31.12.19

नववर्ष की शुभकामनाएँ

शुभकामनाएँ मुझे
कि कुरुक्षेत्र में भी
ढूँढता रहूँ
सुख के द्वार
हरपल
मिलता रहे आनन्द

शुभकामनाएँ तुम्हें
कि सदा खुश रहो तुम भी
शेयर करूँ तुमसे
आनन्द के पल
तो तुम्हें
और भी खुशी मिले

शुभकामनाएँ मजदूरों को
कि हर दिन
मिलता रहे काम
शुभकामनाएँ मालिकों को
लाभ हो इतना
कि बाँट सकें, बोनस भी

शुभकामनाएँ किसानों को
रहने के लिए
झोपड़ी
ओढ़ने के लिए
पूस की रात में कम्बल
और..
खाने के लिए रोटी से आगे बढ़े
उनकी गाड़ी
मिल सके
उपज का उचित मूल्य

शुभकामनाएँ गुरुजन को
सफल हों विद्यार्थी
शुभकामनाएँ विद्यार्थियों को
काम आए डिग्रियाँ

शुभकामनाएँ उन पंछियों को
जिनके घोसले
विकास ने उजाड़ दिए
शुभकामनाएँ
लुप्त हो रही सभी नदियों को

शुभकामनाएँ उन मछेरों को
जो तूफानों में भी
खोल देते हैं अपनी कश्तियाँ

शुभकामनाएँ देश के सभी
वीर सैनिकों को
जिनके कारण हम
फहरा पाते हैं
तिरँगा,
सिपाहियों को
जिनके कारण हम
रहते हैं सुरक्षित

शुभकामनाएँ
सभी साहित्यकारों को
जो हो पाए प्रकाशित,
उनको भी
जो लिखते हैं निरन्तर
बिना प्रकाशित हुए
और उन प्रकाशकों को भी
जो लाभ के साथ
समझते हैं
प्रकाशक का धर्म

शुभकामनाएँ फिल्मी कलाकारों को
और उनको भी
जो नहीं हैं फिल्मी लेकिन
कलाकार हैं

शुभकामनाएँ
क्रिकेट के सभी खिलाड़ियों को
और उनको भी
जो नहीं हैं
क्रिकेट के खिलाड़ी

शुभकामनाएँ देश के सभी नेताओं को
जिन्होंने समर्पित कर दिया है
हमारी भलाई के लिए
अपना जीवन
करते हैं रहते हैं संघर्ष
सड़क से संसद तक और..
टी.वी. पर भी!

नववर्ष की शुभकामनाएँ
उन सभी को
जिनके कारण
आनन्द से कट रहा है
हमारा जीवन।
....@देवेन्द्र पाण्डेय।

28.12.19

सू सू की समस्या

इस कड़ाके की ठंड में लगभग 3 किमी प्रातः भ्रमण के बाद मेरा मित्र अचानक से काफी परेशान दिखा! चलते-चलते दो बार कोने में गया फिर मायूस हो, लौट आया।  मैने पूछा.. क्या बात है? अभी तो ठीक-ठाक थे! उसने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया...क्या बताएं,  बड़ी तेज सू सू लगी है लेकिन....लोअर उल्टा पहन कर चले आये!😢

समस्या वाकई बड़ी जटिल थी। इस जाड़े में चढ्ढी उल्टी पहनी हो तो फिर भी किसी तरह काम चलाया जा सकता है लेकिन यदि किसी पुरुष ने लोअर उल्टा पहन लिया तो बिना औरत बने काम चलने वाला नहीं है। ☺️ 

मैने कहा...इस समस्या का दो ही समाधान है। धैर्य धारण करो या फिर कोई कोना देख कर बैठ जाओ। एक मिनट के लिए औरत बनने में हर्ज ही क्या है? पुरुषत्व तो रोज राह चलते दिखाते हो! आज नारी बनने में शर्म कैसा? समस्या का समाधान होना चाहिए। कृतिम वस्त्र उतार कर, प्रकृति के साथ एकात्म होने में ही कल्याण है। 

उसे मेरी नेक सलाह बुरी लगी। जमाने से यही होता आया है। मुसीबत के समय दूसरे की नेक सलाह भी बुरी लगती है।अपनी गलती के लिए खेद नहीं, सलाह को उपहास समझ कर चिढ़ जाना मनुष्य का स्वभाव है। किसी को नेक सलाह दो तो वह समझता है मेरा मजाक उड़ाया जा रहा है! लेकिन सलाह यदि वास्तव में सही हुई तो चिढ़ कर मानो या हँसते हुए, करना तो वही पड़ता है। 

मेरे दोस्त को भी मेरी सलाह माननी पड़ी। यह अलग बात है कि जब वह कोना थाम कर सू सू करने बैठा, एक आदमी लठ्ठ लेकर दौड़ता हुआ आ गया....वहाँ क्यों निपट रहे हो?  मैने उस आदमी को समझाया..अरे भाई! रुको-रुको, वह निपट नहीं रहा है, सू सू कर रहा है। लठ्ठ वाला आदमी खड़ा होकर मुझ पर ही घूरने और चिल्लाने लगा...दिखाई नहीं देता? वह आदमी है, औरत नहीं!

मैने कहा...यार! आदमी है तो क्या, बैठ कर सू सू नहीं कर सकता? याद करो! हम हिन्दुस्तानी हैं। हमारे पिताजी बैठ कर ही सू-सू किया करते थे। खड़े होकर करने पर बचपन में हमें मार पड़ती थी। आज यह जमाना आ गया कि कोई बैठ कर सू-सू कर रहा है और तुम लठ्ठ लेकर उसे मारने जा रहे हो!

मेरी बातों ने उस पर गहरा असर किया और वह रुक गया। तब तक मेरा मित्र भी फारिक होकर आ चुका था। वह कुछ बोलता इससे पहले ही लठ्ठ वाले पहलवान ने कहा..हाँ, हाँ, ठीक है। बैठ कर सू-सू करना चाहिए। अभी कल एक पागल यहीं निपट कर गया था। हमने समझा, तुम भी वही हो।

हम लोग हँसते हुए घर की ओर लौट चले लेकिन इस समस्या ने यह भी सोचने पर विवश कर दिया कि हम न हिंदुस्तानी रहे और न अंग्रेज ही बन पाए। अंग्रेजों की तरह खड़े होकर सू-सू करना तो सीख लिए मगर घरों में अलग से यूरिनल बनवाना भूल गए! सार्वजनिक स्थलों में भी आबादी के हिसाब से शौचालय/यूरिनल नहीं बने। पुरुषों के बेशर्म और महिलाओं के सहनशील होने में, सार्वजनिक शौचालयों का भी बड़ा हाथ लगता है।

23.11.19

जाड़ा आयल का?

स्वेटर, टोपी, जर्सी, निकसल
जाड़ा आयल का?
गली-गली में दिखे मलइयो
जाड़ा आयल का?

भिनसहरे चूल्हा में कोइला
कलुआ झोंकत हौ
खट खट, खट खट, एक भगोना
चहवा खउलत हौ।

धूप देख मन ललचे लागल
जाड़ा आयल का?
गली-गली में दिखे मलइयो
जाड़ा आयल का?

छन छन छन छन छनल कचौड़ी
भयल जलेबी लाल
हमें चार दs, हमें आठ दs
मचल ह, बहुत बवाल

सगरो मगही पान मिलत हौ
जाड़ा आयल का?
गली-गली में दिखे मलइयो
जाड़ा आयल का?

ऊन क गोला, अउर सलाई
नाहीं लउकत हौ!
छत पर मिर्चा, अचार आम क
नाहीं लउकत हौ!

के कइलस भक्काटा सबके!
जाड़ा आयल का?
गली-गली में दिखे मलइयो
जाड़ा आयल का?

बहरी-अलंग, लोटा, बाटी,
चोखा कहाँ गयल?
भांग ठंडई, घोटे वाला
भोला कहाँ गयल?

दारू मुर्गा, रोज छनत हौ!
जाड़ा आयल का?
..........................

27.10.19

दिवाली की सफाई में....


पत्नी की रहनुमाई में,
दिवाली की सफाई में,
दृश्य एक दिखलाता हूँ
क्या पाया, बतलाता हूँ।

एक पुराना बक्सा था
जिसमें मेरा कब्जा था
जब बक्सा मैने खोला
धक से मेरा दिल डोला

एक गुलाबी रुमाल मिला
तीर चुभा दिलदार मिला
और टटोला भीतर तो
अक्षर अक्षर प्यार मिला

खत में प्यारी बातें थीं
धूप छाँव की यादें थीं
'रानू' की किताब भी थी
मर मिटने की बातें थीं।

बहुत पुराने पन्ने थे
पलटा मानों गहने थे
दिल मे अब फुलझड़ियाँ थीं
चूर-चूर  पँखुड़ियाँ थीं
खोया, हंसी खयालों में
मयकश डूबा, प्यालों में

बिजली चमकी, घन गरजे
कहाँ देर से हो उलझे?
अपना बक्सा बन्द करो,
चलो, उठो, अब वहाँ चढ़ो!

तुमसे काम नहीं होता
सब आसान नहीं होता
मकड़ी जाले साफ करो
यार! हमें तुम माफ करो

जब कुछ काम नहीं करना
व्यर्थ यहाँ क्यों बैठे हो?
दो-कौड़ी किताब है वह
उसमें अब क्यों उलझे हो?

मैने कहा.लो! खुद देखो
ये सब खत तुम्हारे हैं!
यह किताब तो मेरी है,
इसमें फूल तुम्हारे हैं

घर के जाले छोड़ो तुम
मन के जाले साफ करो
इस दीवाली में साथी
प्रेम दीप भी एक धरो।
..........................

25.9.19

बिना चीनी की चाय

बिना चीनी की चाय और 
प्रातः भ्रमण की आदत को देख,
मेरे एक सहकर्मी ने 
मन ही मन मान लिया,
मुझे मधुमेह है!

एक दिन लंच में उसने मुझे
रसगुल्ले खाते देखा!
डिनर के बाद
बर्फी उड़ाते देखा!!!
तो उससे रहा न गया..
मेरी तरफ तंज कसते हुए
सांकेतिक भाषा में
मुझे सुनाते हुए, दूसरे से 
कहने लगा...
कुछ लोग शुगर के मरीज हैं,
दिनभर 
चाय तो बिना चीनी की पीते हैं,
सुबह/शाम, दोनो टाइम, मिठाई उड़ाते हैं!

मैं शुगर का मरीज तो हूँ नहीं,
समझ ही नहीं पाया कि बन्दा,
किस पर तंज कस रहा है!
उसकी हाँ में हाँ मिलाते हुए बोला..
हाँ, यार!
कुछ लोग बड़े दोगले किस्म के होते हैं!
उनके खाने के दांत कुछ, 
दिखाने के कुछ।

अब तो उसके धैर्य का बांध ही टूट गया,
मेरी तरफ उँगली हिलाते हुए,
गुस्से में बोला..
मैं आपकी ही बात कर रहा हूँ मिस्टर!
दिन में आप 
रसगुल्ला नहीं खा रहे थे?
डिनर में, 
बर्फी नहीं काट रहे थे?

