कड़ुवा सच को पढ़कर ....
उस शहर में बीपी का मरीज नहीं होगा
जिस शहर में अखबार जाता नहीं होगा।
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जंगल में घूमते थे तब तक तो ठीक था
बस्ती में आ गये हो अब आईना छुपा लो।
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खड़ा होता रू-ब-रू धनुष की तरह
पलटकर भौंकता जैसे तीर छूटा है।
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बस्ती का आलम देख के हैरां है
डर यह है बस्ती में रहना भी है।
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वाह ! ! ! ! ! बहुत खूब देवेन्द्र जी,..
ReplyDeleteसुंदर रचना,बेहतरीन प्रस्तुति,....
MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: तुम्हारा चेहरा,
ज़बरदस्त!!
ReplyDeleteआलम यह और मजबूरी भी बस्ती में रहने की -बड़ी मुश्किल है !
ReplyDeleteवाह ...बड़ी ही कठिन है डगर पनघट की ....
ReplyDeleteबहुत सुंदर उद्गार ...
waah... bahut khoob
ReplyDeleteआदमी अखबार से अपने को बचा ले या आईने से,उसकी हालत व सूरत जंगल में और बस्ती में यक-सा रहेगी.
ReplyDelete...हाँ,बस्ती में होशियारी ज़्यादा दिखानी होगी !
मस्ती की आलम,
ReplyDeleteअकेला, अकेला।
*का
ReplyDeleteवाह ...बहुत ही बढि़या ।
ReplyDeleteबहुत खूब ...
ReplyDeleteशुभकामनायें आपको ... !
वाह....बहुत खूब शुरुआत के दो बहुत ही बेहतरीन ।
ReplyDeleteअखबार बड़े बशर्म हैं, जंगल में भी पहुँच जाते हैं। चलो किसी शिकारे में चलके रहेंगे।
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें
ReplyDeleteइस प्रस्तुति पर ||
अच्छी प्रस्तुति.......
ReplyDelete.................बहुत सुंदर
ReplyDeleteपहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ
मैं ब्लॉगजगत में नया हूँ कृपया मेरा मार्ग दर्शन करे
http://rajkumarchuhan.blogspot.in
...अति सुन्दर लिखा है..
ReplyDeleteकविताओं पर संतोष प्रभाव की शुरुआत तो नहीं है -जरुर कोई बौद्धिक परासरण का मामला है !
ReplyDeleteब्लोग्स पर ऐसा क्या पढ़ लिया भाई ?
ReplyDeleteज़रा हमें भी बताएं , ताकि संभल जाएँ ।
लिंक तो दिया हूँ सर..
Deleteकड़वे पर आपकी कड़वाहट गोया करेला और नीम चढ़ा :)
Deleteबहुत अच्छी प्रस्तुति!
ReplyDeleteइस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
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अन्तर्राष्ट्रीय मूर्खता दिवस की अग्रिम बधायी स्वीकार करें!
(१)
ReplyDeleteबिलोपावर्टी मरीजों की बस्ती में अखबारों को बिजनेस कैसे मिलेगा :)
(२)
आप सही कहते हैं आईने की ज़रूरत नंगों को ही हो सकती है :)
(३)
पड़ा होता रू-ब-रू मानुष की तरह
झपट कर काटता जैसे धीर छूटा है
(४)
बस्तियां परेशान आलम हैं
इंसान बस ना जायें यहीं !
वाह! ग़ज़ल में भी क्या खूब हाथ निकाला है, पाण्डेय जी!
ReplyDeleteकडुआ सच ने आत्मा बेचैन कर दिया
ReplyDeleteबहित कटु यथार्थ है।
ReplyDeletebahut khoob ...
ReplyDeleteई तो आप मुशायरा लूट लिये। :)
ReplyDeleteकडुवे सच को इन्ही के अंदाज़ में कहा है ... वाह देवेन्द्र जी मज़ा आ गया ...
ReplyDeleteशहर की सौगातों पर बढ़िया व्यंग्य .
ReplyDeletebahut hi umda rachna ! waah
ReplyDeleteलाजवाब कर दिया देवेन्द्र जी...वाह...
ReplyDeleteनीरज
चउचक!
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