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पहले प्रीतम की पाती में
अब आते मोबाइल में।
नया साल शुभ हो कहते हैं
नई अदा, स्टाईल में।
कभी इधर तो कभी उधर को
दौड़ा-भागा करते है
सबकी खुशियों की खातिर ये
हरदम जागा करते हैं
मरहम के फाए होते हैं
छोटी सी स्माईल में। [नया साल शुभ हो……]
झूठे निकले शुभ संदेशे
आए पिछले सालों में
रीते अपने सभी सपन घट
दुनियाँ के जंजालों में
कहते फेंको ऐसी बातें
रद्दी वाली फाईल में। [नया साल शुभ हो……]
21.12.10
19.12.10
सेंचुरियन का मतलब है सचिन तेंदुलकर....!
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मैं नहीं जानता कि सेंचुरियन का वास्तविक अर्थ क्या है ! दक्षिण अफ्रिका के इस खेल मैदान को सेंचुरियन क्यों कहते हैं ? गूगलिंग करके जानने का प्रयास किया तो हर बार सेचुरियन खेल मैदान का ही जिक्र। माथा खराब होता और गूगलिंग बंद कर देता। आज जाना कि सेंचुरियन का मतलब है सचिन तेंदुलकर। काशीका बोली में 'ईयन' लगा देने से शब्द का बहुवचन हो जाता है। जैसे जंगली काबहुवचन 'जंगलियन'। लड़की का बहुवचन 'लड़कियन'। वैसे ही सेचुरी का बहुवचन 'सेंचुरियन' हुआ। एक सेंचुरी लगाने वाले को सेंचुरी बाज तो ढेर सारी सेंचुरी लगाने वाले को सेंचुरियन कहा जाय तो क्या गलत है ! सचिन ने तो आज सेचुरी का अर्द्ध शतक ही पूरा कर लिया है। पूरा राष्ट्र सचिन की इस सफलता से प्रसन्न है। बीच-बीच में आने वाले खुशी के ऐसे लम्हों से ही राष्ट्र गौरवान्वित होता है। आज सचिन ने अपने देशवासियों को नव वर्ष के पूर्व ही एक नायाब तोहफा दिया है। हमें सचिन पर गर्व है। हम उनकी इस महान सफलता के लिए उन्हें बधाई देने के साथ-साथ अपना आभार भी व्यक्त करते हैं। आज सचिन ने क्रिकेट के इतिहास में मील का एक और पत्थर पार कर लिया है। आज मुझे सेचुरियन का अर्थ भी ज्ञात हो गया। सेंचुरियन का मतलब है सचिन तेंदुलकर। आइए हम खुशियाँ मनाएं और उन्हें इस सफलता के लिए बधाई दें।
(चित्र गूगल से साभार)
17.12.10
ऐसा क्यों होता है ?
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न जाने क्यों
जब प्रश्नों के अपने ही उत्तर
बदलने लगते हैं
अच्छे नहीं लगते।
मेरे प्रश्न
मुझ पर हँसते हैं
मैं हैरान हो
अपना वजूद कुरेदने लगता हूँ
अतीत
कितना सुखद प्रतीत होता है न !
ऐसा क्यों होता है ?
न जाने क्यों
मेरे उत्तर
बूढ़े बन जाते हैं धीरे-धीरे
नकारते चले जाते हैं
अपनी ही स्वीकृतियाँ
अपने ही दावे
मेरा बच्चा मन
मेरे भीतर मचलने लगता है
मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो
अपने उत्तर समेटने लगता हूँ
बचपना भला प्रतीत होता है न !
ऐसा क्यों होता है ?
न जाने क्यों
जब प्रश्नों के अपने ही उत्तर
बदलने लगते हैं
अच्छे नहीं लगते।
मेरे प्रश्न
मुझ पर हँसते हैं
मैं हैरान हो
अपना वजूद कुरेदने लगता हूँ
अतीत
कितना सुखद प्रतीत होता है न !
ऐसा क्यों होता है ?
न जाने क्यों
मेरे उत्तर
बूढ़े बन जाते हैं धीरे-धीरे
नकारते चले जाते हैं
अपनी ही स्वीकृतियाँ
अपने ही दावे
मेरा बच्चा मन
मेरे भीतर मचलने लगता है
मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो
अपने उत्तर समेटने लगता हूँ
बचपना भला प्रतीत होता है न !
ऐसा क्यों होता है ?
11.12.10
पहली मार्निंग वॉकिंग.....(व्यंग्यात्मक संस्मरण)
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थोड़ी लम्बी हो गई है। चाहता तो दो किश्तों में भी प्रकाशित कर सकता था। आप चाहें तो दो बार में पढ़ सकते हैं। पढ़ना शुरू तो कीजिए......
चार वर्षों के लिए मेरा भी बस्ती गमन (1994-1998) हुआ था। बस्ती अयोध्या से लगभग 70 किमी दूर स्थित शहर का नाम है। यहाँ पर रहने से ज्ञान हुआ कि बस्ती के संबंध में मुझसे पहले किसी बड़े लेखक ने लिख दिया है...बस्ती को बस्ती कहूँ तो का को कहूँ उजाड़ ! बड़े लेखकों में यही खराबी होती है कि वे हम जैसों के लिखने के लिए कुछ नहीं छोड़ते। मेरे में भी इस शहर के बारे में अधिक कुछ लिखने की क्षमता नहीं है सिवा इसके कि यह एक दिन के मुख्य मंत्री का शहर है। सबसे अच्छी बात तो बड़े लेखक ने लिख ही दी। छोटे शहरों की एक विशेषता होती है कि आपको कुछ ही दिनो में सभी पहचानने लगते हैं। मानना आपके आचरण पर निर्भर करता है। आचरण की सामाजिक परिभाषा आप जानते ही हैं। कवि समाजिक होना चाहता है मगर हो नहीं पाता। इस शहर में नौकरी पेशा लोगों के लिए जीवन जीना बड़ा सरल है। 4-5 किमी लम्बी एक ही सड़क में दफ्तर, बच्चों का स्कूल, अस्पताल, सब्जी, मार्केट, बैंक, डाकखाना, खेल का मैदान सभी है। एक पत्नी. दो बच्चे हों और घर में टी0वी0 न हो तो कम कमाई में भी जीवन आसानी से कट जाता है।
एक दिन कद्दू जैसे पेट वाले वरिष्ठ शर्मा जी मेरे घर पधारे और मार्निंग वॉक के असंख्य लाभ एक ही सांस में गिनाकर बोले, “पाण्डे जी, आप भी मार्निंग वॉक किया कीजिए। आपका पेट भी सीने के ऊपर फैल रहा है !” घबड़ाकर पूछा, “सीने के ऊपर फैल रहा है ! क्या मतलब ? शर्मा जी ने समझाया, “सीने के ऊपर पेट निकल जाय तो समझ जाना चाहिए कि आप के शरीर में कई रोगों का स्थाई वास हो चुका है ! हार्ट अटैक, शूगर, किडनी फेल आदि होने की प्रबल संभावना हो चुकी है।“ शर्मा जी ने इतना भयावह वर्णन किया कि मैं आतंकी विस्फोट की आशंका से ग्रस्त सिपाही की तरह भयाक्रांत हो, मोर्चे पर जाने के लिए तैयार हो गया। डरते-डरते पूछा, “कब चलना है ? शर्मा जी ने मिलेट्री कप्तान की तरह हुक्म सुना दिया, “कल सुबह ठीक चार बजे हम आपके घर आ जाएंगे, तैयार रहिएगा।
मार्निंग वॉक के नाम पर की जाने वाली निशाचरी से मैं हमेशा से चिढ़ता रहा हूँ। ये क्या कि सड़क पर घूमते आवारा कुत्तों के साथ ताल पर ताल मिलाते हुए, मुँह अंधेरे, धड़कते दिल घर से निकल पड़े। चार बजे का नाम सुनते ही मेरी रूह भीतर तक कांप गई। जैसे मेरी भर्ती कारगिल युद्ध लड़ने के लिए सेना में की जा रही हो। मैने पुरजोर विरोध किया, “अरे सुनिए, आप तो मार्निंग वॉक की बात करते-करते निशाचरी का प्रोग्राम बनाने लगे ! रात में भी कोई घूमता है ? मैं क्या रोगी-योगी हूँ ? भोगी इतनी सुबह नहीं उठ सकता ! कुत्ते ने काट लिया तो ? शर्मा जी मेरी तरफ ऐसे देखने लगे जैसे कोई नकल मार कर परीक्षा उत्तीर्ण करने वाला विद्यार्थी, फेल विद्यार्थी को हिकारत की निगाहों से देखता है। जैसे कोई रो-धो कर मिलेट्री की ट्रेनिंग ले चुका जवान नए रंगरूट को पहली बार आते देखता है। फिर समझाते हुए बोले, “पाण्डेय जी, आप तो समझते नहीं हैं। चार बजे घर से नहीं निकले तो देर हो जाएगी। पाँच बजे के बाद तो सब लौटते हुए मिलेंगे।“ मैने फिर विरोध किया, “अरे छोड़िए, सब लौटते हुए मिलें या लोटते हुए ! नाचते हुए मिलें या रोते हुए ! हमें इससे क्या ? हम तो तब चलेंगे जब प्रभात होगा।“ मगर शर्मा जी को नहीं मानना था, नहीं माने। जिद्दी बच्चों की तरह यूँ छैला गए मानो उन्हें जिस डाक्टर ने मार्निंग वॉक की सलाह दिया था, उसी ने 4 बजे का समय भी निर्धारित किया था। बोले, “देखिए आपने वादा किया है ! चलना ही पड़ेगा। चल कर तो देखिए फिर आप खुद कहेंगे कि चार बजे ही ठीक समय है।“ मरता क्या न करता ! हारकर चलने के लिए राजी हो गया । मुझे शर्मा जी ऐसे प्रतीत हुए मानो सजा सुनाने वाला जज भी यही, फाँसी पर चढ़ाने वाला जल्लाद भी यही । जाते-जाते मुझे सलाह देते गए, “एक छड़ी रख लीजिएगा !”
