15.7.24

कर्जा वसूली

श्रीमती गिरिजा कुलश्रेष्ठ द्वारा लिखित कहानी संग्रह 'कर्जा वसूली' पढ़ने का सौभाग्य मिला। पुस्तक में कुल 13 कहानियाँ हैं। यह कहानी क्या है, शब्द चित्र हैं। प्रत्येक कहानी में समाज के एक अलग ही दृश्य को हू-ब-हू उकेरा गया है। पढ़ते समय पाठक इसी शब्द चित्र में उलझ कर रहा जाता है और जब कहानी खत्म होती है, उसका दिल धक से कहता है, अरे!कहानी खत्म हो गई!!!

पहली कहानी 'अपने-अपने करावास' में दो प्रेमी दो दशकों बाद मिलकर, एक दूसरे को देखते-मिलते हुए भी अपनी-अपनी जिंदगी की समस्याओं में इतने उलझे रहते हैं कि चाहकर भी एक नहीं हो पाते। दो दशकों की यादों को साझा करते हुए, मिलने की उम्मीद पाले हुए दो प्रेमी अपनी हमेशा समस्याओं से घिरे रहते हैं। दोनो अपने-अपने कारावास में कैद हो चुके हैं, जिससे निकलना संभव नहीं है। पाठक उम्मीद पाले रहता है और कहानी खत्म हो जाती है।

दूसरी कहानी 'साहब के यहाँ तो...' शिक्षा व्यवस्था पर करारा व्यंग्य है। इसमें दिखाया गया है कि चपरासी पद पर नियुक्त 'इमरती' वेतन तो स्कूल से पाती है लेकिन अधिक समय मंत्री जी के घर का काम करने में बिताती है और स्कूल में रोब से रहती है, सभी उससे जलते हैं। एक दिन इमरती अपना दर्द बयान करती है कि कैसे वह दो जगह पिसाती रहती है! उसका यह रोब तो सिर्फ दिखाने के लिए है। नौकरी बचाने के लिए उसे कितना परिश्रम करना पड़ता है!

कहानी संग्रह की शीर्षक कहानी 'कर्जा वसूली' में गांव के ऋणदाता बलिराम जी गांव के ही रामनाथ को कर्ज दिए रहते हैं। अपने दिए कर्ज की वसूली के लिए गांव में ही सबके मजाक का पात्र बनते हैं। बलिराम जी निर्दयी भी नहीं है, रामनाथ की हर आद्र पुकार पर पसीज जाते हैं। कई फसल कट जाती है, कर्ज में दिया धन नहीं मिलता। गांव वाले उनका मजाक उड़ाते रहते हैं अंत में हार कर वसूली के लिए कठोर कदम उठाते हैं। रामनाथ की भैंस उठा लेते हैं लेकिन उनसे रामनाथ की पत्नी दुलारी का विलाप सहन नहीं होता और भैंस को वापस ले जाने का आदेश देते हैं। कहानी का शब्द चित्र इतना समृद्ध है कि बार-बार पंक्ति दोहराने का मन करता है।

चौथी कहानी 'उर्मि नई तो नहीं है घर में' एक मध्यम वर्गीय मास्टर साहब के पारिवारिक जीवन का ऐसा शब्द चित्र है जो बड़ा सजीव लगता है। दोनों पति-पत्नी के मनोभावों का ऐसा मार्मिक शब्द चित्र है कि लगता है हम भी उन्हीं में से एक हैं।

अगली कहानी 'शपथ पत्र' भी शिक्षा विभाग पर बढ़िया व्यंग्य है। जिसमें बताया गया है कि कैसे एक कर्मचारी अपने जी.पी.एफ फंड से अग्रिम लेने के लिए कितना कुछ सहता है।

'पहली रचना' भी सभी मध्यम वर्गीय परिवारों में बच्चों के परिवेश के समय होने वाली आम घटना है मगर गिरिजा जी ने इतने प्रेम से इसको गूंथा है कि पढ़ कर दिल में हूक-सी उठती है और पाठक कुछ देर मौन रहकर खयालों में खो जाता है।

कहानी 'उसके लायक' तो मन बढ़ किशोरों के मुँह में करारा तमाचा है। इसे पढ़कर शायद ही कोई लड़का अपने साथ पढ़ रही किसी बदसूरत लड़की का मजाक उड़ा पाएगा।

