18.12.22

साइकिल की सवारी 5

आज फिर बैठे हैं पुलिया पर। आज टोपी भूलने वाली गलती न हो इसलिए पहले ही कैरियर में दबा दिए हैं। आज भी कोई नहीं है लेकिन वो आई है, सूरज की राजदुलारी, हम सब की प्यारी, जाड़े की धूप। सड़क के दोनो तरफ पुलिया बनी है, दोनो तरफ लाल रंग से लिखा है, 'बहादुर आदमी पार्टी!' इस पार्टी का नाम पहले नहीं सुना था, यहाँ बैठा तो ज्ञान हुआ, ऐसा भी कोई नाम है। वैसे सही भी लगा, आम आदमी, पार्टी कहाँ बना पाता है! बहादुर आदमी ही पार्टी बनाता है, भले आम को लुभाने के लिए लिख दे, 'आम आदमी पार्टी!'


आज भी अच्छी खासी साइकिलिंग हो गई, बढ़िया बात यह रही कि एक बार भी चेन नहीं उतरी और हम सूर्योदय के समय 10 किमी से अधिक साइकिल चलाकर, सारनाथ से पंचकोशी, कपिलधारा, सरायमुहाना, श्मशानघाट, आदिकेशव घाट, बसंता कॉलेज होते हुए सीधे पहुँच गए, नमो घाट।


आकाश से सूर्य देव गंगा जी की लहरों/घाटों पर अपनी लालिमा बिखेर रहे थे और सभी प्रकार के प्राणी आनंदित हो रहे थे। बकरियाँ स्वेटर पहन कर घूम रही थीं, यादो जी की भैंस कथरी ओढ़े खड़ी थी, कबूतर दाने चुग रहे थे, भक्त स्नान/ध्यान में डूबे थे, पंडे जजमान तलाश रहे थे, बच्चे स्केटिंग कर रहे थे और मेरी तरह फोटो खींचने/ खिंचवाने के शौकीन लगे हुए थे, मतलब सभी अपने-अपने धंधे में भिड़े हुए थे। एक से एक बढ़िया कैमरे, एक से बढ़कर एक फोटोग्राफर और पोज देकर फोटो खिंचवाने वाले एक से एक खूबसूरत जोड़े। 


देखते-देखते मेरा मन मचला और कदम बढ़ गए पँचगंगा घाट की तरफ। घाटों का नजारा काफी खूबसूरत था। तेलियानाला घाट और आगे 2,3 घाटों पर तीर्थ यात्रियों की खूब भीड़ जुटी थी। मैं चकराया!  आज कौन सी स्नान की तिथि है, मुझे तो कुछ नहीं पता! एक आदमी से पूछा तो उसने बताया, "गंगा सागर जाए वालन कs भीड़ हौ, दख्खिन से आयल हउअन, बीच-बीच में जउन घाट मिली, नहात जइहें!" 


वहाँ से आगे बढ़ा तो गाय घाट के पास एक आदमी मढ़ी पर बैठ कर मछलियों को आटे की गोलियाँ खिलाते दिखा, पँचगंगा घाट पहुँचे तो घाटीए ने पहचान कर स्नान करने के लिए बुलाया। मैं भक्ति के नहीं, घूमने के मूड में था, उनको नमस्कार किया और बोला, "बहुत ठंडी हौ महाराज! धूप अउर निकले दा।" आगे बढ़ कर भोसले घाट की एक मढ़ी में धूप लेते हुए मन किया सिंधिया घाट तो पास ही है, आगे बनारस का प्रसिद्ध चौखम्भा/ठठेरी बाजार और कचौड़ी/मलइयो की दुकान है, चलो! चलते हैं, समय भी हो चुका दुकान खुल गई होगी। 


चार गरमा गरम कचौड़ियाँ और 250 ग्राम मलइयो चाभने के बाद तो थकान और बढ़ गई। वापस ऑटो पकड़कर घर जाने का मन किया लेकिन याद आया साइकिल तो नमो घाट पर रखे हैं! वापस जाना ही पड़ेगा। थकान मिटाने के लिए वहीं संकठा जी के मंदिर के पास, सिंधिया घाट के ऊपर चबूतरे पर बैठ गए। दौड़ गुरु याद आए, "जितना कैलोरी जलाए, उससे ज्यादा तो चाभ लिए पण्डित जी! कोलेस्ट्रॉल बढ़ेगा कि घटेगा?" मैने मन ही मन कहा, "आनन्द से बढ़कर कुछ नहीं है, एक दिन तो सभी को जाना है, ज्यादे कैलोरी होगी तो जलने में  एकाध किलो लकड़ी ज्यादा लगेगी और क्या! वो भी मरने के बाद कौन अपने को जुटाना है! मैं कैलोरी जलाने के लिए थोड़ी न घूमता हूँ, आनन्द लेने के लिए घूमता हूँ, आनन्द मिल रहा है और क्या चाहिए?"


जिस चबूतरे पर बैठे थे सामने एक फूल माला बेचने वाले की दुकान थी, वहीं एक टोपी पहने, जोश से लबरेज एक आदमी को दिखा कर फूल बेचने वाले ने पूछा, "बता सकsला, इनकर उमर कितना होई?" मैने कहा, "यही कोई चालीस साल?" मेरा उत्तर सुनकर फूल वाला और आसपास खड़े सभी लोग हँसने लगे! ठहाके लगाते हुए फूलवाला बोला, "अस्सी साल! इनकर उमर अस्सी साल हौ!!! जैतरपुरा कs रहे वाला हउअन, 'सुंदर' नाम हौ।" मैने अब ध्यान से देखा, दुबला-पतला, मुस्कुराता चेहरा, गालों में एक भी शिकन नहीं! ऐसा कैसे हो सकता है! बहुत होगा साठ साल का होगा। मैने कहा, "हमे त तोहरे बात पर विश्वास नाहीं हौ।" वह फिर हँसने लगा, "हमरे पर विश्वास ना हौ त अउर सबसे पूछा!" सभी ने उसकी बात का समर्थन किया। हमने सुंदर को प्रणाम किया और कहा, "आइए, आपका एक फोटो खींच लें, रोज देखेंगे तो ताकत मिलेगी।" सुंदर हँसते हुए, इनकार करते हुए चले गए,"फोटो का होई?, बेकार कs बात हौ!" फूल वाले ने आगे बताया, "ये तीन भाई हैं, अपना घर है लेकिन इनका अपना कोई लड़का नहीं है, एक लड़का बड़ा होकर मर गया, खाने के लिए घर में रोज चालीस रुपिया देना होता है, उसी के लिए टाली चलाते हैं, इस उमर में भी घाट की सीढ़ी, दस बार ऊपर/नीचे चढ़ते हैं।" मैं आश्चर्य में डूबा, फिर मिलेंगे, बोलता हुआ, सिंधिया घाट की सीढ़ी उतर गया। एक-एक सीढ़ी उतरते हुए सोचता रहा, साठ की उमर में अपना यह हाल है, अस्सी की उमर का वह नौजवान कितना फुर्तीला था! सच बात है, मेहनत करने वाला और सदा खुश रहने वाला, कभी बुड्ढा नहीं होता।


सुबह 6 बजे घर से चले थे और अब दिन के दस बज चुके थे। सूरज नारायण सर पर सवार हो चुके थे, घाटों पर धूप बिखरी पड़ी थी। पतंग उड़ाने वाले और क्रिकेट खेलने वाले बच्चों की फौज घाटों पर जमा हो चुकी थी। हमने जल्दी-जल्दी सभी घाट पार किए, पँचगंगा वाले घाटीए से नजरें चुराता आगे बढ़ गया, कहीं पण्डित जी यह न कहें, "आओ जजमान! चउचक धूप हो चुकी है।" नमो घाट पहुँच कर अपनी साइकिल ली और पैदल-पैदल चढ़ाई चढ़ने लगा।


पता नहीं आपने महसूस किया है या नहीं, जिस रास्ते से साइकिल चलाते हुए जाओ, उसी रास्ते से लौटो तो एक अजीब एहसास होता है! चढ़ाई अखरती है, ढलान मजा देता है!!! जो चढ़ाई अखरती है, वही ढलान होती है जिसने आते समय बिना पैडल मारे साइकिल उतारने में खूब मजा दिया था। ढलान में हम उतने खुश नहीं हो पाते जितने दुखी चढ़ाई चढ़ते समय होते हैं। जीवन मे भी यही होता है। खुशी वाले पल ढलान की तरह जल्दी से सरक जाते हैं, दुखों वाले पल भुलाए नहीं भूलते! हमको इस बेचैनी/नासमझी से मुक्ति कोई बुद्ध ही दिला सकते हैं। 


उतरते/चढ़ते पुलिया पर आकर बैठ गए और खूब धूप ले लिया। तब तक घर से कई बार फोन आ चुका। नहीं, मेरी चिंता से नहीं, इस उलाहना से, "रविवार को भी आप सुबह से गायब रहते हैं! बहुत सामान लाना है, हैं कहाँ?" मैने कहा, " जो लाना है, वाट्सएप कर दो, अभी पुलिया पर बैठकर थकान मिटा रहे हैं।

    कई दिनों बाद, उसी जगह सुंदर मिल गए।



11.12.22

साइकिल की सावरी 3

राजघाट से बसन्त महिला महाविद्यालय के मार्ग पर मुड़ते ही आगे एक खुला गेट आता है। गेट से लगभग 50 मीटर की दूरी पर दाहिने हाथ एक कुआँ मिलता है। सूर्योदय के समय, इस कुएँ का पानी पीने हम अपने किशोरावस्था में साथियों के साथ गली-गली, घाट-घाट दौड़ते-कूदते आते थे। आज मेरे देखते हुए, 50 वर्षो के बाद भी, यह कुँआ जिंदा है और लोगों को पानी पिला रहा है। 


आज पानी पी कर लौटते समय थकान मिटाने के लिए कोटवा ग्राम की पुलिया पर बैठे तो एक ग्रामीण ने बताया कि 20 वर्ष पहले वहाँ एक कांड हो गया था। सुनसान इलाका था, किसी ने, किसी को मार कर कुएँ में फेंक दिया था! लाश निकालने के बाद उसकी सफाई हुई और उसे लोहे की पत्तियों से ढक दिया गया, हैंड पाइप लग गया और पानी पीने की व्यवस्था कर दी गई।