अब जाकर, 
बात मेरी समझ मे आई! 
समझने के बाद 
खूब हंसी आई।
हँसते हुए ही पूछा...
आपको किसने कह दिया 
कि मुझे मधुमेह है?
वो थोड़ा सम्भला, फिर पूछा..
तब बिना चीनी की चाय, क्यों पीते हो?
मैने तपाक से उत्तर दिया...
बिना चीनी की चाय इसलिए पीता हूँ 
कि मिठाई खा सकूँ!
आपने शुरू से ध्यान रखा होता तो आज
आप भी मिठाई खा रहे होते 
और वैसे भी
रोज मिठाई कौन खिलाता है?
दिनभर 
पानी में चीनी घोल कर
चाय ही पिलाता है।

अब माथा पीटने की बारी
मेरे मित्र की थी...
यार! मुझे शुगर है,
हम मजबूरी में घूमते हैं, बिना चीनी की चाय पीते हैं,
मिठाई खाने की तो सोच भी नहीं सकते।
आपकी आदतों को देखकर लगा..
आपको शुगर है!
गलत कह दिया हो तो क्षमा करना।

मैंने कहा..
इसमें आपकी कोई गलती नहीं है
वैसे भी
चॉकलेट, रसगुल्ला, लौंग लता, सुमन लता, माधुरी, रस माधुरी..
मेरा मतलब हर मिठाई को,
बिना चीनी की चाय पीने वाले बुढ्ढों से
सावधान रहना चाहिए!
क्योंकि ये 
मौका मिलते ही,
मिठाई पर हाथ साफ कर लेते हैं।
..........

21.9.19

लोहे का घर-57

पहले सुबह होती थी, शाम होती थी, अब लोहे के घर में, पूरी रात होती है। वे दिन, रोज वाले थे। ये रातें, साप्ताहिक हैं। बनारस से जौनपुर की तुलना में, बनारस से लखनऊ की दूरी लंबी है। रोज आना जाना सम्भव नहीं है। ये रास्ते सुबह/शाम नहीं, पूरी रात निगल जाते हैं और उफ्फ तक नहीं करते!

लखनऊ छपरा एक्सप्रेस है। लखनऊ से रात 9 के आसपास चलती है और सुबह 6 के बाद पहुंचाती है। छः घण्टे का सफर 9 घण्टे में पूरा करती है। इतना मार्जिन समय है कि लगभग समय से चलती और समय पर ही पहुंचाती है। पटरियों की खटर पटर का शोर, एक्सप्रेस ट्रेन की तरह तेज नहीं सुनाई पड़ता। झूला झुलाते, रुकते-रुकाते, आराम-आराम से चलती है यह ट्रेन।

अच्छा है। जितने समय में पहुंचा सको, पब्लिक को उतना ही समय बताओ। ये क्या कि बताया पाँच घण्टा और पहुँचाया 9 घण्टे में। इस ट्रेन के लिए रेलवे की यह इमानदारी,
काबिलेतारीफ है। 6 घण्टे के सफर को 9 घण्टा बताती है और 9 घण्टे में पहुँचा भी देती है। सोते-सोते सफर कट जाय तो इससे बड़ा भाग्य और कहाँ! इसीलिए मैं इस ट्रेन से आना/जाना पसंद करता हूँ। सोना ही तो है, घर में सोओ या लोहे के घर में। 

स्लीपर बोगी है। साप्ताहिक यात्रा में ए.सी. बोगी अधिक खर्चीली है। अभी मौसम अनुकूल है, अधिक गर्मी/सर्दी हुई तो देखा जाएगा। वैसे आप इसे मध्यम वर्गीय कृपण सोच कहने के लिए स्वतंत्र हैं लेकिन जितना सहन हो सके उतना मौसम के साथ रहना, हर दृष्टि से अच्छा है। 

जहाँ लाभ है वहीं, स्लीपर में चलने के नुकसान भी हैं। स्लीपर में ही चलने का परिणाम था कि एक दिन, पाण्डे जी का दाहिने पैर का चप्पल गुम हो गया था और बाएँ पैर के चप्पल को पहने, लंगड़ाते-लंगड़ाते घर पहुँचे थे। इस उम्मीद में कि आते/जाते कभी दाएँ पैर का चप्पल किसी पटरी के किनारे पड़ा मिल गया तो उठाकर ले आएंगे और बाएँ पैर के चप्पल के बगल में रखकर उससे बोलेंगे..लो! अब जोड़े से रहो, खुश रहो, मस्त रहो। हाय! बाएँ पैर का चप्पल आज भी अपने साथी की प्रतीक्षा कर रहा है। ए. सी. बोगी में, स्लीपर बोगी की तरह, छोटे स्तर की चोरियाँ नहीं होतीं, वहाँ अक्सर ऊँचे लोग ही सफर कर पाते हैं!

ऊँचे लोगों की बात चली तो बाबाओं की याद हो आई। आजकल बाबाओं की चर्चा फिर सुर्खियों में है। ये बाबा बड़े कृपालू होते हैं। अपनी ख्याति बनाए रखने के लिए समय-समय पर अपना डंडा/झण्डा गाड़ कर, फहरा ही देते हैं। बाबा के पकड़े जाने की खबर सुनकर मैने अपने एक ब्राह्मण मित्र से कहा..क्या बाबा! यह क्या हो रहा है? (इधर पूर्वान्चल में ब्राह्मणों को बाबा कहने का चलन है।) मित्र नाराज हो कर बोले..जेतना धरइले हौउवन ओहमें केहू बाबा ना हौ, सब नकली बाबा हैं। 

ट्रेन आराम-आराम से चल रही है। अगल बगल के लोग अपने विद्वता का खजाना चुक जाने के बाद, अपने-अपने सिंगल बर्थ में लेट चुके हैं। बोगी में बाथरूम/दरवाजे के पास का एक बल्ब जल रहा है, शेष पूरी बोगी के बल्ब बुझाए जा चुके हैं। थोड़ी देर पहले दो सुरक्षाकर्मी तहकीकात करते हुए गुजरे थे। उनको इस प्रकार सचेत होकर ड्यूटी करते देख मन प्रसन्न हो गया। सरकार को मध्यमवर्गीय बोगियाँ के यात्रियों की भी चिंता है। इससे यह उम्मीद जग गयी कि यह चिंता एक दिन जनरल बोगी तक भी पहुँचेगी। भले अपने पालतू कुत्ते, बकरियों या सायकिल के साथ हों, आखिर जनरल बोगी में भी  मनुष्य ही सफर करते हैं। वे भी इसी देश के प्राणी हैं। यह देश उनका भी है।

यात्रा में एक और मजेदार घटना घटी। रात के बारह बजे के बाद जब हम सो गए तो एक झगड़े के शोर से नींद टूट गई। ट्रेन अयोध्या में रुकी हुई थी। यहाँ से चार यात्री चढ़े थे। यात्रियों में एक महिला, दो प्रौढ़ और एक युवा था। युवक ने बाल मुड़ा रखा था और सफेद धोती/कुर्ता पहने था। सीधे सादे, ब्राह्मण परिवार के दिखने वाले ये लोग मेरे लोअर बर्थ के ऊपर 'अपर बर्थ' वाले यात्री से झगड़ रहे थे...यह मेरी बर्थ है, उठो! ऊपर सोया यात्री चार लोगों द्वारा अचानक कोचे जाने पर बेहद घबराया/झल्लाया हुआ था... नहीं, यह मेरी ही बर्थ है। यह देखो, टिकट! S4 59. मेरा टिकट भी देखो..S4, 59,60,61,62। झगड़ा बढ़ता जा रहा था। 

दोनो पार्टी एक ही बर्थ के लिए झगड़ रही थीं, दोनो का दावा था कि यह बर्थ मेरी है! दोनो टिकट होने का दावा भी कर रहे थे!!! रेलवे से ऐसी गलती कभी हो ही नहीं सकती कि एक ही बर्थ के दो कन्फर्म बर्थ रिजर्व कर दे! पहले तो झगड़ा सुनता रहा, फिर झल्ला कर बोला..आप लोग शांत हो जाइए, ऐसा हो ही नहीं सकता, अपना- टिकट दिखाइए! दोनो के पास वाकई इसी ट्रेन नम्बर, इसी कोच और इसी बर्थ का टिकट था! यह कैसे सम्भव है? अपनी बुद्धि भी एक पल के लिए चकराई फिर PNR NO. चेक करने लगा।

उफ्फ! मौके पर नेट भी काम नहीं करता। मैं बोला..ऐसा हो नहीं सकता, नेट काम नहीं कर रहा नहीं तो मैं बता देता कि यह किसका बर्थ है आप लोग टी. टी. को बोलाइये, आपस में मत झगड़िए, टी.टी. के पास चार्ट होता है, बात साफ हो जाएगी। इतने में सुरक्षाकर्मी टी.टी. को ले आया।

टी.टी. चार्ट देखकर बताया कि यह बर्थ उसी यात्री की है जो पहले से सो रहा था। उसे बर्थ दिलाकर टी.टी. ने अयोध्या से चढ़े यात्री से पूछा..आप ने कोई टिकट कैंसिल कराया है?  युवा बोला..हाँ, कराया है, लेकिन मेरा 6 बर्थ था, दो कैंसिल कराया, चार तो होनी चाहिए न? उसने झोले से और टिकट निकाला। टी.टी. ने समझाया..वो वाली बर्थ कैंसिल हुई है, जिसके लिए आप झगड़ रहे थे। आपकी ये , ये, ये और ये वाली चार बर्थ है। जाइए! अपनी बर्थ पर सोइये। 

मामला हल होने पर सभी यात्री हँसने लगे और फिर बाद का सफर आराम से कट गया। 

15.9.19

बारिश

आज बादल घिर रहे हैं
खूब  बारिश हो रही है
शाम तक सूखा था मौसम
रात बारिश हो रही है।

एक घर था हमारा
गङ्गा किनारे, संकरी गलियाँ
तल का कमरा राम जी का
मध्य में माता पिता थे
छत में था एक कमरा
जिसमें रहते पाँच भाई
और इक छोटी बहन भी
जब भी होती तेज बारिश
काँपता था दिल सभी का
ज्यों टपकता छत से पानी
खींच लेते आगे चौकी
बौछार आती खिड़कियों से
खींच लेते पीछे चौकी
तेज होती और बारिश
छत टपकता बीच से भी
अब कहाँ जाते बताओ?
इधर जाते, उधर जाते
भीगकर पुस्तक बचाते

फिर ये बादल घिर रहे हैं
खूब  बारिश हो रही है
शाम तक सूखा था मौसम
रात बारिश हो रही है।

है यहाँ लाचार बारिश
मजबूत है अपना ठिकाना
वातानुकूलित कोठरी है
है असम्भव छू के जाना

मन मगर बेचैन मेरा
घिर रहा यादों का डेरा
तेज होती और बारिश
याद आता घर वो मेरा

हम नहीं रहते वहाँ पर
घर मगर वैसे बहुत हैं
निश्चिंत हैं हम बारिशों से
काँपने वाले बहुत हैं

काश!सबके पक्के घर हों
काश सब खुशियाँ मनाएँ
घिर के आए जब बदरिया
नाचें, कूदें, झूमें, गाएँ।

आज बादल घिर रहे हैं
खूब  बारिश हो रही है
शाम तक सूखा था मौसम
रात बारिश हो रही है।
...........................


10.9.19

अधिकार और कर्तव्य

सरकारी नौकरों को
काम के बदले
वेतन दिया जाता है
लेकिन वे
इससे संतुष्ट नहीं होते
अधिकार ढूँढते हैं!
जबकि
उनके हिस्से की
कानूनी वसीयत में,
अधिकार शब्द
होता ही नहीं,
दायित्व होता है।

कुछ तो
बड़े खुशफहमी में जीते हैं
दायित्व को,
अधिकार की शराब में
घोलकर पीते हैं।

ज्यों-ज्यों
दायित्व बढ़ता जाता है
त्यों-त्यों
अधिकार का नशा
चढ़ता जाता है।

सरकारी दफ्तर के
चतुर्थ श्रेणी महोदय भी
जब अपने सारे अधिकार जता कर
तृप्त हो जाते हैं
तभी फरियादी की मुलाकात
बड़े साहब से
करवाते हैं।

बड़े साहब मतलब
बड़े अधिकारी
जब वे
अपने सारे अधिकार आजमा कर
असहाय हो जाते हैं
तभी कृपा कर
फरियाद को पँख लगाते हैं
सुनहरी कलम से
प्रार्थना पत्र पर
अपनी 'चिड़िया' बिठाते हैं।

साहब की चिड़िया
बैठते ही
फरियाद को पँख लग जाता है,
उड़ने लगता है!
उड़ते-उड़ते
बड़े बाबू के टेबल पर जाकर
बैठ जाता है।

बड़े बाबू भी
कर्तव्य को अधिकार समझते हैं
अपनी चिड़िया बिठाने से पहले
फरियादी का
इन्तजार करते हैं!

