जब से अन्ना हजारे के आंदोलन के बारे में पढ़ा है तभी से भाततेन्दु हरिश्चंद्र के नाटक अंधेर नगरी चौपट्ट राजा की बहुत याद आ रही है। मैने तो स्कूल की पत्रिका में ढूँढकर पढ़ा मगर आप चाहें तो पूरा नाटक
यहाँ पढ़ सकते हैं। सहसा यकीन नहीं होता कि यह प्रहसन सन् 1881 में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने बनारस में हिन्दी भाषी और कुछ बंगालियों की संस्था नेशनल थियेटर के लिए एक दिन में लिखा था और काशी के दशाश्वमेध घाट पर उसी दिन अभिनीत भी हुआ था। कैसे अद्भुत रहे होंगे वे पल जो इस अमरकृति के अक्षि साक्षी बने। कितने महान थे भारतेंदु जिन्होने सिर्फ एक दिन में वो कर दिखाया जो हम स्वतंत्र भारत के अपने पूरे जीवन काल में भी नहीं कर पाते। संक्षेप में नाटक इस प्रकार है......
नाटक के प्रथम दृश्य में महंत जी अपने दो चेलों नारायम दास और गोवर्धन दास के साथ गाते हुए आते हैं। नये नगर को देख सभी आकर्षित होते हैं। भिक्षाटन के लिए गो0 दास को पश्चिम दिशा की ओर और ना0 दास को पूरब दिशा की ओर भेजते हुए महंत आगाह करते हैं..यह नगर तो दूर से बड़ा सुंदर दिखलाई पड़ता है मगर बच्चा लोभ मत करना। देखना.....
लोभ पाप को मूल है, लोभ मिटावत मान।
लोभ कभी नहीं कीजिए, यामै नरक निदान।।
दूसरे दृश्य में कबाबवाला, घासीराम, नरंगीवाला, हलवाई, कुजड़िन, मुगल, पाचकवाला, मछलीवाली, जातवाला (ब्राह्मण) बनिया सभी खूब गीत गा गा कर अपने माल को टके सेर बेच रहे हैं। जिसे देखो वही अपना माल टके सेर बता रहा है। गाने के बोल रोचक होने के साथ-साथ गहरे कटाक्ष लिये हुए हैं। एक स्थान पर चूरन वाला कहता है...
हिंदू चूरन इसका नाम। विलायत पूरन इसका काम।।
चूरन जब से हिंद में आया। इसका धन बल सभी घटाया।।
चूरन साहेब लोग जो खाता। सारा हिंद हजम कर जाता।।
चूरन पूलिसवाले खाते। सब कानून हजम कर जाते।।
जातवाला कहता है......
जात ले जात, टके सेर जात। टके के वास्ते ब्राह्मण से मुसलमान, टके के वास्ते हिन्दू से क्रिस्तान। टके के वास्ते पाप को पुन्य मानैं, टके के वास्ते नीच को पितामह बनावैं। वेद धर्म कुल मरजादा सच्चाई सबै टके सेर।
(उस समय जब देश गुलाम था। भारतेंदु इतने गहरे कटाक्ष लिखने और उनके साथी खुले आम घाट पर अभिनय करने की हिम्मत जुटा पाते थे ! स्वतंत्र भारत के परम विकसित काल में इसकी कल्पना भी अचंभे में डाल सकती है। ये गीत इतने रोचक हैं कि बचपन में जब इन सब बातों की कुछ भी समझ नहीं थी तो भी इसके बोल सुनकर नाटक देखते वक्त खूब मजा आता था।)
गो0दास यह सब देख कर खूब मस्त होता है। घूम घूम कर सबसे पूछता है ..वाह ! वाह !! बड़ा आनंद है । हलवाई से पूछता है..
गो.दास. - क्यों बच्चा मुझसे मसखरी तो नहीं करता ? सचमुच सब टके सेर ?
हलवाई - हाँ बाबा। सचमुच टके सेर। इस नगरी की चाल ही यही है। यहाँ सब चीज टके सेर मिलती है।
गो.दास. – क्यों बच्चा इस नगरी का नाम क्या है ?
हलवाई – अंधेर नगरी।
गो.दास. –और राजा का नाम क्या है ?
हलवाई – चौपट्ट राजा।
गो.दास. – वाह ! वाह !! अंधेर नगरी चौपट्ट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा।
हलवाई – बाबा कुछ लेना है तो ले दो।
गो.दास.- बच्चा, भिक्षा मांग कर सात पैसा लाया हूँ, साढ़े तीन सेर मिठाई दे दे, गुरू चेले सब आनंदपूर्वक इतने में छक जायेंगे।
तीसरे दृश्य में महन्त, गो. दास. को समझाते हुए कहते हैं..