इस कुँए के पानी को अमृत माना जाता था। पुरनिए कहते थे कि जो इस कुएँ का पानी पेट भर पी ले उसे कोई रोग हो ही नहीं सकता। आज भी इसके कुँए पर लिखा है, 'अमृत कुण्ड'।आज के आधुनिक समय में जब अधिकांश कुएँ सूख चुके हैं, इसे जिंदा देखकर खुशी होती है लेकिन लोगों की मूर्खता देखकर दुःख भी होता है। मूर्खता यह कि यहाँ बारी-बारी से दयालु/धार्मिक प्रकृति के लोग आते हैं और कुएँ की जगत पर रोटी के टुकड़े, बिस्कुट या कुछ और खाने की चीजें लाकर बिखेर देते हैं। कौए और दूसरे पक्षी भी इसे खाने के लिए टूट पड़ते हैं। खा/पी कर ये कौए कुएँ के ऊपर बैठकर बीट करते हैं और कुएँ के पानी को गंदा करते हैं। मैने एक दो लोगों को समझाया कि आपको कौओं को खिलाने की इच्छा है तो खूब खिलाइए मगर कुएँ के जगत पर न खिलाकर थोड़ी दूर जमीन पर खिलाइए। यहाँ खिलाने से ये कौए, कुएँ के ऊपर बैठकर बीट करते हैं और कुएँ के पानी को गंदा भी करते हैं। मुझे नहीं लगा कि किसी पर मेरी बात का कोई प्रभाव पड़ा। सुबह के समय, एक के बाद एक अनवरत लोग आते हैं और कौओं को कुछ न कुछ खिलाते हैं। अच्छा होता ये मेरी बात समझ जाते और कुएँ की जगत पर न खिलाकर, नीचे कहीं एक फिट आगे खिलाते।



05 अगस्त, 2022

साइकिल की सवारी-4

बहुत दिनों बाद बैठे हैं पुलिया पर। जब पुलिया पर बैठते हैं, पुलिया सम्राट अनूप शुक्ल जी याद आ जाते हैं। क्या हुआ वो जबलपुर शहर में पुलिया तलाशते थे और हम यहाँ सारनाथ, बनारस से 6 किमी दूर सराय कोटवा और कपिलधारा के बीच एक पुलिया पर बैठे हैं। 


सारनाथ से नमो घाट, राजघाट जाने का एक यह भी मार्ग है। यह पैदल या साइकिल सवारों के लिए खूबसूरत रास्ता है। आम रास्ता जो आशापुर से कज्जाकपुरा होते हुए राजघाट जाता है, इस समय ओवर ब्रिज निर्माण के कारण बहुत खराब है। यह रास्ता थोड़ा दूर पड़ता है लेकिन गाँव का खूबसूरत रास्ता है। सारनाथ से आशापुर, पंचकोशी, कपिलधारा, सराय मुहाना, निषाद राज गेट, वरुणा-गंगा संगमतट पर बने पुल को पार कर आदिकेशव घाट, बसंत कॉलेज और तब जाकर आएगा नमो घाट, राजघाट।


इस रास्ते से आने में अच्छी साइकिलिंग हो जाती है। आज तो कुछ ज्यादा ही अच्छी हो गई, बार-बार चेन निकल जाता, बार-बार हम चढ़ा कर चढ़ते, बच्चे भी देख कर कहने लगे, "चेन ढीली हो गई है अंकल, टाइट करा लीजिए।" हम हाँ/हूँ कहते हुए आगे बढ़ते, यहॉं, इतनी सुबह, कहाँ मिलेगा सायकिल वाला!


बहरहाल जब नमोघाट पहुँचे, सूरज नारायण निकल ही रहे थे। हमको देख कर बोले, "आओ बच्चा! आज खूब मेहनत किए, फोटो खींचो।" हमने जल्दी से प्रणाम किया और बोला, "बस अभी खींचते हैं देव! आप अपनी लालिमा बनाए रखना।" सूर्यदेव मुस्कुरा कर गंगाजी में अपनी आभा बिखेरने लगे और मैं घूम-घूम कर फोटू खींचने लगा। 


थककर जब एक जगह बैठा तो नींबू वाली चाय लेकर अजय बाबू आ गए। बहुत बढ़िया चाय पिलाई। राजघाट के बगल के हैं अजय बाबू। चाय बेचकर परिवार का लालन/पालन करते हैं। इनको भी परिवार छोड़ कर राजनीति में कूदना चाहिए और बड़े होकर अजय घाट बनाना चाहिए लेकिन कौन समझाए! यह कला समझाने से थोड़ी न आती है। हमने चाय पीकर चाय की खूब तारीफ करी। मौके पर इच्छित वस्तु का मिल जाना भाग्य की बात होती है। चाय पीकर, सूर्यदेव को बाई-बाई करते हुए लौट चले। 


अब लौटते समय यह पुलिया मिली तो आराम से बैठकर लिख रहे हैं। एक पंथ दो काज हो गया, थकान भी दूर हो गई, लिखना भी हो गया। इतनी देर से बैठे हैं, आज पुलिया पर न रामचन्दर हैं, न राम नरेश। शायद दिन में धूप लेने आते होंगे। हम भी बहुत दिनों बाद इधर आए हैं तो कुछ नहीं पता। दो देसी कुत्ते सामने वाली पुलिया के बगल से होते हुए दाएं से बाएं गए। मेरी तरफ देखा तक नहीं! कुत्ते भी पहचानते हैं, कौन काम का आदमी है, कौन फालतू में बैठकर मोबाइल चला रहा है। अभी काफी दूर जाना है, कुत्ते किसी पर भौंक रहे हैं, मेरे ऊपर भौंकने लगें इससे पहले यहाँ से चलना पड़ेगा। 


पुलिया से 5 किमी चलकर पंचकोशी पहुँचे, लगा कि अब तो घर आ ही गए कि अचानक मन ने प्रश्न किया, "टोपी कहाँ है"?" याद आया, सेल्फी लेने के चक्कर मे टोपी तो पुलिया पर उतारी थी, वहीं छूट गई होगी। अब क्या करें? अच्छी/ऊनी टोपी थी, अभी वहीं होगी। गाँव के लोग ईमानदार होते हैं, दूसरे की टोपी नहीं लेंगे।


शरीर में जान नहीं बची थी, थकान के मारे बुरा हाल था, औकात से ज्यादा मेहनत हो चुका था लेकिन टोपी का इतना मोह था कि एक साइकिल बनाने वाले से चेन ठीक कराई और वापस चल पड़े। पुलिया में पहुँच कर खुशी का ठिकाना न रहा, कोई अभी तक नहीं आया था लेकिन टोपी वहीं रखी थी। कितने लोग यहाँ से गुजरे होंगे लेकिन किसी ने टोपी नहीं उठाई। झट से टोपी पीछे कैरियर में दबाई और गाँव के लोगों के लिए दिल से दुआ निकली, "ईश्वर इनका भला करे, ईमानदारी कहीं तो बची है!"


वापस लौटे तो भूख के मारे बुरा हाल था, रास्ते में गरम-गरम कचौड़ी जिलेबी छन रही थी लेकिन साइकिल की चेन चढ़ाने के कारण उँगलियाँ इतनी गंदी हो चुकी थी कि बिना हाथ साफ किए कुछ खाने का मन नहीं किया। टोपी मिलने की खुशी में इतनी ताकत आ गई कि सकुशल घर वापस आ गए। आज साइकिलिंग के सभी पिछले रिकार्ड टूट गए। 







9.12.22

गुम होते बच्चे

इक दूजे पर

कूद/काट कर

खेल रहे थे

दुदमुहेँ पिल्ले

खेलते-खेलते दौड़कर 

चूसने लगे

गहरी नींद सोई 

कई स्तनों वाली माँ के

एक-एक स्तन!


अचानक!

मेरे पास जाते ही

दोनो आँखें तरेर,

छूरे जैसे दाँत दिखाकर,

गुर्राई थी मुझ पर 

ललछौहीं आँखों वाली कुतिया,

लगा कि

काट खाएगी!!!


मैं कैसे समझाता?

जो पिल्ले गुम हुए

वो मैंने नहीं लिए!

आजकल

नहीं टिकते

इंसानों के बच्चे भी

अपनी माँ के पास तो 

तेरी क्या औकात?

............

8.12.22

शनि देव

यह महिला

पाँच रुपए में

रोशनी की किरण बेचती है

यह महिला,

शनिवार को

शनिदेव के मंदिर के सामने

दिए बेचती है।


दिया 

जिसको जलाने से

शनि प्रसन्न होते हैं!

दिया

जिसको जलाने से,

सभी मनोकामनाएं

पूर्ण होती है!


नहीं है विश्वास?

तो आप, 

हम पर

पक्का हँसेंगे

अंधविश्वास फैलाने का 

आरोप भी 

लगा सकते हैं।


मगर सोचिए!

एक बेरोजगार

जो कर रहा है 

प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी,

एक पिता

जो नहीँ ढूँढ पा रहा है

पुत्री के लिए 

योग्य वर या

एक मासूम

जिसे फँसा दिया गया है

झूठे मुकदमे में

हो चुके हैं जो

सभी प्रयत्न करके निराश,

जिंदगी से हताश,

दिख नहीं रहा 

कोई मार्ग

करना चाहते हैं

आत्महत्या!

उनसे कहा जाय...

तुम छः सप्ताह 

शनिदेव के मंदिर में 

जलाओ एक दिया तो

तुम्हारी मनोकामना जरूर पूर्ण हो जाएगी!

और..वह 

जलाना शुरू करता है दिया!

एक सप्ताह, दो सप्ताह..पूरे छः सप्ताह!


छः सप्ताह मतलब टेढ़ महीना, 

42 दिन!

इतने दिन

कम नहीं होते

कामना पूर्ण होने के लिए,

इतने दिन

कम नहीं होते

निराश मन में

उम्मीद की नई किरण 

जल जाने के लिए!

या इतने दिन

कम नहीं होते

किसी को मरने से 

बचाने के लिए!


यह अंधविश्वास है

तो भी

बड़ा प्यारा अंधविश्वास है!

कुछ नहीं तो इससे

एक गरीब के घर का चूल्हा  

जल ही जाता है

आखिर

पाँच रुपए बचाकर

आप कौन सा तीर मार लेंगे?


यह महिला

पाँच रुपए में

रोशनी की किरण बेचती है

यह महिला

शनिदेव के मंदिर के सामने

दिए बेचती है।

........


3.12.22

तस्वीर

    शाम का समय था, श्मशान घाट में एक चिता जल रही थी। चिते के पास लगभग 70 वर्षीय बुजुर्ग के सिवा दूर-दूर तक कोई न था। कृषकाय बुजुर्ग, दोनों हाथों से अपने पिचके  गालों को दबाए, फटी आँखों से जलती चिता को, एक टक देख रहे थे। पूछने पर पता चला जिसकी चिता जल रही है, वह और कोई नहीं, उसकी पत्नी थीं। पूरा दृश्य अपनी कहानी खुद कह रहा था, कुछ कहने/बताने की जरूरत न थी। चिता की आँच में चुपचाप दर्द और प्यार की एक सरिता बह रही थी। 

     बहुत चाहा, एक तस्वीर खींच लूँ, किसी उपन्यास पर भारी पड़ेगी यह तस्वीर। हाय! सोचता ही रह गया, देखता ही रह गया। खयालों में ऐसा खोया कि होश तब आया जब सब कुछ ठंडा पड़ चुका था। चिता ठंडी पड़ चुकी थी, वृद्ध जा चुके थे, बस एक वाक्य शेष था, 'राम नाम सत्य है।'

.......