धीरे-धीरे
पूरा दफ्तर
जब अपने-अपने हिस्से के
अधिकार के नशे का
सेवन कर लेता है
तब जाकर
फरियादी को
(हौसला शेष रहा तो)
अपना अधिकार
मिल पाता है।

अधिकार का नशा
शराब से खतरनाक होता है
शराब तो
पीने वाले को ही नुकसान पहुंचाती है
लेकिन अधिकार
कभी-कभी
फरियादी को भी
मौत के घाट उतार देता है।

अधिकार के नशे की लत
बड़ी भयानक होती है
उतरती तभी है
जब
उम्र निकल जाती है
या नौकरी
छूट जाती है।

दायित्व से
जान पहचान हो,
दोस्ती हो,
तो कुर्सी से उतरने के बाद भी
व्यक्ति
अकेला नहीं होता
उसके पास
असंख्य
तृप्त फरियादियों की
दुआएँ होती हैं
जमीन पर पैदल चलता है
तो भी लोग
झुककर
दुआ-सलाम करते हैं
राम-राम करते हैं
पीठ पीछे
चर्चा आम करते हैं..
बड़ा अच्छा अधिकारी था।
................

18.8.19

लोहे का घर-56

पाण्डे जी का चप्पल
.................................
जैसे सभी के पास होता है, ट्रेन में चढ़ने समय पाण्डे जी के पास भी एक जोड़ी चप्पल था। चढ़े तो अपनी बर्थ पर किसी को सोया देख, प्रेम से पूछे.…भाई साहब! क्या मैं यहाँ बैठ सकता हूँ? वह शख्स पाण्डे जी की तरह शरीफ नहीं था। हाथ नचाते हुए, मुँह घुमाकर बोला...यहाँ जगह नहीं है, आगे बढ़ो! अब पाण्डे जी को भी गुस्सा आ गया और जोर से बोले..यह मेरी बर्थ है। अब वह आदमी एकदम से सीरियस हो गया! समझ गया कि मुसीबत आ गई है। थोड़ा सिकुड़ते हुए बोला..बैठ जाइए। एक तो रात साढ़े ग्यारह बजे आने वाली ट्रेन तीन घण्टे लेट, रात ढाई बजे आई उप्पर से यह आदमी! पाण्डे जी और जोर से बोले...पहले आप पूरी तरह से उठ जाइए और कोई दूसरी खाली जगह तलाशिए। शोर सुनकर दूसरे यात्रियों की  नींद डिस्टर्ब हो रही थी। तरह-तरह की आवाजें आने लगीं..

अरे भाई साहब! जब यह आपकी बर्थ नहीं है तो उठ क्यों नहीं जाते?, अजीब आदमी है! शराफत से बोलो तो कोई समझता ही नहीं! आदि आदि।

परिस्थियाँ अपने प्रतिकूल पा कर वह आदमी खिसियाते/ बड़बड़ाते हुए उठा..अब साठ किमी बाकी था, लीजिए अपनी सीट, हम खड़े-खड़े चले जाएंगे। पाण्डे जी भी बड़बड़ाये... बड़ी कृपा है आपकी जो इतनी जल्दी समझ गए। सहयात्री भी बड़बड़ाए..अब सो जाइए आप भी, हमको भी सोने दीजिए।
घण्टों प्लेटफॉर्म पर ट्रेन की प्रतीक्षा से थके मादे पाण्डेजी को जैसे ही बर्थ मिली, झोला बगल में दबा कर, गहरी नींद सो गए।

सुबह उठकर जब बाथरूम जाने के लिए चप्पल ढूँढने लगे तो चप्पल गायब! वह यात्री भी नहीं दिखा जिससे झड़प हुई थी। इधर-उधर निगाहें दौड़ाई तो देखा, 4,5 बर्थ आगे बाएँ पैर का चप्पल अकेले बिसुक रहा है! विश्वास जगा, एक है तो दूसरा कहाँ जाएगा!!! एक चप्पल कोई पहन कर थोड़ी न ले जाएगा, भूल से पहनकर चला गया हो तो भी उसका तो होगा, कम से कम नङ्गे पाँव घर तो नहीं जाना पड़ेगा। लेकिन हाय! पाण्डेजी पूरी बोगी क्या, अगल बगल की सभी बोगियाँ छान आये, दाहिने पैर के चप्पल को नहीं मिलना था, नहीं मिला। कूड़े बीनने वाले किशोर को भी प्रलोभन दिया...मेरा एक चप्पल नहीं मिल रहा, ढूँढ दो तो तुम्हें ईनाम देंगे। लड़के ने बाएँ पैर के चप्पल को गौर से देखा और खून जलाया..ई त एकदम नया लगत हौ! फिर बिजली की फुर्ती से कोना-कोना ढूँढा और दस मिनट में अपना फैसला सुना दिया...चप्पल ट्रेन में नहीं है, किसी ने जानबूझ कर बाहर फेंक दिया है।

लोहे का घर-55

क्या मैं सही ट्रेन में बैठा हूँ?
.................................

न जाने कौन टेसन उतरेगा, बनारस से चढ़ा, पैसिंजर ट्रेन के बाथरूम में घुस कर, सफर कर रहा देसी कुत्ता! सौ/दो सौ किमी की यात्रा के बाद जब वह उतरेगा ट्रेन से तो उस पर कितना भौंकेंगे अनजान शहर के कुत्ते! क्या जी पायेगा चैन से? क्या हो जाएगी वहाँ के कुत्तों से दोस्ती? क्या मान लेंगे वे इसे अपना साथी? और क्या लौट कर देख पायेगा कभी अपनी जन्म भूमि? कैसे पहचानेगा वह, कौन सी है, बनारस जाने वाली ट्रेन?

मन में, ढेर सारे प्रश्न लेकर, देर तक देखता रहा मैं उसको। उतारना चाहा तो भौंकने लगा! जैसे पूछ रहा हो..तुम क्या सही ट्रेन में बैठे हो? 

अब मैं वाकई सोच रहा हूँ..क्या मैं सही ट्रेन में बैठा हूँ? अपने हक की रोटी के लिए क्या मुझे कभी नहीं करना पड़ा संघर्ष? क्या कोई, कभी, मुझे काटने नहीं दौड़ा? क्या इस ट्रेन में चढ़ने से पहले मेरे पास कई विकल्प थे? क्या मैं खूब सोच समझ कर चढ़ा हूँ इस ट्रेन में या जो ट्रेन मिली, उसी पर चढ़ गया? क्या मुझे अपनी मंजिल का ज्ञान है? क्या बहुत बड़ा फर्क है उस कुत्ते में और मुझ में? या सिर्फ इतना कि वह कुत्ता है इसलिए पैसिंजर ट्रेन के बाथरूम में, बिना टिकट , सफर कर रहा है और मैं मनुष्य हूँ, इसलिए टिकट कटा कर सीट पर बैठा हूँ। वह गलत दिसा में जा रहा है तो क्या मेरा मार्ग सही है? मैने उसे सही रास्ता दिखाने का प्रयास किया तो वह मुझ पर भौंका! क्या कोई मुझे सही राह दिखाता है तो मैं चुपचाप मान लेता हूँ? क्या मैं सही ट्रेन में बैठा हूँ?

14.7.19

न बिकने वाले घोड़े

वह अस्तबल नहीं, देश का जाना माना, एक प्राइवेट प्रशिक्षण संस्थान था जहाँ देश भर से घोड़े उच्च शिक्षा के लिए आते। संस्थान में कई घोड़े थे। मालिक चाहता कि सभी घोड़े और तेज दौड़ें. और तेज..और तेज। इस 'और' की हवस को पाने के लिए वह अनजाने में ही घोड़ों के प्रति क्रूर होता चला गया। धीरे-धीरे घोड़े भी मालिक के स्वभाव से अभ्यस्त हो गये। दौड़ने का उत्साह जाता रहा।  प्रभु से प्रार्थना करने लगे कि हे प्रभु! कोई सौदागर भेज दे तो इस मालिक से जान बचे। मालिक भी सोचने लगा कि घोड़े अच्छे दामों में बिकें तो संस्थान का और नाम हो, अगले साल सीजन में, और अच्छे घोड़े मिलें, और कमाई हो।

प्रशिक्षण की अवधी समाप्त होने से पहले ही संस्थान में व्यापारी आने लगे। मालिक घोड़ों की पीठ थपथपाता और व्यापारियों से अपने घोड़ों की खूब तारीफ करता मगर सौदागर बार-बार यही कहता---मुझे घोड़े तो दिखाओ! तुमने तो इस अस्तबल में गधे पाल रखे हैं!!!

व्यौपारी, खूब जांच परख कर, घुड़दौड़ के बाद, चैम्पियन घोड़ों पर, गधे का दाम लगाते। घोड़े सोचते..बच्चू! चलो ठीक है, आज तुम्हारी बारी है, कल जब हम बड़े रेस में दौड़ेंगे तो कोई और व्यापारी मिलेगा जो हमारी सही कीमत समझेगा। जो घोड़े बिक जाते वे कुलाँचे भरते हुए पार्टी करते, जो नहीं बिक पाते मायूस हो जाते। न बिकने वाले घोड़े सोचते.. घर वालों ने हमारी पढ़ाई में सब कुछ दांव पर लगा दिया, अब घर किस मुँह से जांय? घर वाले भी कहते..और प्रयास करो, सफलता तुम्हारे कदम चूमेगी। 

देश में बढ़ रही हैं कम्पनियाँ, बढ़ रहे हैं प्रशिक्षण संस्थान और बढ़ रहे हैं न बिकने वाले घोड़े। घोड़ों पर दाम लगाने की जिन पर जिम्मेदारी है वे सदियों से यही समझ रहे हैं कि देश में व्यापार बढ़ रहा है। देश हमारे भाषणों से खूब तरक्की कर रहा है।

न बिकने वाले घोड़े, गले में प्रशिक्षण प्राप्त होने का पट्टा बांधे, शहर-शहर, सड़क-सड़क, मारे-मारे फिरते हैं। हर वर्ष बढ़ रही है इनकी संख्या। मुझे डर है कि ऐसे ही बढ़ती रही इनकी संख्या तो एक दिन ये जान जाएंगे कि हम गधे या घोड़े नहीं हैं। हम भी व्यौपारियों की तरह, प्रशिक्षकों की तरह, अधिकारियों की तरह, नेताओं की तरह एक आम इंसान हैं और हमें भी, भर पेट रोटी खा कर, जीने का अधिकार है। जिस दिन जान जाएंगे वे दरवाजे तोड़ कर घुसेंगे जरूर..व्यापारियों के घरों में, जिम्मेदारों के सदन में और अगर संतुलन अधिक गड़बड़ाया तो हमारे/आपके घरों में भी। 

12.7.19

लोहे का घर-54

ट्रेन बहुत देर से रुकी थी। उस प्लेटफॉर्म पर रुकी थी जहाँ उसे नहीं रुकना चाहिए। ऐसे रुकी थी जैसे पढ़ाई पूरी करने के बाद, नौकरी की तलाश में, अनचाहे प्लेटफार्म पर, कोई युवा रुक जाता है। ट्रेन बहुत देर से रुकी थी। मैं बाहर उतरकर देखने लगा..माजरा क्या है? कब होगा हरा सिगनल?

