चारमीनार, चार मीनारों से बनी चौकोर खूबसूरत वास्तुकला की इमारत
है। इसका निर्माण 1591 में मोहम्मद कुली क़ुतुब शाह द्वारा कराया गया। ग्रेनाइट के मनमोहक
चौकोर खम्भों पर बने इस खूबसूरत इमारत पर ऊपर चढ़ने के लिए संकरी सीढ़ियाँ
बनी हैं। प्रथम तल पर चढ़ते ही चारों ओर गोल-गोल घूमकर फोटू खिंचवाते लोगों की
भींड़ नजर आई। छत पर चढ़ने का द्वार बंद था। छत से पूरे शहर का खूबसूरत नज़ारा
दिखता होगा लेकिन किसी ने बताया कि छत का द्वार इसलिए बंद कर दिया गया कि वहां से
कूदकर कभी दो युवतियों ने आत्महत्या कर लिया था। लोग खूबसूरती सीधी आँखों से
देखने के बजाय कैमरे से देखने में मशगूल थे। पोज पर पोज दिये जा रहे थे। हमने सोचा
सुंदर जगह पर आकर ऐसा ही किया जाता होगा। सुंदरता को सीधी आँखों से देखकर मजा लेने
के बजाय, कैमरे में कैद कर घर में ले जाकर फोटू देखकर और इससे ज्यादा अपने मित्रों
को दिखाकर मजा लिया जाता होगा। हम भी शुरू हो गये।
मन में लाख पीड़ा हो पर फोटू
हिंचवाते वक्त मुस्कुराता हुआ चेहरा जरूर आना चाहिए वरना फोटू खराब माना जाता है।
सच दिखाने वाली तस्वीरें कभी अच्छी नहीं लगती। सच बताने वाला चश्मा पहन कर
घूमियेगा तो पागल हो जायेंगे। एक आदमी ने कबाड़ी की दुकान से सच बताने वाला चश्मा
पा लिया। वह उसे पहनकर जिसे देखता, चेहरे के साथ-साथ उसके मन को पढ़ने की शक्ति भी
आ जाती। उसका बेड़ा गर्क हो गया। अच्छे भले खुशहाल जीवन में वज्रपात हो गया। पत्नी
बच्चे सभी उसके जान के दुश्मन है यह सच जानते ही वह पागल हो गया। हमे फोटू खींचते
देख वहीं पास खड़ा एक युवा सुरक्षा गार्ड हमारे पास आया और बताने लगा कि यहाँ खड़े होकर
इस पोज में फोटो खींचिये, अच्छा आता है। हमने तपाक से कैमरा उसे दे दिया। उसने
हमारी खूबसूरत तस्वीरें खींची। बड़ा भला था। हमे थोड़ी देर पहले मिले फोटोग्राफर
की याद आई। एक वह था और एक यह। एक मूर्ख बनाकर पैसा कमाने से खुश होता है, दूसरा
दूसरों की मदद कर खुश होता है। संसार में हर कहीं बुरे भले लोग पाये जाते हैं। शायद
संसार की रोचकता इसी से बनी है। सभी अच्छे हो जांय तो सारा मजा जाता रहेगा। नीरस
टाइप की जिंदगी हो जायेगी। पता ही नहीं चलेगा कि अच्छा क्या है !
चारमीनार के बगल में ही मक्का मस्जिद है। भव्य और खूबसूरत। प्राप्त जानकारी के अनुसार इस मस्जिद की शुरूआत 1617 ई0 में मुहम्मद कुली क़ुतुबशाह ने की थी लेकिन इसको पूरा औरंगजेब ने 1684ई0 में किया था। इसके विशाल स्तंभ और मेहराब ग्रेनाइट के एक ही स्लेब से बनाये गये हैं। यह कहा जाता है कि यहां के मुख्य मेहराब को मक्का से लाए गये पत्थरों से बनाया गया था, इसीलिए इसका नाम मक्का मस्जिद रखा गया। यहाँ से कबूतरों के झुण्ड और बकरियों के बीच खड़े होकर सामने मस्जिद
की इमारत और दूर से हंसता चारमीनार, बड़ा ही खूबसूरत दिखाई देता है।
चारमीनार के पास ही लाद बाजार है। यह
चूड़ी बाजार है। यहाँ के मोतियों की चर्चा पहले ही सुन रखी थी। खूबसूरत मोतियों की
माला, कंगन, झुमके देखकर ऐसा हो ही नहीं सकता कि आप बिना खरीदे वापस लौट जांय।
सौभाग्य से आपके पास सौभाग्यवति हों तो आपकी जेब कटनी तय है। क्या हुआ कि आप परदेश
में हैं! वह जमाना गया जब आप पत्नी को यह कहकर समझा
देते थे, “अरे भागवान! पैसे कम हैं घर भी लौटना है, यहां परदेश
में कौन हमारी पैसे से मदद करेगा ? रहने दो, फिर
आयेंगे तो खरीदेंगे।“ अब
आपकी श्रीमतीजी को भी मालूम है कि आप चाहें तो फोन घुमाकर पैसे कम पड़ने पर
मित्रों से उधार मांगकर भी पैसे अपने खाते में जमा करवा सकते हैं। खूब मोलभाव करने