छड़ी क्या मैं उस घड़ी को कोसने लगा जब मैने शर्मा जी से मार्निंग वॉक पर चलने का वादा किया था। मेरे ऊपर तो मुसीबतों का पहाड़ ही टूट गया। शुक्र है कि उन दिनों ब्लॉगिंग का शौक नहीं था लेकिन देर रात तक जगना, टी0वी0 देखना या कोई किताब पढ़ना मेरी आदत रही है। अब ब्लॉगिंग ने टी0वी0 का स्थान ले लिया है। मैं कभी घड़ी देखता, कभी उस दरवाजे को देखता जिससे शर्मा जी अभी-अभी बाहर गये थे। मन ही मन खुद को कोस रहा था कि साफ मना क्यों नहीं कर दिया ! संकोची स्वभाव होने के कारण मेरे मुख से जल्दी नहीं, नहीं निकलता और अब किया भी क्या जा सकता था ! सोने से पहले जब मैने अपना फैसला श्रीमती जी को सुनाया तब उन्हें घोर आश्चर्य हुआ। वह बोलीं, “आज ज्यादा भांग छानकर तो नहीं आ गए ! तबीयत तो ठीक है !! उठेंगे कैसे ?” एक साथ इतने सारे प्रश्नों को सुनकर ऐसा लगा जैसे मिलेट्री में भरती होने से पहले साक्षात्कार शुरू हो गया हो ! बंदूक से निकली गोली और मुख से निकली बोली कभी वापस नहीं आती। अब अपनी बात से पीछे हटना मेरी शान के खिलाफ था। मैं बोला, “आप समझती क्या हैं ? मैं उठ नहीं सकता ! आप उठा के तो देखिए मैं उठ जाउंगा !!” श्रीमती जी मुझे ऐसे देख रही थीं जैसे उस पागल को जो मेरे घर कल सुबह-सुबह मुझसे पैसे मांग रहा था। फिर उन्होंने हंसते हुए कहा, “मैं क्यों उठाने लगी ? क्या मुझे भी घुमाने ले चलोगे !” मैं कभी शर्मा जी को याद करता कभी श्रीमती जी को साथ लिए अंधेरे में घूमने की कल्पना करता। झल्लाकर बोला, “आप रहने दीजिए, मैं अलार्म लगा कर सो जाउंगा।“ मैने सुबह 4 बजे का अलार्म लगाया और बिस्तर में घुस गया। मार्निंग वॉक और कुत्तों की कल्पना करते-करते गहरी नींद में सो गया।
जब मेरी नींद खुली तो पाया कि मेरी श्रीमती जी मुझे ऐसे हिला रही थीं जैसे कोई रूई धुनता हो और शर्मा जी दरवाजा ऐसे पीट रहे थे जैसे रात में उनकी बीबी कहीं भाग गई हो ! मैं हड़बड़ा कर जागृत अवस्था में आ गया। सर्वप्रथम तीव्र विद्युत प्रवाहिनी स्त्री तत्पश्चात टिकटिकाती घड़ी का दर्शन किया। घड़ी में चार बजकर पंद्रह मिनट हो रहे थे ! दरवाजे पर शर्मा जी अनवरत चीख रहे थे ! मैने उठकर ज्यों ही दरवाजा खोला शर्मा जी किसी अंतरिक्ष यात्री की तरह घर के अंदर घुसते ही गरजने लगे, “अभी तक सो रहे थे ? 15 मिनट से दरवाजा पीट रहा हूँ !” जैसे मिलेट्री का कप्तान डांटता है। उनकी दहाड़ सुनकर सुनकर सबसे पहले तो मेरा मन किया, दो झापड़ लगाकर पहले इसे घर के बाहर खदेड़ूं और पूछूं, “क्या रिश्ते में तू मेरा बाप लगता है ?” मगर क्या करता, अपनी बुलाई आफत को कातर निगाहों से देखता रहा। माफी मांगी, कुर्सी पर बिठाया और बेड रूम में जाकर घड़ी देखने लगा। तब तक मृदुभाषिणी दामिनी की तरह चमकीं, “घड़ी को क्यूँ घूर रहे हैं ? मैने ही अलार्म 6 बजे का कर दिया था ! सोचा था न बजेगा न आप उठेंगे !! चार बजे उठना हो तो कल से बाहर वाले कमरे में तकिए के नीचे अलार्म लगा कर सोइएगा और बाहर से ताला लगाकर चले जाइएगा ! मैं 6 बजे से पहले नहीं उठने वाली। अपने शर्मा जी को समझा दीजिए कि रात में ऐसे दरवाजा न पीटा करें।“ मैं सकपकाया। यह समय पत्नी से उलझने का नहीं था। एक जल्लाद पहले से ही ड्राईंगरूम में बैठा था ! दूसरे को जगाना बेवकूफी होती । जल्दी से जो मिला पहनकर बाहर निकल पड़ा। मेरे बाहर निकलते ही फटाक से दरवाजा बंद होने की आवाज सुनकर शर्मा जी मेंढक की तरह हंसते हुए बोले, “हें..हें..हें..लगता है भाभी जी नाराज हो गईं !” मैं उनके अजूबेपन को अपलक निहारता, विचारों की तंद्रा से जागता, खिसियानी हंसी हंसकर बोला, “नहीं, नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है।“
शर्मा जी काफी तेज चाल से चलते हुए एक बदबूदार गली में घुसे तो मुझसे न रहा गया। मैने पूछा, “ये कहाँ घुसे जा रहे हैं ? इसी को कहते हैं शुद्ध हवा ? शर्मा जी बोले, “बस जरा सिंह साहब को भी ले लूँ ! मेरे इंतजार में बैठे होंगे। एक मिनट की देर नहीं होगी। वो तो हमेशा तैयार रहते हैं।“ शर्मा जी बिना रूके, बिना घुमे, बोलते-बोलते गली में घुसते चले गए। अंधेरी तंग गलियों को पारकर वे जिस मकान के पास रूके उसके बरामदे पर एक आदमी टहल रहा था। दूर से देखने में भूत की तरह लग रहा था। हम लोगों को देखते ही दूर से हाथ हिलाया और लपककर नीचे उतर आया। आते ही उलाहना दिया, “बड़ी देर लगा दी !” मैने मन ही मन कहा, “साला.. मिलेट्री का दूसरा कप्तान ! कहीं ‘बड़ी देर हो गई’ सभी मार्निंग वॉकर्स का तकिया कलाम तो नहीं !” मैं अपराधी की तरह पीछे-पीछे चल रहा था और शर्मा जी, सिंह साहब से मेरा परिचय करा रहे थे, “आप पाण्डेय जी हैं। आज से ये भी हम लोगों के साथ चलेंगे।“ सिंह साहब ने मुझे टार्च जलाकर ऐसे देखा मानो सेना में भर्ती होने से पहले डा0 स्वास्थ्य परीक्षण कर रहा हो ! संभवतः इसी विचार से प्रेरित हो मेरी जीभ अनायास बाहर निकल गई ! सिंह साहब टार्च बंदकर हंसते हुए बोले, बड़े मजाकिया लगते हैं ! उनके हाव भाव से मुझे यकीन हो गया कि वे मन ही मन कह रहे हैं, “इस जोकर को कहाँ से पकड़ लाए !”
