बात उन दिनो की है जब मैं भी बाबा का अंधभक्त हुआ करता था। महाशिवरात्रि के पावन पर्व पर प्रस्तुत है एक संस्मरण जो अपने स्वभाव के अनुरूप व्यंग्यात्मक हो गया है।
महाशिवरात्रि का दिन, प्रातःकाल छः बजे का समय और बाबा विश्वनाथ के मंदिर का नियमित मार्ग बंद । दर्शन करने के लिए ज्ञानवापी मार्ग से घूमकर जाना था। प्रवेश द्वार के बहुत पहले बांस-बल्ली लगाकर हाथों मे लाठी लेकर घूमते पुलिस प्रशासन को देखकर अनायास तुलसी बाबा औऱ रामचरित्र मानस का सुंदर कांड याद आ गया। जै हनुमान ज्ञान गुन सागर। जै कपीस तिहूँ लोक उजागर ।। तुम सर्वशक्तिमान थे। लंका जाकर माँ सीता के दर्शन कर लिये ! हम निर्बल मंदमति। अपने ही शहर में बाबा के दर्शन नहीं कर पा रहे..! बाहर सड़क पर चीटियों की लम्बी कतार की तरह लाइन लगाये, एक के पीछे एक चिपके, दूर दराज से आये श्रद्धालुओं को एक दूसरे को धकियाते देख, अंतिम सिरे की तलाश में भटकता मैं फिर गोदौलिया चौराहे पर आ खड़ा हुआ। जैसे थे। एक घंटे में यही जान पाया कि कितनी भीड़ है ! कहाँ से शुरू करना है ! दर्शन कब होगा इसका ज्ञान तो उन्हें भी नहीं था जो लाईन में लगे थे ! मुझे क्या होता ! भीड़ देख भई हताशा ! मर ना जाऊँ भूखा-प्यासा !! दर्शन करने की इच्छा कपूर की तरह जल कर खाक हो चुकी थी। “जीयो खिलाड़ी वाहे-वाहे…!” की तर्ज पर “बोल बम ! बोल बम ! तोहरे में ढेर दम !” भुनभुनाता घर वापस आया और खा-पी कर सो गया !
शाम को अस्सी चौराहे पर मित्र दलों की भांग-ठंडाई, घाट किनारे की लंठ-ढीठाई, चर्चा-परिचर्चा के बीच उभरते महाकवियों के काव्यपाठ ने शरीर में ऐसा जोश भरा कि पुनः शिव दर्शन की इच्छा तीर्व हो उठी। जामवंत की तरह एक वीर रस के कवि बार-बार जोश दिला रहे थे……का चुप साधी रहा बलवाना ! हमने भी आव देखा न ताव । लंगोटी कसी और फिर से चल पड़े प्रभु दर्शन के दुरूह मार्ग पर। हम केहू से नाहीं कम ! बोल बम ! बोल बम ! रास्ते में शिव-बरात देखकर तो मन इस कदर हर्षित हुआ कि हम भी बराती हैं और शादी अपने लंगोटिया यार की ही हो रही है।
सुबह के कटु अनुभव को भूल कर मैने बांसफाटक के पास अवतरित एक पुष्प विक्रेता की दुकान पर अपना चप्पल यह कहते हुए उतार दिया कि शीघ्र ही वापस आ रहा हूँ देखते रहना। उसने हँसते हुए कहा, “हमहीं न देखब ! दूसर के देखी ? आज लौट के अइबा तब न !”( मैं ही न देखूंगा, दूसरा कौन देखेगा ! आज लौट कर आयेंगे तब न…! ) मैने पलटकर पूछा, “क्या मतलब ?” उसने फिर कहा, “जा मालिक, हम जबले रहब चप्पल यहीं धरल रही।“ ( जाओ भैया, हम जब तक रहेंगे चप्पल यहीं रहेगा ! ) भांग के नशे में सब बात अच्छी लगती है। कोई दगा दे रहा हो तो भी लगता है कि दुवा दे रहा है ! मैं भी हा..हा..ही..ही..करता लाइन में लग गया। रात्रि का समय था या भांग का जादू कि ज्ञानवापी मस्जिद तक तो कोई परेशानी नहीं हुई। मैं वैसे ही बढ़ता रहा जैसे कारगिल मोर्चे की नीची पहाड़ियों पर सैनिक बढ़ रहे थे। जैसे ही ज्ञानवापी मैदान पर पहुँचा तो वहाँ लोहे की बैरिकेटिंग्स को देख आँखें खुली की खुली रह गईं ! अखबार के साप्ताहिक परिशिष्ट पर बच्चों के लिए छपने वाले वर्ग पहेली के चित्र का नजारा याद आ गया जिसमें आड़ी-तिरछी लाइनें खींची रहती हैं और नीचे लिखा रहता है….