मदुरई, तमिलनाडु से ट्रेन में बैठे हैं। केरल की राजधानी त्रिवेंद्रम जा रहे हैं। यह मदुरई-त्रिवेंद्रम, अमृता एक्सप्रेस है। अपनी स्लीपर बोगी है। ट्रेन की खिड़की से इन रास्तों की तस्वीरें लेने के लिए जानबूझकर कर स्लीपर में रिजर्वेशन करवाए हैं। इन रास्तों में ठण्डी नहीं है, गर्मी है। मेरे साथ शर्मा जी हैं। दोनो लोअर बर्थ है। सूर्यास्त के बाद मौसम मस्त हो जाता है। खिड़कियों से आती ठण्डी हवा अच्छी लगती है। अभी सूर्यास्त नहीं हुआ। पश्चिम की खिड़कियों से धूप बोगी में झाँक रही थी, हमने खिड़कियों के दरवाजे बन्द कर दिए। शाम 3.50 हो चुके। ट्रेन को 5 मिनट पहले चल देना था, अभी खड़ी है। कल भोर में पहुँचना है त्रिवेंद्रम।
भीड़ नहीं है, सिर्फ आरक्षित बर्थ के यात्री ही आए हैं। अभी ट्रेन ने प्लेटफॉर्म से रेंगना शुरू ही किया था कि रुक गई! सभी यात्री तमिल में प्रतिक्रिया दे रहे हैं, कुछ पल्ले नहीं पड़ रहा। कुछ मिनट रुकने के बाद एक तेज हारन के साथ ट्रेन चल दी। अपने कूपे के दोनो अपर बर्थ वाला एक युवा जोड़ा आया है, उनके गोदी में एक जोड़ी बच्चे हैं। बातें समझ में नहीं आ रही लेकिन भाव अभिव्यक्त हो जा रहे हैं। मौन की अपनी भाषा होती है जो कहीं भी, कभी भी, अभिव्यक्त हो जाती है। शाम होने वाली है, जौनपुर से बनारस की यात्रा का संस्मरण हो रहा है।
अपनी ट्रेन पलनी स्टेशन पर रुकी है। नारियल के वृक्षों और पर्वतों के सामने से गुजरते हुए यहाँ आई है ट्रेन। इस मार्ग में भी हिजड़े दिखते हैं। इधर के हिजड़े मुझे अपने स्टॉफ का नहीं समझते। ताली बजाकर तमिल में पैसे मांगते हैं। पैसे मांगने या देने की अपनी भाषा होती है, हिन्दी या तमिल से इसका कोई लेना, देना नहीं। पैसे देने के बाद मैने एक तस्वीर खीचनी चाही, बंदी ने प्रेम से पोज दिया। यह है लोहे के घर का आनंद।