31.12.18

इक्कीसवीं सदी का टीन एज

अफसोस मत कर
इक्कीसवीं सदी
अभी अपने
टीन एज के
आखिरी साल में
प्रवेश कर रही है
और हम
पचपन पार हो गए!

अफसोस मत कर
चाँद पर घर बनाने और
उड़ने वाले जूते/जैकेट
खरीदने से पहले
हम स्वर्ग सिधार जाएंगे।

अफ़सोस मत कर
नहीं खत्म हुए
जम्मू कश्मीर से आतंकवादी,
संसार से परमाणु हथियार और
नहीं मिटी अपने देश से
गरीबी।

अफसोस मत कर
इक्कीसवीं सदी ने
अपने टीन एज में ही
खूब सहे हैं
जाति और साम्प्रदायिकता के दंश,
नहीं बन सका अभी तक
अयोध्या में भव्य राम मंदिर और
नहीं आया
भारत में रामराज्य।

खुश हो
कि सभी झंझावात सह कर भी
सलामत रख सके हम
खुद को,
खुश हो
कि अभीतक
गलत काम करना
निंदनीय है समाज में,
अच्छे काम की
आज भी होती है
भूरी-भूरी प्रशंसा,
खुश हो
कि स्मार्ट हो गए हम भी
इक्कीसवीं सदी में
स्मार्टफोन खरीद कर
और खुश होने की सबसे बड़ी बात यह
कि नहीं रहना पड़ा हमें
बीसवीं सदी के
टीन-एज में
जब देश गुलाम था।

भाग्यशाली हैं हम
आजाद मुल्क में पैदा हुए,
बनाते रहे
अपनी सरकार और
अक्षिसाक्षी रहे
इक्कीसवीं सदी के
टीन-एज के।
...........

30.12.18

जाड़े की धूप

आज मैंने भी तुमसे खूब प्यार किया
आज तुमने भी मेरा खूब साथ दिया।

छत पर चढ़ा तो झट से लिपट गई मुझसे
थोड़ा ठहरा तो जी भर के मुझे गर्म किया।

पँछी आते हैं, चुगते हैं औ चहकते भी हैं!
एक छुट्टी में, हमने भी ये महसूस किया।

पत्नी ने पाल रख्खे हैं गमलों में कई पौधे
इक गुलाब को हँसकर मैंने आदाब किया।

इस घाट से उस घाट तक चला शाम तलक
आज घण्टों माँ गङ्गा का दीदार किया।

एक कुतिया ने मढ़ी में जने थे कई पिल्ले
कुछ मूर्तियाँ थीं, झुककर, नमस्कार किया।

जाड़े की धूप! तू साए की तरह थी दिनभर
आज तुमने भी मुझसे खूब प्यार किया।
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बच्चे और गुब्बारे, बाल दिवस

एक बच्चा
सांता बनकर
गुब्बारे बांटता है।
एक बच्चा
गुब्बारे पा कर
खुश होता है।
हमारे देश में
तीसरा बच्चा भी रहता है
जो न गुब्बारे बांटता है न गुब्बारे पाता है
शाम की रोटी के लिए
दिनभर गुब्बारे बेचता है।

हे सांता!
तुम उस तीसरे बच्चे तक पहुँच सको
यही शुभकामना है।
.......................

22.12.18

ओ दिसम्बर! (5)

जानता हूँ
जाते-जाते
अनगिन जादू दिखलाएगा
हिम शिखरों से
झौआ भर-भर
बादल, कोहरा
ले आएगा

अभी तो मफलर जैकेट से ही
काम चल रहा अपना
दिन में खिलती धूप गुनगुनी
समय कट रहा अपना
कल जब बादल घिर आएँगे
लकड़ी जलवाएगा।

जानता हूँ
जाते-जाते
अनगिन जादू दिखलाएगा।

अभी तो जाड़ा मस्त गुलाबी
मन चाहा बाजार
सुबह मलइयो, दिन अमरूदी,
शाम मूँगफली यार!
बर्फीली बारिश में क्या
मदिरा मिलवाएगा?

