मेरा मानना है कि जिस धर्म के अनुयायियों में जितने अधिक मतभेद हैं वह धर्म उतना अधिक जागृत है, चैतन्य है या फिर उसमें मनुष्य मात्र के कल्याण की उतनी ही अधिक संभावना है। मतभेद से नव चेतना का संचार होता है। नव चेतना नए विचार प्रस्तुत करते हैं। नए विचार नव पंथ का निर्माण करते हैं। नव पंथ के अस्तित्व में आने से मूल धर्म संकट ग्रस्त प्रतीत होता है। नव पंथ खुद को ही धर्म घोषित कर सकते हैं। मूल धर्म के अनुयायियों की संख्या कम हो सकती है । इन सब के बावजूद यह भी सत्य है कि इस वैचारिक संघर्ष से मानव मात्र का कल्याण ही होता है।
इस धरती में जिसे भी सत्य का ज्ञान हुआ उसने मानव मात्र के कल्याण के लिए उपदेश देना शुरू किया। यह अलग बात है कि उनके अनुयायियों ने अपनी श्रेष्ठता के दंभ में दूसरे के विचारों की उपेक्षा करनी शुरू कर दी। जिस पल हम खुद को श्रेष्ठ व दूसरे को निम्न मान लेते हैं उसी पल से हमारा विकास अवरूद्ध हो जाता है। मुद्दा है तो विचार है। सभी मनुष्यों की सोच एक जैसी हो ही नहीं सकती। सोच की भिन्नता ही मनुष्य होने का प्रमाण है। नजरिया एक जैसा नहीं होता। किसी को कुछ अच्छा लगता है, किसी को कुछ। कोई किसी को सही ठहराता है कोई किसी को, मगर इसका मतलब यह नहीं है कि हम ही सही हैं दूसरे गलत। एक राष्ट्र, एक धर्म की कल्पना खयाली पुलाव है। ऐसा कभी संभव ही नहीं है। राष्ट्र के स्तर पर हम यह तय कर सकते हैं कि हमारे जीने का आधार क्या हो। मुद्रा एक कर सकते हैं। कभी युद्ध न करने का संकल्प ले सकते हैं। गलत करने वाले क्षेत्राधिकारी को कड़े दंड का प्राविधान कर सकते हैं मगर विचारों को आने से नहीं रोक सकते। जितनी जल्दी हम यह मान लें कि मनुष्य हैं तो विचार हैं उतनी जल्दी मनुष्य का कल्याण है। हमारे ये हैं जो हमें अच्छे लगते हैं तुम्हारे भी सही हो सकते हैं, तुम अपने ढंग से जीयो हमें अपने ढंग से जीने दो। बिना किसी की उपेक्षा किये, किसी को प्रलोभन दिए बिना, सत्ता की ताकत के बल पर अपने धर्म का प्रचार प्रसार किये बिना, बिना किसी भेदभाव के, अपने नजरिये को समाज में प्रकट करें तो मानवता का कल्याण संभव है। किसी भी राजा को राजा की भूमिका में, किसी धर्म का अनुयायी नहीं होना चाहिए। व्यक्तिगत रूप से वह किस धर्म का अनुयायी होगा यह उसके नीजी विचार होने चाहिए। किसी राष्ट्र के एक धर्म का अनुयायी होने का अर्थ ही यह है कि वहां दूसरे धर्मों की उपेक्षा की संभावना विद्यमान है।
मेरा मानना है कि एक समय ऐसा जरूर आयेगा जब दुनियाँ के लोग उनकी उपेक्षा करना शुरू कर देंगे जो बलात दूसरों पर अपने विचार थोपते हैं। मुझे लगता है कि युद्ध से जीते भू भाग पर अपने धर्म का बलात प्रचार प्रसार करने की भावना खत्म होगी, बलात्कारियों को लोग उपेक्षा से देखेंगे और उनकी तरफ झुकेंगे जो ईमानदारी से अपने उपदेशकों के विचारों को आत्मसात कर मनुष्य मात्र के कल्याण के लिए समर्पित हैं।
देवेन्द्र जी काश आपकी बात सच हो ... अभी तक तो ऐसा नहीं नज़र आ रहा .. जो हिटना ज्यादा अपना धर्म जबरन दूसरों पर थोप रहा है उसका उतना ही प्रचार हो रहा है ...