लोहे का घर 64

फरक्का जलालपुर से अभी चली है। बहुत से लड़के जलालपुर से चढ़े हैं। ये #अग्निवीर हैं। इनसे बात करने पर पता चला, कल सुबह फिजिकल परीक्षण होगा। आज रात्रि में 12 बजे ग्राउंड में प्रवेश मिलेगा, वहीं इन्हें अलग-अलग समूहों में बांट दिया जाएगा, भोर से परीक्षण शुरू होगा। रात भर ये बच्चे ग्राउंड में बिताएंगे। अपना कम्बल/चादर लेकर, पूरी तैयारी से आए हैं। इनका जोश देखते ही बनता है। 


इनके अतिरिक्त ट्रेन की इस बोगी में कई परिवार हैं। दूर के यात्री शंकालू, लड़के अनुशासित हैं। आपस में बतिया रहे हैं, कोई उपद्रव नहीं कर रहे। इसका अगला स्टॉपेज बनारस है लेकिन अभी यह खालिसपुर में रुकी है। भारतीय रेल धैर्यवान और सहनशील बनने की ट्रेनिंग देनी शुरू कर चुकी है। एक मालगाड़ी विपरीत दिशा से हॉर्न बजाते हुए गुजरी है, उसके निकलते ही यह ट्रेन भी चल दी। लड़कों ने शोर मचाया, जिनको सीट नहीं मिली है, वे प्रेम से खड़े हैं। एक ही गाँव के, आपस मे परिचित दिखते हैं। खूब हंस/बोल रहे हैं। इनकी भाषा शुद्ध भोजपुरी है। इनकी बोली सुनकर एकाध वाक्य लिखने का प्रयास करता हूँ...


ए! चदरवा लियायल है न? बिछावा!

हमहूँ आवत हई, जगह हौ?

ए! कुछ लहलेहै, खाए वाला? निकाल।

बाबतपुर भी रुकी का यार?ट्रेन क स्पीड धीमा होत हौ।

टी.टी. आई, सबके भगा देई।

आज टी.टी.का करी यार!

कौन ट्रेन हौ ई?

फरक्का!


ट्रेन में चढ़ गए, ट्रेन का क्या नाम है, नहीं पता। बस इतना जानते हैं, बनारस जा रही है। ऐसे ही हँसते/बोलते ये बच्चे भारत की रक्षा करने वाले सैनिकों में शामिल होने जा रहे हैं। एक अलग प्रकार का आनन्द ले रहे हैं। ट्रेन बाबतपुर में फिर रुकी है। ऐसे ही हर स्टेशन रुकते हुए, नॉनस्टॉप ट्रेन चल रही है। इन्होंने सोचा था कि जलालपुर से चलेंगे तो आधे घण्टे में बनारस पहुँच जाएँगे। ये ऐसे खुशी-खुशी जा रहे हैं जैसे पहुँचते ही कार्यभार ग्रहण करने की अनुमति मिल जाएगी। 


इन सब शोरगुल से परे, इत्मीनान से थोड़ी देर रुककर ट्रेन फिर चल दी। लड़कों में जल्दी पहुँचने की उम्मीद जगी है। ये सभी भारतीय रेल की चाल से पूर्व परिचित/अनुभवी लग रहे हैं। कल जो  आगे की परीक्षा के लिए सफल होंगे, उनकी खुशी देखने लायक होगी, जो असफल होंगे वे माथा पीटेंगे। यह जीवन संघर्ष क्या-क्या रंग दिखाता है! ये संघर्ष की ट्रेन में सवार हो चुके हैं। अब जीवन में जो भी पड़ाव आएगा, इन्हें ऐसे ही हँसते हुए स्वीकार करना है। मंजिल कहाँ है? यह जब मैं नहीं जान सका तो इन्हें क्या पता होगा! अभी तो इन्हें शुभकामना ही दे सकते हैं। ट्रेन एक छोटे से स्टेशन 'वीरापट्टी' में देर से रुकी है।

...@देवेन्द्र पाण्डेय।

5.11.22

कच्छा बनियाइन

 
भोर के अजोर से पहले दौड़ रहे प्रातः भ्रमण करने वालों की भीड़ में एक 'कच्छा बनियाइन' वाला भी था। मैंने पूछा,"कौन हो? कहाँ रहते हो?"

वह बोला,"यही तो मैं जानना चाहता हूँ, ये मॉर्निंग वाकर्स कौन हैं? कहाँ रहते हैं? कब आते हैं? और कब वापस जाते हैं? अच्छा बताइए! आप कहाँ रहते हैं?|

मैं थोड़ा डर गया। कहीं सही में यह  कच्छा बनियाइन गिरोह का सदस्य तो नहीं! 

मैन हिम्मत करके पूछा,"जानकर क्या करोगे भाई? 

उसने हँसते हुए कहा, "आराम रहेगा, धंधा बढ़िया चलेगा।"
 
मैं और डर गया, "धंधा!!! करते क्या हो?"

उधर रेलवे क्रासिंग के पार रहता हूँ। वो सामने मकान है न? उसी के बगल में जाना है। घर में कोई पुरुष नहीं है। अकेली महिला है। सोचा, वहीं हाथ साफ़ करूँ! उनके टँकी में पानी नहीं चढ़ रहा। सुबह-सुबह पानी न मिले तो पखाना/नहाना भी रुक सकता है। क्या करूँ! अपना धंधा ही ऐसा है। घबराइए नहीं भाई साहेब! मैं प्लम्बर हूँ। 
............

3.11.22

डेंगू 2

एक डेंगू मच्छर बहुत परेशान था। सार्वजनिक शौचालयों में साफ सफाई के लिए तेजाब का छिड़काव हो रहा था। अपनी जान बचाने के लिए उसे बगल की गली के किनारे धरे एक प्लास्टिक के डिब्बे के साफ पानी की शरण लेनी पड़ी। 


मनुष्यों का खून मिलने की संभावना यहाँ भी थी। सभी भद्र पुरुष मूत्र त्याग करने के लिए शौचालयों में जाना पसंद नहीं करते। उनका मानना है कि सार्वजनिक शौचालयों में बहुत गंदगी/मच्छर रहते हैं। वे गली के किनारे किसी ऐसे साफ जगह की तलाश करते हैं जो सार्वजनिक शौचालयों से साफ हो। डेंगू मच्छर ऐसे ही किसी भद्र पुरुष की तलाश में था लेकिन यहाँ अब तक जितने भी आए सब जीन्स का पैंट और मोजा-जूता पहने हुए आए। उनके मुँह खुले थे लेकिन डेंगू मच्छर, चेहरे की ऊँचाई तक नहीं पहुँच पा रहा था।


कैसे काटूँ? यह सोच ही रहा था, एक भद्रपुरुष दिख गया लेकिन यह भी मोटे जीन्स का पैंट, मोजा-जूता और तो और हाथों में दस्ताने भी पहने हुए था। इस बार मच्छर से सहन नहीं हुआ! भद्र पुरूष ने जैसे ही पेशाब करना शुरू किया उसने हिम्मत कर के, उसी स्थान को लक्ष्य बनाकर काट ही लिया! मनुष्य को थोड़ी चुभन हुई लेकिन बिना कुछ समझे, चेन बन्द कर, खुजाता हुआ आगे बढ़ गया। इस तरह डेंगू मच्छर की प्यास बुझी। 

...@देवेन्द्र पाण्डेय।

डेंगू

भोला को डेंगू हुआ। ठीक भी हो गया लेकिन यह पता नहीं चला कि आखिर डेंगू का मच्छर था तो कहाँ था? दफ्तर में खोज हुई, घर में खोज हुई लेकिन कहीं भी डेंगू मच्छर के संकेत नहीं मिले। कुछ दिन बाद उसके साथ, एक ही कमरे में काम करने वाले सहकर्मी की पत्नी को भी डेंगू हो गया! अब साथियों के मन में नई शंका ने जन्म लिया। मच्छर उसके घर में था तो भोला को डेंगू क्यों हो गया!!! ☺️

2.11.22

लोहेकाघर-63

हम भंडारी स्टेशन के प्लेटफार्म क्रमांक 1 पर पीछे की तरफ एक बेंच में अकेले बैठकर दून की प्रतीक्षा कर रहे हैं। ट्रेन बांयी ओर से दायीं ओर जाएगी। फिलवक्त एक मालगाड़ी बाएं से दाएं जा रही है। मालगाड़ी में कोयला नहीं, चूना लदा प्रतीत हो रहा है क्योंकि इसके बाहर के डिब्बों में चूना लगा है। निश्चित तौर पर नहीं कह सकता कि मालगाड़ी के डिब्बों में चूना ही लदा है। हो सकता है यह किसी को चूना लगाकर भाग रही हो! अपने देश में मालगाड़ी व्यक्तिगत सम्पत्ति तो नहीं है, सरकारी है तो सरकार को ही चूना लगाकर भाग रही होगी, और किसी को चूना लगाना रेलवे के वश में नहीं है।


सामने प्लेटफॉर्म क्रमांक 2 और 3 के बीच भोले भंडारी का मन्दिर शांत है, कोई भीड़ नहीं दिख रही। मन्दिर के आगे-पीछे बरगद और पीपल का एक-एक घना वृक्ष है। शाम 8 बजे के आसपास यहाँ भक्त जुटते हैं और घण्टे-घड़ियाल के साथ भोलेनाथ की आरती भी करते हैं। यह वही समय है जब गोदिया के आने का समय होता है। जब ऑफिस में काम की वजह से देर हो जाती थी तो कई बार गोदिया से भी बनारस गए हैं। गोदिया शाम 10 बजे के आसपास बनारस पहुँचाती है, कभी-कभी तो रात के 12 भी बज जाते थे। कोरोना के बाद ट्रेन का सफर कम हो चुका है। मेरे भाग्य से दून के यात्रियों की किस्मत फूटी, लेट हुई तो शाम 5 और 6 के बीच मिल जाती है, वरना बनारस जाने/आने के लिए नियमित अपने समय पर मिलने वाली ट्रेन 49 अप/50डाउन बन्द हो चुकी है। अब बस का ही सहारा है। किसी की किस्मत जागती है तो उसी पल किसी की किस्मत फूट रही होती है। आज दून के यात्रियों की किस्मत फूटी है तो हमको मिलने की संभावना जगी है।


अब मेरी बगल में एक रोज के यात्री आकर बैठ चुके हैं और मुझे लिखने में बार-बार डिस्टर्ब कर रहे हैं। वही प्रश्न पूछ रहे हैं जिनके उत्तर उन्हें भी मालूम है। ऐसा अक्सर होता है। कोई आपको चाय पीते हुए देखता है तो झट से पूछने लगता है, "चाय पी रहे हैं?" आप नहाने जा रहे होते हैं तो कोई झट से पूछ बैठता है, "नहाने जा रहे हैं?" ऐसे ही खाना खाते समय...ऐसे ही मुझे मोबाइल में लिखता देख, मेरे मित्र मुझसे पूछ हैं, "लोहे का घर लिख रहे हैं?" इतने में रुक जाते तो गनीमत थी, पूछ रहे हैं, "क्या लिख रहे हैं?, बरगद/पीपल लिख रहे हैं?"