मेरे इस प्रश्न का  उत्तर किसी के पास नहीं था। अनिर्धारित प्लेटफॉर्म पर रुकी ट्रेन कब चलेगी? यह एक यक्ष प्रश्न है। जैसे बेरोजगार युवक को नहीं पता होता कि उसे कब नौकरी मिलेगी? वैसे ही ट्रेन के यात्रियों को भी नहीं पता होता कि लाल सिगनल कब हरा होगा? रुकने का समय पता हो तो यात्री उतने समय का सदुपयोग कर लेंगे। आसान हुआ तो सड़क मार्ग से जल्दी घर पहुँच जाएंगे। चाय नाश्ता कर लेंगे, कोई पिकनिक स्थल हुआ तो घूम आएंगे। जो मर्जी सो कर लेंगे। उन्हें ऐसा नहीं लगेगा कि हम कहाँ कैद हो गए! कितने यात्री तो ऐसे भी होते हैं जिन्हें आगे, मात्र 6 किमी की दूरी पर, निर्धारित प्लेटफार्म से दूसरी ट्रेन पकड़नी है। पता हो, एक घण्टा नहीं जाएगी तो 6 किमी कोई रिक्शा ही पकड़कर  पहुँच जाय। बहुत समय हो तो कहीं खेत में घुसकर पकड़म पकड़ाई ही खेल लें! लेकिन इधर रिक्शे में बैठे, उधर ट्रेन चल दी तो? शायद रेलवे वाले जानते हैं कि आम आदमी के पास बरबाद करने के लिए खूब समय होता है। बेरोजगार को मालूम हो कि जो फॉर्म वह भर रहा है, उसका परिणाम बुढ़ौती में आएगा तो वह फॉर्म भरे ही क्यों? मनमर्जी रोकें मगर रेलवे को यात्रियों को बताने की व्यवस्था करनी चाहिए ताकि ट्रेन जब तक रुकी रहे, लोग अपने सुविधानुसार समय का सदुपयोग कर लें। जैसे ट्रेन के आने/जाने की घोषणा करते हैं वैसे ही यह भी घोषणा करवा दें...यात्रीगण कृपया ध्यान दें! ट्रेन नम्बर 13484 शिवपुर स्टेशन पर एक घण्टे आराम की मुद्रा में खड़ी रहेगी, यात्रियों को हुई असुविधा के लिए खेद है। 

ट्रेन से उतरकर पटरी-पटरी आगे बढ़ने लगा। इंजन के पास, जनरल बोगी के बाहर बहुत अधिक भीड़ थी। खीरा वाले, आइसक्रीम वाले, लस्सी वाले, पकौड़ी वाले, ठंडा पानी/मैंगोजूस वाले, गुटखा/पान वाले सभी तैनात थे। ऐसा लग रहा था जैसे गांव का कोई मेला लगा है! पास जाकर खीरे वाले से पूछा..क्या बात है? उस बोगी के सामने इतनी भीड़ क्यों लगी है? खीरे वाले ने जो जवाब दिया वह चौंकाने वाला था...एक मिली के लइका भयल हौ! (एक महिला को पुत्र पैदा हुआ है)! मुझे लगा, मुझे अपने यक्ष प्रश्न का उत्तर मिल गया। गम्भीर हो कर बोला..अच्छा! तभी ट्रेन इतने देर से रुकी है? दुकानदार झल्ला गया...नाहीं मालिक! ट्रेन रुकल हौ, एहसे ओहके यहीं लइका हो गयल। ( नहीं भाई! ट्रेन रुकी है, इसलिए महिला को यहीं लड़का हो गया!) मैं सोचने लगा..ट्रेन घंटों से न रुकी होती तो शायद महिला को अस्पताल में बच्चा होता। तब? क्या वह स्वस्थ है? तभी लोकल ग्रामीण महिलाओं का दल आता दिखा। उन्होने घोषणा किया.. जच्चा/बच्चा दोनो स्वस्थ हैं। जो-जो जरूरी काम था हम लोगों ने बोगी में चढ़ कर पूरा कर दिया! 

ग़ज़ब का देश है यह! ऐसा केवल भारत में ही सम्भव होगा। ट्रेन इतनी लेट हुई कि रास्ते में ही महिला को लड़का हो गया! और ट्रेन कब तक रुकेगी नहीं पता लेकिन लोकल ग्रामीण महिलाएं ट्रेन में चढ़कर सकुशल डिलीवरी करा कर उतर भी गईं! मैने लस्सी पी, पान खाया और अपना माथा पकड़ कर बगल के एसी कोच में घुस गया। यहाँ का नजारा एकदम भिन्न! यहाँ किसी को कोई फिकर नहीं! किसी को कुछ पता नहीं कि बगल की बोगी में एक महिला ने बच्चा जना! सभी अपने अपने मोबाइल में डूबे हुए! यह तो वही बात हुई कि घर में कोई बीमार पड़े और बीमार को पड़ोसी अस्पताल ले जांय लेकिन घर वालों को पता ही न हो! बहुत देर बाद एक ने मोबाइल से गरदन निकालकर पूछा...यह कौन सा स्टेशन है? 

22.6.19

लोहे का घर-53




इस मौसम की पहली बारिश हुई जफराबाद स्टेशन में। झर्र से आई, फर्र से उड़ गई। ढंग से सूँघ भी नहीं पाए, माटी की खुशबू। प्रयागराज जाने वाली एक पैसिंजर आ कर भींगती हुई खड़ी हो गई। बड़ी इठला रही थी! गार्ड ने हरी झण्डी दिखाई तो कूँ€€€ चीखते, शोर मचाते/भींगते चली गई। अभी थोड़ी दूर नहीं गई होगी कि रुक गई बारिश। उमसिया गई होगी। गरम तवे पर, छन्न से भाप बन कर उड़ने वाले पानी के छीटों की तरह, नहाई होगी, पैसिंजर।

खुश थे कुछ धूल भरे पत्ते, मिट्टी से उठ ही रही थी सोंधी-सोंधी खुशबू, तभी रुक गई बारिश। आ गई अपनी फिफ्टी डाउन। एक घण्टे देर कर दी आज आने में। जरूर बारिश में नहाने के चक्कर मे रुक गई होगी कहीं।

बड़ी उमस वाली गर्मी है। पसीने-पसीने हुए हैं लोग। ट्रेन चले तो हवा भीतर आये। चलने पर राहत है। खेतों की मिट्टी में दिख रही है नमी। लगता है दूर तक हुई है, थोड़ी-थोड़ी बारिश। लगता है राजा ने न्याय किया है! सभी को बराबर-बराबर बांटा है बारिश का पानी। असली खबर तो मीडिया बताएगी। जब घर जा देखेंगे समाचार।



देर से रुकी है #ट्रेन अनिर्धारित प्लेटफार्म पर। मौके का फायदा उठा रहा है एक #छोकरा। साइकिल में बेच रहा है पानी। मैने कहा..एक फोटू खिंचवाओ! उसने बेफिक्री से कहा..हींच लो.।


वीरापट्टी में, दो सहेलियों की तरह अगल बगल खड़ी हो, देर से बतिया रही हैं, दून और फिफ्टी। दोनो के बीच मे खड़े हैं रोज के यात्री। जो पहले चलेगी, उसी में चढ़ेंगे! ट्रेने हैं कि चलने का नाम ही नहीं ले रही। इनकी बातें खतम ही नहीं हो रही। 

फिफ्टी ने दून से कहा..हाय दून! अभी तक यहीं हो! इतनी लेट? दून झल्ला रही है...तुम राइट टाइम हो न? फिर क्यों खड़ी हो? बात करती हो। क्या चलना, रुकना हमारे हाथ में है?  फिफ्टी ने कहा..सुनो न, यात्री लोग कित्ती गन्दी-गन्दी गाली दे रहे हैं हमको। ये नादान हैं, नहीं जानते कि अपने बस में कुछ भी नहीं, सबकी डोर ऊपर वाले के हाथ मे है।


वीरपट्टी के बाद अगले स्टेशन शिवपुर में, फिर रुकी देर तक #दून। पता चला, अभी मालगाड़ी आगे गई है। #फिफ्टी अभी वीरपट्टी में ही होगी। यहाँ भी इसका स्टॉपेज नहीं है। बकायदा लस्सी, पान की दुकानें खुल गई हैं इस वीराने में भी। पता नहीं, इन लोकल दुकानदारों की स्टेशन मास्टर से कोई सेटिंग तो नहीं है! कि जैसे ही कोई एक्सप्रेस आये, मालगाड़ी छोड़ देना!!!

18.6.19

पिता जी



        गंगा की लहरें, नाव, बाबूजी और तीन बच्चे। इन तीन बच्चों में मैं नहीं हूँ। तब मेरा जन्म ही नहीं हुआ था।

पिताजी के साथ अपनी बहुत कम यादें जुड़ी हैं लेकिन जो भी हैं, अनमोल हैं। सबसे छोटा होने के कारण मैं उनका दुलरुआ था। इतना प्यारा कि शायद ही कोई मेरा बड़ा भाई हो जिसने मेरे कारण पिटाई न खाई हो। साइकिल चलाना, गंगाजी में तैरना सिखाना, यहाँ तक कि सरकारी प्राइमरी स्कूल में दाखिला दिलाने भी पिताजी नहीं गए। मेरी टांग टूटे या खोपड़ी फूटे, बुखार आए या पेट झरे, सब जगह बड़े भाई ही दौड़ते। वे सिर्फ डांटते और पैसा देते। उनका मानना था कि सारी मुसीबतें मेरी ही बुलाई हुई हैं। मैं यह समझता हूँ कि पिताजी के पैसे पेड़ में उगते हैं जिन्हें खर्च कराना ही मेरा एकमात्र उद्देश्य है!  प्रत्यक्ष पिताजी कुछ नहीं करते थे लेकिन उनका होना ही मेरे लिए सब कुछ था।

जब तक वे थे मैं आस्तिक था, जब वे नहीं रहे, नास्तिक हो गया। जवानी में कदम रखने से पहले ही वे भगवान के घर चले गए। पिताजी क्या गए मैने उनके सभी भगवानो की छोटी मूर्तियों को, पॉलिथीन में रखा और बक्से में बंद कर दिया। जब पिताजी को नहीं बचा सकते तो भगवान का क्या काम?

एक बार, पिताजी के कंधे पर बैठ, नाटी ईमली का भरत मिलाप देखने गया था। नाटी इमली का भरत मिलाप मतलब बनारस का लख्खा मेला। लाखों की भीड़ में घंटों कंधे पर बिठा कर घुमाने वाला पिताजी के अलावा दूसरा कौन हो सकता था! वे पिता जी ही थे।

जब गणित के किसी सवाल में अटकता, पूछने पर, पिताजी बता देते। वे अधिक नहीं पढ़े थे लेकिन उनके पास मेरे सभी प्रश्नों का हल होता था।

जब हाई स्कूल का रिजल्ट आया, गणित में सौ में 92 नम्बर देख बहुत खुश थे। खुश होकर बोले..मैं तुम्हें ईनाम दूँगा। शाम को मेरे लिए एक टेबल लैम्प ले कर आए! पहले ईनाम में पिज्जा/बर्गर खिलाने या मोबाइल दिलाने का चलन नहीं था।

पिताजी शतरंज के दुश्मन और ब्रिज के खिलाड़ी थे। ब्रिज के खेल में चार खिलाड़ी होते हैं। जब वे तीन होते तो मुझे बुलाकर अपना पार्टनर बना लेते। मैं केवल पत्ते पकड़ता और कलर की  बोली बोलता। बोली फाइनल होते ही मेरे पत्ते या तो बिछ जाते या पिता जी के हाथों चले जाते।

पिताजी एक नम्बर के धोबी और तमोली थे। सुबह उठकर पान के छोटे-छोटे टुकड़े काटते, पान के बीड़े बनाते और उन्हें एक छोटे से लाल कपड़े में लपेट कर, स्टील के पनडब्बे में सहेजते। झक्क सुफेद धोती, कुर्ता पहन कर ऑफिस जाने से पहले घर भर के कपड़े धोना, नील और टीनोपाल से चमकाना उनकी आदत थी। वे भयंकर परिश्रमी थे। उनकी कंजूसी से उनके ईमानदारी का पता चलता था। दस पैसा बचाने के लिए एक दो कि.मी. पैदल चलना आम बात थी।

बाबू जी के मित्र थे स्व0 अमृत राय जी। शायद अपनी साहित्यिक गतिविधियों से पीछा छुड़ाकर यदा-कदा बाबूजी से मिलने ब्रह्माघाट आते। शाम को नैया खुलती और लालटेन की रोशनी में देर शाम तक जाने क्या बातें होती!

