30.4.11

डांटता है मकान मालिक...!


मैने जिस घर में आश्रय पाया उसे अपना समझ लिया 
किराया कोई और देता, मजा मैं लेता
मैला मैं करता
रंग-रोगन कोई और कराता
चोट मैं पहुँचाता
मरहम कोई और लगाता
मुझे तो यह भी नहीं पता था कि मैं जिस मकान में रहता हूँ वह किराये का है !

अपने अहंकार में मस्त
मकड़जाल में व्यस्त
और अहंकारी और मूर्ख होता चला गया

धीरे-धीरे वे सभी इस दुनियाँ से चले गये जो अपने साथ मेरे भी मकान का किराया भरते थे
जो अपने साथ मेरे भी चोटों पर मरहम लगाते थे
अब मकान मालिक सीधे मुझसे किराया मांगने लगा
मैं ताकतवर हो चुका था
उसको किराया भी ऐसे देता जैसे मुझे अपने मकान पर रखना उसकी मजबूरी हो !

वह मेरी मूर्खता पर हंसता और मैं समझता कि मेरे कृत्य पर वह बड़ा प्रसन्न है !
उसका किराया तो बस
पेट भर भोजन
तन ढकने भर वस्त्र
इच्छा भर श्रम
और चैन की नींद थी
मैने अपनी मूढ़ता में उसके साथ खूब खिलवाड़ किया !

उसे खुश करने के लिए अच्छा से अच्छा भोजन कराया
अधिक से अधिक वस्त्र पहनाये
आवश्यकता से अधिक श्रम कराया

वह कहता- अब सोने दो
मैं कहता..
अरे यार !
अभी समय है, कुछ कमा लो !

मुझे पता ही नहीं चला
कब वह
धीर-धीरे
मुझसे ऊबता, खीझता चला जा रहा है।

पहला झटका तब लगा जब मुझे चश्मे की जरूरत महसूस हुई !
दूसरा झटका तब लगा जब मेरे बालों के लिए हेयर डाई की आवश्यकता महसूस हुई !
तीसरा झटका तब लगा जब अधिक पान चबाने से मेरे दो दांत उखड़ गये !

मैं चीखता...
ठीक से रहो ! 
क्या गड़बड़ से करते हो ?
किराया तो आवश्यकता से अधिक देता हूँ !

वह ठहाके लगाता...
मूर्ख !
मैने कब आवश्यकता से अधिक मांगा था ?
मैने कब कहा था कि दिन भर पान चबाओ ?
मैने कब कहा कि मुझे घुमाना छोड़, ईंट-गारे के एक कमरे में बंद कर दो ?
मैने कब कहा था कि मुझे झील, पहाड़, नदी और झरनों से वंचित कर दो ?
मैने कब कहा था कि मुझे ऊषा की लाली और संध्या की सुनहरी किरणों से दूर कर दो ?
मैने कब कहा था मूर्ख ! 
इतनी चिंता करो कि मुझे सुलाने के लिए तुम्हें नींद की गोली खानी पड़े ?

अब तो तुम किसी लायक नहीं रहे !
साइकिल में घुमाना तो दूर अधिक देर पैदल भी नहीं चल सकते !
तुमने मेरे घर को बर्बाद कर के रख दिया है !
मैं तुम्हें घर से नहीं निकालता मगर जानता हूँ कि अधिक दिन तक नहीं रह पाओगे यहाँ।

तुमने अपनी लालच में
मेरी आदतें
मेरी आवश्यकताएँ
सब बदल दी हैं

शुक्र है
तुमने मुझे
मकान मालिक तो समझा !
मगर अब बहुत देर हो चुकी है
मैं चाहकर भी
अधिक दिनों तक तुम्हारा साथ नहीं दे सकता।

......................................

28.4.11

कविताई...!


क्वचिदन्यतोअपि  से लौटकर........


जेहके देखा वही करत हौ अब कवियन पर चोट
व्यंग्यकार, आलोचक के अब ना देबे हम वोट

कमेंट कवियन पर होई!

ज्ञानी रहतीं, लिख ना देहतीं, एक अउर रामायण
रोज उठाइत ब्रत अउर रजा, रोज करित पारायण

बतिया एक्को न मानब !

यार-मित्र जब ना सुनलन, संपादक रोज लौटावे
रोज लिखी कविता चौचक, शायद अब छप जावे

मु्श्किल से ब्लॉग मिलल हौ !

ई त हमहूँ के पता  कि हमरे में नाहीं कुछ्छो दम
बहस होई सभा मा बोलब खुलके, केहसे हई कम

देखिया सम्मानो पाईब !

..........................................

............तुरत-फुरत व्यंग्य शैली में लिखा है। आलोचक कमियाँ बतावें..व्यंग्यकार आलोचना करें..मीडिया वाले चर्चा करें..हम जल्दी से महाकवि घोषित हों। इसी क्षुद्र कामना के साथ।

24.4.11

चिड़पिड़-चूँचूँ


तपती धूप में झुलसी, अकुलाई, प्यासी चिड़िया, हाँफते-हाँफते अपने घोंसले में आई और सोते चिड़े को जगाते हुए बोली-अजी सुनते हो ! मैं प्यास से मरी जा रही हूँ तुम हो कि बादल ओढ़ कर सोए हो ? अरे ! उठो भी, दो बूंद हमें भी पिला दोगे तो तुम्हारा क्या जायेगा ?