“चूहे के घर वापस लौटने का सही मार्ग ढूंढिए !” मैं उसी चित्र के चूहे की तरही फंसा उस घड़ी को कोस रहा था जब मैंने बाबा के दर्शन का संकल्प लिया था । संतोष की बात यह थी कि मैं अकेला नहीं था । मुझे रह-रह कर वीर रस के उस जामवंत पर क्रोध आ रहा था जिसने मुझे मेरा बल याद कराकर मुझमें ताव का संचार किया था। भांग के नशे की तरह मेरी मुसीबतें कम होने का नाम ही नहीं ले रही थीं। कुछ समय पश्चात दंड हिलाते सरकारी दंडी ने पर्साद स्वरूप दंड सुनाया कि दर्शन इस लाइन से नहीं उस लाइन से होगा ! भीड़ वर्षा से पूर्व निकलने वाले टिड्डों की तरह कूदती-फाँदती, हाँफती-उड़ती दूसरी लाइन में धक्कम-मुक्कम के साथ चपचपा गई।
मैने कुछ नहीं किया। बस भीड़ का हो गया। वैसे भी भीड़ में आप के पास करने के लिए कुछ नहीं रहता। भीड़ में शामिल व्यक्ति सिर्फ भीड़ ही रहता है। आदमी नहीं रह जाता। वही करता है जो भीड़ करती है। वही सोचता है जो भीड़ सोचती है। वैसे ही हाँका जाता है जैसे भीड़ को हाँका जाता है। भीड़ और भेंड़ में दो और चार पायों का ही फर्क शेष रह जाता है। बाद में एक और चमत्कार हुआ ! पहली वाली लाइन का दरवाजा पहले खुल गया और वहाँ बहुत बाद में आये श्रद्धालु भी घुसते चले गये ! लोग बाग भजन करना छोड़ एक दूसरे को गरियाते ही रह गये। किसी का दूध छलक कर गिर गया था तो किसी की फूल-माला।
घंटों की धक्कामुक्की, हर हर बम बम, हर हर महादेव के नारों के बीच जब भीड़ का वह अंश मंदिर द्वार से भीतर घुसा जिसमें मैं भी शामिल था तो लगा कि बाबा का दर्शन अब हुआ तब हुआ। मगर गर्भ गृह के द्वार का दृष्य देखकर दिल ऐसे बैठ गया जैसे परीक्षा में अपना रोल नम्बर न पाने पर विद्यार्थी का बैठ जाता है। जैसे मिलन का दिन और समय निर्धारित होने पर आशिक के पैर की हड्डी टूट जाय ! गर्भ गृह के द्वार पर खड़ा एक सिपाही श्रद्धालु भक्तों के दरवाजे पर आते ही ऐसे धकेल रहा था मानो किसी ने एक मिनट रूक कर भीतर झांक भी लिया तो अनर्थ हो जायगा ! झुका नहीं कि गर्दन पकड़कर बाहर। शिवलिंग का तो नहीं हाँ, पुजारियों-विशिष्ट अतिथियों की चकाचौंध. प्रशासनिक मजबूरी और अपने दुर्भाग्य का भरपूर दर्शन हुआ। लौटते वक्त गलियों के बीच एक पतली गली से एक पंडे द्वारा कुछ विशेष तीर्थ यात्रियों को लेकर मंदिर में घुसते देख आँखें फटी की फटी रह गईं। दर्शन तो नहीं हुआ लेकिन एक ज्ञान जरूर हो गया कि भगवान को भीड़ में नहीं खोजना चाहिए। थक हार कर वहाँ से जब वापस लौटा तो अपने चप्पल की याद हो आई। रात्रि के बारह बज चुके थे। बांसफाटक के पास न पुष्प था पुष्प विक्रेता । उसकी दुकान मेरी श्रद्धा के साथ गुम हो चुकी थी। मुझे होश आया। उसने कहा था- “जा मालिक, हम जबले रहब चप्पल यहीं धरल रही………!”
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