सेत सेत सब एक से जहाँ कपूर कपास।
ऐसे देस कुदेस में, कबहुँ न कीजै बास।।
कोकिल कपास एक सम, पण्डित मूरख एक।
इन्द्रायन दाड़िम विषय, जहां न नेकु विवेकु।।
बसिए ऐसे देस नहीं, कनक वृष्टि जो होय।
रहिए तो दुख पाइये, प्रान दीजिए रोय।।
सो बच्चा चलो यहाँ से । ऐसी अंधेर नगरी में हजार मन मिठाई मुफ्त भी मिले तो किस काम की यहाँ एक छन नहीं रहना। लेकिन गो.दास नहीं मानता और महंत ना.दास के साथ चले जाते हैं।
चौथा दृश्य राजसभा का है जिसमें हमेशा पीनक के धुन में रहने वाले राजा के पागल पन चाटुकारों के कहने पर तुरंत लिये जाने वाले फैसले को बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। जिसे पूरा पढ़ने में ही मजा आएगा। संक्षेप में यह कि कल्लू बनिया की दीवार गिरने से उसकी बकरी मर जाती है और गड़रिये के कहने पर दरोगा को फांसी की सजा हो जाती है। कोतवाल महाराज-महाराज कहते रह जाता है।
पाँचवे दृश्य में गो.दास गीत गाते हुए आता है.....
अंधेर नगरी अनबूझ राजा। टका सेर भाजी टका सेर खाजा॥
नीच ऊँच सब एकहि ऐसे। जैसे भड़ुए पंडित तैसे॥
कुल मरजाद न मान बड़ाई। सबैं एक से लोग लुगाई॥
जात पाँत पूछै नहिं कोई। हरि को भजे सो हरि को होई॥
वेश्या जोरू एक समाना। बकरी गऊ एक करि जाना॥
सांचे मारे मारे डाल। छली दुष्ट सिर चढ़ि चढ़ि बोलैं॥
प्रगट सभ्य अन्तर छलहारी। सोइ राजसभा बलभारी ॥
सांच कहैं ते पनही खावैं। झूठे बहुविधि पदवी पावै ॥
छलियन के एका के आगे। लाख कहौ एकहु नहिं लागे ॥
भीतर होइ मलिन की कारो। चहिये बाहर रंग चटकारो ॥
धर्म अधर्म एक दरसाई। राजा करै सो न्याव सदाई ॥
भीतर स्वाहा बाहर सादे। राज करहिं अमले अरु प्यादे ॥
अंधाधुंध मच्यौ सब देसा। मानहुँ राजा रहत बिदेसा ॥
गो द्विज श्रुति आदर नहिं होई। मानहुँ नृपति बिधर्मी कोई ॥
ऊँच नीच सब एकहि सारा। मानहुँ ब्रह्म ज्ञान बिस्तारा ॥
अंधेर नगरी अनबूझ राजा। टका सेर भाजी टका सेर खाजा ॥
गो.दास. गीत गाता है, मिठाई खाता है और कहता है कि गुरूजी ने नाहक यहाँ रहने को मना किया था। तभी राजा के प्यादे चारों ओर से आकर उसे पकड़ लेते हैं।
1प्यादा- चल बे चल, बहुत मिठाई खा कर मुटाय गया है। आज पुरी हुई।
2प्यादा- बाबाजी चलिए, नमोनारायण कीजिए।
गो.दास. – (घबडाकर) यह आफत कहाँ से आई अरे भाई, मैने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है जो मुझको पकड़ते हो।
प्यादा – आप ने बिगाड़ा या बनाया है इस से क्या मतलब, अब चलिए, फाँसी चढ़िए।
प्यादे समझाते हैं कि कोतवाल को फाँसी देने का हुकुम हुआ था। फाँसी का फंदा बड़ा हुआ, क्योंकि कोतवाल साहब दुबले हैं। हम लोगो ने महाराज को अर्ज किया, इस पर हुक्म हुआ कि मोटा आदमी पकड़ कर फाँसी दे दो, क्योंकि बकरी मारने के जुर्म में किसी न किसी को फाँसी की सजा होनी जरूरी है, नहीं तो न्याय न होगा। इसी वास्ते तुमको ले जाते हैं कि कोतवाल के बदले तुमको फाँसी दें। गो. दास लाख दुहाई देते हैं मगर प्यादे एक नहीं सुनते। गो. दास. अंत में चिल्लाता है...गुरूजी तुम कहाँ हो। आओ मेरे प्राण बचाओ, मैं बेअपराध मारा जाता हूँ गुरूजी गुरूजी...(प्यादे उसे पकड़ कर ले जाते हैं)
छठें व अंतिम दृश्य में गुरूजी आते हैं और अपनी चालाकी से न केवल गो.दास. को बचाते हैं बल्कि राजा को ही फांसी पर चढ़वा देते हैं। कहते हैं......
जहाँ न धर्म न बुद्धि नाह, नीति न सुजान समाज।
ते ऐसहि आपुहि नसे, जैसे चौपटराज।।
आज अन्ना हजारे को जंतर मंतर पर देखकर यह नाटक और इसके गुरूजी की बहुत याद आ रही है। क्या आपको भी लगता है कि यह नाटक आज भी प्रासंगिक है और इसे याद किया जाना जरूरी है ?
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