रास्ते भर सिंह साहब मार्निंग वॉक के लाभ एक-एक कर गिनाते चले गए और मैं अच्छे बच्चे की तरह हूँ, हाँ करता, मार्ग में दिखने वाले अजीब-अजीब नमूनों को कौतूहल भरी निगाहों से यूँ देखता रहा जैसे कोई बच्चा अपने पापा के साथ पहली बार मेला घूमने निकला हो। एक स्मार्ट बुढ्ढा, चिक्कन गंजा, हाफ पैंट और हाफ शर्ट पहन कर तेज-तेज चल रहा था। कुछ युवा दौड़ रहे थे तो कोई शर्मा जी की तरह अंतरिक्ष यात्री जैसा भेषा बनाए फुटबाल की तरह लुढ़क रहा था। शर्मा जी सबको दिखा कर मुझसे बोले, “देख रहे हैं पाण्डे जी ! (मैने सोचा कह दूं क्या मैं अंधा हूँ ? मगर चुप रहा) क्या सब लोग मूर्ख हैं ? देखिए, वो आदमी कितनी तेज चाल से चल रहा है ! चलिए उसके आगे निकलते हैं !! शर्मा जी लगभग दौड़ते हुए और हम सबको दौड़ाते हुए उसके बगल से उसे घूरकर विजयी भाव से आगे निकलने लगे तो वह आदमी जो दरअसल ट्रेन पकड़ने के लिए दौड़ रहा था, मार्निंग वॉकर नहीं था, हमें रोककर पूछ बैठा, “ आप लोगों को कौन सी ट्रेन पकड़नी है ?” उसके प्रश्न को सुनकर शर्मा जी हत्थे से उखड़ गए, “मैं आपको ट्रेन पकड़ने वाला दिखता हूँ ?” लगता है वो आदमी भी शर्मा जी का जोड़ीदार था। पलटकर बोला, “तो क्या चंदा की सैर पर निकले हो ? चले आते हैं सुबह-सुबह माथा खराब करने !” किसी तरह हम लोगों ने बीच बचाव किया तो मामला शांत हुआ।
हम लोग जब मैदान में पहुँचे तो वहाँ कई लोग पहले से ही गोल-गोल मैदान का चक्कर लगा रहे थे। शर्मा जी, सिंह साहब के साथ यंत्रवत तेज-तेज, गोल-गोल घूमने लगे और मैं एक जगह बैठकर वहाँ के दृष्य का मूर्खावलोकन करने लगा। पूर्व दिशा में ऊषा की किरणें आभा बिखेर रही थीं। सूर्योदय का मनोहारी दृष्य था। मैने बहुत दिनो के बाद उगते हुए सूर्य को देखा था। मेरा मन जगने के बाद पहली बार प्रसन्नता से आल्हादित हो उठा। चिड़ियों की चहचहाहट, अरूणोदय की लालिमा, हवा की सरसराहट ने न जाने मुझ पर कैसा जादू किया कि मैं भी उन्हीं लोगों की तरह गोल-गोल दौड़ने लगा ! दौड़ते-दौड़ते मेरी सांस फूलने लगी। मैं हाँफने लगा मगर देखा, शर्मा जी और सिंह साहब दौड़ते ही चले जा रहे हैं ! मारे शरम के मैं भी बिना रूके दौड़ता रहा। अनायास क्या हुआ कि मेरा सर मुझसे भी जोर-जोर घूमने लगा। मुझे लगा कि मुझे चक्कर आ रहा है ! घबड़ाहट में पसीना-पसीना हो गया और भागकर बीच मैदान में पसर गया ! यह तो नहीं पता कि मुझे नींद आ गई थी या मैं बेहोश हो गया था लेकिन जब मेरी आँखें खुलीं तो मार्निंग वॉकर्स की भीड़ मुझे घेर कर खड़ी थी ! शर्मा जी मेरे चेहरे पर पानी के छींटे डाल रहे थे। एक दिन की मार्निंग वॉकिंग ने मुझे शहर में ऐसी प्रसिद्धि दिला दी थी जो शायद शर्मा जी आज तक हासिल नहीं कर पाए होंगे।
9.12.10
मन की गाँठें खोल
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खुल्लम खुल्ला बोल रे पगले
खुल्लम खुल्ला बोल ।
मन की गाँठें खोल रे पगले
मन की गाँठें खोल ।।
मैं अटका श्वेत-स्याम में
दुनियाँ रंग-बिरंगी
कठिन डगर है, साथी वैरी
चाल चलें सतरंजी
गर्जन से क्या घबड़ाना रे
ढोल-ढोल में पोल ।
मन की गाँठें खोल रे पगले
मन की गाँठें खोल ।।
काम, क्रोध, लोभ, मोह से
कभी उबर ना पाया
ओढ़ी तो थी धुली चदरिया
फूहड़, मैली पाया
खुद को धोबी बना रे पगले
सरफ ज्ञान का घोल ।
मन की गाँठें खोल रे पगले
मन की गाँठें खोल ।।
खुल्लम खुल्ला बोल रे पगले
खुल्लम खुल्ला बोल ।
मन की गाँठें खोल रे पगले
मन की गाँठें खोल ।।
मैं अटका श्वेत-स्याम में
दुनियाँ रंग-बिरंगी
कठिन डगर है, साथी वैरी
चाल चलें सतरंजी
गर्जन से क्या घबड़ाना रे
ढोल-ढोल में पोल ।
मन की गाँठें खोल रे पगले
मन की गाँठें खोल ।।
काम, क्रोध, लोभ, मोह से
कभी उबर ना पाया
ओढ़ी तो थी धुली चदरिया
फूहड़, मैली पाया
खुद को धोबी बना रे पगले
सरफ ज्ञान का घोल ।
मन की गाँठें खोल रे पगले
मन की गाँठें खोल ।।
6.12.10
ब्लॉगर सम्मेलन
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जहाँ तहाँ हो रहे ब्लॉगर सम्मेलन की खबरें पढ़ कर हम भी पूरी तरह बगुलाए हुए थे कि कब मौका मिले और चोंच मारें, तभी श्री अरविंद मिश्र जी का फोन घनघनाया, “हम लोग भी कुछ करेंगे ? कुछ नहीं तो बनारस में जितने ब्लॉगर हैं उन्हीं को जुटाकर एक मीटिंग कर लेते हैं ! सांस्कृतिक संकुल में शिल्प मेला लगा है इसी बहाने मेला भी घूम लेंगे और एक-दूसरे से परिचय भी हो जाएगा।“ अंधा क्या चाहे दो आँखें ! मैने कहा, “हाँ, हाँ, क्यों नहीं ! एक पंडित जी को मैं भी जानता हूँ जो पंहुचे हुए कवि और दो-चार पोस्ट पर अटके हुए नए-नए ब्लॉगर हैं। मेरे जवाब से उत्साहित होकर अरविंद जी बड़े प्रसन्न हुए, एक-दो को तो मैं भी जानता हूँ, आप बस समय तय कीजिए सारा इंतजाम हमारा रहेगा।
मेरी तो बाछें खिल गईं। खुशी का ठिकाना न रहा। बहुत दिनो से अरविंद जी की मेहमान नवाजी के किस्से उनके ब्लॉग पर पढ़-पढ़ कर अपनी जीभ लपालपा रही थी। आज उन्होने स्वयम् मौका दे ही दिया। मैने तुरंत अपने कोटे के एकमात्र ब्लॉगर पंडित उमा शंकर चतुर्वेदी ‘कंचन’ जी को फोन मिलाया, “कवि जी ! बनारस में ब्लॉगर सम्मेलन है.! आपको आना है। कवि जी कुछ उल्टा सुन बैठे, “क्या कहा ? पागल सम्मेलन ! ई कब से होने लगा बनारस में ? मूर्ख, महामूर्ख सम्मेलन तो होता है, 1अप्रैल को ! जिसका मैं स्थाई सदस्य हूँ । जाड़े में यह पागल सम्मेलन तो पहली बार सुना ! बनारस में बहुत हैं, बड़ी भीड़ हो जाएगी…! मुझे नहीं जाना।“ मैने सरपीट लिया, अरे नहीं ‘कंचन’ जी पागल नहीं, ब्लॉगर सम्मेलन ! इनकी संख्या बस अंगुली में हैं। अच्छा रहने दीजिए मैं आपको मिलकर समझाता हूँ। शाम को जब मैं उनसे मिला तो पूरी बात जानकर उनकी भी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। कहने लगे, “लेकिन गुरू ई नाम ठीक नहीं लग रहा है..ब्लॉगर ! विदेशी संस्कृति झलक रही है। मैने कहा, “तकनीक आयातित है मगर कलाकार सभी देसी हैं। अपने रंग में ढ़ालना तो हमारा काम है।“ कंचन जी बोले, “चलिए, ठीक है।“
सौभाग्य से ब्लागिंग के दरमियान श्री एम. वर्मा जी की भी बनारस आने की खबर हाथ लग गई। वे अपने भतीजे की शादी के सिलसिले में बनारस आ रहे थे। उनसे संपर्क साधा तो वे भी बड़े प्रसन्न हुए। अपना कोटा पूरा करके जब मैंने अरविंद जी से फोन मिलाया तो वर्मा जी के भी आने की खबर ने उन्हें और भी उत्साहित कर दिया। चार दिसंबर की तिथि तय की गई। स्थान सांस्कृतिक संकुल से बदल कर अरविंद जी का घर हो गया। निर्धारित समय से आधा घंटा पहले ही मैं जाकर ‘नाटी इमली’ चौराहे पर खड़ा, कभी विश्व प्रसिद्ध ‘भरत मिलाप के मैदान’ को देखता तो कभी वर्मा जी और कंचन जी को फोनियाता। मैने सोचा इस मैदान में राम नगर की प्रसिद्ध रामलीला के अवसर पर जब राम-भरत का मिलाप होता है तो कितनी भीड़ होती है ! यहाँ दो ब्लॉगर पहली बार मिल रहे हैं तो सांड़ भी चैन से खड़ा नहीं होने देता ! कभी इधर तो कभी उधर सींग ऊठाए चला आता है।