चिड़ा झल्लाया-एक तो आग में कूदती हो दूसरे ताने देती हो ! क्या जरूरत थी धूप में जान देने की ? मैने घोंसले में कोई कुआँ खोद रख्खा है जो तुम्हें पानी पिला दूँ ? गई थी तो कहीं तालाब तलाशती, अपनी प्यास बुझाती, चोंच में दो-चार दाने दबाती, मैं भी समझता कि मेरी चिड़िया मेरे लिए नाश्ते का प्रबंध करने गई थी। यह तो न हुआ, उल्टे ताने दे रही हो कि बादल ओढ़ कर सोया हूँ !

चिड़िया ने लम्बी सांस ली, गाल फुलाया और बोली-नाश्ते का प्रबंध मैं करूँ ? तुमने दो पायों से कुछ नहीं सीखा ? काहिल को काहिल कहो तो कौए की तरह काँव-काँव करता है। मैं यहाँ प्यास से मरी जा रही हूँ और तुम्हें इतना उपदेश याद है ! पूछा भी नहीं कि आखिर बिना पानी पीये क्यों आ गई।

चिड़ा खिलखिलाया-वही तो पूछ रहा हूँ मेरी जान। व्यंग्य बाण चलाना ही नहीं उसे सुनना, सहना भी सीखो। मैने तो पहले ही कहा था कि शाम होने दो, दोनो इकठ्ठे चलते हैं मगर तुमने नहीं माना। बड़ी चली थी भरी दोपहरी में नाश्ता-पानी करने। क्या किसी बाज ने छेड़ दिया ?

चिड़िया शर्माई-मेरी इतनी किस्मत कहाँ ! तुम तो पुराने शक्की हो। पहले मेरी प्यास बुझाओ, कहीं से भी लाकर एक चोंच पानी पिला दो, फिर इतिहास-भूगोल पूछना कि आज मैने क्या देखा। ये दोपाये मुंए खाली जंगल काट कर घर बनाना जानते हैं। हमारे बारे में तो कोई सोचता ही नहीं। पता नहीं क्या समझते हैं। हमको पानी नहीं मिलेगा तो ये क्या बच जायेंगे !

चिड़ा बोला-चलो मैं एक दोपाये को जानता हूँ जिसके पास बड़ा सा आम का बगीचा है। वह धरती खोद कर पानी निकालता है। तुम चुगलखोर हो, बातूनी हो, इसलिए मैने तुमसे यह बात छुपाई।

चिड़िया खुशी से फूली न समाई-तुम मक्कार हो पर हो बुद्धिमान। जल्दी चलो, मैं प्यास से मरी जा रही हूँ।

चिड़ा हंसते हुए बोला-काहिल हूँ न ! काहिल कभी नहीं चाहता कि कोई दूसरा आराम करे। मूर्ख श्रम करके तुम्हारी तरह भूखे-प्यासे रह जाते हैं, बुद्धिमान घर बैठे मस्त रहते हैं।

चिड़िया मारे गुस्से के चीखते हुए, चिड़े को चोंच मारने उड़ी-ऐसे लोगों को बुद्धिमान नहीं हरामखोर कहते हैं। चिड़ा उतनी ही फुर्ती से उड़ चला। चिड़ा आगे-आगे, चिड़िया पीछे-पीछे। दोनो ने एक आम के बगीचे के पीछे बंसवारी के पास गड़े पंपिंग शेट की जलधारा से अपनी प्यास बुझाई, पंख फड़फड़ाये फिर उड़ते-उड़ते वापस अपने घोंसले पर आकर दम लिया। वापस आकर चिड़ा बोला-अच्छा अब बताओ दिन में तुम्हारी टक्कर किस बाज से हो गई थी ?

चिड़िया कुछ देर तक तो बगीचे की याद में खोई रही फिर बोली-हाँ, मैं तो खाने-पीने के चक्कर में भटक रही थी। मैने देखा दोपाये भरी दोपहरिया में धूल-गर्द उड़ाते, चीखते-चिल्लाते भीड़ की शक्ल में बढ़े जा रहे हैं। एक बड़ा सा मैदान था जहाँ इत्ते सारे दो पाये इकठ्ठे हुए थे जितने आकाश में तारे ! मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि जाऊँ तो कहाँ जाऊँ ! कैसे अपनी जान बचाऊँ ! कहीं कोई वृक्ष नहीं। मैं भटक कर उनके ऊपर-ऊपर उड़ने लगी। उड़ते-उड़ते एक घोंसले नुमा डिब्बे में घुस गई जो वहीं बांस पर सबसे ऊपर अटका हुआ था। उस डिब्बे में जगह बहुत कम थी। भीतर डंडी की तरह कुछ बना हुआ था। मैं किसी तरह उसके सहारे अटकी, दो पायों को देखने लगी। ऐसा लगता था कि कोई बादल टूट कर गिरने वाला हो या धरती हिलने वाली हो। किसी के हाथ में डंडे, किसी के हाथ में वह वाला औजार जिससे ये दो पाये हमारा शिकार करते हैं। सबके सब चीख चिल्ला रहे थे। अचानक बादल गरजने की तेज आवाज हुई। मैं नीचे की ओर फेंका गई। एक दोपाये के सर पर गिरते-गिरते बची। मुश्किल से खुद को संभाल पाई वरना तुम मुझे देख भी नहीं पाते। मेरी समझ में नहीं आया कि ये दोपाये इतनी तेज धूप में भीड़ बनाकर क्यों इकठ्ठा हो रहे थे ?