जानता हूँ
जाते-जाते
अनगिन जादू दिखलाएगा।

ओ दिसम्बर!
बहुत बड़ा जादूगर लेकिन
तू भी है लाचार
नई हवा की लटक रही है
तुझ पर भी तलवार
क्या गोरी से फिर छत पर
स्वेटर बुनवाएगा?
क्या अचार के मर्तबान को
धूप दिखा पाएगा?
या नई हवा में, पीट के माथा
भक्काटा हो जाएगा?

ओ दिसम्बर!
जानता हूँ
जाते-जाते
अनगिन जादू दिखलाएगा।
.......

17.12.18

लालची आतंकवादी और सहिष्णु भारतीय

सुबह उठा तो देखा.. 
मच्छरदानी के भीतर 
एक मच्छर! 
मेरा खून पीकर मोटाया हुआ, 
करिया लाल

मारने के लिए हाथ उठाया तो 
ठहर गया
रात भर का साफ़ हाथ 
सुबह 
अपने ही खून से गन्दा हो?
यह अच्छी बात नहीं। 

सोचा, उड़ा दूँ!
मगर वो खून पीकर 
इतना भारी हो चुका था क़ि 
गिरकर 
बिस्तर पर बैठ गया! 
मैं जैसे चाहूँ वैसे मारूं 
धीरे-धीरे 
मुझे उस पर दया आने लगी! 
आखिर 
इसके रगों में अपना ही खून था!!! 

मैंने उसे 
हौले से मुठ्ठी में बंद किया और 
बाहर उड़ा दिया। 

इस तरह 
वह लालची अतंकवादी 
और मैं 
सहिष्णु भारतीय 
बना रहा।
..........

16.12.18

नीम

मैं तो 
नीम हूँ
सात गाँव का
हकीम हूँ।

कोई न काटे तो
सदियों जवान रहता हूँ
पतझड़ में
कपड़े बदलता रहता हूँ।

भारत और उसके पड़ोसी देशों में
खिलता/हँसता रहता हूँ
अधिक ठंडे देशों में
मुरझा जाता हूँ
अब दूर देश के विदेशी भी
मुझे चाहने लगे हैं
मुझे लगा कर
स्वास्थ्य सुख लेने लगे हैं।

चर्म रोग हो
मेरे छाल का लेप लगा लो,
दाँत चमकाने हों या
मसूड़े स्वस्थ रखने हों
टहनियाँ तोड़ कर
दातून कर लो,
मेरी पत्तियों को
उबालकर नहा लो
अपने घाव
ठीक कर लो,
मेरी नींबोली के तेल से
मालिश कर लो,
मधुमेह की दवा हूँ,
हवा को शुद्ध रखता हूँ
कड़वा हूँ पर
नख से शिख तक
लाभकारी हूँ।

जिसने मुझे पहचाना
मेरी छाँव तले बैठकर
खूब मजा काटा,
जिसने नहीं जाना
दो गज जमीन के लिए
उखाड़ कर
खेत में मिला दिया।

मैं तो
नीम हूँ
सात गाँव का
हकीम हूँ।
............

भेड़

एक दिन ऐसा हुआ
गड़रिया और भेड़ों के झुण्ड को देख
मेरा मन भी
भेड़ बनने को हुआ!

कूद गया लोहे के घर से
झुण्ड में शामिल हो 
भेड़ बन गया
एक बूढ़े भेड़ ने
मेरी यह हरकत देख ली!
धीरे से कान में पूछा..
उस झुण्ड से, इस झुण्ड में, क्यों आये हो?
पहले तो सकपकाया
फिर सम्भल कर बोला..
मुझे तुम्हारा नेता, अपने नेता से, अच्छा लगा।

बूढ़े ने हँसकर कहा..
वो तो ठीक है 
मगर यहाँ सभी
एक ही विचारधारा के हैं
इसलिए
झुण्ड में हैं
तुमको परेशानी होगी
मैंने सुना है
मनुष्यों का चित्त बड़ा चंचल होता है।

मैंने कहा..
वहाँ भी खतरा बढ़ गया है
तुम लोग 
हमेशा झुण्ड में चलते हो
शायद यहाँ
सुकून हो।

एक दिन 
मैंने महसूस किया
एक भेड़ 
जो गड़रिये से कुछ शिकायत कर रहा था
गुम था! 
मैंने बूढ़े को
प्रश्नवाचक निगाहों से देखा!
बूढ़े भेड़ के मुखड़े पर
एक कुटिल मुस्कान थी।
............