अधिक इंतजार नहीं करना पड़ा। स्वतः उत्साहित कंचन जी और वर्मा जी के साथ जब हम अरविंद जी के घर पहुँचे तो वहाँ नई कविता के सशक्त हस्ताक्षर व ब्लॉग जगत के श्रेष्ठ कवियों में से एक ‘आर्जव’, ख्याति प्राप्त कलाकार उत्तमा दीक्षित जी के साथ अरविंद जी ने जिस गर्मजोशी के साथ स्वागत किया इसको लिखने के लिए मेरी कलम कम पड़ रही है। सभी से तो मैं उनके ब्लॉग को पढ कर भली भांति परिचित था। लगा ही नहीं कि पहली पार मिल रहा हूँ लेकिन उत्तमा जी को लेकर मेरी स्थिति हास्यासपद हो गई। मैने उन्हें विद्यार्थी समझा मगर जब अरविंद जी ने परिचय कराया कि आप काशी हिंदू विश्वविद्यालय में वरिष्ठ प्रवक्ता हैं तो मेरा माथा ही घूम गया। इतनी सरलता, इतनी विनम्रता से वे मिलीं कि लगा कि ये एक अच्छी कलाकार हैं मगर आज जब उनका ब्लॉग देखा तो महसूस हुआ कि मैं मूरख कितने महान कलाकार के रूबरू बैठकर चला आया और उन्होने किंचित मात्र भी अपनी श्रेष्ठता का एहसास नहीं होने दिया।
अरविंद जी की मेहमान नवाजी की चर्चा न की जाय तो सारा लिखना बेकार। अपनी गिद्ध दृष्टि भी उधर ही अटकी हुई थी। एक से बढ़कर एक गर्मागर्म आईटम..एक खतम नहीं की दूजा शुरू। वे कहते, “एक और ?” मैं कहता, “आप चिंता ना करें, स्थान और लेने का ज्ञान मुझे बखूबी हो गया है !” वर्मा जी, आर्जव जी फोटो खींचने में व्यस्त, हम उधर माल उड़ाने में मस्त। अरविंद जी से मिलकर किसी को भी यह सहज आश्चर्य हो सकता है कि इतनी विनम्रता, प्रसन्नता और सहजता से मिलने वाले व्यक्ति की कलम की धार इतनी कठोर कैसे हो सकती है !
पोस्ट तो लिख दी लगता है। अब सबसे बड़ी समस्या यह है कि फोटू कहाँ से उड़ाई जाय ? अपन तो भैया प्लेट खींचने में जुटे थे फोटुवा तो आर्जव और वर्मा जी खींच रहे थे । देखें उन्हीं के ब्लॉग से उड़ाने का प्रयास करते हैं….
3.12.10
यात्रा
................
सुपरफास्ट ट्रेन में बैठकर
तीव्र गति से भाग रहे थे तुम
तुमसे बंधा
यात्री की तरह बैठा
खिड़की के बाहर देख रहा था मैं ।
चाहता था पकड़ना
छूट रहे गाँव
घूमना
सरसों की वादियों में
खेलना
दोस्तों के साथ
क्रिकेट
भाग रहे थे तुम
और छूट रहे थे मेरे साथी, मेरे खेल
हेरी, मिक्की, तितलियाँ
गाय, भैंस, बकरियाँ
बिजली के खम्भों से जुड़े तार तो
चलते थे साथ-साथ
मगर झट से ओझल हो जाती थी
उस पर बैठी
काले पंखों वाली चिड़िया
तुम्हारे चेहरे से फिसलते
खुशियों वाले क्षणों की तरह।
रास्ते में कई स्टेशन आये
तुमको नही उतरना था
तुम नहीं उतरे
मेरे लाख मनाने के बाद भी
चलते रहे, चलते रहे
अब
जब हवा के हल्के झोंके से भी
काँपने लगे हो तुम
थक गए हैं तुम्हारे पाँव
आँखों में है
घर का आंगन
नीम की छाँव
चाहते हो
रूकना
चाहते हो उतरना
चाहते हो
साथ...!
खेद है मित्र !
अब नहीं चल सकता मैं तुम्हारे साथ
मित्रता की भी
एक सीमा होती है ।
सुपरफास्ट ट्रेन में बैठकर
तीव्र गति से भाग रहे थे तुम
तुमसे बंधा
यात्री की तरह बैठा
खिड़की के बाहर देख रहा था मैं ।
चाहता था पकड़ना
छूट रहे गाँव
घूमना
सरसों की वादियों में
खेलना
दोस्तों के साथ
क्रिकेट
भाग रहे थे तुम
और छूट रहे थे मेरे साथी, मेरे खेल
हेरी, मिक्की, तितलियाँ
गाय, भैंस, बकरियाँ
बिजली के खम्भों से जुड़े तार तो
चलते थे साथ-साथ
मगर झट से ओझल हो जाती थी
उस पर बैठी
काले पंखों वाली चिड़िया
तुम्हारे चेहरे से फिसलते
खुशियों वाले क्षणों की तरह।
रास्ते में कई स्टेशन आये
तुमको नही उतरना था
तुम नहीं उतरे
मेरे लाख मनाने के बाद भी
चलते रहे, चलते रहे
अब
जब हवा के हल्के झोंके से भी
काँपने लगे हो तुम
थक गए हैं तुम्हारे पाँव
आँखों में है
घर का आंगन
नीम की छाँव
चाहते हो
रूकना
चाहते हो उतरना
चाहते हो
साथ...!
खेद है मित्र !
अब नहीं चल सकता मैं तुम्हारे साथ
मित्रता की भी
एक सीमा होती है ।
26.11.10
पंचगंगा घाट
काशी दर्शन-2
पंचगंगाघाट....गंगा, यमुना, सरस्वति, धूत पापा और किरणा इन पाँच नदियों का संगम तट। कहते हैं कभी, मिलती थीं यहाँ..पाँच नदियाँ..! सहसा यकीन ही नहीं होता ! लगता है कोरी कल्पना है। यहाँ तो अभी एक ही नदी दिखलाई पड़ती हैं..माँ गंगे। लेकिन जिस तेजी से दूसरी मौजूदा नदियाँ नालों में सिमट रही हैं उसे देखते हुए यकीन हो जाता है कि हाँ, कभी रहा होगा यह पाँच नदियों का संगम तट, तभी तो लोग कहते हैं..पंचगंगाघाट। यह कभी थी 'ऋषी अग्निबिन्दु' की तपोभूमी जिन्हें वर मिला था भगवान विष्णु का । प्रकट हुए थे यहाँ देव, माधव के रूप में और बिन्दु तीर्थ, कहलाता था यहाँ का सम्पूर्ण क्षेत्र। कभी भगवान विष्णु का भव्य मंदिर था यहाँ जो बिन्दु माधव मंदिर के नाम से विख्यात था। 17 वीं शती में औरंगजेब द्वारा बिंदु माधव मंदिर नष्ट करके मस्जिद बना दी गई उसके बाद इस घाट को पंचगंगा घाट कहा जाने लगा। वर्तमान में जो बिन्दु माधव का मंदिर है उसका निर्माण 18वीं शती के मध्य में भावन राम, महाराजा औध (सतारा) के द्वारा कराये जाने का उल्लेख मिलता है। वर्तमान में जो मस्जिद है वह माधव राव का धरहरा के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ चढ़कर पूरे शहर को देखा जा सकता है। महारानी अहिल्याबाई होल्कर द्वारा निर्मित पत्थरों से बना खूबसूरत हजारा दीपस्तंभ भी यहीं है जो देव दीपावली के दिन एक हजार से अधिक दीपों से जगमगा उठता है।
मोक्ष की कामना में काशीवास करती विधवाएँ, रोज शाम को आकर बैठ जाती हैं पंचगंगा घाट के किनारे। आँखें बंद किए बुदबुदाती रहती हैं मंत्र। एक छोटे से थैले के भीतर तेजी से हिलती रहती हैं अंगुलियाँ, फेरती रहती हैं रूद्राक्ष की माला....आँखें बंदकर...पालथी मारे... रोज शाम.....पंचगंगाघाट के किनारे। दिन ढलते ही, कार्तिक मास में, जलते हैं आकाश दीप....पूनम की रात उतरते हैं देव, स्वर्ग से...! जलाते हैं दीप...! मनाते हैं दीपावली...तभी तो कहते हैं इसे ‘देव दीपावली’ । देवताओं से प्रेरित हो, मनाने लगे हैं अब काशीवासी, संपूर्ण घाटों पर देव दीपावली...आने लगे हैं विदेशी..होने लगी है भीड़...बनारस को मिल गया है एक और लाखा मेला...बढ़ने लगी है भौतिकता..जोर-जोर बजते हैं घंटे-घड़ियाल, मुख फाड़कर चीखता है आदमी, जैसे कोई तेज बोलने वाला यंत्र, व्यावसायिक हो रहे हैं मंत्र...। आरती का शोर..! पूजा का शोर...! धीमी हो चली है गंगा की धार....पास आते जा रहे हैं किनारे...बांधे जा रहे हैं बांध...बहाते चले जा रहे हैं हम अपना मैल....डर है...कहीं भाग न जांय देव ..! भारतीय संस्कृति के लिए कहीं यह खतरे की घंटी तो नहीं…!