अभी दून खेतासराय में खड़ी है। भले इस स्टेशन का नाम 'भंडारी स्टेशन' हो, कब आएगी यह भोले भंडारी भी नहीं बता सकते। वही बताएगा जो घोषणा करता है, वह भी कब घोषणा करेगा, उसे भी नहीं पता। अब रोज के तीन यात्री और आ चुके हैं, अब यहाँ बैठकर लिखना संभव नहीं लग रहा। एक मालगाड़ी बाएं से दाएं जा रही है। मतलब अपनी दून को लेट करने में इसी का हाथ लगता है। मैने एक बार कितना सत्य लिखा था...हर लेट ट्रेन के आगे एक मालगाड़ी होती है! अब मालगाड़ी खड़ी हो गई है और दून के आने की घोषणा हो रही है। एक नाटा आदमी बड़े कान वाला बकरा लेकर अभी प्लेटफार्म पर आया है, आप भी देख लीजिए कितने बड़े-बड़े कान हैं। 😊ट्रेन आ गई अब चढ़ना पड़ेगा, अपने लिए शुभयात्रा बोलना पड़ेगा, जै भोले भंडारी की।

..@देवेन्द्र पाण्डेय।


27.10.22

सुबह की बातें(13)

अभी सूर्योदय नहीं हुआ है। भोर का अजोर है। धमेखस्तूप पार्क में दो चक्कर लगाने, घास में टहलने, व्यायाम करने और 10 मिनट ध्यान करने के बाद इतना उजाला हो चुका है कि फोटोग्राफी की जा सके। यहाँ नीम के कई घने वृक्ष हैं। इसे पार्क को आप नीम पार्क भी कह सकते हैं। कुछ वृक्ष के नीचे चारों ओर घेर का लकड़ी के खूबसूरत बेंच बना दिए गए हैं। यहाँ बैठकर घण्टों ध्यान कर सकते हैं, चिड़ियों की बोली सुन सकते हैं और मोर/मोरनियों को घूमते देख सकते हैं। किस्मत अच्छी है तो मोर के नृत्य भी देख सकते हैं। 

जहाँ हम खड़े हैं उसके उत्तर दिशा में धमेखस्तूप है और दक्षिण में वन विभाग की बाउंड्री वाल है। बाउंड्री के उस पार पर्याप्त संख्या में मृग/चीतल हैं। उजाला होने से पहले सियार भी खूब चीखते हैं। कुल मिलाकर यहाँ का वातावरण बिलकुल प्रदूषण मुक्त और शांत है। कुछ मिनट बैठ कर, पलकें बन्द कर, सिर्फ सुनते रहने में भी आनन्द है। 

https://youtu.be/acAjvbxWPZg 

6.10.22

दड़बा


एक दड़बा था जिसमें निर्धारित संख्या में कबूतर रोज आते/जाते थे। कबूतर न सफेद थे न काले, श्वेत से श्याम होने की प्रक्रिया में मानवीय रंग में पूरी तरह रंग चुके थे। कबूतरों के दड़बे में आने का समय तो निर्धारित था मगर जाने का कोई निश्चित समय नहीं था। दड़बे में रोज आना और अनिश्चित समय तक खुद को गुलाम बना लेना कबूतरों की मजबूरी थी।  उनको अपने और अपने बच्चों के लिए दाना-पानी यहीं से मिलता था। 


यूँ तो देश के कानून ने आने के साथ जाने का समय भी निर्धारित कर रखा था लेकिन जिस शहर के मकान में वह दड़बा था उस जिले में राजा ने कबूतरों को नियंत्रित करने और देश हित के कार्यों के लिए जिस बहेलिए की तैनाती कर रखी थी उसे देर शाम तक कबूतरों के पर कतरते रहने में बड़ा मजा आता था। इसका मानना था कि पर कतरना छोड़ दें तो बदमाश कबूतर हवा में उड़ कर बेअन्दाज हो जाएंगे!  


कबूतर भी जुल्म सहने के आदी हो चुके थे। बहेलिए जब किसी एक कबूतर को हांक लगाता, सभी हँसते हुए आपस में गुटर गूँ करते...'आज तो इसके पर इतने काटे जाएंगे कि फिर कभी उड़ने का नाम ही नहीं लेगा!' थोड़ी देर में पर कटा कबूतर तमतमाया, रुआंसा चेहरा लिए गधे की तरह रेंगते हुए  साथियों के बीच आता और मालिक को जी भर कर कोसता। यह साथी कबूतरों के लिए सबसे आनन्द के पल होते मगर परोक्ष में ऐसा प्रदर्शित करते कि उन्हें भी बेहद कष्ट है!


ऐसा नहीं कि बहेलिया सभी के प्रति आक्रामक था। दड़बे में झांकने वाले कौओं, गिलहरियों, लोमड़ियों, चूहे-बिल्लियों, भेड़ियों या शेर को देखकर गिरगिट की तरह रंग बदलने में माहिर था। किसी को डाँटता, किसी को पुचकारता और किसी किसी के आगे तो पूरा दड़बा ही खोल कर समर्पित हो जाता!


एक दिन उद्यान से भटक कर अपने घोसले को ढूँढता, उड़ता-उड़ता एक नया कबूतर दड़बे में आ फँसा! नए कबूतर को देख बहेलिए की बाँछें खिल गईं..'यह तो तगड़ा है! अधिक काम करेगा।' जैसा कि बहेलिए की आदत होती है वे अपने जाल में फँसे नए कबूतरों का तत्काल पर कतर कर खूब दाना चुगाते हैं ताकि वे नए दड़बे को पहचान लें और इसे ही अपना घर समझें। वह भी नए कबूतर पर मेहरबान हो गया। पुराने कबूतर का चारा भी नए कबूतर को मिलने लगा। साथी कबूतर शंका कि नजरों से गुटर गूँ करने लगे..'कहीं मेरा भी चारा यही न हड़प ले!'


नया कबूतर जवान तो न था लेकिन खूब हृष्ट-पुष्ट था।दड़बे में जिस स्थान को उसने बैठने के लिए चुना वह एक युवा कबूतर का ठिकाना था। संयोग से जब नया कबूतर उद्यान से उड़कर आया, वह एक लंबी उड़ान पर था। लम्बी उड़ान से लौट कर जब युवा कबूतर दड़बे में वापस आया  तो उसने अपने स्थान पर नए कबूतर को बैठा हुआ पाया! आते ही उसने नए पर गहरी चोंच मारी। बड़ा है तो क्या ? मेरे स्थान पर बैठेगा? झगड़ा बढ़ता इससे पहले ही साथियों ने बीच बचाव किया और मामला रफा-दफा हो गया। सब समझ चुके थे कि अब यह भी हमारी तरह रोज यहीं रहेगा। नया कबूतर, जो पहले दड़बे में आ कर खूब खुश था, जल्दी ही समझ गया कि मैं गलत जगह आ फँसा हूँ। यह तो एक कैद खाना है! बात-बात में बड़बड़ाता..कहाँ फँसायो राम! अब देश कैसे चलेगा!!!


बहेलिए ने कबूतरों की पल-पल की गतिविधियों की जानकारी के लिए एक #काका_कौआ पाल रखा था। काका कौआ भी मानवीय रंग-ढंग में रंगे कबूतरों के बीच रहते-रहते अपनी धवलता खो कर काला हो चुका था। यूँ तो वह दड़बे की देखभाल के लिए नियुक्त प्रधान सेवक था लेकिन अपने मालिक का आशीर्वाद पा कर हँसमुख और मेहनती होने के साथ-साथ बड़बोला भी हो चुका था। कभी-कभी उसकी बातें कबूतरों को जहर की तरह लगतीं। शायद यही कारण था कि जब काम लेना होता तो सभी कबूतर उसे #काका बुलाते और जब कोसना होता #कौआ कहते! उसका काम था मालिक के आदेश पर कबूतर को दड़बे से निकाल कर उन तक पहुंचाना। जब तक कबूतर ठुनकते, मुनकते हुए मालिक के कमरे तक स्वयं चलकर न पहुँच जाते वह लगातार चीखता-चिल्लाता रहता। न उठने पर हड़काता और मालिक से शिकायत करने की धमकी देता। मरता क्या न करता! काका कौआ को 'कौआ कहीं का!' कहते हुए कबूतर दड़बे से निकल कर मालिक के दड़बे तक जाते। काका कौआ उन्हें हँसते हुए जाते देखता और पीछे से कोई तंज कसते हुए खिलखिलाने लगता। मालिक ने पर नहीं कतरे, सिर्फ धमकी दे कर छोड़ दिया तो वह उड़कर काका को ढूंगता हुआ वापस दड़बे में घुस कर, साथियों के ताल से ताल मिलाकर गुटर गूँ करने लगता।


जैसे सरकारी सेवा में काम करने की एक निश्चित उम्र हुआ करती है वैसे ही यहाँ के कबूतर भी एक उम्र के बाद मुक्त कर दिए जाते थे। उस दिन एक बूढ़े हो चले कबूतर की विदाई थी। साथियों ने धूमधाम से विदाई समारोह मनाया।  विदाई के समय बहेलिए ने भी उसकी लंबी सेवा की सराहना तो खूब करी लेकिन उसके जाने के बाद उसकी गलतियों के दंड स्वरूप उसके द्वारा सेवा काल में बचाए अन्न की गठरी का कुछ भाग जब्त कर लिया और दूसरे कबूतरों से उसके घर खबर भिजवा कर आतंकित करता रहा कि क्यों न तुम्हारे अपराधों के लिए तुम्हें एक काली कोठरी में बंद कर दिया जाय? यह सब देख दड़बे के कबूतर दिन-दिन और भी भयाक्रांत रहने लगे।


सुबह से दड़बे में गुटर-गूँ, गुटर गूँ का स्वर मुखर है। आज सभी कबूतर बहुत खुश हैं। दशहरे की लम्बी छुट्टी हो रही है। सभी को छुट्टी से पहले दाने की मोटी गठरी मिलने वाली है। उद्यान वाले ने तो छुट्टियों में परिवार सहित लम्बी उड़ान पर जाने का निश्चय कर लिया है। दूसरा कबूतर भी दूसरे राज्य में अपने पुराने मित्रों से मिलने जा रहा है। अधिकांश का कहना है हम तो त्योहार अपनी कबूतरी और बच्चों के साथ मनाएंगे। सभी के अपने-अपने हौसले, अपने-अपने सपने हैं। आजादी कितनी प्यारी होती है! 

