लोहे के घर की खिड़की से
बगुलों को
भैंस की पीठ पर बैठ
कथा बाँचते देखा।
धूप में धरती को
गोल-गोल नाचते देखा।
घर में लोग बातें कर रहे थे...
किसने कितना खाया?
हमने तो बस फसल कटे खेत में
भैस, बकरियों को
आम आदमी के साथ भटकते देखा।
खिड़की से बाहर चिड़ियों को
दाने-दाने के लिए,
चोंच लड़ाते देखा।
सूखी लकड़ियाँ बीनती,
माँ के साथ कन्धे से कन्धा मिलाये भागती
छोरियाँ देखीं।
गोहरी पाथती,
पशुओं को सानी-पानी देती,
घास का बोझ उठाये
खेत की मेढ़ पर
सधे कदमों से चलती
ग्रामीण महिलायें देखीं।
लोहे के घर की खिड़की से
तुमने क्या देखा यह तुम जानो,
हमने तो
गन्दे सूअर के पीछे शोर मचा कर भागते
आदमी के बच्चे देखे।
............
बगुलों को
भैंस की पीठ पर बैठ
कथा बाँचते देखा।
धूप में धरती को
गोल-गोल नाचते देखा।
घर में लोग बातें कर रहे थे...
किसने कितना खाया?
हमने तो बस फसल कटे खेत में
भैस, बकरियों को
आम आदमी के साथ भटकते देखा।
खिड़की से बाहर चिड़ियों को
दाने-दाने के लिए,
चोंच लड़ाते देखा।
सूखी लकड़ियाँ बीनती,
माँ के साथ कन्धे से कन्धा मिलाये भागती
छोरियाँ देखीं।
गोहरी पाथती,
पशुओं को सानी-पानी देती,
घास का बोझ उठाये
खेत की मेढ़ पर
सधे कदमों से चलती
ग्रामीण महिलायें देखीं।
लोहे के घर की खिड़की से
तुमने क्या देखा यह तुम जानो,
हमने तो
गन्दे सूअर के पीछे शोर मचा कर भागते
आदमी के बच्चे देखे।
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बहुत बढ़िया
ReplyDeleteधन्यवाद।
Deleteसुन्दर सृजन।
ReplyDeleteआपका मन है ,आपकी ही दृष्टि है . पर बहुत सूक्ष्म और तह तक जाती हुई . अच्छा लगा पढ़ना . हाँ गाय भैंसों को आदमी के साथ भटकना एक अलग व्यंजना है . सामान्यतः भटकता तो आदमी है .
ReplyDeleteप्रणाम। इतने ध्यान से कविता पढ़ने के लिए आभार आपका।
Deleteबहुत सही कहा।
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