21.11.10
मुट्ठी भर धूप
..................................
एक प्रश्न करना था
बूढ़ी होती जा रही संध्या से
न कर सका
एक प्रश्न करना था
उषा की लाली से
न कर सका
न जाने कैसे
दुष्ट सूरज
जान गया सब कुछ
किरणों से मिलकर
लगाने लगा ठहाके
उत्तर आइनों से निकलकर
जलाने लगे
मेरी ही हथेलियॉं।
सहज नहीं है
कैद करना
धूप को
मुट्ठियों में।
एक प्रश्न करना था
बूढ़ी होती जा रही संध्या से
न कर सका
एक प्रश्न करना था
उषा की लाली से
न कर सका
न जाने कैसे
दुष्ट सूरज
जान गया सब कुछ
किरणों से मिलकर
लगाने लगा ठहाके
उत्तर आइनों से निकलकर
जलाने लगे
मेरी ही हथेलियॉं।
सहज नहीं है
कैद करना
धूप को
मुट्ठियों में।
19.11.10
व्यंग्य
काशी दर्शन-1
काशी में निवास करने का एक सुख यह भी है कि दूर-दराज के रिश्तेदार, मित्र तीर्थाटन की दृष्टि से पधारते हैं और अपने स्वागत-सत्कार का अवसर काशी वासियों को स्वेच्छा से प्रदान करते हैं। यह अवसर सभी को प्राप्त होता है मगर काशी वासियों को कुछ अधिक ही मिलता होगा, ऐसा मेरा सोचना है। एक तो बाबा विश्वनाथ दूसरे माँ गंगा के पवित्र तट पर स्थित काशी के घाट, दोनों इतनी ख्याति अर्जित कर चुके हैं कि काशी के ठग, सड़कें और गंगा में गिरने वाली गंदी नालियों के संयुक्त प्रयास भी व्यर्थ ही सिद्ध हुए हैं। यह अवसर जब कभी हाथ लगता है तो नव निर्माण से गुजर रहे बनारस की खस्ताहाल सड़कों, भयंकर जाम व धूल-गंदगी के चलते अपनी दशा सांप-छछुंदर वाली हो जाती है। न तीर्थ यात्रियों के संग घूमने का ही मन करता है और न अतिथि की मनोकामना पूर्ण करने में किसी प्रकार की कोताही कर के, सामाजिक अपराध का भागी ही बनना चाहता हूँ । ‘मन मन भावे, मुड़ी हिलावे’ से उलट, ‘मन ना भावे, मुड़ी झुकावे’ वाले हालात पैदा हो जाते हैं। तुरत-फुरत पहला प्रयास तो यह होता है कि आई बला भक्काटे हो जाय ! सांप भी मर जाय और लाठी भी न टूटे ! मतलब अतिथि को दर्शन भी प्राप्त हो जाय और मुझे साथ जाना ही न पड़े। मगर ऐसे मौकों पर सबसे पहले जीवन साथी ही साथ छोड़ जाती है तो मित्रों या घर के दूसरे सदस्यों से क्या अपेक्षा की जाय ! टका सा जवाब होता है...”जब मैं ही घूमने चली जाऊँगी तो घर का काम कौन करेगा...? भूख तो लगेगी ? भोजन तो ठीक टाईम पर चाहिए ही होगा ? यह संभव नहीं कि दिन भर घूमूं और शाम ढले वापस आकर स्वादिष्ट भोजन भी परोस दूँ..! आपके मित्र हैं, आप ही जाइए...मुझे तो माफ ही कर दीजिए..! ‘ऑफिस जाना जरूरी है और शर्मा जी की पत्नी भी चाहती हैं कि तुम साथ रहोगी तो कुछ खरीददारी भी हो जाएगी !’……सीधे-सीधे यह क्यों नहीं कहते कि मैं चाहता हूँ कि मेरी आफत तुम झेलो ! मुझे नहीं फांकनी सड़कों की धूल । एक दिन की छुट्टी क्यों नहीं ले लेते ऑफिस से ?“ मेरे पास खिसियाकर तुरंत ‘यू टर्न’ लेने के सिवा कोई चारा शेष नहीं रहता..”हाँ, तुम ठीक कह रही हो...! यह सब तुम्हारे बस का नहीं..! मैं ही चला जाता हूँ।“
दूसरे दिन, अलसुबह, बाधरूम में मेरा जोर-जोर से गाना...”सर फरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है” सुनकर जब ‘शर्मा जी’ की नींद उचटती है और उनके मुखारविंद से मेरे लिए तारीफ के दो बोल फूटते हैं...”पाण्डेय जी, आप गाना बहुत अच्छा गाते हैं....हम भी थोड़ा बहुत गा लेते हैं.. कभी अवसर मिला तो जरूर सुनाएंगे !” मैने कहा, ”अरे नहीं, वो तो बाथरूम में...! आप तो पुराने गायक हैं...कभी क्या, आज शाम को ही सुनेंगे। .......चलना नहीं है क्या ? जल्दी से आप लोग भी तैयार हो जाईए..’सुबहे काशी’ की छटा ही निराली है...वही नहीं देखा तो क्या देखा !” तभी दूसरे कमरे से, अकर्णप्रिय आवाज गूँजती है...”सुनिए..s...s..!