(काल्पनिक कथा)

4.10.22

सुबह की बातें-12

पत्ते झरते हैं तो शोर नहीं होता। पत्ते उगते हैं तो शोर नहीं होता। हम चीख कर रोते हुए जन्म लेते हैं। गूंगे पैदा हुए तो भी दूसरे शोर करते हैं..लड़का हुआ है/लड़की हुई है! मरते हैं तो भी शोर होता है..राम नाम सत्य है। नहीं, मुर्दे को नहीं सुनाते। चुपचाप खुद स्वीकार भी नहीं करते, राह चलते दूसरों को सुनाते हैं..जगत मिथ्या है, राम नाम ही सत्य है! कितने तो ढोल, नगाड़े बजा कर निकालते हैं शव यात्रा। मसान से लौटने के बाद राम नहीं सिर्फ काम ही काम। हमारे जन्म से लेकर मृत्यु तक एक कोलाहल है। पत्ते खामोशी से उगते, जीवन भर हँसते और एक दिन चुपचाप झर जाते हैं। हम शांतिदूत की तरह पत्ते कोई शोर नहीं करते।  



सुबह की बातें-11

सुबह के 6 बज चुके हैं। जैन मंदिर सारनाथ के पुजारी आ चुके हैं। मन्दिर का गेट खोलने के बाद इनका पहला काम परिंदों को दाना देना है। इनके पास बिस्कुट भी होता है। गेट खोलते समय कुछ कुत्ते दिख गए तो उन्हें प्यार से बिस्कुट भी खिलाते हैं। धमेख स्तूप पर बैठे कबूतरों को इन्ही की प्रतीक्षा होती है। जैसे ही पुजारी दाने बिखेरते हैं, कबूतर उड़-उड़ कर आने लगते हैं। जैसा कि होता है, जब सरकार निर्धनों को अन्न बांटती है, कुछ सबल भी दान लूटने आ जाते हैं। वैसे ही जब पुजारी पंछियों के लिए दाने बिखेरते हैं, दाना चुगने कुछ कौए भी आ जाते हैं! अधिक शोर भी यही करते हैं। कुछ गिलहरियां भी आ जाती हैं। हम ट्वीटर पर ट्वीट करते हैं, ये परिंदे यहाँ खूब चहकते हैं।



सुबह की बातें-10

सुबह-सुबह घने नीम के वृक्षों से धमेख स्तूप तक अनवरत उड़ते रहने वाले तोते सन्डे नहीं मनाते। कोई ऑफिस नहीं, कोई छुट्टी नहीं। ये जब स्तूप से उड़कर वापस नीम की शाखों पर बैठते हैं तो कुछ कौए काँव-काँव करने लगते हैं। ऐसा लगता है जैसे नास्तिक पितृपक्ष में ब्राह्मणों के भोजन का उपहास उड़ा रहे हों! तोते भी टांय-टांय कर प्रतिरोध करते हैं। 


धूप तेज हो चली है। घने नीम से अनवरत एक-एक कर पीले पत्ते झर रहे हैं। कोयल के साथ पेड़की ने खूब समा बांधा है।  ये क्या कहते हैं, कुछ समझ में नहीं आता।  गिलहरियों का फुदकना बदस्तूर जारी है। लॉन में कई प्रकार के पौधे हैं मगर कोई आपस में नहीं झगड़ते। कोमल लताएँ सूखे वृक्ष के सहारे ऊपर तक चढ़ जाती हैं। कोई किसी की टांग नहीं खींचता। 


झाडू लगाने वाला आ चुका है। उसने झाड़ू से पत्तों को एक स्थान पर इकट्ठा कर लिया है, जिस पर सूर्य की स्वर्णिम किरणें पड़ रही हैं। ऐसा लगता है जैसे झाड़ू वाले ने झाड़ू लगाकर कुछ सोना इकठ्ठा कर लिया है! अब चलना चाहिए। आज की सुबह रोज की तरह आनंद दायक रही।



30.8.22

साइकिल की सवारी 2

भोर में साइकिल लेकर बाहर घूमने के लिए निकले तो ध्यान था कि आज सन्डे है, रोज तो सारनाथ घूमते ही हैं, दूर चला जाय। बाहर अँधेरा था, आकाश में बादल घिरे थे, रेन कोट का ऊपर का हिस्सा पीछे साइकिल के कैरियर में यह सोचकर दबा दिया कि बारिश हुई तो काम आएगा। 


अकेले घूमने का यही आनन्द है, जो मर्जी करो, जहाँ दिल करे जाओ, कोई रोकने वाला नहीं। हम सारनाथ से आशापुर, पँचकोशी चौराहे से बाएँ मुड़कर सलारपुर वाली क्रासिंग पार किए ही थे कि बारिश शुरू हो गई। साइकिल रोककर रेन कोट के ऊपर वाला हिस्सा पहने और नीचे पहले से हाफ बरमूडा पहन कर चले ही थे, भीगने की चिंता तो थी नहीं। हाँ, मोबाइल भीगने की चिंता थी, उसे रुमाल से लपेट कर रख लिए, जो होगा, देखा जाएगा। 


बारिश में सायकिल चलाने का आनन्द ही और है लेकिन रेन कोट में मजा नहीं आ रहा था। बारिश से ज्यादा तो पसीने से भीग चुके थे। आगे आदिकेशव घाट से पहले जहाँ वरुणा, गंगा से मिलती हैं, साइकिल/मोटर सायकिल जाने लायक चार लेन का पक्का पुल बना है। यहीं से बसंत कॉलेज( महिला महाविद्यालय) जाने का रास्ता शुरू होता है। यह सड़क कृष्ण मूर्ति फाउंडेशन की निजी जमीन पर बना है शायद इसीलिए यहाँ प्रबंध संस्थान ने चार पहिया जाने लायक पुल निर्माण की अनुमति नहीं दी। अच्छा ही हुआ, इससे इस मार्ग का वातावरण आज भी भीड़ भाड़ से दूर शांत, रमणीक है। सड़क के दोनों तरफ हरियाली है और कैंपस बने हुए हैं।


मन नहीं माना तो रेनकोट उतार कर फिर पीछे कैरियर से दबा दिए और बारिश में भींगते हुए/ साइकिल चलाते हुए खिड़किया घाट पहुँचे। यहाँ का नजारा अलग था। पार्किंग की जगह भी बंद कर दी गई थी। गंगा में आई बाढ़ के कारण घूमने के सभी रास्ते बंद थे। राजघाट पुल के ठीक नीचे, एक स्थान पर छांव में लोग रुककर बारिश और बाढ़ के पानी का आनन्द ले रहे थे। हमने भी सायकिल वहीं किनारे खड़ी करी और रुककर नजारे लेने लगे। 


ध्यान आया, गेट पर खड़े चौकीदार नीचे जाने से मना कर रहे हैं, वहीं एक किनारे गोवर्धनदास (श्री कृष्ण जी ) का मंदिर भी है। भारत में मंदिर जाने से तो कोई मना कर नहीं सकता। सीधे गेट पर गया और बोला, "मन्दिर जाना है।" द्वारपाल ने तुरत गेट खोल दिया और बोला, "जाइए, मन्दिर जाने की मनाही नहीं है लेकिन गंगा घाट की ओर मत जाइएगा, नदी में बाढ़ है।" मैं मन्दिर पहुँचा तो देखा वहाँ अच्छी खासी संख्या में लोग जमा हैं। खुले हॉल में योग की कक्षा चल रही है। पुरुष/महिला दोनो जमा हैं। तब समझ में आया केवल मैं ही बहादुर नहीं हूँ,  ध्यान/योग के शौकीन काशी में बहुत हैं।


थोड़ी देर बैठने, योग का नजारा लेने, दर्शन करने के बाद मैं अपने असली उद्देश्य में लग गया। गंगा में आई बाढ़ की तस्वीरें खींचने लगा। घाट बचे ही नहीं थे तो जाता कैसे? सब पानी में डूब चुके थे। खिड़किया घाट पर लगा नमो नमः का स्कल्पचर भी डूब चुका था, केवल कलाई से जुड़े तीन हाथ दिख रहे थे। फोटो खींच कर लौट आया। 


बारिश में साइकिल लेकर चढ़ाई चढ़ने लगा तो याद आया, आते समय क्या मौज से साइकिल पर बैठकर फर्राटे से लुढ़कते हुए नीचे उतरा था! वही राह, वही दूरी लेकिन चढ़ते समय हँफरी छूट गई, उतरते समय कितना मजा आ रहा था!!! ज्ञान हुआ, जीवन के एक ही मार्ग पर, एक समान रास्ते पर चलते हुए भी कभी ढलान/ कभी चढ़ाई मिलती है। हम ढलान पर बहुत खुश और चढ़ाई देख बहुत दुखी हो जाते हैं, जबकी एक के बाद दूसरे से सामना होना ही है। सारनाथ से राजघाट तक लगभग 20  किमी जाते/जाते जितनी चढ़ाई मिली होगी, ठीक उतनी ही ढाल मिली होगी। न एक इंच कम न एक इंच ज्यादा लेकिन ढलान पर लुढ़कते समय पता नहीं चला, चढ़ाई भारी लगने लगी। यही होता है, सुख के पल बीत जाते हैं, पता नहीं चलता। दुःख के पल काटने भारी पड़ जाते हैं। सभी आदमी साइकिल चलाए तो यह ज्ञान हो जाय, जीवन जीना कितना आसान है!


