27.2.11

शिव दर्शन



बात उन दिनो की है जब मैं भी बाबा का अंधभक्त हुआ करता था। महाशिवरात्रि के पावन  पर्व पर प्रस्तुत है एक संस्मरण जो अपने स्वभाव के अनुरूप  व्यंग्यात्मक हो गया है।


महाशिवरात्रि का दिन, प्रातःकाल छः बजे का समय और बाबा विश्वनाथ के मंदिर का नियमित मार्ग बंद । दर्शन करने के लिए ज्ञानवापी मार्ग से घूमकर जाना था। प्रवेश द्वार के बहुत पहले बांस-बल्ली लगाकर हाथों मे लाठी लेकर घूमते पुलिस प्रशासन को देखकर अनायास तुलसी बाबा औऱ रामचरित्र मानस का सुंदर कांड याद आ गया। जै हनुमान ज्ञान गुन सागर। जै कपीस तिहूँ लोक उजागर ।। तुम सर्वशक्तिमान थे। लंका जाकर माँ सीता के दर्शन कर लिये ! हम निर्बल मंदमति। अपने ही शहर में बाबा के दर्शन नहीं कर पा रहे..! बाहर सड़क पर चीटियों की लम्बी कतार की तरह लाइन लगाये, एक के पीछे एक चिपके, दूर दराज से आये श्रद्धालुओं को एक दूसरे को धकियाते देख, अंतिम सिरे की तलाश में भटकता मैं फिर गोदौलिया चौराहे पर आ खड़ा हुआ। जैसे थे। एक घंटे में यही जान पाया कि कितनी भीड़ है ! कहाँ से शुरू करना है ! दर्शन कब होगा इसका ज्ञान तो उन्हें भी नहीं था जो लाईन में लगे थे ! मुझे क्या होता ! भीड़ देख भई हताशा ! मर ना जाऊँ भूखा-प्यासा !! दर्शन करने की इच्छा कपूर की तरह जल कर खाक हो चुकी थी। “जीयो खिलाड़ी वाहे-वाहे…!” की तर्ज पर “बोल बम ! बोल बम ! तोहरे में ढेर दम !” भुनभुनाता घर वापस आया और खा-पी कर सो गया !

शाम को अस्सी चौराहे पर मित्र दलों की भांग-ठंडाई, घाट किनारे की लंठ-ढीठाई, चर्चा-परिचर्चा के बीच उभरते महाकवियों के काव्यपाठ ने शरीर में ऐसा जोश भरा कि पुनः शिव दर्शन की इच्छा तीर्व हो उठी। जामवंत की तरह एक वीर रस के कवि बार-बार जोश दिला रहे थे……का चुप साधी रहा बलवाना ! हमने भी आव देखा न ताव । लंगोटी कसी और फिर से चल पड़े प्रभु दर्शन के दुरूह मार्ग पर। हम केहू से नाहीं कम ! बोल बम ! बोल बम ! रास्ते में शिव-बरात देखकर तो मन इस कदर हर्षित हुआ कि हम भी बराती हैं और शादी अपने लंगोटिया यार की ही हो रही है।