तब मैं छोटा बच्चा था। मेरी समझ में कुछ न आता। अमृत राय से बाबूजी की कैसी मित्रता! बाबूजी को धर्मयुग, हिन्दुस्तान, सारिका, कादम्बिनी पढ़ने के अतिरिक्त अन्य किसी साहित्यिक गतिविधी में हिस्सा लेते नहीं देखा। मैं भी अमृत राय के बारे में कुछ जानता न था। उन्हें कभी भाव नहीं देता। वे परिहास करते-कभी तुम्हारे बाबूजी से मेरी कुश्ती हो तो कौन जीतेगा? मैं ध्यान से दोनों को देखता। अमृत राय, बाबूजी से खूब लम्बे, मोटे-तगड़े थे। मैं उनकी बातें सुन हंसकर भाग जाता। कई बार ऐसा हुआ तो एक दिन मुझसे भी रहा न गया। झटके से बोल ही दिया-बाबा आपको उठाकर पटक देंगे!

बाबूजी मेरा उत्तर सुन अचंभित हो मुझे डांटने लगे-तुमको पता भी है किससे बात कर रहे हो? ये मुंशी प्रेम चन्द्र जी के पुत्र हैं। जिनकी कहानियाँ तुम्हारे कोर्स की किताब में पढ़ाई जाती है। चलो! माफी मागो। मैं कुछ कहता इससे पहले अमृत राय जी ने मुझे गोदी में उठा लिया और हंसकर बोले-अरे! बिलकुल ठीक उत्तर दिया लड़के ने। यही उत्तर मैं इसके मुँह से सुनना चाहता था।

पिताजी की मृत्यु 8 जून 1980 के बाद अमृत राय जी का एक अन्तरदेसीय शोक सन्देश आया था और कुछ याद नहीं।

वे कहा करते..रिटायर होते ही हम भी चले जाएंगे। हम सोचते..पता नहीं कहाँ जाएंगे! भारतीय जीवन बीमा निगम से रिटायर होते ही एक दिन वे बीमार पड़े और फिर नहीं उठे। पन्द्रह दिनों की बीमारी के बाद हमे ही उन्हें उठाना पड़ा। उनके शरीर मे कितने रोग थे यह उनके बीमार पड़ने पर डॉक्टरों से ही पता चल पाया। जब तक जीवित थे, मेरे शक्तिमान थे।

लोहे का घर-52

गरमी के तांडव से घबराकर घुस गए ए. सी. बोगी में। दम साधकर बैठे हैं लोअर बर्थ पर। बाहर प्रचण्ड गर्मी, यहाँ इतनी ठंडी कि यात्री चादर ओढ़े लेटे हैं बर्थ पर! ए. सी.बोगी में गरमी तांडव नहीं कर पाती, गेट के बाहर चौकीदार की तरह खड़ी हो, झुनझुना बजाती है। पैसा वह द्वारपाल है जो हर मौसम को अपने ठेंगे पर रखता है।

भीतर दो यात्री बैठने के प्रश्न पर तांडव मचा रहे हैं। लोअर बर्थ वाला बैठना चाहता है, मिडिल बर्थ वाला लेटना चाहता है। मिडिल बर्थ वाला कहता है.. मेरी बर्थ है, मैं क्यों गिराऊँ? मुझे नहीं बैठना, लेटना है। लोअर बर्थ वाला नियम बता रहा है..सुबह छः बजे से शाम दस बजे तक आप सो नहीं सकते। आपको बर्थ गिराना होगा। मन कर रहा है, जाकर नियम की जानकारी दूँ। बुद्धि कहती है.. चुपचाप बैठो रहो, झगड़े में पड़े और किसी ने पूछ लिया..आपकी कौन सी बर्थ है तो? जो खुद गलत हो उसे दूसरे को सही/गलत का उपदेश नहीं देना चाहिए। कछुए की तरह मुंडी घुसाकर हरि कीर्तन करना चाहिए। खैर कुछ सही लोग भी थे अगल-बगल जिन्होंने मामला सुलझाया और झगड़ा आगे नहीं बढ़ा।
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शाम के 6 बज चुके हैं लेकिन लोहे के घर की खिड़कियों से घुसी चली आ रही हैं सूर्य की किरणें। ढलते-ढलते भी, दहक/चमक रहे हैं, सुरुज नरायण! भीड़ है लोहे के घर में। एक स्लीपर बोगी के लोअर बर्थ में एक महिला लेटी हुई थीं। न वो उठने को तैयार हुईं न किसी की दाल गली। मैने कहा..आप आराम से लेटिए, मुझे बस, मिडिल बर्थ उठाने दीजिए। वो तैयार हो गईं। अब मैं भी लेटा हूँ मिडिल बर्थ में, वो भी सो रही हैं आराम से। जो महिला को उठाने का प्रयास कर रहे थे, मुँह बनाकर आगे बढ़ चुके। थोड़ा दिमाग चलाओ, प्रेम से बोलो तो बिगड़े काम भी बन सकते हैं। झगड़ने या कानून बताने से आसान काम भी कठिन हो जाता है।

गरमी का हाल यह है कि किसी टेसन में जब गाड़ी रुकती है तो प्यासे यात्री, खाली बोतल लेकर, पानी की तलाश में, प्लेटफॉर्म पर दौड़ते/भागते नजर आते हैं। इनमें मिडिल क्लास के मध्यमवर्गीय हैं, जनरल बोगी के गरीब हैं। इनमें सबके वश में नहीं होता, ए. सी. क्लास की तरह मिनिरल वाटर खरीदना। हैंडपम्प के इर्द-गिर्द गोल-गोल भीड़ की शक्ल में जुटे सभी यात्रियों में एक समानता है, सभी आम मनुष्य हैं। पलटकर बार-बार देखते रहते हैं ट्रेन। कहीं चल तो नहीं दी! कान खरगोश की तरह इंजन के हॉर्न पर, निगाहें अर्जुन के तीर की तरह बूँद-बूँद गिर रहे पानी पर। जिसकी बोतल भर जाती है, जरा उसकी विजयी मुद्रा तो देखिए! आह! जनम का प्यासा लगता है। खड़े-खड़े घुसेड़ देना चाहता है पूरी बोतल, अपने ही मुँह में! गट गट, गट गट।

ट्रेन का हारन बजा, रेंगने लगी प्लेटफॉर्म पर। भीड़ काई की तरह छंट गई। जो खाली बोतल लिए लौटे उनके चेहरे ऐसे लटके हुए थे जैसे धर्मराज जूएँ में हस्तिनापुर हार गए हों! जो बोतल भर कर लौटे वे ऑस्ट्रेलिया को विश्वकप में हराने वाली क्रिकेट टीम की तरह उछल रहे थे! गरमी का और आनन्द लेना हो तो जनरल बोगी में चढ़ना पड़ेगा। जब पड़ती है मौसम की मार तब पता चलता है कि आदमियों के कई प्रकार होते हैं। एक लोहे के घर में कई प्रकार की बोगियाँ होती हैं। स्वर्ग भी यहीं है, नर्क भी यहीं है। 

भगवान का नहीं, उत्तर रेलवे के नियंत्रक का शुक्र है कि ट्रेन हवा से बातें कर रही है। हवा भी ट्रेन से बातें करते-करते, खिड़कियों के रास्ते मुझे छू कर निकल रही है। गर्म है तो क्या! हवा तो हवा है। नियंत्रक सो जाय या किसी काम में डूबा सिगनल देना भूल जाए तो ट्रेन रुक सकती है। ट्रेन के रुकते ही हवा भी रुक सकती है। सूरज के साथ नियंत्रक ने भी तांडव दिखाया तो आम आदमी हवा के लिए भी मोहताज हो जाएंगे। अब चीजें मुफ्त नहीं मिलतीं। धूप, हवा और पानी मुफ्त लुटाने वाले भगवान को भी नहीं पता कि उनके बाद धरती पर नियंत्रक और भी हैं। 
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सुबह 9 बजे का समय है। वाराणसी कैंट से आगे बढ़ चुकी है, हावड़ा-अमृतसर। बहुत ही शानदार दृश्य है। पाँच पंजाबी महिलाएं मिस्सी रोटी और आम का अचार खा रही हैं और खाते-खाते आपस में खूब बतिया रही हैं। आप कहेंगे इसमें शानदार क्या है?
शानदार यह है कि तीन महिलाएं, सामने के तीन बर्थ पर, एक के ऊपर एक क्रम से बैठी हैं और दो, साइड लोअर/साइड अपर बर्थ पर, एक के ऊपर एक। मैं तस्वीर खींचने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा। सभी बहुत हट्टी-कट्टी हैं। 
बगल की बोगी से एक और आ गयीं..ओए! कित्थे बैठी है? अब छवों महिलाएं, भंयकर अंदाज में, रहस्यमयी बातें कर रही हैं! अपने इलाके की महिलाएं भी जब रहस्यमयी अंदाज में आपस में, बतियाती हैं तो कोई बात अपने पल्ले नहीं पड़ती, यह तो पंजाबन हैं। इनके हाथ नचाने के ढंग, आँखें फाड़ कर चौंकने का अंदाज और किसी को कोसने जैसा हावभाव देख कर लगता है कि छठी महिला ने जरूर कोई नई खबर शेयर करी है, जिससे ये अपनी मिस्सी रोटी हाथों में धरे-धरे बतियाने में मशगूल हो गई हैं।
छठी महिला अपना काम कर के जा चुकी हैं। अब पाँचों फिर से चटखारे ले कर मिस्सी रोटी खा रही हैं और नई जानकारी पर बहस कर रही हैं। एक चाय वाला आया और सभी चाय-चाय चीखते हुए, चाय लेकर पीने लगीं। चाय पी कर लेट गईं और अब लेटे-लेटे बतिया रही हैं। इनको फोन से बात न हो पाने और नेटवर्क न मिलने का काफी मलाल है। सभी अपनी- अपनी कम्पनी को कोस रही हैं। हाय रब्बा! कोई नई मिलदा नेटवर्क!!! सही बात है, आपस में कितना बतियाया जाय? नेटवर्क मिलता तो कुछ दारजी से भी बातें हो जातीं।

गर्मी का ताण्डव

इतने तनाव में क्यों हो? धूप में पैदल चलकर आ रहे हो? 
नहीं भाई, समाचार देख कर आ रहा हूँ। 
अरे! रे! रे! इतना जुलुम क्यों किया अपने ऊपर? जेठ की दोपहरी में दस किमी पैदल चलना मंजूर, समाचार देखना नामंजूर। 
क्या बताएं यार! आज छुट्टी थी, कोई काम भी नहीं था, बाहर धूप थी, सोचा समाचार ही देख लें...
बस यहीं चूक कर गए। 
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धूप के कई साइड इफेक्ट हैं। धूप में चलना पड़े तभी समस्या होगी यह जरूरी नहीं। धूप में न चल पाना और घर में ही फँसे रह जाना भी मुसीबत का कारण बन सकता है। ऐसे वक्त समस्याएँ आपको निर्बल जान, आप पर आक्रमण कर सकती हैं। गरमी भेष बदल कर तांडव करती है!