14.12.18

ओ दिसम्बर! (4)

ओ दिसम्बर!
जब से तू आया है 
सुरुज नारायण
बड़ी देर से
निकल रहे हैं,
बिस्तर में ही 
आ जाती है
अदरक वाली चाय।

घर से निकलो
चौरस्ते पर, रस्ता रोके
हलवाई की
गरम कड़ाही!

सुबह-सबेरे
छन छन छन छन
नाच रही है
फुली कचौड़ी
औ शीरे में
मार के डुबकी
निकल रही है
लाल जलेबी

लोहे के घर में बैठो तो
रस्ते-रस्ते
सरसों के फूल बिछे हैं
अन्तरिक्ष के यात्री जैसे
सभी पुराने 
यार दिखे हैं!

घर लौटो तो
खुशबू-खुशबू
महका-महका
आँगन मिलता,
रात की रानी
दरवज्जे पर ही
बड़े प्यार से
हाय!
बोलती।

ओ दिसम्बर!
जब से तू आया है
नीम अँधेरे
एक पियाली
चुपके-चुपके
छलक रही है,
मेरे दिल में
नए वर्ष की, नई जनवरी
उतर रही है।
.... 

3.12.18

ओ दिसम्बर!-3

लोहे के घर की शाम 
ठंडी हो चली है
अच्छी नहीं लगती
खिड़कियों से आती
सुरसुरी हवा
पाँच बजते ही
ढलने लगता है सूरज
छोटी हो चली है
गोधूलि बेला।

हवा में तैर रही है
कोहरे की
एक लंबी रेखा,
पगडण्डी-पगडण्डी
सर पर बोझा लादे
चली जा रही 
एक घसियारिन,
खेत-खेत
भागा जा रहा 
लँगड़ा कुत्ता,
धुएँ से लिपटी
छोटी सी 
इक लपट दिखी थी,
किसी कामगार का
चूल्हा जला होगा।

थरथराई है
पूरी ट्रेन
काँप गया होगा
सई नदी का पुल
प्यार या दर्द
इक तरफा नहीं होता
हम जिस तरफ होते हैं
महसूस
वही होता है।

ओ दिसम्बर!
तेरे आते ही
छाने लगे हैं कोहरे
अंधियारे में
एक अंगीठी 
सुलग रही है
मेरे मन में
नए वर्ष की
नई जनवरी
उतर रही है।
............

ओ दिसम्बर!-2

ओ दिसम्बर!
जब से तू आया है
यादों की
गठरी लाया है।

देर शाम 
मेरी गली में 
फेरे वाला
आवाज लगाता..
चिनियाँ बादाम, गज़क!

सुबह सबेरे 
मेरी गली में
फेरी वाला
आवाज लगाता..
मलइयो है!

पापा सुना, अनसुना कर दें
अम्मा 
कहाँ चुप रह पातीं!
ओने कोने
ढूँढ-ढाँढ कर
थोड़े से सिक्के ले आतीं

कोई रोको!
फेरी वाला
आँखों से ओझल न होवे
कोई गीनो
सिक्के सारे
कुल जमा, कितने हो जाते?

हम बच्चे
चहक-चहक कर खाते
माँ बस 
झगड़े सुलझाती थीं।

ओ दिसम्बर!
जब से तू आया है
यादों की भारी गठरी
फिर खुलने को
मचल रही है!
मेरे मन में
नए वर्ष की
नई जनवरी
उतर रही है।
........

ओ दिसम्बर! -1

ओ दिसम्बर!
तेरे आने की आहट
आने लगी है।

सुबह-शाम 
गिरने लगे हैं
लोहे के घर की खिड़कियों के शीशे
धान कट चुके
खेतों में
बैलों की तरह
दौड़ रहे हैं ट्रैक्टर 
दिखते हैं
सरसों के फूलों भरे चकत्ते,
जुते खेत की सूखी मिट्टी पर 
जीभ लपलपाते/
टुकुर-टुकुर ताकते
कुत्ते,
खिली हुई है 
जाड़े की धूप।

ओ दिसम्बर!
आओ!
स्वागत है
तेरे आने से
अंधियारे की सूखी लकड़ी
फिर जलने को 
मचल रही है
मेरे मन में नए वर्ष की
नई जनवरी
उतर रही है।
...........