सुबह के कटु अनुभव को भूल कर मैने बांसफाटक के पास अवतरित एक पुष्प विक्रेता की दुकान पर अपना चप्पल यह कहते हुए उतार दिया कि शीघ्र ही वापस आ रहा हूँ देखते रहना। उसने हँसते हुए कहा, “हमहीं न देखब ! दूसर के देखी ? आज लौट के अइबा तब न !”( मैं ही न देखूंगा, दूसरा कौन देखेगा ! आज लौट कर आयेंगे तब न…! ) मैने पलटकर पूछा, “क्या मतलब ?” उसने फिर कहा, “जा मालिक, हम जबले रहब चप्पल यहीं धरल रही।“ ( जाओ भैया, हम जब तक रहेंगे चप्पल यहीं रहेगा ! ) भांग के नशे में सब बात अच्छी लगती है। कोई दगा दे रहा हो तो भी लगता है कि दुवा दे रहा है ! मैं भी हा..हा..ही..ही..करता लाइन में लग गया। रात्रि का समय था या भांग का जादू कि ज्ञानवापी मस्जिद तक तो कोई परेशानी नहीं हुई। मैं वैसे ही बढ़ता रहा जैसे कारगिल मोर्चे की नीची पहाड़ियों पर सैनिक बढ़ रहे थे। जैसे ही ज्ञानवापी मैदान पर पहुँचा तो वहाँ लोहे की बैरिकेटिंग्स को देख आँखें खुली की खुली रह गईं !   अखबार के साप्ताहिक परिशिष्ट पर बच्चों के लिए छपने वाले वर्ग पहेली के चित्र का नजारा याद आ गया जिसमें आड़ी-तिरछी लाइनें खींची रहती हैं और नीचे लिखा रहता है….“चूहे के घर वापस लौटने का सही मार्ग ढूंढिए !” मैं उसी चित्र के चूहे की तरही फंसा उस घड़ी को कोस रहा था जब मैंने बाबा के दर्शन का संकल्प लिया था । संतोष की बात यह थी कि मैं अकेला नहीं था । मुझे रह-रह कर वीर रस के उस जामवंत पर क्रोध आ रहा था जिसने मुझे मेरा बल याद कराकर मुझमें ताव का संचार किया था। भांग के नशे की तरह मेरी मुसीबतें कम होने का नाम ही नहीं ले रही थीं। कुछ समय पश्चात दंड हिलाते सरकारी दंडी ने पर्साद स्वरूप दंड सुनाया कि दर्शन इस लाइन से नहीं उस लाइन से होगा !  भीड़ वर्षा से पूर्व निकलने वाले टिड्डों की तरह कूदती-फाँदती, हाँफती-उड़ती दूसरी लाइन में धक्कम-मुक्कम के साथ चपचपा गई।

मैने कुछ नहीं किया। बस भीड़ का हो गया। वैसे भी भीड़ में आप के पास करने के लिए कुछ नहीं रहता। भीड़ में शामिल व्यक्ति सिर्फ भीड़ ही रहता है। आदमी नहीं रह जाता। वही करता है जो भीड़ करती है। वही सोचता है जो भीड़ सोचती है। वैसे ही हाँका जाता है जैसे भीड़ को हाँका जाता है। भीड़ और भेंड़ में दो और चार पायों का ही फर्क शेष रह जाता है। बाद में एक और चमत्कार हुआ ! पहली वाली लाइन का दरवाजा पहले खुल गया और वहाँ बहुत बाद में आये श्रद्धालु भी घुसते चले गये ! लोग बाग भजन करना छोड़ एक दूसरे को गरियाते ही रह गये। किसी का दूध छलक कर गिर गया था तो किसी की फूल-माला।

घंटों की धक्कामुक्की, हर हर बम बम, हर हर महादेव के नारों के बीच जब भीड़ का वह अंश मंदिर द्वार से भीतर घुसा जिसमें मैं भी शामिल था तो लगा कि बाबा का दर्शन अब हुआ तब हुआ। मगर गर्भ गृह के द्वार का दृष्य देखकर दिल ऐसे बैठ गया जैसे परीक्षा में अपना रोल नम्बर न पाने पर विद्यार्थी का बैठ जाता है। जैसे मिलन का दिन और समय निर्धारित होने पर आशिक के पैर की हड्डी टूट जाय ! गर्भ गृह के द्वार पर खड़ा एक सिपाही श्रद्धालु भक्तों के दरवाजे पर आते ही ऐसे धकेल रहा था मानो किसी ने एक मिनट रूक कर भीतर झांक भी लिया तो अनर्थ हो जायगा ! झुका नहीं कि गर्दन पकड़कर बाहर। शिवलिंग का तो नहीं हाँ, पुजारियों-विशिष्ट अतिथियों की चकाचौंध. प्रशासनिक मजबूरी और अपने दुर्भाग्य का भरपूर दर्शन हुआ। लौटते वक्त गलियों के बीच एक पतली गली से एक पंडे द्वारा कुछ विशेष तीर्थ यात्रियों को लेकर मंदिर में घुसते देख आँखें फटी की फटी रह गईं। दर्शन तो नहीं हुआ लेकिन एक ज्ञान जरूर हो गया कि भगवान को भीड़ में नहीं खोजना चाहिए। थक हार कर वहाँ से जब वापस लौटा तो अपने चप्पल की याद हो आई। रात्रि के बारह बज चुके थे। बांसफाटक के पास न पुष्प था पुष्प विक्रेता । उसकी दुकान मेरी श्रद्धा के साथ गुम हो चुकी थी। मुझे होश आया। उसने कहा था- “जा मालिक, हम जबले रहब चप्पल यहीं धरल रही………!”

