लोहे के घर की खिड़की से
हौले से आई और..
दाएं गाल को चूमकर
गुम हो गई
जाड़े की धूप।
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पुत्रों को सौंप
धानी चुनरिया
सन बाथ ले रही है
धरती माँ
पटरी पर चल रही है
अपनी गाड़ी।
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सुबह के समय लोहे के घर की खिड़कियों से दिखते हैं सुनहरे धूप में नहाए स्वर्णिम खेत। खड़ी ज्वार/गन्ने की फसल हो या गाय/भैंस के मल से बने कंडे, यत्र तत्र सर्वत्र एक सुनहरी आभा बिखरी होती है। खेत के साथ खेतों की रखवाली के लिए तैनात बजुके भी दिखते हैं।
पंछियों को डराने के लिए किसान खेतों में बजुके खड़े करते हैं। चालाक पँछी आदमी के इन पुतलों से नहीं डरते। आकाश से उतर कर सीधे बजुकों के सर पर बैठते हैं। इधर-उधर ताकते हैं फिर पूँछ उठाकर, पँख फड़फड़ा कर पुतलों की बाहों से होते हुए खेतों में उतर, ढूँढने लगते हैं दाने। इसे देख एक बात समझ में आती है कि किसी को बहुत दिनों तक मूर्ख नही बनाया जा सकता।
अब प्रश्न उठता है कि इन बजुकों में अगर जान आ जाय तो क्या हो? स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारतीय मानव प्रजाति के व्यवहार को देखते हुए तो यही लगता है कि लाख खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने की व्यवस्था करो, सबसे पहले खेतों के दाने तो बजुके ही उड़ाएंगे! पूछो तो सारा इल्जाम चिड़ियों पर!..जरा सी आँख लग गई थी साहेब। अब हर समय तो जाग नहीं सकता!
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लोहे के घर की बन्द शीशे की खिड़कियों से आ रही है सुर सुर सुर सुर ठंडी हवा। आमने सामने की बर्थ पर हम छः यात्री हैं और सभी अपने-अपने मोबाइल में व्यस्त हैं। सभी साथी हैं मगर सभी को एक दूसरे से ज्यादा कुछ और पसन्द है। किसी को फिलिम पसन्द है, किसी को मोबाइल गेम।
कमोबेस यही हाल कंकरीट के घरों का भी है। कहने को तो सभी एक परिवार के सदस्य हैं मगर सभी की रुचियाँ अलग-अलग हैं। सभी को अपनी जिंदगी जीने का अधिकार और खुला स्पेस चाहिए। यदि कोई किसी से अपने मन की बात करना चाहता है तो अगले के खाली होने तक उसे प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। बीच में टोका तो हो गया उपेक्षा का शिकार! उपेक्षा से आहत हुआ अहंकार। आहत दिल से उपजा क्रोध। क्रोध ने कराई बात। शुरू हुआ बेबात का झगड़ा। बहुत लफड़ा है। जीवन सरल भी हुआ है और कठिन भी।
एक अकेला अजनबी यात्री ऊपर बर्थ में पद्मासन लगा कर बैठा नीचे वालों को टुकुर टुकर ताक रहा है। अलग अलग मोबाइल से आ रही आवाजें सुन रहा है। शायद उसके पास मोबाइल नहीं है। युवा है लेकिन उसका हाल घर के दद्दू जैसा है। जो परिवार के सभी सदस्यों की बात चुपचाप सुनता रहता है लेकिन अपने मन की बात किसी से नहीं कह पाता। ऊपर वाले को दद्दू की तरह बस मंजिल की प्रतीक्षा है।
#ट्रेन देर से रुकी थी। लोग अकुला कर एक दूसरे से बात करने ही वाले थे कि चल दी। आजकल जब समस्या आती है तभी घर के सदस्य एक दूसरे से बातें करते हैं। अजी सुनते हैं? मुन्ना अभी तक कोचिंग से नहीं आया! पति हाँ, हूँ करते हुए करवट बदलता है तभी डोर बेल बज जाता है। मुन्ना आ गया। समस्या खतम। संवाद खतम। एक तो वैसे ही हम दो, हमारे दो वाला छोटा परिवार उप्पर से सभी के अपने अपने मूड। पहले घर में बच्चे रहते और रहतीं थीं भाभी, दादी। गीतों के झरने बहते थे, झम झम झरते कथा, कहानी।
ऊपर पद्मासन लगा कर बैठा बन्दा सुफेद चादर ओढ़कर सो गया। नीचे बैठे छ में से एक सदस्य अपनी मोबाइल बन्द कर खिड़की का शीशा उठाकर बाहर अँधरे में मंजिल झाँक रहा है। दो एक ही मोबाइल में कोई मजेदार फ़िल्म देख कर खिलखिला रहे हैं। नॉन स्टॉप ट्रेन फिर किसी छोटे स्टेशन पर देर से रुकी है।