चिड़िया की बात सुनकर चिड़ा जोर-जोर से हंसने लगा। हंसते-हंसते बोला-लगता है तुम इन दोपायों के किसी चुनावी सभा का चक्कर लगा रही थी। वह 'लाऊड स्पीकर' था जिसे तुम घोंसला समझ रही थी। इन्होने अपने बुद्धि के बल पर ऐसी व्यवस्था विकसित की है कि जिसमें गरीब और कमजोर भी निर्भय हो कर रह सकता है। इसे लोकतंत्र कहते हैं। इसमें वास्तविक शक्ति जनता के पास होती है। कानून का राज चलता है। बड़ी मछली छोटी मछली को नहीं निगल पाती। जो गलत करता है उसे सजा मिलती है। जो अच्छा करता है उसे पुरस्कार मिलता है। भेड़-बकरी भी कानून का संरक्षण पा कर शेर की गलती गिना सकते हैं।

चिड़िया बोली-हाँ, वह कोई चुनावी सभा ही रही होगी। मगर जो तुम कह रहे हो वह मुझे सच नहीं लगता। दो पाये इतने भले तो नहीं दिखते ! मुझे शहरी राज जंगलराज से भी बदतर नज़र आता है। यहाँ तो भेड़िया भी तभी शिकार करता है जब उसे भूख लगती है। दो पायों के भूख की कोई सीमा नहीं होती। पंछी छोटे से घोंसले में, चौपाये छोटी सी गुफा में खुश रहते हैं, दो पाये पूरी धरती, पूरा गगन ही हड़प कर जाना चाहते हैं। किसी के पास तो इत्ता बड़ा घर होता है कि पूरी भीड़ समा जाय, किसी के पास सर छुपाने के लिए जगह नहीं होती। जो घर बनाते हैं उन्हें मैने सड़क पर नंगे सोते देखा है। किसी के आंगन में अन्न के दाने बिखरे पड़े दिख जाते हैं, कोई चौपायों के गोबर से अन्न के दाने इकठ्ठे करता है। क्या इसी को लोकतंत्र कहते हैं ? कोई इतना ताकतवर जैसे शेर, कोई इतना निरीह जैसे चूहा। क्य़ा इसी को लोकतंत्र कहते हैं ? कोई कई खून करके भी खुले आम घूमते हैं, कोई बिना अपराध कई सालों तक जेल में बंद रहते हैं। क्या यही दो पायी कानून है ?  यह व्यवस्था तो दो पायों की दरह दुरंगी है। इससे तो जंगल का कानून ही ठीक है। कम से कम कमजोर प्राणी किसी गफलत में तो नहीं जीता। यह तो नहीं होता कि चूहा, बिल्ली को मित्र समझकर उसके साथ रहने लगे और बिल्ली मौका पाते ही चूहे को दबोच ले।

चिड़ा,  चिड़िया की बात सुनकर अचंभित हो सोच में पड़ गया। बोला-ठीक कहती हो। कुछ दो पायों ने अपने नीजी स्वार्थ में दो पाया कानूनी राज को जंगल राज से भी बदतर बना दिया है। मगर इसका अर्थ यह नहीं है कि लोकतंत्र ही बेकार है। यह आदर्श जीवन जीने की संकल्पना है। दो पाये एक बुद्धिमान प्राणी हैं। मेरा विश्वास है कि ये इस समस्या से खुद ही निपट लेंगे। तुम मेरा माथा अधिक खराब मत करो। हमे अपनी चिंता करनी है। नदी सूख रही है, तालाब इन दो पायों ने पाट दिये, उस बगीचे का पानी भी सूख गया तो क्या होगा !  

चिड़िया बोली-ठीक कहते हो। हमें अपनी चिंता करनी चाहिए। चलो ईश्वर से प्रार्थना करें कि  इन दो पायों की बुद्धि इतनी न हरे कि हमे पीने के लिए पानी भी न मिले।

चिड़ा चिड़पिड़ाया-हाँ। नहीं तो ये भी बेपानी हो जायेंगे ! अपने और इनके हित के लिए भी ईश्वर से प्रार्थना करना जरूरी है।

...............................................................................................................................
(चित्र गूगल से साभार)

20.4.11

मोरनी का दर्द



हे ईश्वर !
सारी सुंदरता मोर पर उढ़ेलता है
मुझे लगता है
तू भी
लिंग भेद करता है !

आकर्षक रंग
सुंदर रूप
नीली लचकदार गरदन
खूबसूरत लम्बी पूंछ
माथे पर कलगी
मानो हो कोई तेरा ही मुकुट
हसीन पंख
फैला के नाचे तो देखने वाले अपलक देखते ही रहें

हे ईश्वर !
जब लुटा रहे थे मोर पर सारी सुंदरता
तो तुझे
मेरा तनिक भी खयाल नहीं आया ?
सुरीला कंठ ही दे देते
कंजूसी की,
नहीं दिया मोर को !

काले कोयल को दिया
पर मुझे नहीं दिया !

क्या समझूँ ?
यही न
कि तू भी चाहता है
झूमे-नाचे, मजा मारे मोर
मैं अकेली
सेती रहूँ अंडे !