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23.2.11

सतीश सक्सेना के ब्लॉग से लौटकर


अभी बड़े भाई आदरणीय सतीश जी के ब्लॉग पर यह पोस्ट पढ़ी। कमेंट लिखा तो लगा कविता बन गई ! मन हुआ पोस्ट कर दूँ । आपकी क्या राय है ?

दिल

अपेक्षा की दो बेटियाँ हैं

आशा और निराशा

तीनो जिस घर में रहती हैं उसका नाम दिल है

दिल कांच का नहीं पारे का बना है

टूटता है तो आवाज नहीं होती

जर्रा-जर्रा बिखर जाता है

जुटता है तो आवाज नहीं होती

हौले-हौले संवर जाता है

सब वक्त-वक्त की बात है

कभी हमारे तो कभी

तुम्हारे साथ है

किसी ने कहा भी है..

धैर्य हो तो रहो थिर

निकालेगा धुन

समय कोई।
 

22.2.11

पचइंचिया

का रे पचइंचिया !
नहइले ?
ना..
खाना खइले ?
ना..
सुतले रहबे ?
ना…
खेलबे ?
हाँ…
के उतारी तोहें इहाँ से ?
देख ! तोहार बाहू तs ओह दे ऊपर बोझा ढोवता
तू कबले सुतले रहबे ई पाँच इंची के देवार पे !

कूद !
न कुदबे ?
ले उतार देतानी तोहका
शाबास!

ना चिन्हले हमका ?
हम ठिकेदार हई...
तोहार असली बाप रे सारे !

ले ई दोना
जा बालू लिआव कपारे पर जैसे तोहार माई लियावता !
हँ...अइसे....शाबास !

ले रोटी खो।
फेंक देहले..?
हरामी...!
रूक..!
बूझ लेहले का पंडित का भाषा ?

का रे लम्बुआ...!
का कहत रहलेन पंडित जी काल ?

हँ मालिक !
कहत रहेन...

नव इंची के ईंट कs सीढ़ी बनाई के
निकसी पचइंचिया
अंधियार कुईंयाँ से
एक दिन
बजाई गिटार
खिल उठी फूल
तितलियन कs आई बाढ़
नाची मनवाँ
हुई जाई
सगरो अजोर।

हा हा हा हा...
चुप रे लम्बू !
देख !
अंखिया भर आई हमार।

पगलऊ पंडित !
ना बूझेलन केतना गहीर बा
ई कुआँ...!
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हिंदी अनुवाद । उन पाठकों के लिए जो भोजपुरी बिलकुल ही नहीं समझ पा रहे। मुझे नहीं मालूम कि मेरा प्रयास कहाँ तक सफल है लेकिन मुझे लगा कि अनुवाद आवश्यक है उन पाठकों के लिए जिन्होने भाषा के कारण इसे बिलकुल ही समझने से इंकार कर दिया। मेरा मानना है कि भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम है। दर्द जैसे भी हो महसूस किया जाना चाहिए।


पचइंचिया

क्यों रे पचइंचिया !
नहाये ?
ना..
खाना खाये ?
ना..
सोते ही रहोगे ?
ना...
खेलोगे ?
हाँ…
कौन उतारेगा तुम्हें यहाँ से ?
देखो !
तुम्हारा पिता तो वो... ऊपर बोझा ढो रहा है !
तुम कब तक सोते रहोगे इस पाँच इंच के दिवार पर ?

कूदो !
नहीं कूदोगे ?
लो उतार देते हैं तुमको
शाबास !

हमको नहीं पहचानते ?
हम ठेकेदार हैं.....
तुम्हारे असली बाप रे साले !

लो, यह दोना लो
जाओ अपने सर पर रख कर बालू ले आओ
जैसे तुम्हारी माँ ले कर आ रही है !
हाँ...ऐसे ही....शाबास !

लो रोटी खा लो
फेंक दिये..?
हरामी !
रूको..!
पंडित की भाषा इतनी जल्दी समझ गये ?