सारा दिन घर में हो, कोई ढंग का काम नहीं किए! कम से कम बाथरूम ही साफ़ कर लिया होता!!!

इतने मैले कपड़े खूँटी में टँगे हैं, इनको ही धो लिया होता।वाशिंग मशीन में ये अपने से उड़ कर तो जाएंगे नहीं। शर्ट के कॉलर, पैंट की मोहरी..सब वाशिंग अपने से साफ नहीं करती जनाब! थोड़े हाथ भी चलाने पड़ते हैं।

छुट्टी में ए.सी.की जाली नहीं साफ़ करेंगे तब कब करेंगे?
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बनारस की गलियों में यह समस्या नहीं है कि गरमी प्रचण्ड है तो घर से बाहर कैसे निकलें? एक गमछा लपेटो, एक कंधे पर रखो और निकल कर बैठ जाओ पास के किसी पान/चाय की अड़ी पर। अरबपति भी छेदहा बनियाइन पहने, पान घुलाए बैठे दिख जाते हैं। बहरी अलंग गांवों में रहने वाले भी पूर्वजों के पुण्य प्रताप से लगाए किसी घने बरगद/नीम/आम के नीचे खटिया बिछा कर बेना डुलाते, बेल फोड़ते/घोलते, खैनी रगड़ते दिन काट लेते हैं। समस्या शहरी कॉलोनी में रहने वालों के लिए है। गरमी उनके सर पर चौतरफा तांडव करती है। ए.सी. कमरे से निकल कर मॉल में घुस सकते हैं लेकिन कितने दिन? अधिकतर तो दिखावटी रईस हैं! एक दिन के बाद दूसरे दिन से ही बजट गड़बड़ाने लगता है। भरे बाजार, बिगड़ता EMI नजर आने लगता है। पड़ोसी को कार निकालते देख चिढ़ने/खीझने लगते हैं। मुँह से बिगड़े बोल निकलने लगते हैं... बहुते गरमी चढ़ल हौ! जल्दिए दख्खिन में मिल जाई। अब इस वाक्य में गरमी का अर्थ सुरुज नारायण के धूप से नहीं, पैसे की प्रचुर मात्रा से है। 'दख्खिन में मिलना' एक अश्लील गाली है जिसे बनारसी ही समझ सकते हैं और दूसरे जो नहीं समझते, न ही समझें तो अच्छा है। बनारसी समझें तो कोई हर्ज भी नहीं, वे रोज ऐसी गाली देते/लेते रहते हैं। 
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एक दिन मैं, जेठ दुपहरिया के मध्यान में, सर पर गमछा लपेटे, हेलमेट पहने, ट्रेन पकड़ने, तारकोल की सड़क पर, बाइक चलाते हुए, अपनी धुन में, चला जा रहा था। बगल से चाँद खोपड़ी वाला, एक प्रौढ़, स्कूटी से गुजरा! मैं कभी अपना गमछा/हेलमेट सही करता, कभी उस चन्डुल को हैरत से देखता। तीखी सूर्य किरणों का ताप इतना ज्यादा था कि मेरे चप्पल से बाहर निकलती उँगलियाँ भी झुलस जाना चाहती थीं। यह शक्श कैसे इस धूप में सही सलामत, नङ्गे सर, स्कूटी चला रहा है! जैसे सूर्य की रोशनी पा, पूनम का चाँद चमकता है, वैसे ही उसकी दिव्य खोपड़ी दिनमान की आभा से देदीप्यमान थी। मन किया पूछ लूँ..भाई साहब! आपको गर्मी नहीं लग रही? 

तभी उसने स्कूटी साइड में करी, पिच्च से पान थूका और फोन में गरजने लगा..खोपड़ी धूप से भन्ना गयल हौ भो#ड़ी के! तू हउआ कहाँ?...

उसने आगे भी कुछ सांस्कृतिक शब्दों का प्रयोग किया होगा लेकिन मैं जल्दी में था और निकल लेने में ही अपनी भलाई समझी। सोचा..मैं भी कितना मूर्ख हूँ! बाल-बाल बचा। सूरज की गरमी उसके सर पर तांडव कर रही थी और मैं आग में घी डालने जा रहा था! 
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4.6.19

हे माँ शारदे !

कुछ शब्द दो

गूँथ कर 

सारे जहाँ के पाप 

हवन कर दूँ

बोल दूँ,

'स्वाहा!



कुछ शब्द दो

तट पर जा

अंजुरी-अंजुरी चढ़ाऊँ

फिर से 

स्वच्छ/निर्मल

कल-कल बहने लगे

सभी नदियाँ।


दूर हो

पर्यावरण का संकट

जीवित रहें

जल चर, थल चर, नभ चर

मर जायें सभी

वृक्षों को काटने वाले 

राक्षस।


चमत्कार करो माँ!

कुछ शब्द दो

उछालूँ जहरीली हवा में

नभ चीर कर बरसें बादल उमड़-घुमड़

भर जाए

ताल-तलैयों से

धरती का ओना-कोना

हरी भरी हो 

खुशी से 

खिलखिलाने लगे 

धरती माँ।

........

31.5.19

बुद्धिजीवी

बुद्धिजीवी वह जो खाली पेट तो भगवान से भोजन की याचना करे और जब पेट भरा हो, उसी भगवान को गाली देने में रत्ती भर भी संकोच न करे। बुद्धिजीवी वह परजीवी होता है जो खुद को सबसे बड़ा श्रमजीवी समझता है। बुद्धिजीवी वह जो चौबीस घण्टे काम करे मगर अपने कुर्ते में धूल की हल्की-सी परत भी न जमने दे। बुद्धिजीवी वह जो हर पल अपने मुखारविंद से बुद्धि का दान करता रहे। बुद्धिजीवी वह जिसके दरवाजे, दूसरे के खेत की कटी फसल खुद चलकर पहुँचे और नमस्कार करते हुए कहे..श्रीमान जी! मुझे खाने की कृपा करें। बुद्धिजीवी वह जो भक्त और उसकी भक्ति को आतंकवादी कहे मगर चुनाव के मैदान में उसी से पाला पड़ जाय तो उससे भी बड़ा भक्त कहलाए जाने के लिए उससे भी अधिक भजन-कीर्तन, हवन-पूजन करे।

समय के साथ परिभाषाएं बदल जाती हैं। एक जमाना था जब जामवंत जैसा दिखने वाला हर शक्श बुद्धिजीवी कहलाता था। बढ़ी दाढ़ी, खिचड़ी बाल, बेढंगे/मैले कपड़े, नशे में टुन्न होकर, हवा में सिगरेट के छल्ले उड़ाते किसी शक्श को देख हम झट से अनुमान लगा लेते थे कि यह पक्का बुद्धिजीवी होगा। अब ऐसा समझना मूर्खता का सूचक है। अब ऐसी दसा आम मजदूरों की होती है। बुद्धिजीवी अब सड़क पर नहीं भटकता, लोकतंत्र के हर खम्बे के ऊपर शान से चढ़ कर, अपने झण्डे गाड़ता है। पहले बुद्धिजीवियों के रहने का ठिकाना भी दुर्लभ होता था। आज तो, जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे बुद्धिजीवी। 

बुद्धिजीवी बनने की एक शर्त यह भी होती है कि उसकी बुद्धि पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो और बाजार में समस्त मूर्खों/ बुद्धिजीवी बनने की प्रक्रिया में लगे सभी बुद्धिमानों के सूचनार्थ उपलब्ध हो। पुस्तक पढ़ना तो उसके लिए भी जरूरी नहीं जिसके नाम से पुस्तक छपी है। सर्वसाधारण को बस संसूचित होना चाहिए कि फलां बुद्धिजीवी इसलिए है कि उसने इतनी सारी किताबें लिखीं हैं। वैसे भी अधिक पुस्तकें लिखने वाले असली बुद्धिजीवी को भी कई साल पहले लिखी अपनी ही बात कहाँ याद रह पाती है! मन चाहे किसी की पुस्तक पढ़कर लेखक से उसी के लिखे से बहस भिड़ा कर देख लीजिए..अपने ही लिखे के विरोध में तर्क देने लगेगा। याद दिलाओ तो कह देगा.."ओह! ऐसा! वह सन्दर्भ ही दूसरा था, पूरा पढ़ो तब समझ पाओगे।" शायद इसी का नतीजा है कि चाहे जिस फील्ड में हों, प्रत्येक बुद्धिजीवी के नाम, कम से कम एक पुस्तक जरूर प्रकाशित होती है। 

बुद्धिजीवी बनने के लिए पी.एच.डी. करके डॉक्टर कहलाने से ज्यादा जरूरी है, कोई श्रमिक आपके विचारों पर पी.एच.डी. करे। बुद्धिजीवी शब्द में ही इतना आकर्षण है कि हर नेता खुद को बुद्धिजीवी कहलाया जाना पसंद करता है। प्यादे से फर्जी भयो, टेढ़ो-टेढ़ो जाय के तर्ज पर हर नेता के पास मंत्री बनते ही बुद्धिजीवी बनने का सुअवसर हाथ लगता है। वह नहीं तो उसके चेले उसके नाम से एकाध पुस्तक छपवा ही देते हैं। 

मैं भी बुद्धिजीवी बनने के मार्ग पर हूँ। पूजा करता हूँ मगर कभी नहीं भी करता। कष्ट में ईश्वर को जरूर याद करता हूँ मगर जब आनंद में होता हूँ, पूछ बैठता हूँ..ईश्वर कौन है? मैं भी बुद्धिजीवी बनने के मार्ग पर हूँ। पुस्तक नहीं छपी मगर कोई प्रकाशक मुफ्त में छापने की कृपा करे तो छपवा भी सकता हूँ।  प्रकाशन के लिए पत्रिकाओं में लेख नहीं भेजता मगर कोई मित्र छपवा दे तो पढ़कर खुश भी होता हूँ। जाड़े में बिना नहाए भी रह लेता हूँ मगर गर्मी में रोज नहाने का उपदेश देता हूँ। पँछी को कभी दाना-पानी दिया तो फेसबुक में पोस्ट करना नहीं भूलता। मैं भी बुद्धिजीवी बनने के मार्ग पर हूँ। गर्मी में गर्मी का रोना रोता हूँ, बारिश में भीगने से डरता हूँ और जाड़े में ठंड से काँपने लगता हूँ। मैं भी बुद्धिजीवी बनने के मार्ग पर हूँ।

मैं भी बुद्धिजीवी बनने के मार्ग पर हूँ।  मेरी तरह और भी बहुतेरे ब्लॉगर्स/ फेसबुकिए राइटर, बुद्धिजीवी बनने के मार्ग पर हैं। कोई-कोई तो पुस्तक-उस्तक छपवाकर, ईनाम-विनाम पाकर बाकायदा बुद्धिजीवी घोषित हो चुके हैं। कोई प्रिंट मीडिया से दोस्ती भिड़ाकर, अपने लिखे कूड़े को भी छपवाकर सर्वमान्य बुद्धिजीवी बन चुके हैं। कुछ असली बुद्धिजीवियों को लगा कि फेसबुक में तो बहुत से बुद्धिजीवी हैं तो वे भी इस प्लेटफॉर्म का उपयोग अपने प्रकाशित पुस्तकों के प्रचार प्रसार के लिए करने लगे। हमको इस आभासी संसार मे सबसे सही बुद्धिमान वे लगे जो लेखन, आलोचना छोड़, सीधे प्रकाशक ही बन बैठे। अब इस घालमेल में असली/नकली का भेद कर पाना बड़ा ही कठिन काम है। जो बुद्धिमान होगा वह तो झट से फर्क कर लेगा, जो अनाड़ी होगा वह लाइक और कमेंट को ही बुद्धिजीवी होने का पैमाना मान कर चलेगा। बुद्धिजीवियों की असली पहचान तब होती है जब देश में चुनाव होते हैं। बड़े-बड़े बुद्धिजीवी भी किसी पार्टी के गली के कार्यकर्ता की तरह आपस में झगड़ते देखे जाते हैं। चुनाव के समय बुद्धिजीवियों के चेहरे से बुद्धि का रंग उतरते देख आप भी दांतों तले उँगलियाँ दबा कर चीख पड़ते हैं.. अरे! यह तो रँगा सियार था! 