...................................
(ऊपर मोर और नीचे मोरनी के चित्र विकिपीडिया से साभार)

17.4.11

शंका


ऊषा की सुनहरी किरणों से
संध्या की लाली से
सशंक रहता है
चकोर
कहीं मेरे चाँद को
रंग न दें
अपने रंग में !

काले बादलों की ओट से
हँसता-खिलखिलाता
हमेशा की तरह उज्ज्वल
निकलता है
पूनम का चाँद।
...............................

14.4.11

तनहाई नहीं रहती.............



तनहाई नहीं रहती
जब कोई नहीं होता

सुबह-सबेरे
चहचहाते पंछी
(थोड़ा सा दाना फेंको, पानी का कटोरा भर दो, मस्त हो गीत गाते हैं।)
दिन भर
काफिला बना कर दौड़ते रहने वाली श्रमजीवी चीटियाँ
(चुटकी भर आंटे से नहला दो, कैसे भूत जैसे दिखते हैं ! )
गंदगी से घबड़ाकर हमेशा मुंह धोती रहने वाली
सफाई पसंद मक्खियाँ
किचन में उछलते रहने वाले चूहे
(जिन्हें पकड़कर पड़ोसी के दरवाजे पर चुपके से छोड़ने में कितना मजा आता था!)
शाम होते ही
ट्यूब की रोशनी के साथ
घर में साधिकार घुस आने वाले पतंगे
पतंगों की तलाश में
छिपकली
जाल बुनती मकड़ियाँ
रात भर खून के प्यासे मच्छर
चौबीस घंटे सतर्क रहने वाला पालतू कुत्ता
हरदम मौके की तलाश में
दबे पांव कूदने की फिराक में
पड़ोस के बरामदे से झांकती काली बिल्ली
फुदक-फुदक कर
मेन गेट से घर में घुसकर
कुत्ते को चिढ़ाते रहने वाले शरारती मेंढक
हमेशा बात करते रहने वाले
पेड़-पौधे
और भी हैं बहुत से जीव
जीते हैं डरे-डरे
इंद्रियों के एहसास से परे
जो मुझे खुश रखते हैं
नहीं रहने देते
तनहाँ।

........................................

10.4.11

डाल में आ गए जब टिकोरे बहुत......( री पोस्ट )



डाल में आ गए जब टिकोरे बहुत
बाग में छा गए तब छिछोरे बहुत

पेड़ को प्यार का मिल रहा है सिला
मारते पत्थरों से निगोड़े बहुत

धूप में क्या खिली एक नाजुक कली
सबने पीटे शहर में ढिंढोरे बहुत

एक दिन वे भी तोड़े-निचोड़े गए
जिसने थैले शहद के बटोरे बहुत

वक्त पर काम आए खच्चर मेरे
हमने रक्खे थे काबुल के घोड़े बहुत

फूल खिलने लगे फिर उसी ‌शाख में
आंधियों ने जिन्हें कल हिलोरे बहुत
............................

9.4.11

जीत का जश्न



संघर्ष में जनता की जीत हुई। सरकार को झुकना पड़ा। यह राजतंत्र नहीं है कि राजा का तख्ता पलट दिया जाता और दूसरा निरंकुश तानाशाह राजगद्दी पर बैठ जाता। यह लड़ाई सत्ता के लिए भी नहीं थी। यह विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। लोकतंत्र में सच्चाई के लिए होने वाली हर लड़ाई में जीत हमेशा जनता की ही होती है। सरकार ने नोटिफिकेशन जारी कर दिया। अन्ना हजारे ने अपना अनशन तोड़ दिया। अनशन तोड़ते हुए महानायक ने कहा....यह आंदोलन की शुरूआत है, मैं देश के कोने-कोने में जाऊँगा, यह आजादी की दूसरी लड़ाई है। इसी रास्ते पर चलकर हम शहीद भगत सिंह और राजगुरू के एहसान को कुछ हद तक चुका सकते हैं।

यह ईमानदारी के लिए, ईमानदारी से किया गया संघर्ष था जिसके नायक बने अन्ना हजारी। इस संघर्ष में वे भी थे जो ईमानदार थे,  वे भी थे जो ईमानदार होना चाहते थे और वे भी थे जो ईमानदार दिखना चाहते थे। संघर्ष जिनसे था उनमें भी सभी प्रकार के लोग थे। वे भी जो ईमानदार थे,  वे भी थे जो ईमानदार होना चाहते थे और वे भी जो ईमानदार दिखना चाहते थे। यह ईमानदारी के लिए ईमानदारी से किया गया जन संघर्ष था। ऐसा लगा कि चैत्र नवरात्रि में माँ सरस्वती समस्त देशवासियों की जिह्वा पर विराजमान हो गई थीं। ऐसा वातावरण बना जिसने लोकपाल बिल के रूप में जनता के हाथ में एक अमोघ अस्त्र थमा दिया।

शोले फिल्म का एक दृश्य याद आ रहा है......