ReplyDeleteमेरा मानना है कि एक समय ऐसा जरूर आयेगा जब दुनियाँ के लोग उनकी उपेक्षा करना शुरू कर देंगे जो बलात दूसरों पर अपने विचार थोपते हैं। मुझे लगता है कि युद्ध से जीते भू भाग पर अपने धर्म का बलात प्रचार प्रसार करने की भावना खत्म होगी, बलात्कारियों को लोग उपेक्षा से देखेंगे और उनकी तरफ झुकेंगे जो ईमानदारी से अपने उपदेशकों के विचारों को आत्मसात कर मनुष्य मात्र के कल्याण के लिए समर्पित हैं।
ReplyDeleteKaash! Aisa ek din aa jaye!
काश ! जैसा आपने सोंचा है वैसा ही हो सार्थक पोस्ट , आभार
ReplyDeleteअब आप किसके साथ कर बैठे (मतभेद! ) :)
ReplyDeleteजो धर्म संवाद को आश्रय देते हैं, इतिहास उन्हे आश्रय देता है।
ReplyDeleteदेवेन्द्र जी, हम तो इसी तरह सोचते हैं।
ReplyDeleteचिन्तन योग्य आलेख....
ReplyDeleteविचारोत्तेजक आलेख .....
ReplyDeleteदेवेन्द्र जी, मत-वैभिन्नय विचारशील प्रजाति का स्वाभाविक गुण है। कहीं इसे स्वीकार किया जाता है और कहीं इसका दमन होता है। मगर जब तक मानवमात्र है, मत-विभाजन रहेगा ही। दमनकारी विचारधारायें चाहे अन्ध-श्रद्धा से प्रेरित हों चाहे अन्ध-विरोध से, वे हिंसक, अप्राकृतिक, नॉन-प्रोडक्टिव और अस्थायी हैं, वे बलप्रयोग और दमन के सहारे कुछ समय तक चल भले ही जायें, उनसे स्वतंत्रता की उत्कंठा मानव का नैसर्गिक और अदमनीय गुण है! "सप्तैते चिरजीविन:" में सात मानवीय गुण-प्रतीकों की बात है। उसके आगे और भी होंगे ...
ReplyDelete"अमर हो स्वतंत्रता!"
purn sahamat
ReplyDeleteमतभेद ही तो हैं जो चिंतन की परंपरा को आगे बढ़ाते हैं। लेकिन धर्मों में चिंतन का स्थान कहाँ है? वहाँ तो नवचिंतन को अलग ही डेरा बनाना पड़ता है।
ReplyDeleteआदरणीय देवेन्द्र जी
ReplyDeleteनमस्कार !
विचारोत्तेजक आलेख .....
सुंदर और गहन विचार से परिपूर्ण आलेख।
ReplyDeleteधीरे - धीरे चेतना की स्तर वृद्धी होती रहेगी.निश्चित ही दूसरा भी सही हो सकता है की भावना येक सभ्य और प्रजातांत्रिक समाज के लिये आवश्यक है,तभी वो समाज सभ्य हो सकता है.
ReplyDeleteसारे विश्व के येक होने पर भी ये सब तो होगा ही.प्रशाशनिक इकाइयां भी कई रहेंगी ही.अपना देश ही सबसे महान है,और सब विदेशी लोग हमसे कम अछ्छे हैं ,और देशों के लोगों को हमें दबा कर रखना चाहिए....आदि अमानवीय भावनाएं खत्म हो जायें तो सारा विश्व येक तो है ही.प्रकृति ने सारे विश्व को येक ही बनाया है.
सोचनीय मुद्दा ,सार्थक लेख
ReplyDeleteविचारणीय पोस्ट,आभार.
ReplyDeleteविचारणीय, सार्थक आलेख. आभार.
ReplyDeleteसादर,
डोरोथी.
आपने बात तो सही कही...
ReplyDelete_________________
'पाखी की दुनिया' में भी घूमने आइयेगा.
भगवान करे आप का ये मानना सही हो जाये.....
ReplyDeleteगहरे विचार के साथ बहुत ही बढ़िया और सार्थक आलेख! बेहतरीन प्रस्तुती!
ReplyDeleteमेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com/
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
विचारोत्तेजक आलेख। आपसे बिलकुल सहमत हूँ। शुभकामनायें।
ReplyDeleteप्रेरक विमर्श धर्म के स्वरूप पर .
ReplyDeleteदेवेन्द्र जी शत प्रतिशत सहमत हूँ आपसे ....
ReplyDeleteशब्दशः सहमत हूँ आपसे...
ReplyDeleteधर्म आत्मा की वास्तु है और आत्मा थोपी हुई किसी भी विचार को आत्मसात नहीं कर सकती...दंभ में आकर जो यह प्रयास कर रहे हैं, कुछ समय को विजेता होने का दंभ वे भर सकते हैं...पर अतिहास उसे दमनकारी/बलात्कारी ही ठहराएगा...
नवीन चेतना जगाता हुआ पोस्ट |
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