जैसे सच्चाई छुप नहीं सकती बनावट के वसूलों से, खुशबू आ नहीं सकती कभी कागज के फूलों से, वैसे ही जो नकली बुद्धिजीवी हैं अपने समय के साथ विस्मृत हो जाएंगे और जो असली बुद्धिजीवी हैं, कबीर की तरह लोगों के जेहन में खोपड़ी-खोपड़ी कूदते हुए सदियों-सदियों तक नज़र आते रहेंगे। बुद्धिजीवी होना गाली नहीं, घनघोर तपस्या का फल है जो सदी में बिरले के भाग में नसीब हो पाता है। आप भी बुद्धिजीवी होने के मार्ग पर हैं तो कुछ गलत नहीं कर रहे बस यह मानना छोड़ दीजिए कि मैं बुद्धिजीवी हूँ। बुद्धिजीवियों की दिल्ली से, मेरी तरह आप भी, अभी कोसों दूर हैं।

13.5.19

माँ

पिता स्वर्ग में रहते
घर में
बच्चों के संग
मां रहती थीं।

बच्चों के सुख की खातिर
जाने क्या-क्या
दुःख सहती थीं।

क्या बतलाएं
साथी तुमको
मेरी अम्मा
क्या-क्या थीं?

देहरी, खिड़की,
छत-आंगन
घर का कोना-कोना थीं।

चोट लगे तो
मरहम मां थीं
भूख लगे तो
रोटी मां थीं
मेरे मन की सारी बातें
सुनने वाली
केवल मां थीं।

स्कूल नहीं गईं कभी पर
कथा कहानी सब सुनती थीं
क्या गलत है, क्या सही है
मां झट से
बतला देती थीं।

बच्चे आपस में लड़ते तो
तुम्हें पता है क्या करती थीं?
जंजीर थी, आँसुओं की,
बांध-बांध पीटा करती थीं।

पिता स्वर्ग में रहते
घर में
बच्चों के संग
मां रहती थीं।

बच्चों के सुख की खातिर
जाने क्या क्या
दुःख सहती थीं।
....................

12.5.19

नदी और कंकड़

वह
घाट की ऊँची मढ़ी पर बैठ
नदी में फेंकता है
कंकड़!

नदी किनारे
नीचे घाट पर बैठे बच्चे
खुश हो, लहरें गिनने लगते हैं...
एक कंकड़
कई लहरें!
एक, दो...सात, आठ, नौ दस...बस्स!!!
वह
ऊँची मढ़ी पर बैठ
नदी में,
दूसरा कंकड़ फेंकता है..।

देखते-देखते,
गिनते-गिनते
बच्चे भी सीख जाते हैं
नदी में कंकड़ फेंकना
पहले से भी ऊँचे मढ़ी से
पहले से भी बड़े और घातक!
कोई कोई तो
पैतरे से
हाथ नचा कर
नदी में ऐसे कंकड़ चलाते हैं
कि एक कंकड़
कई-कई बार
डूबता/उछलता है!
कंकड़ के
मुकम्मल डूबने से पहले
बीच धार तक
बार-बार
बनती ही चली जाती हैं लहरें!!!

न बच्चे थकते हैं
न लहरें रुकती हैं
पीढ़ी दर पीढ़ी
खेल चलता रहता है
बस नदी
थोड़ी मैली,
थोड़ी और मैली
होती चली जाती जाती है।
...............

5.5.19

दड़बे के कबूतर


एक दड़बा था जिसमें निर्धारित संख्या में कबूतर रोज आते/जाते थे। कबूतर न सफेद थे न काले। श्वेत से श्याम होने की प्रक्रिया में मानवीय रंग में पूरी तरह रंग चुके थे। कबूतरों के दड़बे में आने का समय तो निर्धारित था मगर जाने का कोई निश्चित समय नहीं था। दड़बे में रोज आना और अनिश्चित समय तक खुद को गुलाम बना लेना कबूतरों की मजबूरी थी।  उनको अपने और अपने बच्चों के लिए दाना-पानी यहीं से मिलता था।

यूँ तो देश के कानून ने आने के साथ जाने का समय भी निर्धारित कर रखा था लेकिन जिस शहर के मकान में वह दड़बा था उस जिले में राजा ने कबूतरों को नियंत्रित करने और देश हित के कार्यों के लिए जिस बहेलिए की तैनाती कर रखी थी उसे देर शाम तक कबूतरों के पर कतरते रहने में बड़ा मजा आता था। इसका मानना था कि पर कतरना छोड़ दें तो बदमाश कबूतर हवा में उड़ कर बेअन्दाज हो जाएंगे! 

कबूतर भी जुल्म सहने के आदी हो चुके थे। बहेलिया जब किसी एक कबूतर को हांक लगाता, सभी हँसते हुए आपस में गुटर गूँ करते...'आज तो इसके पर इतने काटे जाएंगे कि फिर कभी उड़ने का नाम ही नहीं लेगा!' थोड़ी देर में पर कटा कबूतर तमतमाया, रुआंसा चेहरा, गधे की तरह रेंगते हुए  साथियों के बीच आता और मालिक को जी भर कर कोसता। यह साथी कबूतरों के लिए सबसे आनन्द के पल होते मगर परोक्ष में ऐसा प्रदर्शित करते कि उन्हें भी बेहद कष्ट है!

ऐसा नहीं कि बहेलिया सभी के प्रति आक्रामक था। दड़बे में झांकने वाले कौओं, गिलहरियों, लोमड़ियों, चूहे-बिल्लियों, भेड़ियों या शेर को देखकर गिरगिट की तरह रंग बदलने में माहिर था। किसी को डाँटता, किसी को पुचकारता और किसी किसी के आगे तो पूरा दड़बा ही खोल कर समर्पित हो जाता!

एक दिन उद्यान से भटक कर अपने घोसले को ढूँढता, उड़ता-उड़ता एक नया कबूतर दड़बे में आ फँसा! नए कबूतर को देख बहेलिए की बाँछें खिल गईं..'यह तो तगड़ा है! अधिक काम करेगा।' जैसा कि बहेलियों की आदत होती है वे अपने जाल में फँसे नए कबूतरों का तत्काल पर कतर कर खूब दाना चुगाते हैं ताकि वे नए दड़बे को पहचान लें और इसे ही अपना घर समझें। वह भी नए कबूतर पर मेहरबान हो गया। पुराने कबूतर का चारा भी नए कबूतर को मिलने लगा। साथी कबूतर शंका कि नजरों से गुटर गूँ करने लगे..'कहीं मेरा भी चारा यही न हड़प ले!'

नया कबूतर जवान तो न था लेकिन खूब हृष्ट-पुष्ट था। दड़बे में जिस स्थान को उसने बैठने के लिए चुना वह एक युवा कबूतर का ठिकाना था। संयोग से जब नया कबूतर उद्यान से उड़कर आया, वह एक लंबी उड़ान पर था। लम्बी उड़ान से लौट कर जब युवा कबूतर दड़बे में वापस आया  तो उसने अपने स्थान पर नए कबूतर को बैठा हुआ पाया! आते ही उसने नए पर गहरी चोंच मारी। बड़ा है तो क्या ? मेरे स्थान पर बैठेगा? झगड़ा बढ़ता इससे पहले ही साथियों ने बीच बचाव किया और मामला रफा-दफा हो गया। सब समझ चुके थे कि अब यह भी हमारी तरह रोज यहीं रहेगा। नया कबूतर, जो पहले दड़बे में आ कर खूब खुश था, जल्दी ही समझ गया कि मैं गलत जगह आ फँसा हूँ। यह तो एक कैद खाना है! बात-बात में बड़बड़ाता..कहाँ फँसायो राम! अब देश कैसे चलेगा!!!

बहेलिए ने कबूतरों की पल-पल की गतिविधियों की जानकारी के लिए एक 'काकाकौआ' पाल रखा था। काका कौआ भी मानवीय रंग-ढंग में रंगे कबूतरों के बीच रहते-रहते अपनी धवलता खो कर काला हो चुका था। यूँ तो वह दड़बे की देखभाल के लिए नियुक्त प्रधान सेवक था लेकिन अपने मालिक का आशीर्वाद पा कर हँसमुख और मेहनती होने के साथ-साथ बड़बोला भी हो चुका था। कभी-कभी उसकी बातें कबूतरों को जहर की तरह लगतीं। शायद यही कारण था कि जब काम लेना होता तो सभी कबूतर उसे 'काका' बुलाते और जब कोसना होता 'कौआ' कहते! उसका काम था मालिक के आदेश पर कबूतर को दड़बे से निकाल कर उन तक पहुंचाना। जब तक कबूतर ठुनकते, मुनकते हुए मालिक के कमरे तक स्वयं चलकर न पहुँच जाते वह लगातार चीखता-चिल्लाता रहता। न उठने पर हड़काता और मालिक से शिकायत करने की धमकी देता। मरता क्या न करता! काका कौआ को 'कौआ कहीं का!' कहते हुए कबूतर दड़बे से निकल कर मालिक के दड़बे तक जाते। काका कौआ उन्हें हँसते हुए जाते देखता और पीछे से कोई तंज कसते हुए खिलखिलाने लगता। मालिक ने पर नहीं कतरे, सिर्फ धमकी दे कर छोड़ दिया तो वह उड़कर काका को ढूंगता हुआ वापस दड़बे में घुस कर, साथियों के ताल से ताल मिलाकर गुटर गूँ करने लगता।

जैसे सरकारी सेवा में काम करने की एक निश्चित उम्र हुआ करती है वैसे ही यहाँ के कबूतर भी एक उम्र के बाद मुक्त कर दिए जाते थे। उस दिन एक बूढ़े हो चले कबूतर की विदाई थी। साथियों ने धूमधाम से विदाई समारोह मनाया।  विदाई के समय बहेलिए ने भी उसकी लंबी सेवा की सराहना तो खूब करी लेकिन उसके जाने के बाद उसकी गलतियों के दंड स्वरूप उसके द्वारा सेवा काल में बचाए अन्न की गठरी का कुछ भाग जब्त कर लिया और दूसरे कबूतरों से उसके घर खबर भिजवा कर आतंकित करता रहा कि क्यों न तुम्हारे अपराधों के लिए तुम्हें एक काली कोठरी में बंद कर दिया जाय? यह सब देख दड़बे के कबूतर दिन दिन और भी भयाक्रांत रहने लगे।


27.4.19

बनारस की गलियाँ-9(कर्फ्यू)

अच्छा है
बनारस की
पूरी एक युवा पीढ़ी
देखे बिना
जवान हो गई लेकिन
अपने किशोरावस्था में
हमने खूब देखे
कर्फ्यू।

गंगा तट के ऊपर फैले
पक्के महाल की तंग गलियों में
कर्फ्यू का लगना
बुजुर्गों के लिए
चिंता का विषय,
बच्चों/किशोरों/युवाओं के लिए
उत्सव के शुरू होने का
आगाज़ होता था!