खूंखार डाकू गब्बर सिंह घोड़े पर बैठकर भागा जा रहा है। ईमानदार इंस्पेक्टर उसका पीछा कर रहा है। गब्बर गिड़गिड़ा रहा है.....छोड़ दे..छोड़ दे..ठाकुर। इंस्पेक्टर घोड़ा तेज दौड़ाते हुए अपने एक हाथ से डाकू के गरदन को पकड़ते हुए दहाड़ता है....गब्बर सिंह, ये हाथ नहीं फाँसी का फँदा है।

दूसरे दृश्य में गब्बर सिंह हथकड़ियों से जकड़े दिखाई देता है। इंस्पेक्टर को देखते ही चीखता है...बहुत पछताओगे ठाकुर। बहुत पछताओगे। मुझसे दुश्मनी महंगी पड़ेगी। दुनियाँ की कोई ताकत गब्बर सिंह को 20 वर्षों के लिए जेल में नहीं बंद कर सकती। जिस दिन मैं छूट कर बाहर आया। बहुत पछताओगे। वाकई ईमानदार इंस्पेक्टर को पहुत पछताना पड़ता है। ईमानदारी की कीमत चुकानी पड़ती है। मगर वह हिम्मत नहीं हारता। बुरे काम करने वाले सही मगर साहसी नव युवकों जय-विजय की मदद से डाकू का समूल नाश करके ही मानता है।

आज जनता के हाथ में भी वह रस्सी लग चुकी है जिससे फाँसी का फँदा तैयार हो सकता है। जिससे भष्टाचार रूपी डाकू का समूल नाश किया जा सकता है।  जरूरत है ईमानदारी से इस्तेमाल किये जाने की। जरूरत है सब कुछ सहकर भी डाकुओं से संघर्ष करने वाले ईमानदार इंस्पेक्टर की और जरूरत है जय-विजय की जो ईमानदार इंस्पेक्टर का पूरा साथ दें।

अन्ना हजारे ने सही कहा। यह तो अभी सिर्फ एक शुरूआत है। अभी कई प्रश्न हल करने हैं। आइये जनता की इस जीत का जश्न मनायें।

5.4.11

अंधेर नगरी चौपट्ट राजा


जब से अन्ना हजारे के आंदोलन के बारे में पढ़ा है तभी से भाततेन्दु हरिश्चंद्र के नाटक अंधेर नगरी चौपट्ट राजा की बहुत याद आ रही है। मैने तो स्कूल की पत्रिका में ढूँढकर पढ़ा मगर आप चाहें तो पूरा नाटक यहाँ पढ़ सकते हैं। सहसा यकीन नहीं होता कि यह प्रहसन सन् 1881 में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने बनारस में हिन्दी भाषी और कुछ बंगालियों की संस्था नेशनल थियेटर के लिए एक दिन में लिखा था और काशी के दशाश्वमेध घाट पर उसी दिन अभिनीत भी हुआ था। कैसे अद्भुत रहे होंगे वे पल जो इस अमरकृति के अक्षि साक्षी बने। कितने महान थे भारतेंदु जिन्होने सिर्फ एक दिन में वो कर दिखाया जो हम स्वतंत्र भारत के अपने पूरे जीवन काल में भी नहीं कर पाते। संक्षेप में नाटक इस प्रकार है......

नाटक के प्रथम दृश्य में महंत जी अपने दो चेलों नारायम दास और गोवर्धन दास के साथ गाते हुए आते हैं। नये नगर को देख सभी आकर्षित होते हैं। भिक्षाटन के लिए गो0 दास को पश्चिम दिशा की ओर और ना0 दास को पूरब दिशा की ओर भेजते हुए महंत आगाह करते हैं..यह नगर तो दूर से बड़ा सुंदर दिखलाई पड़ता है मगर बच्चा लोभ मत करना। देखना.....

लोभ पाप को मूल है, लोभ मिटावत मान।
लोभ कभी नहीं कीजिए, यामै नरक निदान।।

दूसरे दृश्य में कबाबवाला, घासीराम, नरंगीवाला, हलवाई, कुजड़िन, मुगल, पाचकवाला, मछलीवाली, जातवाला (ब्राह्मण) बनिया सभी खूब गीत गा गा कर अपने माल को टके सेर बेच रहे हैं। जिसे देखो वही अपना माल टके सेर बता रहा है। गाने के बोल रोचक होने के साथ-साथ गहरे कटाक्ष लिये हुए हैं। एक स्थान पर चूरन वाला कहता है...

हिंदू चूरन इसका नाम। विलायत पूरन इसका काम।।
चूरन जब से हिंद में आया। इसका धन बल सभी घटाया।।
चूरन साहेब लोग जो खाता। सारा हिंद हजम कर जाता।।
चूरन पूलिसवाले खाते। सब कानून हजम कर जाते।।

जातवाला कहता है......

जात ले जात, टके सेर जात। टके के वास्ते ब्राह्मण से मुसलमान, टके के वास्ते हिन्दू से क्रिस्तान। टके के वास्ते पाप को पुन्य मानैं, टके के वास्ते नीच को पितामह बनावैं। वेद धर्म कुल मरजादा सच्चाई सबै टके सेर।

(उस समय जब देश गुलाम था। भारतेंदु इतने गहरे कटाक्ष लिखने और उनके साथी खुले आम घाट पर अभिनय करने की हिम्मत जुटा पाते थे ! स्वतंत्र भारत के परम विकसित काल में इसकी कल्पना भी अचंभे में डाल सकती है। ये गीत इतने रोचक हैं कि बचपन में जब इन सब बातों की कुछ भी समझ नहीं थी तो भी इसके बोल सुनकर नाटक देखते वक्त खूब मजा आता था।)

गो0दास यह सब देख कर खूब मस्त होता है। घूम घूम कर सबसे पूछता है ..वाह ! वाह !! बड़ा आनंद है । हलवाई से पूछता है..