क्यों लम्बू..!
क्या कह रहे थे पंडित जी कल ?

हाँ मालिक !
कह रहे थे.....

नौ इंच के ईटों की सीढ़ी बनाकर
निकलेगा पचइंचिया
अंधेरे कुएँ से
एक दिन
बजायेगा गिटार
खिल उठेंगे फूल
आएंगी ढेर सारी तितलियाँ
नाचेगा मन
हो जायेगा
चारों तरफ उजाला।

हा हा हा हा....
चुप रहो लम्बू !
देखो !
मेरी आँखें भर आईं।

पगला पंडित!
नहीं समझता
कितना गहरा है
यह कुआँ…!
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16.2.11

हे राम ! अंग्रेजी सिनेमा में गुरूजी प्रणाम !!

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हमारे एक मित्र हैं मास्टर साहब। क्षणे रूष्टा, क्षणे तुष्टा। मुख के तेज दिल के साफ । कोई ताव दिखाये तो मारने को तैयार । कोई माफी मांग ले तो सौ खून माफ। प्यार से सब उन्हें मास्टर कहते हैं। पी0एच0डी0 नहीं हैं मगर हर वाक्य में एक गाली घुसेड़ने की कला जानते हैं। इसलिए हम उन्हें डाक्टर कहते हैं। एक दिन बोले...चलिए, पिक्चर देखने चलते हैं। मैने कहा...छोड़ो डाक्टर, पिक्चर तो रोज ही टी0वी0 में आता है, कहाँ फंसते हैं ! बोले-नहीं.s.s..वह नहीं.s.s.। मैने पूछा ...तो ? धीरे से बोले....अंग्रेजी सिनेमा ! मैं उनका आशय जानकर सकपका गया। बोला..धत्त ! कोई देख लेगा तो क्या कहेगा ? समाज पर इसका क्या असर पड़ेगा ? डाक्टर तुनक कर बोले...आप तो पूरे लण्डूरे झाम हैं ! क्या पूरे समाज के सरदर्द के लिए मास्टर ही झण्डू बाम हैं ? मैने कहा - ठीक है..फिर भी...कुछ तो सोचो डाक्टर ! देश कहाँ जाएगा जब भटक जायेगा मास्टर !!

मास्टर तो मास्टर फिर चिढ़ गये। माध्यमिक से उखड़कर प्राइमरी के हो गए। बोले – छोड़िए ! उपदेश मत दीजिए ! हम सभी कवियों का चरित्र जानते हैं। आपका भी और उनका भी जो प्राइम मिनिस्टर हो गये ! मुंह में राम, बगल में छूरी। जीभ में पानी, मिठाई से दूरी।। मैं समझ गया । अब नहीं मानेंगे। कहा..अच्छा चलिए । कौन इस शहर में अपना सगा है ! बताइये कहाँ क्या लगा है ? डाक्टर के लिए इतना पर्याप्त था। मुझे स्कूटर में बिठाकर पहुँच गये सिनेमा हॉल। रास्ते भर गाते रहे तीन ताल !..जो भी होगा देखा जाएगा, कुछ भी होगा मोजा आएगा।

जाड़े का समय कोहरा घना था। मंकी कैप, मफलर, शाल से मुँह ढंकने के पश्चात भी पहचान जाने का खतरा बना था। मारे डर के अपना था बुरा हाल और डाक्टर दिये जा रहे थे ताल पर ताल। पलक झपकते ही बालकनी का दो टिकट ले आए। मैं समझ गया। अब देश उधर ही जायेगा जिधर आज का मास्टर ले जाये !

हॉल में अंधेरा था। भीड़ कम थी। डाक्टर अपने आगे की सीट पर दोनो टांगें फैलाए ऐसे बैठ गये जैसे कमर से उखड़ गए ! हम भी उनकी बगल में जाकर सिकुड़ गये। अंग्रेजी, अश्लील पिक्चर की कल्पना से उत्तेजना चरम पर थी। अभी पिक्चर शुरू भी नहीं हुई थी कि डाक्टर फिर क्रोध से बेलगाम ! पीछे, .हॉल में, .कहीं से आवाज आई...गुरूजी प्रणाम !!