'एक मौत का विश्लेषण' एक लम्बी कहानी है। पिता के सामने युवा पुत्र की अधिक शराब पीने के कारण लीवर खराब हो जाने से मौत हो जाती है। जब तक पूरा समाज अपने-अपने ढंग से मौत का विश्लेषण करता है, कहानी सामान्य लगती है। लेखिका ने इस कहानी में आगे एक मोड़ दिया, उन्होंने मृतक की आत्मा से मौत के कारणों का विश्लेषण करवाया! इस विश्लेषण में मृतक ने खुद को ही दोषी ठहराया है लेकिन वास्तव में मौत के लिए उसके पिता का झूठा अहंकार और गलत परवरिश जिम्मेदार है।  

अगली कहानी 'नामुराद' पढ़कर नारी पीड़ा की गहरी अनुभूति होती है। अभी दशकों पहले तक गरीब मध्यम वर्ग के आम घरों में नारी का कितना शोषण होता था! हमको यह शोषण तो नहीं दिखा, अपने आस पास हल्का-हल्का महसूस जरूर किया है। पुरुष होने का दम्भ कुछ अपने भीतर भी था, जिसने कभी इसके विरुद्ध आवाज नहीं उठाई, नजरअंदाज किया!  पति की जूठी थाली में भोजन करना, कितने सम्मान की बात समझी जाती थी! पत्नी के मन में कितनी वितृष्णा उपजती थी!!! कहानी पढ़कर इसका एहसास होता है।

शिक्षा व्यवस्था की पोल खोलती, मूल्यांकन प्रक्रिया की धज्जी उड़ाती कहानी है 'ब्लण्डर मिस्टेक'। एक ईमानदार शिक्षक, चमचों और मूल्यांकन के समय पैसा बनाने वालों, जो इस भाव से कॉपी जाँचते हैं कि  "ये तो आँधी के आम हैं' भैया! जितने बटोर सको बटोर लो" के बीच शिक्षा अधिकारियों के समर्थन से कैसे पिसाता है और शर्मिंदगी महसूस करता है, का सटीक विश्लेषण पेश करती है।

'व्यर्थ ही..' छोटी मगर दिल को छू लेने वाली इस सामाजिक कहानी में गरीब घर की बहू और धनी घर की बहू में क्या फर्क होता है, बखूबी समझाया गया है।

'पियक्कड़' गाँव से शहर कमाने आए एक गरीब की कहानी है जो शराबी बन जाता है और गली के गुंडे उसकी पत्नी और बेटी को अपने अनुसार चलाते हैं। उसकी चीख भी एक 'पियक्कड़' की चीख समझ गली वाले नजरअंदाज कर देते हैं।

कहानी संग्रह की अंतिम कहानी है 'बन्द दरवाजा'। यह छोटे कस्बे से 'बैंगलोर' जैसे बड़े शहर में आई एक माँ की कहानी है जो इंजिनियर बेटा और बहू के पास आईं हैं। बच्चे बहुत प्यार करते हैं लेकिन 5 दिन की व्यस्तताओं के बीच साथ रहने के लिए सप्ताह में 2 दिन का ही समय मिलता है। 5 दिन फ्लैट के घर /बरामदे में रहकर माँ पड़ोसियों के बन्द दरवाजों को देखती और अपने समय को याद करती रहती हैं। कहानी बदलती सामाजिक व्यस्था और बड़े शहर की संस्कृति का बखूबी विश्लेषण करती है।

यह कहानी संग्रह 'गिरिजा जी' ने अपने 2 दिनों के वाराणसी ठहराव के समय 'ऋता' जी के साथ सारनाथ घूमते समय मुझे संप्रेम भेंट दिया था और लगभग एक वर्षों से यह मेरे अलमारी में बन्द पड़ी थी। कल शाम से इसे पढ़ना शुरू किया और आज खतम किया।  गिरिजा दी, पुस्तक भेंटकर भूल भी चुकी होंगी। 

इन कहानियों को पढ़कर एक बात समझ में नहीं आई कि एक व्यक्ति कैसे समाज के इतने रिश्तों की, इतनी खूबी से पड़ताल कर सकता है जैसे वह ही इन 

कहानियों का एक पात्र हो! खुद पीड़ा का अनुभव किए बिना कोई कैसे दूसरे के दर्द को जी सकता है!!! 

इस संग्रह की एक खास बात और लगी कि प्रत्येक कहानी के एक-एक शब्द, एक-एक वाक्य एकदम नपे तुले हैं, न एक कम न एक ज्यादा। मुझे इस कहानी संग्रह को पढ़ाने के लिए गिरिजा दी का बहुत आभार।🙏


4 comments:

  1. गिरिजा जी को बहुत बहुत बधाई और आपको भी इस सटीक समीक्षा के लिए

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