गो.दास. - क्यों बच्चा मुझसे मसखरी तो नहीं करता ? सचमुच सब टके सेर ?

हलवाई - हाँ बाबा। सचमुच टके सेर। इस नगरी की चाल ही यही है। यहाँ सब चीज टके सेर मिलती है।

गो.दास. – क्यों बच्चा इस नगरी का नाम क्या है ?

हलवाई – अंधेर नगरी।

गो.दास. –और राजा का नाम क्या है ?

हलवाई – चौपट्ट राजा।
गो.दास. – वाह ! वाह !! अंधेर नगरी चौपट्ट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा।

हलवाई – बाबा कुछ लेना है तो ले दो।

गो.दास.- बच्चा, भिक्षा मांग कर सात पैसा लाया हूँ, साढ़े तीन सेर मिठाई दे दे, गुरू चेले सब आनंदपूर्वक इतने में छक जायेंगे।

तीसरे दृश्य में महन्त, गो. दास. को समझाते हुए कहते हैं..

सेत सेत सब एक से जहाँ कपूर कपास।
ऐसे देस कुदेस में, कबहुँ न कीजै बास।।
कोकिल कपास एक सम, पण्डित मूरख एक।
इन्द्रायन दाड़िम विषय, जहां न नेकु विवेकु।।
बसिए ऐसे देस नहीं, कनक वृष्टि जो होय।
रहिए तो दुख पाइये, प्रान दीजिए रोय।।

सो बच्चा चलो यहाँ से । ऐसी अंधेर नगरी में हजार मन मिठाई मुफ्त भी मिले तो किस काम की यहाँ एक छन नहीं रहना। लेकिन गो.दास नहीं मानता और महंत ना.दास के साथ चले जाते हैं।

चौथा दृश्य राजसभा का है जिसमें हमेशा पीनक के धुन में रहने वाले राजा के पागल पन चाटुकारों के कहने पर तुरंत लिये जाने वाले फैसले को बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। जिसे पूरा पढ़ने में ही मजा आएगा। संक्षेप में यह कि कल्लू बनिया की दीवार गिरने से उसकी बकरी मर जाती है और गड़रिये के कहने पर दरोगा को फांसी की सजा हो जाती है। कोतवाल महाराज-महाराज कहते रह जाता है।

पाँचवे दृश्य में गो.दास गीत गाते हुए आता है.....

अंधेर नगरी अनबूझ राजा। टका सेर भाजी टका सेर खाजा॥
नीच ऊँच सब एकहि ऐसे। जैसे भड़ुए पंडित तैसे॥
कुल मरजाद न मान बड़ाई। सबैं एक से लोग लुगाई॥
जात पाँत पूछै नहिं कोई। हरि को भजे सो हरि को होई॥
वेश्या जोरू एक समाना। बकरी गऊ एक करि जाना॥
सांचे मारे मारे डाल। छली दुष्ट सिर चढ़ि चढ़ि बोलैं॥
प्रगट सभ्य अन्तर छलहारी। सोइ राजसभा बलभारी ॥
सांच कहैं ते पनही खावैं। झूठे बहुविधि पदवी पावै ॥
छलियन के एका के आगे। लाख कहौ एकहु नहिं लागे ॥
भीतर होइ मलिन की कारो। चहिये बाहर रंग चटकारो ॥
धर्म अधर्म एक दरसाई। राजा करै सो न्याव सदाई ॥
भीतर स्वाहा बाहर सादे। राज करहिं अमले अरु प्यादे ॥
अंधाधुंध मच्यौ सब देसा। मानहुँ राजा रहत बिदेसा ॥
गो द्विज श्रुति आदर नहिं होई। मानहुँ नृपति बिधर्मी कोई ॥
ऊँच नीच सब एकहि सारा। मानहुँ ब्रह्म ज्ञान बिस्तारा ॥
अंधेर नगरी अनबूझ राजा। टका सेर भाजी टका सेर खाजा ॥

गो.दास. गीत गाता है, मिठाई खाता है और कहता है कि गुरूजी ने नाहक यहाँ रहने को मना किया था। तभी राजा के प्यादे चारों ओर से आकर उसे पकड़ लेते हैं।

1प्यादा- चल बे चल, बहुत मिठाई खा कर मुटाय गया है। आज पुरी हुई।

2प्यादा- बाबाजी चलिए, नमोनारायण कीजिए।

गो.दास. – (घबडाकर) यह आफत कहाँ से आई अरे भाई, मैने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है जो मुझको पकड़ते हो।

प्यादा – आप ने बिगाड़ा या बनाया है इस से क्या मतलब, अब चलिए, फाँसी चढ़िए।

प्यादे समझाते हैं कि कोतवाल को फाँसी देने का हुकुम हुआ था। फाँसी का फंदा बड़ा हुआ, क्योंकि कोतवाल साहब दुबले हैं। हम लोगो ने महाराज को अर्ज किया, इस पर हुक्म हुआ कि मोटा आदमी पकड़ कर फाँसी दे दो, क्योंकि बकरी मारने के जुर्म में किसी न किसी को फाँसी की सजा होनी जरूरी है, नहीं तो न्याय न होगा। इसी वास्ते तुमको ले जाते हैं कि कोतवाल के बदले तुमको फाँसी दें। गो. दास लाख दुहाई देते हैं मगर प्यादे एक नहीं सुनते। गो. दास. अंत में चिल्लाता है...गुरूजी तुम कहाँ हो। आओ मेरे प्राण बचाओ, मैं बेअपराध मारा जाता हूँ गुरूजी गुरूजी...(प्यादे उसे पकड़ कर ले जाते हैं)

छठें व अंतिम दृश्य में गुरूजी आते हैं और अपनी चालाकी से न केवल गो.दास. को बचाते हैं बल्कि राजा को ही फांसी पर चढ़वा देते हैं। कहते हैं......