मैं अढ़ाई इंची मुस्कान चेहरे पर जबरी झोंकते हुए, शर्मा जी से....”अभी आया, आप जल्दी से तैयार हो जाइए..” कहकर श्रीमती जी के सम्मुख डरते-डरते वैसे ही उपस्थित होता हूँ जैसे कोई कक्षा में शोरगुल मचा रहा बच्चा,कक्षा अध्यापक के बुलावे पर अपराध बोध से ग्रस्त उनकी मेज के सम्मुख उपस्थित होता है....”क्या जरूरी है कि सुबह-सुबह सारे मोहल्ले की नींद हराम की जाय ? सर फरोशी की तमन्ना....उंह, वो तो अच्छा है कि शर्मा जी ने कंठ की तारीफ की, कहीं बोल पर ध्यान देते तो कितना बुरा मानते !.. सोचा है ? घूमने में इतनी परेशानी ! शहीद होने जा रहे हैं…! क्यों ?” मैने खिसियाकर कहा, “तुम भी न….! ....सो जाओ चुपचाप। कभी घर से बाहर निकलती तो हो नहीं, तुम्हें क्या मालूम कि आजकल बनारस की सड़कों के क्या हाल हैं ! ‘हर कदम रखना कि जैसे अब मरा...चल रहा हर शख्श डरा डरा ।‘ यहाँ, ‘कहीं पहाड़ तो कहीं गहरी खाई है..सड़कें देखो तो लगता है, बिहार से भटककर बनारस में चली आई है।‘” श्रीमती जी ने ‘जाओ मरो’ न कहके बस इतना ही कहा, ”अच्छा जाइए, शहीद हो जाइए..धीरे बोलिए, बच्चे सो रहे हैं, मेरी हर बात को कविता में न उड़ाइए।“
हम सब जब चलने को उद्यत हुए तो श्रीमति जी ने पत्नी धर्म का बखूबी निर्वहन किया । जिसकी उम्मीद, सुबह के प्रेमालाप के बाद मैं लगभग छोड़ चुका था। “सुनिए..s..s..एक कप चाय तो पीते जाईए...कहते हुए जब उन्होने चाय की ट्रे मुस्कुराते हुए पास किया तो मुझे भारतीय पती होने पर होने पर अनायास ही गर्व का अनुभव हुआ।“ चाय पीने के पश्चात, शर्मा जी - शर्माइन जी और उनके दो होनहार बाल पुत्रों के साथ अभी-अभी रूके बारिश और हर कहीं खुदे सड़क पर जब हमारी साहसिक यात्रा का शुभारंभ हुआ तो शर्मा जी बोले, “हें..हें..हें..आप ठीक कह रहे थे...यहां कोई गाड़ी नहीं आ सकती। कितनी दूर...?” (मैने बात बीच में ही काटी), अरे, बस एक कि0मी0 की पदयात्रा के बाद आटो मिल जाएगी, इसीलिए कह रहा था न कि सुबह-सुबह चलने में भलाई है। मार्निंग वॉक भी हो जाएगी और दर्शन भी हो जाएगा। व्हेन देयर इज नो वे, से… हे..हे..!” शर्माजी हंसते हुए बोले, “आप बढ़िया मजाक कर लेते हैं। आपके साथ दुःख अपने आप दूर हो जाता है।“
अब रास्ते के गढ्ढों, शर्माइन जी की रेशमी साड़ी पर पड़ने वाले कीचड़ के छींटों, बच्चों के फिसल कर गिरने की चर्चा करूंगा तो बात और भी लम्बी हो जाएगी, कोई पढ़ेगा भी नहीं। सीधे मुद्दे पर आते हैं। लगभग एक कि0मी0 की पदयात्रा के पश्चात जब हम ऑटो पर सवार हुए तो सबकी जान में जान आई। शर्मा जी ने ही मौन तोड़ा, “सड़क बहुत खराब है।“ मैने कहा, “हाँ.... पूरे वरूणा पार ईलाके में सीवर लाईन बिछाने का कार्य चल रहा है न, इसीलिए अभी इतनी खराब हो गई है।“ पहले से भरे बैठीं, शर्माईन जी ने वार्ता में भाग लिया..”वो तो ठीक है भाई साहब, लेकिन जिधर सीवर लाईन बिछ गई, उधर तो सड़क बना देनी चाहिए। कम से कम मजदूर लगा कर मिट्टी तो एक बराबर कर ही सकते थे। गढ्ढे तो पट जाते। सड़क तो एक लेबल की हो जाती। लगता है सारनाथ के लोगों पर भगवान बुद्ध के उपदेशों का गहरा असर पड़ा है। हड़ताल, हिंसा पर यकीन नहीं करते। कम से कम बापू को ही याद कर लेते। मुन्ना भाई पिक्चर भी नहीं देखी क्या ? थोड़ा गांधी गिरी चलाते तो भी सड़क बन जाती। बैठे हैं भगवान के भरोसे ! फल भी शाख से तोड़कर खाना पड़ता है। नहीं तोड़ा तो कौआ खा जाएगा।“ मैने हंसकर कहा, “सारनाथ का ही नहीं भाभी जी, पूरे शहर का यही हाल है ! इधर वरूणापार के लोगों पर भगवान बुद्ध के उपदेशों का असर है तो उधर गंगा तट के लोगों पर भोले बाबा की बूटी का गहरा प्रभाव देखने को मिलेगा ! आगे-आगे देखिए, दिखता है क्या !”
शुक्र है कि सुबह का समय था, जाम नहीं झेलना पड़ा लेकिन विश्वनाथ मंदिर पहुंचने से पहले, रास्ते में बन रहे दो-दो ओवर ब्रिजों के लिए की गई खुदाई से बने गढ्ढों, धूल से सने पवन झोकों और आजादी के पहले से अनवरत खराब चल रही खस्ता हाल सड़कों पर उछलते हुए हमारी टेम्पो जैसे ही गोदौलिया चौराहे पर रुकी, उतरने से पहले गंगा मैया के भेजे दो घाट दूत साधिकार रास्ता रोक सामने आ खड़े हो गए ! उनमें से एक बोला. “नाव में जाना है साहब ? दूसरा उत्तर का इंतजार किए बिना बोला, “चलिए हम ले चलते हैं, हमारी नाव एकदम अच्छी है, जहाँ कहेंगे वहीं घुमा देंगे ! मैने झल्लाकर उसी की भाषा में जवाब दिया, “नैया में घूमें नाहीं दर्शन करे निकलल हई ! समझला ? नाव में जाना है ! अबहिन रेगिस्तान कs धूल फांक के उतरबो नाहीं किया कि आ गइलन नैया लेके ! नदी इहाँ हौ ? 2 कि0मी0 पहिले से खोपड़ी पर सवार !“ मेरी बात सुनते ही दोनो बड़बड़ाते हुए भाग खड़े हुए..”अरे, नाहीं जाएके हौ तs मत जा ! कौनो जबरी तs उठा न ले जाब ! चीखत काहे हौआ कौआ मतिन !” शर्माइन जी यूँ खिलखिला कर हंसने लगीं मानो उन्हें बात पूरी तरह से समझ में आ गई हो ! मैं भी उनकी तरफ देख कर बोला, “अभी बड़े-बड़े यमदूत आएंगे भाभी जी, किसी की बात मत सुनिएगा।“ शर्माइन जी हंसते हुए बोलीं, “नहीं भाई साहब, मैं तो केवल आपकी ही बात सुनुंगी !” शर्माजी ने बस अपनी पत्नी को घूरा और मेरी तरफ देख कर जबरी मुस्कान बिखेरी, “आप ठीक कह रहे हैं।“
विश्वनाथ मंदिर पहुंचने से पहले विश्वनाथ गली से होकर गुजरना पड़ता है। विश्वनाथ गली, दुनियाँ की सबसे नायाब गली है। भांति-भांति की दुकाने, भांति-भांति के लोग। बिंदी, टिकुली, चूड़ी, कंगना, साड़ी, धोती, कुर्ता, पैजामा से लेकर पीतल के बर्तन, खिलौने, मूर्तियाँ, भगवान को सजाने वाले कपड़े, पत्थऱ के छोटे-छोटे टुकड़े, फूल-माला की दुकानें, कैसेट सब कुछ मिलता है यहाँ। जिधर देखो उधर निगाहें ठहर जाती हैं। आपके साथ कोई महिला हो, बच्चे हों तो फिर आपकी इतनी पूछ होती है कि कहना ही क्या ! जगह-जगह रास्ता रोकने के लिए तैयार खड़े दलाल, राह चलना मुश्किल कर देते हैं। “आईए बहेंजी, मत खरीदिएगा...देख तो लीजिए...!”…..” जूते यहाँ उतार दीजिए, आगे मंदिर है.....!”…”दर्शन करा दूँ...? भींड़ में कहाँ जाईएगा ? मैं आपको जल्दी और आराम से दर्शन करा दुंगा....!” भांति-भांति के विद्वान अपनी चंद्रकलाओं का समवेत गान करते हुए साधिकार राह रोके खड़े हो जाते हैं। मेरे लाख बचाने का प्रयास करते हुए भी शर्मा जी, श्रीमती जी के साथ कई स्थानो पर रूके और समान खरीदने के लिए लपकते दिखाई दिए। मैंने समझाया कि पहले दर्शन-पूजन हो जाय फिर आप जितना चाहें खरीददारी कर लेना, तब जाकर शांत हुए।
मंदिर में प्रवेश के कई मार्ग हैं। पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण चारों दिशाओं में गेट बने हैं। पुलिस चौचक जांच-पड़ताल करती है। मोबाईल, कलम भी भीतर ले जाना सख्त मना है। मैंने सीधे रास्ते से मंदिर में प्रवेश करना चाहा तो पुलिस ने ज्ञानवापी वाला रास्ता पकड़ा दिया। भगवान के दर्शन में, किसी प्रकार का सोर्स या पंडे की मदद लेना नहीं चाहता था अतः जिधर पुलिस ने मोड़ा उधर ही मुड़ गया। ज्ञानवापी मार्ग थोड़ा घुमावदार है लेकिन वहाँ से गुजरना भी कम रोचक नहीं होता। इधर मस्जिद, उधर मंदिर और चौतरफा पुलिस की चौचक सुरक्षा व्यवस्था। हमारी रक्षा भगवान करते हैं और भगवान की रक्षा सिपाही ! दिन-रात मंदिर की सुरक्षा में लगे सुरक्षा कर्मियों की हालत दयनीय हो जाती है। खूब जांच पड़ताल के बाद जब हमने ज्ञानवापी गेट से प्रवेश लिया तो वहाँ का नजारा, श्रीमान-श्रीमती, बच्चों के साथ आँखें फाड़े देखने लगे। मैने कहा, “अब चलिगा भी...! आगे लम्बी लाईन है।“ “हाँ भाई साहब, चल तो रहे हैं...ये बंदर आपस में क्यों झगड़ रहे हैं ?” मैने कहा, “ये मंदिर के बदंर हैं, वे मस्जिद के बंदर हैं। झगड़ेंगे नहीं तो क्या प्रेम से रहेंगे.. ? आदमी जब समझदार नहीं हो सके तो बंदरों से क्या उम्मीद की जाय…!”
