31.3.12

ब्लॉग पढ़कर जगे भाव....1


कड़ुवा सच को पढ़कर ....

उस शहर में बीपी का मरीज नहीं होगा
जिस शहर में अखबार जाता नहीं होगा।
.....................................
जंगल में घूमते थे तब तक तो ठीक था
बस्ती में आ गये हो अब आईना छुपा लो।
.......................................
खड़ा होता रू-ब-रू धनुष की तरह
पलटकर भौंकता जैसे तीर छूटा है।
......................................
बस्ती का आलम देख के हैरां है
डर यह है बस्ती में रहना भी है।
...................................

32 comments:

  1. वाह ! ! ! ! ! बहुत खूब देवेन्द्र जी,..
    सुंदर रचना,बेहतरीन प्रस्तुति,....

    MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: तुम्हारा चेहरा,

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  2. आलम यह और मजबूरी भी बस्ती में रहने की -बड़ी मुश्किल है !

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  3. वाह ...बड़ी ही कठिन है डगर पनघट की ....
    बहुत सुंदर उद्गार ...

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  4. आदमी अखबार से अपने को बचा ले या आईने से,उसकी हालत व सूरत जंगल में और बस्ती में यक-सा रहेगी.
    ...हाँ,बस्ती में होशियारी ज़्यादा दिखानी होगी !

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  5. मस्ती की आलम,
    अकेला, अकेला।

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  6. वाह ...बहुत ही बढि़या ।

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  7. बहुत खूब ...
    शुभकामनायें आपको ... !

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  8. वाह....बहुत खूब शुरुआत के दो बहुत ही बेहतरीन ।

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  9. अखबार बड़े बशर्म हैं, जंगल में भी पहुँच जाते हैं। चलो किसी शिकारे में चलके रहेंगे।

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  10. बहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें
    इस प्रस्तुति पर ||

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  11. अच्छी प्रस्तुति.......

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  12. .................बहुत सुंदर
    पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ

    मैं ब्लॉगजगत में नया हूँ कृपया मेरा मार्ग दर्शन करे
    http://rajkumarchuhan.blogspot.in

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  13. ...अति सुन्दर लिखा है..

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  14. कविताओं पर संतोष प्रभाव की शुरुआत तो नहीं है -जरुर कोई बौद्धिक परासरण का मामला है !

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  15. ब्लोग्स पर ऐसा क्या पढ़ लिया भाई ?
    ज़रा हमें भी बताएं , ताकि संभल जाएँ ।

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    1. कड़वे पर आपकी कड़वाहट गोया करेला और नीम चढ़ा :)

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  16. बहुत अच्छी प्रस्तुति!
    इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!
    --
    अन्तर्राष्ट्रीय मूर्खता दिवस की अग्रिम बधायी स्वीकार करें!

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  17. (१)
    बिलोपावर्टी मरीजों की बस्ती में अखबारों को बिजनेस कैसे मिलेगा :)
    (२)
    आप सही कहते हैं आईने की ज़रूरत नंगों को ही हो सकती है :)
    (३)
    पड़ा होता रू-ब-रू मानुष की तरह
    झपट कर काटता जैसे धीर छूटा है
    (४)
    बस्तियां परेशान आलम हैं
    इंसान बस ना जायें यहीं !

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  18. वाह! ग़ज़ल में भी क्या खूब हाथ निकाला है, पाण्डेय जी!

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  19. कडुआ सच ने आत्मा बेचैन कर दिया

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  20. बहित कटु यथार्थ है।

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  21. ई तो आप मुशायरा लूट लिये। :)

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  22. कडुवे सच को इन्ही के अंदाज़ में कहा है ... वाह देवेन्द्र जी मज़ा आ गया ...

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  23. शहर की सौगातों पर बढ़िया व्यंग्य .

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  24. लाजवाब कर दिया देवेन्द्र जी...वाह...

    नीरज

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