जहाँ न धर्म न बुद्धि नाह, नीति न सुजान समाज।
ते ऐसहि आपुहि नसे, जैसे चौपटराज।।

आज अन्ना हजारे को जंतर मंतर पर देखकर यह नाटक और इसके गुरूजी की बहुत याद आ  रही है। क्या आपको भी लगता है कि यह नाटक आज भी प्रासंगिक है और इसे याद किया जाना जरूरी है ?
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3.4.11

मूर्ख दिवस की यादें, विश्व कप की बधाई व नवसंवत्सर की ढेरों शुभकामनाएँ....सब एक साथ।


आज आनंद का दिन था। बहुत दिनों के बाद वह दिन आया जब दफ्तर में छुट्टी थी, श्रीमती जी ने अत्यंत जरूरी गृह कार्य भी नहीं सौंपा था और न ही मुझे ब्लॉग से अच्छा दूसरा कोई मिला था। विश्वकप जीतने के दृश्य आखों के सामने ताजा थे। चारों दिशाओं से बधाई संदेशे आ जा रहे थे। ब्रश करने और चाय पीने के बाद से ही नई पोस्ट लिखने का इरादा हो रहा था। आनंद की यादें भी पुकार रही थीं। कमी थी तो बस यह कि विषय ही तय नहीं कर पा रहा था।

विश्व कप से एक दिन पहले 1 अप्रैल को राजेंद्र प्रसाद घाट पर बिताये महामूर्ख सम्मेलन की यादें भी ताजा थीं। दूर-दूर से बड़े-बड़े मूर्ख कवि पधारे थे। सभी में महामूर्ख बनने की होड़ लगी थी। हजारों की संख्या में घाट पर बैठे मस्त श्रोता खुद को मूर्ख कहे जाने पर खुश हो, जोर-जोर से ताली पीट रहे थे। अद्भुत दृश्य था। मेरे मित्र मुझे स्वयम से श्रेष्ठ मूर्ख स्वीकार कर चुके थे इसलिए मुझे भी मंच पर चढ़ा देखना चाहते थे मगर मैं उनके बीच बैठा हर हर महादेव का नारा लगाते कविता सुनने के मूड में बैठा था। एक से बढ़कर एक मूर्खता पूर्ण कार्य हो रहे थे। सम्मानित वृद्ध, दुल्हन का जोड़ा पहन सज संवर कर बैठे थे तो भद्र डाक्टर महिला, दूल्हा बन शादी रचाने को तैयार थी। बड़े-बड़े, दूर से ही पहचाने जाने वाले जाली नोट न्यौछावर किये जा रहे थे। अशुभ मुहुर्त में अगड़म-बगड़म स्वाहा के जोरदार मंत्रोच्चार के साथ शादी के फेरे हो रहे थे। मंच संचालक हा..हा करता तो घाट की सीढ़ियों पर बैठे बुद्धिमान श्रोता और भी जोर से हा..हा..हा...के ठहाके लगाकर बड़े लंठ होने का दावा पेश कर रहे थे। मैं भीड़-भाड़ में कैमरा-वैमरा नहीं ले जाता वरना एकाध फोटू जरूर खींच कर चस्पा कर देता। वैसे यदि आप बड़े पाठक हों तो गूगल में सर्चिया के देख सकते हैं। कहीं न कहीं तो आ ही गया होगा । दूर-दूर से बड़े बुद्धिमान कवि खुद को महामूर्ख सिद्ध करने आये थे। जोकरनुमा हाव-भाव व अपने कोकिल कंठ से फिल्मी गाने की पैरोडी को अपने कवित्त के गोबर में सानकर अनवरत उगल रहे थे। जो जितनी बड़ी मूर्खतापूर्ण कविता सुनाता वह उतनी अधिक तालियाँ बजवाता। वाह ! क्या गज़ब की लंठई चल रही थी ! मुझे याद आ रहा है...लखनऊ से पधारे श्री सूर्य कुमार पाण्डेय ने महिलाओं को कुहनी मारने की हूबहू एक्टिंग करते हुए सुनाया था....

वो मेरी बगल से गुजरी तो मैने मार दी कुहनी
कहा उसने
बुढ़ौती में यह हाल होता है ?
कहा मैने
वन डे क्रिकेट के रूल को समझो
वहीं पे फ्री हिट मिलता है
जहाँ नो बॉल होता है।

इतना सुनते ही सभी श्रोता उछल-उछल कर हो….हो….हो… करने लगे। उसके बाद आईं संगीता जी ने मस्त अंदाज में उनकी छेड़छाड़ का उत्तर दिया…...