बसन्त महाविद्यालय से निकलते समय अमृत कुंड वाला कुँआ भी मिला लेकिन बारिश के कारण न कोई वहाँ था न पानी पीने की इच्छा ही थी। हम सायकिल चलाते हुए लौट चले। आदिकेशव घाट पर विष्णुजी की बहुत सुंदर प्रतिमा और बढ़िया मन्दिर है। घूमने का मोह छोड़ नहीं पाया। बारिश का आनन्द लेते हुए फोटो भी खींचा और दर्शन भी किया। वहीं  एक आदमी घाट पर प्रेम से गोता लगा रहा था। पूछने पर अपना नाम झींगुर बताया। यह रोज इसी घाट पर नहाने आता है। नदी में बाढ़ आने या बारिश होने का उसपर कोई प्रभाव नहीं था।


यहाँ से पुल पार कर आगे लौट चले तो सराय मोहाना, कोटवा के बाद पड़ने वाली पुलिया का खयाल आया। अब बारिश बहुत कम हो चुकी थी। हलकी बूंदाबांदी हो रही थी। सोचा, वहीं आराम करेंगे, शिवराम मिलेंगे। पुलिया पर पहुंचा तो वहाँ कोई न था। कुछ देर अकेले बैठा तो सोचा, शायद बारिश के कारण आज शिवराम नहीं आये। उनसे कहा तो था कि अगले अतवार को मिलेंगे! फिर सोचा, वो कोई सरकारी नौकर थोड़ी हैं, उनके लिए कैसा इतवार और सोमवार। जिस दिन मौसम खराब उस दिन छुट्टी, जिस दिन आकाश साफ, चले मजूरी पर। अब शिवराम ही नहीं मिले तो आगे क्या लिखें, जय राम जी की।

....@देवेन्द्र पाण्डेय।

(चित्र चित्रों का आनंद में है।

http://mereephotoo.blogspot.com/2022/08/blog-post_28.html?m=1 ) 

http://mereephotoo.blogspot.com/2022/08/blog-post_24.html?m=0

1.8.22

लोहे का घर 62

लोहे के घर में अकेले बैठे हों तो कुछ लिखने के लिए मोबाइल पर उँगलियाँ चलने लगती है। लिखने के लिए बड़ा अनुकूल माहौल है। लखनऊ-बनारस शटल एक्सप्रेस की ए.सी. चेयर कार वाली बोगी में 2 नम्बर की बर्थ है। सो नहीं सकते, बैठना मजबूरी है। बैठकर करेंगे क्या? सामने बंद दरवाजे के सिवा कुछ नहीं। अपनी विंडो सीट है, शाम के 6.30 बजने वाले हैं, बाहर अभी उजाला है, बाहर झाँक सकते हैं। अच्छी भली समय से प्लेटफार्म पर लगी ट्रेन को 15 मिनट लेट चलाया मालिक ने! कोई मजबूरी होगी। अभी कबाड़ इलाके से रेंग कर आगे बढ़ रही है, रफ्तार पकड़ेगी तब बाहर झाँकने लायक दृश्य दिखेंगे। 


बगल में 3 नम्बर वाली एक बर्थ पर एक युवा बैठा था, तभी एक प्रौढ़ दम्पती हिलते हुए आकर अनुरोध करने लगे, "वहाँ बैठ जाते तो हम लोग साथ बैठ जाते? हमारी एक सीट, 4 नम्बर यहाँ, एक वहाँ मिल गई है" युवक शरीफ निकला, झट से अपना झोला उठाकर यहाँ से वहाँ हो गया!" शरीफ लोगों से बहुत अनुरोध नहीं करना पड़ता, वे झट से झोला उठाकर चल देते हैं। इसके लिए आपके अनुरोध में दम होना चाहिए। यह नहीं कि शरारतन अगले से कहें,"झोला उठाओ, चले जाओ!" अगला कहेगा,"नहीं जाएँगे, अभी और तुम्हारी छाती पर और मूंग दलेंगे, क्या कर लोगे?"


मेरे पीछे 5,6 नम्बर वाली बर्थ का भी यही आलम था, एक जोड़े की सीट आगे-पीछे हो गई थी। यहाँ भी 'सिंगल' अपना झोला उठाकर चला गया। सिंगल' के साथ अक्सर लफड़ा हो जाता है, जोड़े रंग जमा कर, सार्वजनिक सीट से ऐसे ही उठा देते हैं। भले अपने घर में घुसने के बाद ये जोड़े एक दूसरे का मुँह देखना पसंद न करते हों लेकिन सामाजिक मर्यादा है, क्या किया जाय? कैसे अपनी बीबी को दूसरे युवा के साथ बैठने दिया जाय? मर्यादा भी तो निभानी है! मुझे तो लगता है, आजकल लोग मन से न चाहते हुए भी, मर्यादा पुरुष बने घूमते हैं! 


मैं भी यहाँ सिंगल हूँ लेकिन मेरे साथ यह लफड़ा नहीं हुआ। एक नम्बर सीट पर एक नौजवान आया और अपना झोला रखकर चला गया! ट्रेन चल दी, नहीं आया!!! मैं घबड़ाने लगा, झोला रखकर कहाँ गायब हुआ? कहीं झोले में कुछ गड़बड़ समान तो नहीं! तभी वही युवक काले पैंट-कोट में चार्ट लेकर सामने आ गया,"आपका नाम?" ओह! तो यह टी टी है!!! भगवान कितना दयालु है! इस ट्रेन में, एक नम्बर की बर्थ टी टी की होती है, यह आज पता चला।


बाहर का दृश्य बहुत सुहाना है। हरी भरी धरती, कहीं खेत चरते चौपाए, कहीं भरे पानी मे डूबे धान, बरश चुके बादलों से खाली हुआ साफ आसमान, हरे/घने पेड़, छा रहा अँधेरा, जा रहा उजाला और घास का भारी गठ्ठर सर पर लादे, मेड़-मेड़ जा रही, भउजाई!


अब बाहर अँधेरा अधिक हो चुका है। शीशे से बाहर झाँको तो अपनी ही परछाई दिख रही है! बोगी में भीतर उजाला हो चुका है। सभी लाइट जल चुकी है। यही होता है। जब भीतर रोशनी होती है तो बाहर देखना भी चाहो, दर्पण की तरह अपना चेहरा ही दिखने लगता है! पता नहीं, अपने भीतर कब दीपक जलेगा? और जान पाएंगे, 'कौन हैं हम?' कब खतम होगा, मैं?"

...............

19.7.22

साइकिल की सवारी 1

दुर्घटना के बाद मोटरसाइकिल चलाने पर प्रतिबंध ही नहीं लगा मेरी मोटरसाइकिल श्रीमती जी द्वारा बेच भी दी गई। मैं दुखी होकर मोटरसाइकिल को जाते हुए देखता रह गया। अब घर से 5 किमी के दायरे में जाने के लिए भी 'पैदल' हो गया। कुछ ही विकल्प थे..पैदल चलो, कार के लिए ड्राइवर बुलाओ या रिजर्व गाड़ी बुलाओ। 3,4 किमी के लिए यह महंगा सौदा था। तभी तय किया कि सायकिल खरीदी जाय। दूर भीड़ वाली सड़क पर न ले जाने के आश्वासन के साथ मुश्किल से साइकिल खरीदने की अनुमति मिली और मैं रोज एक महीने से भोर में सायकिल लेकर निकलने लगा। 


घर से सारनाथ पार्क लगभग 3 किमी की दूरी पर है। भोर में 5 बजे सायकिल लेकर पार्क में जाना, सायकिल खड़ी कर एक घण्टे पार्क में घूमना, साइकिल लेकर चाय पीते, फल/दही खरीदते हुए, आराम-आराम से वापस आना, नहाकर नाश्ते के बाद 7.30 तक ऑफिस जाने के लिए घर छोड़ देना, 1.30 घण्टे बस के सफर में फेसबुक चलाना, 9.30तक ऑफिस पहुँच जाना, दिनचर्या बन गई। 


सन्डे(छुट्टी के दिन) दिनचर्या बदल जाती है। जिस दिन ऑफिस नहीं जाना होता, मन बहक जाता है। आज सन्डे था, सायकिल पर बैठते ही मन उड़ने लगा। लगभग 1 घण्टे, गांव के रास्ते साइकिल चलाकर पहुँच गया खिड़किया_घाट। खिड़किया घाट अब नमो_घाट के रूप में विकसित, बनारस के बेहतरीन घाटों में से एक, भव्य घाट बन चुका है। सड़क मार्ग, जल मार्ग और रेलमार्ग से जुड़ा यह घाट बनारस का सबसे खूबसूरत घाट है। इस घाट के बगल में खूबसूरत पर्यटन स्थल हैं। राजघाट के पुल के अलावा सन्त रविदास का भव्य मंदिर है, लाल खान का मकबरा है, वरुणा और गंगा का संगम तट, आदिकेशव घाट है और काशी हिंदू विश्वविद्यालय से सम्बद्ध बसन्त कॉलेज है। बसंत कॉलेज से आदिकेशव घाट जाने का, हराभरा रमणीक मार्ग है और मार्ग में मिलता है एक जिंदा कुँआ जिसका पानी आज भी बहुत मीठा है।


सारनाथ से आदिकेशव घाट, बसन्त कॉलेज होते हुए राजघाट जाने के मार्ग में और भी बहुत कुछ है।  पँचकोशी परिक्रमा के भीतर स्थित कपिलधारा है, सूर्यदेव_का_मंदिर है, सुंदर तालाब, हनुमानजी, शनि देव और शंकर जी का मंदिर है जिनके चित्र मैं अपने पेज चित्रों का आनंद  में दिखाता रहता हूँ। मार्ग में एक श्मशान घाट और निषाद राज का द्वार भी मिलता है।

 

आज बसन्त कॉलेज के कुएँ (#अमृत_कुण्ड) का पानी पीकर लौटते समय एक पुलिया दिखी। पुलिया में 4 स्थानीय ग्रामीण बैठे हुए हवा खा रहे थे और गप्पें लड़ा रहे थे। उन चारों में नेपाली टोपी पहने बहादुर भी दिखे जो बायीं हथेली पर रखी सुर्ती दाएं हाथ के अंगूठे से रगड़ रहे थे। हम भी थके थे तो वहीं साइकिल खड़ी कर उनसे गप्पें लड़ाने लगे। उन्होंने तीन गांव का नाम लिया और हाथ के इशारे से बताया यह गांव इधर, वह  गाँव उधर और हम जहाँ बैठे हैं, उस गाँव का नाम यह है। गाँव के नाम में क्या रख्खा है, हम भूल गए और याद कर लिख भी दें तो आप कौन सा ज्ञान में वृद्धि कर लेंगे! 