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भारतीय रेल अच्छे अच्छों को अपने समय जाल में फंसा सकती है। सात बजे फरक्का को जौनपुर आना था वह अभी तक नहीं आई। उसके बदले ८.१० में आने वाली गोदिया ९.३५ में आ गई। हम यह सोच कर मन बहलाते रहे कि वह अब चल चुकी है, अब आ रही है। पहले ही कह देती की हम इतने देर से आएंगे तो इसे कौन पूछता? सब सड़क का रास्ता नहीं पकड़ लेते! अब आ गई है तो इत्मीनान से खड़ी है। सिंगल ट्रैक है, एक मालगाड़ी छूटी है अभी। अब जब तक वह अगले स्टेशन तक पहुंचेगी, इसे रुकना ही है। हम अब इसकी एक बोगी में लेट कर इसके चलने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। बोगी में कोई कह रहा है.. काशी जाना आसान नहीं। उसके कहने का आसय यह कि मोक्ष पाना इतना सरल नहीं है।
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अपनी गाड़ी पटरी पर चल रही है। इस दौर में जब पटरी से उतर जाने की खबर चर्चा में हो, गाड़ी का पटरी पर चलते रहना सुखद है। क्या हुआ कि अब तक मिल जानी चाहिए थी मंजिल लेकिन नहीं मिली! क्या हुआ कि आना था कब और आई है अब! क्या हुआ कि जब घर पहुंच कर, खा पी कर सो चुकना था हमें मगर मगर फंसे हैं, रस्ते में! देर से चली मगर बड़ी रफ्तार से चल रही है अपनी गाड़ी। रात के सन्नाटे में किसी पुल को थरथराती, किसी छोटे स्टेशन पर पटरियां बदलती, झूला झुलाती ट्रैक बदलती है #ट्रेन तो बड़ा मज़ा आता है।
कुछ सो रहे हैं और कुछ इतने रात को भी ऐसे चहक रहे हैं कि अभी सबेरा हुआ हो! जो दूर से यात्रा करते हुए चले आ रहे हैं और अभी दूर जाना है वे मुंह ढककर सो रहे हैं। जिन्होंने प्लेटफार्म पर लंबी प्रतीक्षा के बाद के बाद ट्रेन पकड़ने में सफलता पाई है, वे चहक रहे हैं। न जाने क्या है इस ट्रेन की मोहब्बत में कि रोज धोखा देने के बाद भी कभी बेवफा नहीं लगती। रोज कहते हैं कि न जाएंगे कभी इससे और रोज लगता है कि बस चढ़े नहीं कि घर पहुंच गए। मंजिल से प्यारा है इसका सफर। अजनबी भी लगने लगते हैं हमसफ़र!
अभी देर से किसी स्टेशन पर रुकी है। पक्का बता देती कि रात भर रुकी रहेगी तो सो जाते चैन से। मगर कभी पक्की बात न करना ही तो ट्रेन की जानमारू अदा है। सही बता देती तो चलने वाले हारन की आवाज में इतनी मिठास कहां होती!
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सुबह सबेरे एक युवक चलती #ट्रेन के दरवाजे पर बैठा खेत झाँक रहा था। हमने कहा...उठो! रास्ता दो। स्टेशन पास आ रहा है, उतरना है।
वह उठा तो उसका आसन दिखाई दिया। दरअसल वह लकड़ी की एक पटरी थी जिसके चारों कोनों पर पहिए लगे हुए थे! अब हमारा ध्यान इकहरे स्वस्थ बदन वाले युवक पर गया। वह अपने एक टाँग पर खड़ा था। दूसरा पैर घुटने से गायब था!
कहाँ जाना है?
ट्रेन अमृतसर तक जाएगी तो अमृतसर चले जायेंगे!
#दिव्यांग के लिए पूरी बोगी है, वहाँ क्यों नहीं बैठे?
उसने प्रश्न के जवाब में प्रश्न किया...वहाँ बैठते तो माँगते कैसे?
अब हमको समझ मे आया कि यह तो भिखारी है!
कब से भीख मांग रहे हो?
बचपन से।
पैर कब कटा?
जब सात साल के थे।
कोई दूसरा काम क्यों नही करते? एक पैर कटा तो क्या हुआ? स्व्स्थ हो, सभी दूसरे अंग सलामत हैं।
घर वाले करने नहीं देते। सब यही काम करते हैं!
तब तक अपना स्टेशन आ गया और हम उतर गए। किसी भिखारी को देख कौंध जाता है उसका भी चेहरा तो लगता है भीख मांगना भी एक काम है।
बहुत सुन्दर हमेशा की तरह।
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 30-11-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2803 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
अतिसुन्दर।।
ReplyDeleteभारतीय रेल का "सफर" नामा
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