सूखे टहनी पर गुलाब आ रहे हैं
आखों में मोतिया बिंद है
फिर भी ख्वाब आ रहे हैं
जवानी में जो भेजे थे इन्होने खत
बुढ़ौती में अब उसके जवाब आ रहे हैं।

ऐसी ही अनगिन लंठई भरी कविताओं के साथ कभी कभार जोरदार व्यंग्य भी सुनने को मिल रहे थे। जिसे सुनकर दर्शकों की खुशी का पारा अचानक से कम हो जा रहा था। वैसे जितने भी कवि आये थे सभी बड़े-बड़े थे और उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि कहाँ क्या सुनाया जाना चाहिए। और भी बहुत सी बातें हैं जिन्हे लिख कर आप को झेलाया जा सकता है मगर मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि लिखूं तो क्या लिखूं। विश्वकप में भारत की जीत अलग ही उचक मचा रही है लिखने के लिए। बहुत से विद्वान ब्लॉगर जो क्रिकेट कभी नहीं देखते मगर उन्होंने भी बच्चों की खुशी के लिए पूरा मैच देखा और एक अच्छी पोस्ट लिख डाली। इसे कहते हैं आम के आम गुठलियों के दाम। मजे भी लो और विद्वान भी बन जाओ। एक मैं मूरख सोच में पड़ा हूँ कि किस विषय पर लिखूँ !

लगता है आज कुछ खास रविवार है। बड़े आनंद का दिन है। हर तरफ खुशियाँ बिखरी हैं। घर में बिजली भी है पानी भी। निर्मला भी सही समय पर आ कर झाड़ू-पोछा कर रही है। श्रीमती जी भी बड़ी प्रसन्न हैं। हवा के झोंके से कुछ टिकोरे आंगन में झड़ गये हैं। चटनी की खुशबू सुबह से आ रही है। मोर उड़ कर अभी-अभी गया है। चिड़िया चह चहा रही हैं। अमूमन छुट्टियों में भोजन का समय 9 के बजाय 12 शिफ्ट हो जाता है। बच्चे भी समझदार हैं। 8 बजते-बजते कोई न कोई धीरे से कुछ न कुछ नाश्ते की डिमांड रख ही देता है..पापा जिलेबी ! या कुछ और। जानते हैं कि मैं इनकार नहीं करूँगा। श्रीमती जी पिच तैयार करना और बच्चे बैटिंग करना खूब जानते हैं। चूक में या सबकी खुशी के लिए बोल्ड होना ही पड़ता है। मगर आज का दिन ही बड़ा गज़ब का है। किसी ने नाश्ते की डिमांड नहीं करी ! लैपटॉप छोड़कर बच्चों से पूछ बैठा...क्या बात है भई ! आज कुछ नाश्त-वाश्ता नहीं किया तुम लोगों ने ? तीनो बच्चे उम्र के हिसाब से समवेत चहकने लगे....आप को भूख लग गई क्या ? लैपटॉप कैसे छोड़ दिये ! हम ले लें क्या ? आपको पिछले संडे की तरह आज भी ऑफिस जाना है क्या ? तब तक छोटका दौड़ा....ठीक है हम ले लेते हैं लैपटॉप... थैक्यू पापा ! मुझे पूरी दुनियाँ लुटती नज़र आई जोर से चीखा...अरे नहीं...मुझे कहीं नहीं जाना । मेरे लैपटॉप को हाथ मत लगाना।….खबरदार। तब तक श्रीमती जी चहकीं...भूख लगी हो तो भोजन तैयार है। मैं सातवें आसमान से गिरा इतनी जल्दी सुबह 9 बजे ही रविवार के दिन भोजन तैयार है ! क्या गज़ब चमत्कार है ! अभी तक मैने कुछ लिखा ही नहीं ! बच्चे चीखे...अरे आज टीवी पर फिल्म आयेगी न इसीलिए....तभी दरवाजे पर किसी के आने की आहट सुनाई पड़ी। पंडित जी...चलना नहीं है क्या ? कहाँ…? अरे आज सड़क निर्माण का उद्घाटन करने के लिए नेता जी आ रहे हैं ना...! धत्त तेरे की मैं तो भूल ही गया। ठीक है आप लोग चलिए मैं नहा धोकर आता हूँ। अभी तक नहाये नहीं...! आप भी गज़ब करते हैं...! पहले से बता दिया था तब भी....ठीक है जल्दी आइये।

भाड़ में जाये ब्लॉगिंग...! सड़क बन रही है यह कम खुशी की बात है ! विगत दस वर्षों से तो इसी का सपना देख रहे थे। क्या पता था कि अपनी सड़क पर काम तभी चालू होगा जब भारत वर्ल्ड कप जीत लेगा !

सड़क निर्माण के उद्घाटन की राजनीति पूर्ण हो चुकी है। खा-पी कर लैपटॉप खोला तो गहरी नींद आ गई। जागा तो सोचा वही लिखूँ जो आज सोच रहा था। कल से नव संवत्सर 2068 प्रारंभ हो रहा है। भारत की मान प्रतिष्ठा में वृद्धि का योग पहले से ही दिख रहा है। स्वागत की तैयारी करनी है मगर यह क्या ! बाहर तो बारिश के साथ ओले भी पड़ रहे हैं ! शाम से पहले मौसस कैसे अचानक से बदल गया ! आप के शहर में क्या हाल है ? सब ठीक तो है ! सभी को नव वर्ष की ढेरों शुभकामनाएँ....नमस्कार।

मूर्ख सम्मेलन के चित्र / समाचार यहाँ देख सकते हैं...... http://compact.amarujala.com/city/8-1-9756.html