पुलिया में बैठकर, ग्रामीणों से बात कर, बहुत आनन्द आया। मुझे पुलिया वाले श्रीमान कानपुर के अनूप शुक्ल  जी की बहुत याद आई फिर याद आया, वे तो अभी अकेले कश्मीर घूम रहे हैं! अपने दौड़ गुरु श्रीमान Satish Saxena  जी की भी याद आई जो अभी जर्मनी में श्रीमान Raj Bhatia  जी के गाँव में घूम रहे हैं। हम पुलिया पर बैठकर यही सब सोच रहे थे कि नेपाली बहादुर ने खैनी मेरी ओर बढ़ाते हुए पूछा, आप भी लेंगे? दूसरा समय होता तो खुशी-खुशी झट से ले लेता मगर इनकार करते हुए बहादुर को धन्यवाद दिया। ग्रामीणों ने सुर्ती न खाने के लिए जब मेरी बहुत प्रशंसा करी और अपनी आलोचना करी कि सुर्ती खाना गलत बात है लेकिन आदत पड़ गई, क्या करें! तो मुझे अपने न्यूरो डॉक्टर पर बहुत गुस्सा आया जिसने मुझे दवाई चलने तक नशा करने से मना किया हुआ है।


बहुत देर बैठने, गप्पें लड़ाने के बाद जब धूप तेज होने लगी तो मैं पुलिया से उतरा और सबसे विदा लेकर घर की ओर चल दिया। रास्ते भर सोचता रहा, काशी सिर्फ अस्सी घाट, संकटमोचन, BHU, गोदौलिया, बाबा विश्वनाथ जी का दरबार या गलियों की चाय-पान की अड़ी ही नहीं है, काशी में बहुत कुछ है जिसे काशीवासी भी एक जीवन मे पूरा नहीं देख पाते।

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28.6.22

सायली छन्द

(1)

चिड़िया

पानी पीने

मेरे आँगन आई

भरे प्याले

चहचहाई।

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(2)

भूखी

रोटी पकाई

बेटा घर आया

खाना खाया

तृप्त।

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(3)

पतंग

पेंचा लड़ा

लड़के लूटने दौड़े

डोर बंधी

उड़ी।

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(4)

ट्रांसफर

विदाई/स्वागत

पुराने वाले मित्र

नए अभी

अधिकारी!

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(5)

सूरज

कपारे पर

धूप दुआरे पर

बरसे आग

सबेरे।

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(6)

दिल 

आँच चढ़ा

मोम पिघल जाता

खिलौना बना

माटी।

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(7)

उजली

दूध धुली

चाँद परी ख्वाहिशें

छाँव जली

जिंदगी।

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(8)

इंद्रदेव

बिगड़ा बजट

एक गाँव झमाझम

एक गाँव

सूखा।

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29.5.22

आधी रोटी चोर!

बनारस की एक गली में चीखते-चिल्लाते लड़कों का एक झुण्ड करीब आ रहा था। आगे-आगे एक विक्षिप्त बुढ़िया भागे जा रही थी। लड़के पास आते तो वह जमीन से उठाकर झुण्ड की ओर एक पत्थर फेंकती, लड़के बचते हुए जोर से चीखते...आधी रोटी चोर!!! 
गली से गुजर रहा कोई आदमी लड़कों को डांट कर भगाता, "क्यों परेशान कर हो?" लड़के इधर-उधर गली में बिखर जाते। बुढ़िया संभलती, आदमी को हाथ जोड़ती (शायद शुक्रिया अदा करने का उसका यही अंदाज हो), वहीं एक चबूतरे में थक कर बैठ जाती। पोटली से रोटी निकालकर खाती। ऐसा महीने में कई बार होता! 
एक दिन मैने एक सरदार से पूछ ही लिया, "कौन है यह?"
सरदार बोला, "पागल है, इसका कोई नहीं है। वर्षों पहले गंगा घाट में कहीं से आ गई थी। जब आई थी, जवान थी। पूछने पर कुछ नहीं बता पायी। गली/घाट में कहीं पड़ी रहती। घरों में बरतन साफकर कर अपना गुजारा करती। एक बार गर्भवती हुई! लोगों ने इसको खूब गालियाँ दी। बुरा/भला सब कहा। कोई इसे घर में बुलाने को तैयार नहीं हुआ। गोद में एक बच्चा भी आ गया लेकिन टिका नहीं। बच्चा मर गया तब इसका मानसिक संतुलन और भी बिगड़ गया। लड़के यह सब नहीं जानते, इसको परेशान करने में उनको मजा मिलता है। समय बीतता गया, ऐसे ही मांगते-खाते बूढ़ी हो गई। आप परेशान मत होइए, ऐसे ही मर जाएगी एक दिन।
मैं दुखी होकर घाट की सीढ़ियाँ उतरने लगा। तट पर घण्टों बैठा माँ गंगा से एक प्रश्न पूछता रहा..परेशान होने के लिए इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है? ऐसा लगा जैसे माँ मुझ पर ही हँस रही हों! कह रही हों,"तुम जानो, तुम्हारा समाज जाने, मुझे  क्यों माँ कहते हो? लड़की की यह हालत क्यों है? इसका उत्तर तो तुम्हें ही देना होगा।
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25.5.22

साधू

एक बार यमराज को कुम्भ मेले में त्रिवेणी दर्शन का मोह जगा। प्रयागराज में गंगा नदी के तट पर एक कुटिया बनाकर रहने लगे। बगल की कुटिया में एक स्वनामधन्य, पहुँचे हुए साधू रहते थे। एक दिन स्नान करते वक्त यमराज जी से पूछ बैठे...

क्या नाम?

यमराज!

साधू नाराज हो गए, क्रोध से बोले, "मूर्ख! मुझसे मजाक करता है!!!" यमराज जी ने विनम्रता पूर्वक कहा, "नहीं महाराज, मजाक क्यों करूँगा? मैं यमराज हूँ, कुम्भ में गंगा स्नान की इच्छा हुई तो साधूभेष बनाकर चला आया।" साधू और भी नाराज, "यमराज हो तो अपना असली रूप दिखाओ।"

'नहीं महाराज। असलीरूप तो तभी दिखाऊंगा जब आपको ले जाना होगा। प्रतीक्षा कीजिए, अभी आपका समय नहीं आया है, समय आने पर देख लीजिएगा।'

अब साधू को चैन कहाँ! परोक्ष में एक ही शब्द जोर से बोले,'मूर्ख!' और चुप लगाकर चले गए लेकिन भीतर तक क्रोध से काँप गए।

उन्हें यकीन ही नहीं था कि यमराज ऐसा भी हो सकता है। अपने चेलों को भेजकर तरह-तरह से यमराज को परेशान करने लगे। इधर यमराज का मन धार्मिकता में पूरी तरह से डूबा हुआ था। गमछा गायब हो जाए, मेहनत से बनाया खाना गायब हो जाय, आँख खुलने पर कुटिया गन्दगी से भरी पड़ी हो, कोई फर्क नहीं। कुटिया की सफाई करते, स्नान करते, ध्यान लगाते और खाना न मिलने पर भूखे ही सो जाते। 

उधर साधू ने समझा कि अब तो बुद्धि सही हो गई होगी, एक दिन फिर पूछा, "क्या नाम है तुम्हारा, अब तो अपना असली नाम बता दो?
सुनकर यमराज मुस्कुरा दिए, "जब हम तुमको लेने आएंगे तभी याद होगा कि हम कौन हैं, उससे पहले न स्मरण रहेगा न विश्वास होगा। जो दिन बचे हैं, अनासक्त हो, प्रभु भजन में बिताओ। मुझे तो तुम भी साधू भेषधारी सांसारिक प्राणी लगते हो।"

अब साधू गुस्से से पागल हो गया। इसी पागलपन में भाँग के साथ ढेर सारा धतूरा पीसकर निगल गया। ऐसा बीमार पड़ा कि चेलों ने बहुत इलाज करवाया लेकिन डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए। मृत्यु निकट आई तो उसे लेने यमराज द्वार पर आए। यमराज को देखकर साधू के चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान खिल गई, कांपते हुए अपने चेलों से कहने लगा," देखो!यमराज ऐसा होता है, वह दुष्ट कह रहा था, हम यमराज हैं। जाओ! बगल की कुटिया से उसे पकड़ कर ले आओ।" यमराज से बोला, "महाराज! मैं चलने को तैयार हूं लेकिन उसे भी साथ ले चलिए।" 

चेलों ने बगल की कुटिया छान मारी, अपने को यमराज कहने वाले साधू का कहीं पता नहीं था। खाली हाथ लौटकर बोले," महाराज! वहाँ तो कोई नहीं है!!! इतने में यमराज हँसकर बोले, 'मैं यहाँ हूँ महाराज, आपके कारण मुझे साधू भेष का त्याग करना पड़ा और कुंभ का आनन्द भी नहीं ले पाया। चलिए, चला जाय। सुना था, आप त्रिकालदर्शी हैं, इसीलिए आप से झूठ नहीं बोल पाया।" 

सुनते ही साधू के प्राण निकल गए, यमराज भी कुटिया से गायब हो गया, चेलों को कुछ भी समझ में नहीं आया। न उन्होंने यमराज को देखा न यमराज से हुई अपने 'साधू महाराज' की बात सुनी। उन्हें बस यह लगा कि हमारे 'महाराज' के मरने में, बगल वाले कुटिया में रहने वाले 'साधू' का कोई हाथ है। 
....@देवेन्द्र पाण्डेय।

19.5.22

घड़ा

पीपल के पेड़ पर माटी के कलश लटके होते हैं। माना जाता है कि मरने के बाद आदमी 12 दिनों तक प्रेत योनि में भटकता है, तेरहवें दिन श्राद्ध हो जाने के बाद वह पितरों की श्रेणी में शामिल हो जाता है। 12 दिनों तक मृत आत्माओं को पानी देने के लिए माटी के कलश, पीपल के शाखों पर बांध देते हैं और मृतात्मा के लिए पुत्र/वारिश रोज सुबह/शाम घट में जल भरता रहता है। 


हम काशी की गलियों में बसे एक मोहल्ले ब्रह्माघाट में रहते थे। घाट से गंगा की सीढ़ियाँ उतरते समय बायीं तरफ आज भी पीपल का एक विशाल वृक्ष है जिसमें माटी के घट लटके होते हैं। हम लड़के, किशोरावस्था में घाट की सीढ़ियाँ चढ़ते/उतरते बड़े ध्यान से इन घटों को देखते रहते थे। कोई कहता,"पीपल का पेड़ है, इसमें भूत रहते हैं।" हम शुरू से ही भूत/प्रेत पर विश्वास नहीं करते थे तो इन तर्कों को शुरू से खारिज कर देते थे। बात ही बात में किसी ने बाजी लगा दी,"रात को 12 बजे यहाँ आकर दिखाओ तो माने कि भूत नहीं होते!" हम कहाँ हारने वाले थे! उत्साह में बोल दिए,"आएंगे क्या, एक घट भी उतार लाएँगे, तुम लोगों को विश्वास हो जाय कि हम आए थे। तुम लोग दूर चबूतरे पर बैठे रहना।" 


वो किशोरावस्था की शैतानियों के दिन थे। बात आई/गई हो गई लेकिन जब भी मित्रों को मौका मिलता, चिढ़ाने से नहीं चूकते,"पाण्डेय! घण्टा कब उतारोगे?" हम सुनकर कट के रह जाते और मौके की तलाश करते। एक दिन मौका मिल ही गया।