डाक्टर स्प्रिंग की तरह उछलकर खड़े हो गये ! पीछे देखने लगे। कोई दिखलाई नहीं दिया। तमतमाकर बोले...देख रहे हैं पाण्डे जी ! आजकल के लौण्डे कितने बेशरम हैं !! मन किया कह दें… हमको ही कौन शरम है ?  मगर चुप रहे। डाक्टर फिर कड़के...दिख जाएगा तो साले को फेल कर दुंगा ! मन ही मन सोंचा...मास्टर और कर भी क्या सकता है ? गुस्सा जायेगा तो फेल कर देगा। खुश होगा तो पास कर देगा। अब विद्यार्थी थोड़े न कुछ करता है। जो करता है मास्टर ही करता है। मगर कहा...ठीक कह रहे हैं डाक्टर। यहाँ नमस्कार, स्वागत-सत्कार का क्या काम ? जहाँ दिख जायें, वहीं थोड़े न करते हैं, गुरू जी प्रणाम ! हम तो पहले ही कह रहे थे...कोई देख लेगा तो क्या कहेगा ! मगर आप ही नहीं माने। अब काहे को डरते हैं ? काहे का गुस्सा करते हैं ?

डाक्टर को मेरी यह बात और भी खल गई। टिकट फाड़ कर बोले...चलिए ! पिक्चर गया तो गया सारा मूड भी खराब हो गया। मैं भी उठकर उनके पीछे हो लिया। बाहर निकल कर चाय की प्याली से बोला....देखा डाक्टर ! विद्यार्थी और शिक्षक के बीच आज भी एक लक्ष्मण रेखा है। जिसे विद्यार्थी भले लांघ दे मगर लांघ ही नहीं सकता मास्टर। लांघेगा तो हो जायेगा बदनाम। लोग सुनेंगे तो कहेंगे..हे राम ! अंग्रेजी सिनेमा में गुरूजी प्रणाम !!

13.2.11

आन कs लागे सोन चिरैया...........


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वैलेनटाइन

बिसरल बंसत अब तs राजा
आयल वैलेनटाइन ।
राह चलत के हाथ पकड़ के
बोला यू आर माइन ।

फागुन कs का बात करी
झटके में चल जाला
ई त राजा प्रेम कs बूटी
चौचक में हरियाला

आन कs लागे सोन चिरैया
आपन लागे डाइन। [बिसरल बसंत…..]

काहे लइका गयल हाथ से
बापू समझ न पावे
तेज धूप मा छत मा ससुरा
ईलू-ईलू गावे

पूछा तs सिर झटक के बोली
आयम वेरी फाइन । [बिसरल बसंत…..]

बाप मतारी मम्मी-डैडी
पा लागी अब टा टा
पलट के तोहें गारी दी हैं
जिन लइकन के डांटा

भांग-धतूरा छोड़ के पंडित
पीये लगलन वाइन। [बिसरल बसंत…..]

दिन में छत्तिस संझा तिरसठ
रात में नौ दू ग्यारह
वैलेन टाइन डे हो जाला
जब बज जाला बारह

निन्हकू का इनके पार्टी मा
बड़कू कइलन ज्वाइन। [बिसरल बसंत…..]

6.2.11

करोरम किसी से करो........

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नीम बहुत उदास था
फिज़ाओं में धूल है, धुआँ है
न बावड़ी है न कुआँ है
पीपल ने कहा...
आजा मेरी गोदी में बैठ जा !

नीम हंसा...
फुनगियाँ लज़ाने लगीं
कौए ने कलाबाजी करी
वक्त ने पंख फड़फड़ाये
पीपल की गोद में
नन्हां नीम किलकारी भरने लगा

आज
नीम बड़ा हो चुका है
उसकी शाखें पीपल से भी ऊँची हैं
जड़ें एक दूजे से गुत्थमगुत्था
अब चाहकर भी दोनो को अलग नहीं किया जा सकता

उसे देख
प्रभावित होते हैं
हिंदू भी, मुसलमान भी, सिक्ख भी, इसाई भी
वे भी जो ईश्वर को मानते हैं
वे भी जो ईश्वर को नहीं मानते

मैं जब भी
उस वृक्ष के पास से गुजरता हूँ
तो लगता है इसकी शाखें बुदबुदाती रहती हैं
करोरम किसी से करो।
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