के बाद, चार-पाँच हजार की खरीददारी कर चुकने के बाद हम वहां से रूखसत हुए तो बड़े
जोरों की भूख लग चुकी थी।
मक्का मस्जिद के पास खाई स्वादिष्ट बेकरी और मस्त चाय कब
तक थामती। आसपास कोई बढ़िया होटल नज़र नहीं आया। पूछने पर पता चला कि दो चार
किलोमीटर दूर राजधानी होटल है जहाँ उत्तर भारतीय, दक्षिण भारतीय जो चाहें बढ़िया
थाली मिल जाती है। एक ऑटो से वहाँ पहुँचे और उत्तर भारतीय तीन थालियों का ऑर्डर
दिया। थाली में केले के पत्ते के ऊपर सजी खूबसूरत कटोरियों के बीज जब भोजन सामने
आया मन प्रसन्न हो गया। भोजन स्वादिष्ट था लेकिन इत्ता ढेर सारा था कि हम आधा ही
खा सके। कल शाम कि हैदराबादी बिरयानी, सुबह की बेकरी-मिठाइयाँ और दिन की स्वादिष्ट
थाली उड़ाने के बाद मानना पड़ा कि स्वादिष्ट भोजन के मामले में भी हैदराबाद
लाज़वाब शहर है।
मन तृप्त होने के बाद हम ऑटो से बिड़ला
मंदिर गये। वैसे भी हम तृप्त होने के बाद ही मंदिर जाना पसंद करते हैं। भूखे-प्यासे,
कष्ट में कभी भगवान के पास नहीं जाते। तृप्त रहने पर दर्शन करने का मजा ही कुछ और
है। ईश्वर को धन्यवाद देने का मन करता है । यहाँ दर्शन पूजन का नहीं, नये स्थान
में घूमने का भाव था। ऊँचे पहाड़ पर स्थित श्वेत संगमर्मर के बने इस विशाल और
भव्य मंदिर से सम्पूर्ण हैदराबाद का विहगंम दृश्य दिखलाई पड़ता है। सामने विशाल
हुसैन सागर (यह एक कृत्रिम झील है जो हैदराबाद को सिंकदराबाद से अलग करती है। जिसके
बीचों बीच गौतम बुद्ध की 18 मीटर ऊँची प्रतिमा स्थापित है), दूर-दूर तक फैले कंकरीट के श्वेत दिखते जंगल और चौड़ी
सड़कों पर दौड़ती गाड़ियों का देखना काफी रोमांचित करता है। योजनाबद्ध तरीके से
बसे इस खूबसूरत शहर को देखकर इंसानों के द्वारा निर्मित कृत्रिम सौंदर्य पर फख्र करने का मन करता है। यहां के खूबसूरत नज़ारे को कैमरे में कैद न कर पाना काफी खला।
यहाँ कैमरा, मोबाइल पहले ही रखवा लिया जाता है।
बिड़ला मंदिर का बाहरी दृश्य
यहाँ से लुम्बिनी पार्क जाने के लिए ऑटो
वाले को बुलाया तो उसने 80 रूपये मांगे। मैने अपने स्वभाव के अनुसार मोलभाव किया..”50 में ले चलो।“ वह बोला, “ठीक है 50 में छोड़
देंगे लेकिन आपको मोतियों की दुकान में जाना होगा ! मैने
कहा..”नहीं भाई हमे किसी मोतियों की दुकान में नहीं जाना,
हमको जो खरीदना था खरीद चुके हैं।“ वह बोला..”कुछ मत खरीदियेगा बस एक बार दुकान में जाकर कुछ देख दाख कर वापस आ
जाइयेगा।“ दूध का जला छाछ को भी फूँक फूँककर पीता है। मैने
कहा...”नहीं, हमे किसी मोती-वोती की
दुकान में नहीं जाना तुम चलो भले 80 रूपये ले लो।“
लुम्बिनी पार्क पहुँचते पहुँचते शाम हो
चुकी थी। यह पार्क हुसैन सागर के तट पर स्थित है। यहाँ वही सब कृत्रिम सौंदर्य है जो
किसी भी शहर में हो सकता है लेकिन सामने फैले विशाल झील से इसकी सुंदरता बढ़ जाती
है। तट पर खड़े जहाजनुमा बड़े बड़े झालरों से सजे बजड़ों में कुछ आकर्षक होगा तभी
वहाँ जाने के टिकट लग रहे थे ! अंधेरा हो चुका था, हम थक चुके थे, हमने वहाँ से वापस होटल जाने का
निश्चय किया।
बाहर निकलकर ऑटो वाले को बुलाया..”ताजमहल होटल
चलोगे?” वह बोला, “बैठिये ! 80 रूपये लगेंगे।“ मैने फिर कहा..”50 में ले चलो।“ वह बोला..”ठीक
है, 50 में ले चलेंगे लेकिन आपको बीच में मोतियों की एक
दुकान में जाना होगा !” नहीं..नहीं..आप कुछ मत खरीदियेगा बस
एक बार मोती देखकर लौट आइयेगा। मैने झल्ला कर कहा...”और अगर
मेरी बीबी ने हजार दो हजार की एक माला पसंद कर ली तो पैसे क्या तुम दोगे ? जल्दी
चलो हम तुम्हें पूरे 80 रूपये देंगे।”
क्रमशः