गलियों में 'नूतन बालक समिति' की ओर से 'गणेश विद्या मंदिर' स्कूल (जो ब्रह्माघाट से थोड़ी दूर घासी टोला मुहल्ले में स्थित था) और मोहल्ले के ही एक विशाल भवन जो 'आंग्रे का बाड़ा'  के नाम से प्रसिद्ध था, में धूमधाम से गणेश जी की प्रतिमा स्थापित होती और कई दिनों तक भांति-भांति के सांस्कृतिक समारोह आयोजित होते थे। इन्ही समारोहों में एक दिन बड़े पर्दे पर फिल्म भी दिखाई जाती। हम किशोर, भले दूसरे आयोजनों में न जांय, फिल्म देखने जरूर जाते।  


उस दिन आंग्रे के बाड़े में शाम को एक फ़िल्म दिखलाई जाने वाली थी। उन दिनों जब टीवी नहीं थी, हम किशोरों के लिए यह एक बहुत बड़ा आयोजन था। वह कौन सी फ़िल्म थी, याद नहीं लेकिन फ़िल्म थी, यही बहुत था। सभी मित्र फिल्म देखने के लिए जमा हुए थे और घरों से भी गणेशजी के नाम पर समारोह में जाने की पूरी छूट थी। 


फिल्म रात 12 बजे के आसपास समाप्त हुई और हम शोर करते हुए घर जाने के लिए बाहर चबूतरे पर जमा हुए। तभी मैने मौका ताड़ा और घोषणा कर दी, "हम पीपल के पेड़ से घण्ट उतारने जा रहे हैं, तुम लोग यहीं बैठो, 5 मिनट में आ रहे हैं।" सभी मित्र अवाक हो, मेरा चेहरा देखने लगे! और चीखने लगे,"पागल हो गए हो क्या? पीपल के पेड़ पर भूत रहते हैं।" मैने हँसते हुए कहा, "कोई भूत नहीं रहता, चिंता मत करो, अभी आ रहे हैं।"


हम दौड़ते हुए घाट की सीढ़ियाँ उतर गए। पीपल के पेंड़ के पास पहुँचकर, ठिठक कर खड़े हो गए। घट तो बहुत ऊँचाई पर हैं, कैसे उतारें? सोचते-सोचते कोई उपाय नजर नहीं आया। घट वाकई मेरी ऊँचाई से बहुत ऊपर थे! आस पास कोई नहीं था, जो मदद करे। कोई होता भी तो ऐसे कामों में क्यों मदद करता? मारकर भगा देता। तभी नीचे जड़ों के पास एक खाली घड़ा दिखाई दिया! मुझे मन माँगी मुराद मिल गई। घड़ा उठाया और भाग कर सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। चबूतरे के पास पहुँचे तो यह क्या! मेरे सभी मित्र कहाँ गए? मैं घड़ा वहीं चबूतरे पर रखकर आवाज जोर-जोर से आवाजें लगाने लगा, "कहाँ हो? देखो! घड़ा ले आए। कोई है?" हारकर वहीं चबूतरे पर बैठ गए। सोचने लगे, "सभी डरपोक हैं, चलो!  घड़ा घर ले चलते हैं, कल दिखाएंगे।" घड़ा उठाने के लिए ज्यों ही मुड़े, वहाँ कोई घड़ा नहीं था! डर के मारे मेरी घिघ्घी बंध गई। अरे! यहीं तो रक्खा था, घड़ा कहाँ गया?



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14.5.22

इत्र की शीशियाँ

वर्षों पहले की बात है। तब टीवी, मोबाइल नहीं था, भारत को आजाद हुए दो दशक ही बीते थे। चेतगंज में घर था, कोई रिक्शा नहीं मिला तो हम दो भाई बनारस कैंट स्टेशन से इंग्लिशिया लाइन की तरफ पैदल ही जा रहे थे। रात के 11 बज चुके थे। खुशगवार बसन्त का मौसम था। रात होने के कारण सड़क पर भीड़ कम थी। चलते-चलते आगे दूसरी पटरी पर एक पुलिया दिखी। पुलिया पर एक आदमी झक्क सुफेद कुर्ता पैजामा पहने हुए बैठा था। सर पर सुफेद टोपी, पांवों में नक्काशीदार चप्पल। उसने हमे जाते हुए देखा तो इशारे से अपनी ओर बुलाया...


इतनी रात को कहाँ जा रहे हो? 

घर जा रहे हैं। 

पैदल क्यों जा रहे हो?

क्या करते, कोई रिक्शा ही नहीं मिला?

रिक्शा तुम्हारे पीछे ही तो खड़ा है! जाओ, बैठ जाओ।

हम लोग अवाक हो कर देखने लगे, एक रिक्शा पीछे ही खड़ा था और बैठने का इशारा भी कर रहा था!

हम पलटकर रिक्शे पर बैठने जाने लगे तो उस आदमी ने कहा..

सुनो! तुम्हारी जेब में इत्र की शीशियाँ हैं, निकालो, लगाया जाय।

हम दोनो आश्चर्य से एक दूसरे का मुँह देखने लगे! इसे कैसे पता चला कि हमारे पास इत्र की शीशियाँ हैं? खैर...एक छोटी शीशी निकाली और उसे दे दिया। उसने बड़े प्रेम से अपने हाथ- मुँह में लगाया और खूब तारीफ करी। हम रिक्शे पर बैठकर पुलिया पर बैठे हुए आदमी को देखने लगे तो आदमी गायब! अब उसी आदमी के बारे में सोचने लगे। दिमाग में यही प्रश्न गूंज रहा था...वह आदमी कहाँ गया? उसे कैसे पता चला कि जेब में इत्र  की शीशियाँ हैं? इतने में रिक्शा चेतगंज आ गया।


रात के 12 बज रहे थे। रिक्शे से उतरने के बाद रिक्शेवाले को देने के लिए फुटकर पैसे नहीं थे तो सोचा एक बीड़ा पान जमाया जाय, फुटकर भी हो जाएगा। वहीं एक पान की दुकान खुली थी। हम दोनों ने एक-एक बीड़ा पान जमाया और रिक्शेवाले को पैसा देने के लिए पलटे तो देखते क्या हैं कि रिक्शावाला गायब! दूर-दूर तक देखे तो रिक्शेवाला कहीं नजर नहीं आया।


हम आश्चर्य करते हुए घर जाने के लिए गली में मुड़े तो अँधरे में एक चबूतरे पर सुफेद कुर्ते-पैजामे वाला वही आदमी बैठा हुआ था। हमें देखते ही चहका..अमा यार! बड़ी जल्दी आ गए!!! तुम्हारे जेब में तो इत्र की और भी शीशियाँ हैं, एक और देना जरा। हम स्तब्ध हो उसे देखने लगे, उसके बगल में एक सफेद घोड़ा भी खड़ा था।

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7.5.22

हाथ

 एक दिन दाएं हाथ ने चुपके से एक मुसीबत के मारे की मदद कर दी। बाएं हाथ को पता चल गया लेकिन कुछ न बोला। एक दिन बाएं हाथ ने भी एक मुसीबत के मारे की मदद कर दी। दाएं को भी पता चल गया लेकिन कुछ न बोला। दुर्भाग्य से दोनो हाथों का मालिक मुसीबत में पड़ गया। उसने ईश्वर से प्रार्थना करी... हे प्रभु! मुझे ठीक कर दो। ईश्वर ने उसकी पुकार झट से सुन ली। उसने दोनो हाथ जोड़कर ईश्वर को धन्यवाद दिया। इस बार दोनो हाथ एक दूसरे को देखकर मुस्कुरा रहे थे।

......

15.4.22

सोचो तो....


वे दिन भी क्या दिन थे!

हम थे, तुम थे और साफ थीं गङ्गा जी

पोतते थे जिस्म में मिट्टी, तैरते थे घण्टों और

भूख लगने पर 

खा लेते थे 

ककड़ी, हिरमाना, खरबूजा,

प्यास लगने पर

डुबकी मार के

पी लेते थे

पेट भर पानी।


वे दिन भी क्या दिन थे!

हम थे, तुम थे और बोतल का पानी नहीं था

गली के चबूतरे पर बैठा होता था प्याऊ,

घर-घर में होता था कुआँ,

गली-गली में

सरकारी नल या चापाकल।


वे दिन भी क्या दिन थे!

हम थे, तुम थे और कोरोना नहीं था।

न मुख मास्क का झंझट न सेनेटाइजेशन की चिंता

चाट लेते थे, एक दूसरे की

जूठी आइसक्रीम भी।


सोचो तो..

अचानक से नहीं आया कोरोना

पहले मैली हुईं नदियाँ,

सूख गए तालाब और कुएँ,

बोतल में बिकने लगा पानी और तब आया

कोरोना।


सोचो तो..

क्या-क्या देखेंगे आगे

अगर बचे रह गए 

हम तुम।

...........@देवेन्द्र पाण्डेय।

12.2.22

प्रेम


अँधेरी राह में

घने वृक्षों के तले

अक्षर दिखे

गुच्छ के गुच्छ!


जुगनुओं की तरह

आपस में टकराते,

बिखर जाते।


तेजी से

बन/बिगड़ रहे थे

शब्द

हो रहा था

चमत्कार!


कठिन तपस्या के बाद

बस एक शब्द समझ पाया..

प्रेम!


मुग्ध हो

खोया रहा 

रात भर

हाय!

मुँह से

बोल ही नहीं फूटे।


चाहता था, चीखना...

देखो!

प्रेम मरा नहीं है,

अँधेरे में

जुगनुओं की तरह

आज भी

टिमटिमा रहा है।

....................

10.2.22

बनारस की गलियाँ-12


बनारस की गलियों में तरह-तरह की शैतानियाँ देखने को मिलती थीं। एक गली के चबूतरे पर प्रौढ़ सरदार 'भइयो' बैठता था। जिस घर से सटा यह चबूतरा था उस घर में एक लड़का रहता था। लड़का थोड़ा हचक कर चलता था इसलिए लोग उसे लंगड़ कहते थे। लड़के का नाम शंकर था। उसकी दो बहनें थीं...एक सांवली और एक गोरी। उसके पिता जी काम तो बनिया का करते थे लेकिन चंदन-मंदन लगा कर खूब भक्ति भाव से रहते थे। भइयो, चबूतरे पर बैठ कर दिन के समय बड़े तरन्नुम में एक गीत गाता था...


काली माई करिया

भवानी माई गोर

शिव बाबा लंगड़

पुजारी बाबा चोर।


कहना न होगा कि उसका गाया यह गीत उनके परिवार को ज़हर की तरह चुभता। इसके कारण आये दिन झगड़ा होता रहता। शंकर चीखता..


ई का गात हउआ? तोहें शरम नाहीं लगत? 

सरदार कहता.."काहे? हम तोहे तs कुछो नाहीं कहली..! हम त भजन गात हई।"


मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि इस गाने का कोई दूसरा भी अर्थ भी हो सकता है!

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