मंदिर में खूब भींड़ थी लेकिन व्यवस्था इतनी अच्छी थी कि आराम से दर्शन हो गया। दर्शन के बाद शर्माइन जी का धैर्य का बांध पूरी तरह टूट गया। मेरे लाख मना करने के बाद भी उन्होने जमकर खरीददारी की, शर्मा जी ने मुक्त भाव से पैसे लुटाए और मैं मूर्ख भाव से सबकुछ शांत होकर देखता रहा। विश्वनाथ गली से निकलते-निकलते धूप तेज हो चुकी थी, हमने गंगा में नौका विहार की योजना दूसरे दिन के लिए टाल दिया और यह तय किया कि आज अधिक से अधिक मंदिरों के दर्शन कीए जांय। ‘केरला कफे’ में दिन का भोजन लेने के पश्चात काशी हिन्दू विश्वविद्यालय स्थित विश्वनाथ मंदिर, संकट मोचन, मानस मंदिर, दुर्गा मंदिर आदि घूमते-घूमते शाम ढल चुकी थी, बच्चों के साथ हम भी थककर चूर हो चुके थे और हमारे पास घर की राह पकड़ने के सिवा दूसरा कोई चारा न था।
14.11.10
गुस्सा बहुत बुरा है। इसमे जहर छुपा है।
आज हम सब के प्यारे चाचा नेहरू का जन्म दिवस है। 14 नवंबर 1889 को ईलाहाबाद में जन्मे भारत के प्रथम प्रधान मंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू के जन्म दिवस को हम 'बाल दिवस' के रूप में मनाते हैं। प्रस्तुत है एक बाल गीत जिसका शीर्षक है...
गुस्सा
.............
जीवन में अपने सीखो तुम
गुस्से पर काबू करना।
मीठी बोली बोल के बच्चों
दुश्मन का भी मन हरना।।
बाती जलती अगर दिये में
घर रोशन कर जाती है
बनी आग तो स्वयं फैलकर
तहस नहस कर जाती है
बहुत बड़ा खतरा है खुद में,
गुस्सा बेकाबू रहना।
जल्दी से बच्चों सीखो तुम
गुस्से पर काबू करना।।
खिलते हैं गर फूल चमन में
भौरें गाने लगते हैं
बजते बीन सुरीले जब भी
अहि को भाने लगते हैं
कौवे कोयल दोनों काले
एक बोल मधु का झरना।
जल्दी से बच्चों सीखो तुम
गुस्से पर काबू करना।।
सूरज करता क्रोध अगर तो
सोचो सबका क्या होता
कैसी होती धरती अपनी
कैसा यह अंबर होता
करती नदिया क्रोध जब कभी
कैसी होती है धरती
जल थल नभ का प्यार परस्पर
सिखलाता है दुख हरना।
जल्दी से सीखो बच्चों तुम
गुस्से पर काबू करना।।
इसीलिए कहता हूं तुमसे
क्रोध स्वयं सीखो सहना
पानी जैसा किसी रूप में
धूप शीत सीखो बहना
गुस्सा बुरा जहर के जैसा
बस सीखो इसको महना।
जल्दी से सीखो बच्चों तुम
गुस्से पर काबू करना।।
..........@देवेन्द्र पाण्डेय।
8.11.10
प्रतीक्षा
जीवन के रास्ते में कई मुकाम हैं
जैसे
एक नदी है
नदी पर पुल है
पुल से पहले
सड़क की दोनों पटरियों पर
कूड़े के ढेर हैं
दुर्गंध है
पुल के उस पार
रेलवे क्रासिंग बंद है।
क्रासिंग के दोनों ओर भीड़ है
भी़ड़ के चेहरे हैं
चेहरे पर अलग-अलग भाव हैं
अपने-अपने घाव हैं
अपनी-अपनी मंजिल है
सब में एक समानता है
सबको मंजिल तक जाने की जल्दी है
लम्बी प्रतीक्षा-एक विवशता है।
ट्रेन की एक सीटी
सबके चेहरे खिल जाते हैं
ट्रेन की सीटी
आगे बढ़ने का एक अवसर है
अवसर
चींटी की चाल से चलती एक लम्बी मालगाड़ी है।
प्रतीक्षा में
एक हताशा है
निराशा है
गहरी बेचैनी है।
प्रतीक्षा
कोई करना नहीं चाहता
ट्रेन के गुजर जाने की भी नहीं
मंजिल है कि आसानी से नहीं मिलती।
जीवन एक रास्ता है जिसमें कई नदियाँ हैं
मगर अच्छी बात यह है
कि नाव है और नदियों पर पुल भी बने हैं।
रेलवे क्रासिंग बंद है
मगर अच्छी बात यह है कि
ट्रेन के गुजर जाने के बाद खुल जाती है।
( हिन्द युग्म में प्रकाशित )
जैसे
एक नदी है
नदी पर पुल है
पुल से पहले
सड़क की दोनों पटरियों पर
कूड़े के ढेर हैं
दुर्गंध है
पुल के उस पार
रेलवे क्रासिंग बंद है।
क्रासिंग के दोनों ओर भीड़ है
भी़ड़ के चेहरे हैं
चेहरे पर अलग-अलग भाव हैं
अपने-अपने घाव हैं
अपनी-अपनी मंजिल है
सब में एक समानता है
सबको मंजिल तक जाने की जल्दी है
लम्बी प्रतीक्षा-एक विवशता है।
ट्रेन की एक सीटी
सबके चेहरे खिल जाते हैं
ट्रेन की सीटी
आगे बढ़ने का एक अवसर है
अवसर
चींटी की चाल से चलती एक लम्बी मालगाड़ी है।
प्रतीक्षा में
एक हताशा है
निराशा है
गहरी बेचैनी है।
प्रतीक्षा
कोई करना नहीं चाहता
ट्रेन के गुजर जाने की भी नहीं
मंजिल है कि आसानी से नहीं मिलती।
जीवन एक रास्ता है जिसमें कई नदियाँ हैं
मगर अच्छी बात यह है
कि नाव है और नदियों पर पुल भी बने हैं।
रेलवे क्रासिंग बंद है
मगर अच्छी बात यह है कि
ट्रेन के गुजर जाने के बाद खुल जाती है।
( हिन्द युग्म में प्रकाशित )
28.10.10
‘विजयोत्सव’
सुना है राम
तुमने मारा था मारीच को
जब वह
स्वर्णमृग बन दौड़ रहा था
वन-वन ।
तुमने मारा था रावण को
जब वह
दुष्टता की सारी हदें पार कर
लड़ रहा था तुमसे
युद्धभूमि में ।
सोख लिए थे उसके ‘अमृत कलश’
एक ही तीर से
विजयी होकर लौटे थे तुम
मनी थी दीवाली
घर-घर ।
मगर आज भी
जब मनाता हूँ ‘विजयोत्सव’
जलाता हूँ दिए
तो लगता है…….
कोई हँस रहा है मुझपर….!
चलती है हवा
बुझती है लौ
उठता है धुआँ
तो लगता है……
जीवित हैं अभी
मारीच और रावण
मन कांप उठता है
किसी अनिष्ट की आशंका से....!
22.10.10
आशीर्वाद
”नमस्कार !”
“पण्डित जी, नमस्कार !”
“नमस्कार, पाण्डित जी !”
“पा लागी पंडित जी !”
“पंडित जी ‘पा.s.s लागी’ !”
(क्रोध से तमतमा कर दोनो कंधे झकझोरते हुए....)
“‘बही.s.s.र’ हो गयल हौवा का ? ढेर घमंड हो गयल हौ ?”
“अरे बाबू साहब, का बात हौ ? काहे चीखत हौवा ? का हो गयल ?”
(दोनो हाथ नचाते हुए, गुस्से से.....)
“पाँच दाईं नमस्कार कर चुकली...एक्को दाईं जवाब ना मिले, त का होई ?” ईहे न मन करी, “जा सारे के, कब्बो नमस्कार ना करब..!”
“अरे..रे... के तोहरे नमस्कार कs जवाब नाहीं देत हौ ! नमस्कार…..!”
बाबू साहब चुप !
‘पण्डित जी’ फिर से काम में मगन !
(बाबू साहब फिर चालू....)
“हमरे ई ना समझ में आवत हौ कि तू कौन जरूरी काम करत हौवा ? तोहीं से पूछत है पंडित जी…! तोहीं के पाँच दाईं नमस्कार कैले रहली....! ई कम्प्यूटर न हो गयल चुम्बक हो गयल ससुरा...अच्छे-भले मनई के पगला देत हौ..! जा अब तोहें कब्बो नमस्कार ना करब....!”
(पंडित जी घबड़ाकर.....)
“दू मिनट बाबू साहब....नाहीं तs हमार सब करल-धरल 'गुण गोबर' हो जाई..”
‘हम जात है पंडित जी...तू यही में चपकल रहा...ससुरा कम्प्यूटर ना हो गयल सनीमा कs ‘हीरोईन’ हो गयल...!”
(आसपास खड़े लोग जो बाबू साहब की बातें ध्यान से सुन रहे थे...ठहाके लगाने लगते हैं ..उसी में कोई चुटकी लेता है...’झण्डूबाम हुई...कम्प्यूटर तेरे लिए…!’फिर एक जोरदार ठहाका लगता है...!हरबड़ी में पंडित जी कम्प्यूटर बंद करते हैं और बाबू साहब को जबरिया कुर्सी पर बिठाकर पूछते हैं.....)
