्ट हो चुके। जिसे नीचे बर्थ में जगह नहीं मिली वह ऊपर चढ़ गया। इसी भीड़ में हरा मटर बेचने वाले भी बल्टा-झोला लिये घूम रहे हैं। इनका मटर हर मौसम में हरा रहता है। न मटर की कमी, न हरे रंग की और न खाने वालों की। इस समय तो पूरी धरती हरी-भरी है।
सुबह कैंट स्टेशन पर बोल बम की भीड़ में दिखे थे सांड़ और गैये। यह तो अच्छा है कि #ट्रेन के दरवाजे छोटे हैं वरना बोगी मे चढ़कर बर्थ में बैठ जाते बनारसी सांड़ तब क्या हाल होता यात्रियों का!
सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteधन्यवाद.
Deleteपढ़ता ही रहता हुँ लोहे के घर में बिताये हुये समय के अनुभव और लिखने की शैली की मन ही मन तारीफ़ करता हुँ ।
ReplyDeleteआभार आपका.
Deleteआभार आपका.
ReplyDeleteआभार आपका.
ReplyDeleteमैंने तो बस एक बार ही ट्रेन पर एक पोस्ट लिखी थी... वो घटना और वो पोस्ट आज भी मेरे दिल के करीब है. लेकिन आप हर रोज ऐसा कुछ देख कर इतना कुछ लिख पाते हैं आश्चर्य है. मेरे पिता जी अगर जीवित होते तो शायद उनके पास इस तरह की अनेक कहानियाँ होतीं. लेकिन मन का सोचा होता ही कब है. फिर भी आपकी यायावरी मुझे मेरे पिता जी से मिला देती है! आभार.
ReplyDeleteआपके कमेन्ट मुझे उत्साहित करते हैं.
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