15.7.24

हरदौल

श्री वंदना अवस्थी दुबे  जी का उपन्यास हरदौल कल एक बैठकी में पढ़कर खतम किया! वर्षों बाद ऐसा हुआ कि मैने कोई किताब पहले की तरह एक बार में पूरा पढ़ा। यह उपन्यास की शक्ति ही थी जिसने मुझे प्रोत्साहित किया कि अभी मैं पहले की तरह किताबें पढ़ने में समर्थ हूँ। 

एक स्त्री सुजाता, बाबा के मुख से रोज कहानी सुनती है। दोनो सूत्रधार की भूमिका में हैं। ओरछा के ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि में लिखी उपन्यास की कहानी इतनी रोचक है कि सुजाता और बाबा का संवाद भी भारी लगने लगते है, अपना मन भी कहने लगता है, "बाबा! जल्दी से आगे की कहानी सुनाओ, हरदौल का क्या हुआ?" कहानी जब चरमोत्कर्ष पर पहुँचती है, षड्यंत्र, हत्या की साजिश चल रही होती है, उसी बीच हरदौल के विवाह प्रसंग का वर्णन भी भारी लगने लगता है, मन करता है पृष्ठ पलटें, जाने की हरदौल का क्या हुआ?

इस उपन्यास के लिए वंदना जी को बहुत बधाई। जब भी बुंदेलखंड के इस लोक नायक का जिक्र होगा, इस कृति के लिए उन्हें सदैव याद किया जाएगा। मेरा विश्वास है कि यदि आपको भी यह पुस्तक मिल जाय तो आप भी इसे एक बार में ही पूरा पढ़कर खतम करेंगे।


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