“हाँ, तs बतावा का हल्ला करत रहला...?”
“कुछ नाहीं पंडित जी, ‘पलग्गी’ कैली, तs चाहत रहली की आप कs आशीर्वाद मिले...कौनो काम ना हौ,,आखिर नमस्कार कs जवाब तs देवे के न चाही ?
“देखत ना रहला कि इतना लम्बा अंक लिखले रहली...अंत में जोड़ न करीत, ओह के कम्प्यूटर में ‘सेव’ न करीत तs कुल ‘गुण गोबर’ ना हो जात ? ...तोहें तs बस… पलग्गी कs जवाब नाहीं देहला...!पलग्गी कैला तs हम तोहरी ओर तकले ना रहली...! कौनो जबरी हौ..? जे आशीर्वाद नाहीं देई, ओहसे जबरी आशीर्वाद लेबा...?”
“ए पंडित जी, ई त कौनो बात ना भईल…! ‘पलग्गी’ कैली… तs आशीर्वाद तs तोहें देवे के पड़बै करी..!” (दूसरे लोगों की ओर देखते हुए....) का भाई, आपे लोग समझावा ‘पंडित जी’ के....!”
(बाबू साहब की बात सुनकर लोग दो खेमे में बंट गए...कोई बाबू साहब को चढ़ाता….”हाँ बाबू साहब, आशीर्वाद तs पंडीजी के देवे के चाही...” कोई कहता...”जायेदा, बाबू साहब, तू ‘पा लागी’ करबे मत करा..!” कोई कहता....”आशीर्वाद देना कोई जरूरी नहीं।“)
पंडित जी बोले, "तोहार माथा गरम हौ। पहिले पानी पीया...। सब तोहें चढ़ा के मजा लेत हौ...तू तनिको बतिया समझते नाहीं हौवा..(मंगरू को आवाज देते हुए...) जाओ जल्दी से बाबू साहब को चाय पिलाओ….!”
“चाय-वाय नाहीं पीयब ! पहीले ई बतावा, आशीर्वाद देना काहे जरूरी ना हौ ?”
“चाय पी ला, अब छेड़ देहले हौवा..कम्प्यूटर बंद हो गयल हौ, तs तोहें तबियत से समझावत हई।“
(चाय पीने के बाद के बाद पंडित जी ने प्रश्न किया...)
“ई बतावा, संकटमोचन में हनुमान जी के लड्डू चढ़ावला..? हनुमान जी कs दर्शन हो जाला तs मस्त हो के चल आवला...! ई तs अच्छा हौ कि हनुमान जी नाहीं बोललन ..बोल्तन त का तू उनहूँ से जबरी आशीर्वाद लेता..?”
“देखा पंडित जी, बेवकूफ मत बनावा...पहिली बात कि तू हनूमान जी नाहीं हौवा......!”
(बीच में ही बात काटकर.....)
“हाँ,...आ गइला न रस्ते में....हम हनुमान जी नाहीं है...ठीक कहत हौवा...एकर मतलब ई भयल कि जितना ‘श्रद्धा’ तोहार हनुमान जी बदे हौ. उतना हमरे बदे नाहीं हौ……हमरे बदे ‘श्रद्धा’ में कमी हौ । हौ... मगर उतना नाहीं हौ, जितना हनुमान जी बदे हौ..?”
“हाँ, ठीक कहत हौवा...तs एकर मतलब ई भयल कि तू आशीर्वाद नाहीं देबा..?”
नाहीं…s..s…एकर मतलब ई भयल कि ‘पालागी’ ओही के करे के चाही जेकरे बदे तोहरे मन में भरपूर श्रद्धा हो…। ’श्रद्धा’ होई... तs ‘संशय’ अपने आप मिट जाई...। ‘पंडित जी’ देख लेहलन कि हम ‘पा लागी’ करत हई... यही बहुत हौ...! अऊर यहू जरूरी नाहीं हौ कि ‘पंडित जी’ के पा लागी करबे करा....! कौनो डाक्टर बतौले हौ कि ‘पंडित जी’ के पा लागी करा तबै स्वस्थ रहब...?भ्रष्ट हौ..चोर हौ..व्यभिचारी हौ..मगर ‘पंडित’ हौ तs पा लागी करबे करा...? ई कौन बात हौ...! ‘पा लागी’ ओहके करा जे ऊ योग्य हो...! फिर चाहे कौनो जात बिरादरी कs होखे...! ’पा लागी’ ओहके करा..जेकरे प्रति मन में श्रद्धा जागे...! ‘अइरू गइरू नत्थू खैरू’ जौन मिल गइलन ओही के ‘पंडित जी पा लागी..’ ई कौन बात हौ..?”
“तू ‘अइरू गइरू’ हौवा...?”
“नाहीं..हम ‘अईरू गईरू’ ना है..हमरे प्रति तोहरे मन में श्रद्धा हौ..तs हम आशीर्वाद ना देहली..तोहार ‘श्रद्धा’ छण भर में खतम...! ई कैसन ‘श्रद्धा’ ? ई कैसन विश्वास...? अऊर यहू समझा कि आशीर्वाद जबरी लेबs तs का ऊ फली ?.. ई हमरे अधिकार कs बात हौ ..ई हमरे मन कs बात हौ....जे आशीर्वाद कs पात्र ना हौ, ओहू के आशीर्वाद दे देई....?” जैसे सबके ‘पा लगी’ नाहीं करल जाला वैसे सबके आशीर्वादो नाही देहल जाला...! ई कौनो जबरी कs सौदा ना हौ...। जे आशीर्वाद देला ओकर शक्ति कम होला...जे आशीर्वाद पावला ओकर शक्ति बढ़त जाला..। ऐही बदे ऋषी-मुनी सालन तपस्या कै के शक्ति जुटावत रहलन कि संसार में बहुत अभागी हौवन ...उनकर कल्याण कs जिम्मा उनहीं के ऊपर रहल.. ..
“तs का तू ‘चमार’ के भी पा लागी करबा...?”
“काहे नाहीं...! ऊ योग्य हौ…..हमे ओहसे शिक्षा मिलत हौ...हमार जीवन ओकरे कारण सुधरत हौ, तs ई हमार परम सौभाग्य हौ कि हम उनकर पैर पकड़ के उनसे आशार्वाद लेई...! उनहूँ के खुशी होई की हमरे शिक्षा क मोल हौ...! तs ऊ जब आशीर्वाद देई हैं.. तs समझा जनम सफल हो जाई...!”
“तू धन्य हौवा पंडित जी...! आजू से हमार आँख खुल गयल.....! तोहार चरण कहाँ हौ....? पालागी...!”
“जा खुश रहा..! मस्त रहा..!”
( सभा बर्खास्त हुई...लोग अपने-अपने घर को चले गए..लेकिन बहुतों के मन में यह भाव था कि ‘पंडित जी’ ने बड़ी चालाकी से ‘बाबू साहब’ को मूर्ख बना दिया...! हम आपसे जानना चाहते हैं कि क्या पंडित जी गलत थे ?)
15.10.10
उपदेश के दो हजार सात सौ साल बाद
सुबह
सारनाथ के लॉन में
कर रही थीं योगा
शांति की तलाश में आई
दो गोरी, प्रौढ़, विदेशी महिलाएँ
इक दूजे के आमने-सामने खड़ी
हिला रही थीं हाथ
नीचे से ऊपर, ऊपर से नीचे
बज रही थी धुन
ओम नमः शिवाय।
दो ग्रामीण महिलाएँ
एक स्कूली छात्र
कॉलोनी के एक वृद्ध
तोड़ रहे थे फूल
पूजा के लिए
चाहते थे पाना
कष्ट से मुक्ति।
घूम रहे थे गोल-गोल
मंदिर के चारों ओर
मार्निंग वॉकर।
कर रहा था
बुद्ध की परिक्रमा
श्रीलंकाई तीर्थ यात्रियों का जत्था
जप रहे थे श्रद्धालु
समझ में न आने वाले मंत्र
हाथों में ले
ताजे कमल के पुष्प
सुनाई दे रहा था उद्घोष....
सा.s.s.धु, सा.s.s.धु, सा.s.s.धु ।
कर रहे थे
फूलों की बिक्री का हिसाब
गिन रहे थे सिक्के
गाँव के किशोर।
मंदिर के बाहर
दुत्कारे जा रहे थे भिखारी
झुकी कमर, लाठी टेक
मुश्किल से चल पा रहा था
एक वृद्ध
गुजरा था जनाजा
अभी-अभी
चीख रहे थे लोग
राम नाम सत्य है।
मंदिर के भीतर
पीपल के वृक्ष के नीचे
बैठे थे
बुद्ध और उनके पाँच शिष्य
मूर्ति बन।