19.7.24

कोरोना काल (3)

छत 

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कोरोना काल में, घनी आबादी वाले इलाकों की छतों पर, थिरकते हुए उतरती थी शाम, जाने का नाम नहीं लेती। सूरज डूब जाता था, अँधेरा द्वार खटखटाता था मगर शाम थी कि दोनो हाथों से परे ढकेल देना चाहती थी, अंधेरों को। 

छत पर चढ़ा तो जाना, छतें गुलजार उन दिनों गुलजार रहती थीं। कहीं किसी छत पर, गुटर गूँ कर रहा होता नव विवाहित जोड़ा, कहीं इक दूजे को देख, इशारे करती, लजाती, खिलखिलाती किशोरियाँ, कहीं छत को ही जिम बना कर कसरत कर रहे युवा, कहीं पतंग उड़ाता किशोर, कहीं आमने सामने मुंडेर पर खड़ी, हाथ नचाकर बातें करतीं प्रौढ़ महिलाएं, कहीं छत के किसी कोने की कुर्सी पर बैठी, आसमान ताकती बुढ़िया, कहीं यशोदा की तरह अपने ललना को दौड़/पकड़ खाना खिलाती माँ और कहीं मेरी तरह चहल कदमी कर, अकेले स्वास्थ्य लाभ कर रहे प्रौढ़। 

छत पर चढ़ा तो जाना, हम प्रौढ़ हुए थे, बचपना, किशोरावस्था या जवानी सब के सब, जस के तस हैं। कहीं नहीं गए, वैसे के वैसे हैं, जैसे थे। बल्कि कुछ और निखरे-निखरे, कुछ और नए रंगों/वस्त्रों में ढले, कुछ और खूबसूरत हो चुके हैं! 

पहले, हमारे हाथों में, कहाँ होती थीं मोबाइल? कानों में कहाँ ठुंसे रहते थे ईयर फोन? एक को तड़ते हुए, दूसरे से, कहाँ कर पाते थे वीडियो चैटिंग? 

एक थोड़ी नीची छत पर वीडियो चैट करते हुए अपने में मगन टहल रही थी एक नव यौवना। उस घर से सटे दूसरे घर की, थोड़ी ऊँची छत से, उसे अपलक निहार रहे थे, कुछ युवा। जैसे चाँद बेखबर रहता है कि उसे कितने चकोर देख रहे हैं वैसे सबसे बेखबर, मोबाइल देख, कभी हँसती,कभी एक हाथ से मोबाइल पकड़े-पकड़े, दूसरे हाथ को नचाती, कभी किसी बात पर झुँझलाती, अपनी धुन में टहल रही थी चकोरों की चाँदनी।

कोरोना काल में एक तरफ सिसक रही थी जिंदगी तो दूसरी तरफ निखर रही थीं चन्द्रकलाएँ। सोचा करता था, देखें! देखते रहें, क्या-क्या रंग दिखाती है जिंदगी! 

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