स्कूलों में छुट्टी
सड़क के मोड़ पर
पुलिस का पहरा
बंदर
खो! करके भागते हैं जैसे
सड़क के मोड़ तक जाकर
पुलिस को चिढ़ाकर
भागते थे बच्चे
हमेशा
गुलजार रहती थीं
गलियाँ।

गलियों से उतर
गङ्गा इस पार से, उस पार तक
फैला पूरा आकाश,
अपना होता,
चन्द्रकलाओं की तरह
निखरने लगते
सभी गुण,
कहीं कंचे, कहीं गिल्ली डंडा, कहीं बैट-बॉल,
गलयों में ढूँढते
इमली के बीएँ,
सिगरेट या माचिस के खाली डिब्बे,
और भी
न जाने क्या, क्या,
न जाने
कैसे-कैसे खेल!

अखबारों में बिखरे
अमानवीय घटनाओं से बेखबर
कर्फ्यू बढ़ने की खबरों से खुश,
खतम होने की खबरों से
उदास हो जाते थीं
बनारस की गलियाँ।
................

25.4.19

बनारस की गलियाँ-8

बनारस की एक गली
गली में चबूतरा
चबूतरे पर खुलती
बड़े से कमरे की खिड़की
खिड़की से झाँको
कमरे में टी.वी.
टी.वी. में दूरदर्शन
एक से बढ़कर एक
सीरियल
हम लोग, बुनियाद, नीम का पेड़
सन्डे की रंगोली, चित्रहार, रामायण..

सुबह हो या शाम
तिल रखने की खाली जगह भी न होती थी
चबूतरे से कमरे तक
जब शुरू होते थे सीरियल

तब
सबके पास नहीं होती थी
टी.वी.
सन्नाटा पसर जाता था
शेष गली में।
.............

24.4.19

लोहे का घर-51


लोहे के घर की खिड़की से बाहर झाँक रहे हैं एक वृद्ध। सामने की खिड़की पर उनकी श्रीमती जी बैठी हैं। वे भी देख रही हैं तेजी से पीछे छूटते खेत, घर, मकान, वृक्ष....। ढल रहे हैं सुरुज नारायण। तिरछी होकर सीधे खिड़की से घर में घुस रही हैं सूरज की किरणें। जल्दी-जल्दी, बाय-बाय, हाय-हैलो कर लेना चाहती है वैशाख की धूप। वृद्ध को इस ढलती उमर में भी खिड़की से बाहर झाँकते देख कर खुशी होती है। इनकी मुख-मुद्रा, धीर-गम्भीर है लेकिन खुशी की बात यह कि अभी इनके भीतर का बच्चा सही सलामत है। जब तक व्यक्ति के हृदय में बच्चा है, संगीत है, समझो वह जिंदा है। 

बगल के साइड लोअर बर्थ में चार वृद्ध महिलाएं प्रेम से बैठी, सुरीले स्वर में, कन्नड़ भाषा में भजन गा रही हैं। एक टेक उठाती हैं, शेष औरतें स्वर में स्वर मिलाती हैं। सहयात्री से पूछने पर ज्ञान हुआ कि वृद्ध और महिलाएं कर्नाटक के लिंगायत समुदाय के हैं। कन्नड़ भाषा में शिव भजन गा रही हैं। हर औरत के गले में लॉकेट की तरह एक शिव लिंग लटक रहा है। इसे लिंगवत कहते हैं। देहरादून घूमने गए थे, अब काशी जा रहे हैं। ये महाराष्ट्र और कर्नाटक के बॉर्डर क्षेत्र के होंगे तभी मराठी भी जानते हैं। मराठी में बात किया तो इतनी जानकारी हाथ लगी। इनकी वीडियो बनाने या तस्वीरें खींचने का मन हो रहा है लेकिन बुरा न मान जांय इसलिए छोड़े दे रहा हूँ। केवल आनन्द ले रहा हूँ।

लोहे का घर भारत दर्शन कराता है। बनारस जौनपुर के छोटे से रास्ते में, रोज चलते हुए, देश विदेश के न जाने कितने यात्रियों से सामना हुआ और न जाने कितनी सभ्यताओं से रूबरू होने का अवसर मिला कह नहीं सकता। कुछ स्मृति पटल पर शेष हैं, कुछ लिपिबद्ध कर सका और कई तो हवा के झोंकों की तरह स्पर्श कर, चले गए! 

सूर्यास्त हो चुका है। गोधुलि बेला में भी वृद्ध जोड़ा वैसे ही खिड़की से बाहर झाँक रहा है। वृद्ध महिलाएँ भजन गाना छोड़ अब आपस मे खूब बतिया रही हैं। कन्नड़ समझ मे आती तो इनके यात्रा के अनुभव भी समझ पाता। एक वृद्ध महिला, जिनके सभी दांत झर चुके हैं, पोपली जुबान में हाथ हिला-हिला कर साथी महिलाओं को कुछ अनुभव सुना रही हैं। बाकी महिलाएं आँखें फाड़े सुन रही हैं। बीच-बीच में उनके हृदय से उठ कर सिसकारी जैसे स्वर प्रस्फुटित हो रहे हैं। जिसे देख लगता है वृद्ध महिला कुछ अत्यंत रोचक वाकया सुना रही हैं। 

अपर बर्थ में एक युवा जोड़ा लेटा अपने कारगुजारी में व्यस्त है। दोनो के हाथों में मोबाइल है और दोनो अपनी रुचि के अनुसार उसमे व्यस्त हैं। साइड अपर बर्थ में दो युवतियाँ हैं। एक की गोदी में उसका भविष्य (नन्हा बच्चा) है और दूसरी, मोबाइल में भविष्य ढूँढ रही है। 

ट्रेन अब बाबतपुर से आगे बढ़ रही है। कर्नाटक के यात्रियों को अंदाजा हो चुका है कि अब काशी पहुँचने ही वाले हैं। ये सभी सजग होकर बर्थ के नीचे से अपने झोले, बैग, पोटली, चप्पल ढूँढ-ढूँढ कर निकाल रहे हैं। धीरे-धीरे ये सभी सामान दरवाजे तक पहुँचा कर खड़े हो जाएंगे। इन्हें क्या पता कि ट्रेन आउटर पर बहुत देर तक रुकती है! 
...........................................................................

बनारस की गलियाँ-7 (क्रिकेट)

गली में
बच्चे खेलते थे
क्रिकेट

बड़े
पान की दुकान के पास
खड़े-खड़े
देर तक
सुनते रहते थे 
कमेंट्री

बूढ़े
चबूतरे पर बैठ कर
कोसते रहते थे..
क्रिकेट ने बरबाद कर दिया
देश को।

देश कितना बर्बाद हुआ, नहीं पता!
टेस्ट, वन डे, ट्वेंटी-ट्वेन्टी
घरेलू, विश्वकप, आई.पी.यल
क्रिकेट का 
इतना फैला बाजार
कि धीरे-धीरे
बदहजमी हो गई!
न गली में रहा, न घर में
धीरे-धीरे
खबरों में सिमट गया
क्रिकेट का
जुनून।
.........

21.4.19

बनारस की गलियाँ-6

ढूँढ रहा था अपने ही शहर की गलियों में भटकते हुए बचपन का कोई मित्र जिसके साथ खेले थे हमने आइस-पाइस, विष-अमृत या लीलो लीलो पहाड़िया. हार कर बैठ गया पान की एक दुकान के सामने चबूतरे पर. बड़ी देर बाद एक बुढ्ढा नजर आया. बाल सफ़ेद लेकिन चेहरे में वही चमक. ध्यान से देखा तो वही बचानू था! जोर से आवाज लगाई..अबे! बचनुआँsss! पहिचान नहीं रहे हो का भो@#..वाले?

वह लपकते हुए पास आया..अच्छा तो तुम हो! हम कहे कौन मादर..@# आ गया..भो@#..का जो हमको इस नाम से पुकार रहा है..बचनुआँ! एक टीलाई(चपत) देंगे बु@# के ...इत्ते बड़े हो गए मगर ..अबे..बचनुआँ! बड़े हो गए हो अब..यहाँ हमारी इज्जत है. चलो! घर चलो..चाय पिलायें.

तुम्हारे बाल तो सरफ के झाग की तरह सफ़ेद हो गये बे!

तुम्हारे कौन काले हैं? हमरी तरह डाई लगाना छोड़ दो फिर पूरी लुंगी खुल के हाथ में आ जावेगी!

और बताओ..गंगारेडियो कैसी है?

हा हा हा ...गंगा रेडियो के दूकान में तुम न घंटों खड़े रहते थे बे? कि आयेगी रेडियो बनवाने. 

बैंड बज गया तुम्हारा?

नहीं यार! शादिये नहीं किये!! तुम कर के कितना झां$ उखाड़ लिए?

शादी नहीं किये! पक्के मजनू निकले!!!

नहीं ...वो बात नहीं है भो..#$ के ...मन ही नहीं हुआ....चुप करो.. फालतू की बात मत करो..लो चाय पीयो! आया करो कभी इधर..तुम्हारे मकान का तो काया पलट हो गया है. और तुमको पता है? राजनाथ मर गया.

ओह..! तब तो शतरंज की अड़ी लौ@ लग गई होगी?

शतरंज! अब किसको फुरसत है शतरंज खेलने की? किसी के पास इतना समय है क्या भो...? तुम खेलते हो अब भी?

नहीं ...सब छुट गया. अब जो भी समय मिला फेसबुक में लिख-पढ़ लिया बस्स!

और बताओ? वो तुम्हारी काव्य गोष्ठी? अभी भी च्यूतियापा करते हो!

भक भो#@ के! कविताई तुमको च्यूतियापा लगती है? जितनी समस्या आज बढ़ी है न! वह सब शतरंज न खेलने और साहित्य से दूर रहने के कारण बढ़ी है. सब खाली निन्यानबे के चक्कर में भाग रहे हैं.

उसमें समय बहुत बरबाद होता है ..तुम मानो या न मानो.

समय! अब जो आज के लौंडे चौबीसों घंटा फेसबुक और वाट्सएप में गां@ मराते हैं ..वह क्या है? समय बरबाद नहीं होता? समय तो रजा वही समय है..हमने सिर्फ इस्तेमाल करने का तरीका बदल दिया है. पान खिलाओ!

चलो पान खिलाते हैं...आया करो कभी-कभी ..अच्छा लगा.

आयेंगे...आना ही पड़ेगा..पता तो करना ही है कि बचानू के गंगा रेडियो का क्या हुआ...!

चुप बे!...पान जमाओ...उसका नाम अब दुबारा मत लेना ...जय राम जी की।

20.4.19

बनारस की गलियाँ-5

गली में भीड़ देख
ठिठक जाते थे कदम
घुसकर
झाँकते थे हम भी

चबूतरे पर
बिछी होती थी
शतरंज की बाजी
खेलने वाले तो
दो ही होते थे
चाल बताने वाले होते थे
कई।

हर मोहल्ले में थीं
दो/चार
चाय और पान की दुकानें
दुकानों के पास
चबूतरों पर
सजती थीं अड़ियाँ
होती थीं
खेल, फ़िल्म, नाटक, संगीत, साहित्य और..
देश की राजनीति पर
चर्चा।

अब
चबूतरे भले उतने ही हों
कुछ बढ़ ही गई हैं
चाय/पान की दुकानें
अड़ियाँ भी जमती हैं कहीं-कहीं
मगर नहीं दिखती
शतरंज के बाजियाँ,
नहीं होती
खेल, फ़िल्म, नाटक, संगीत या साहित्य पर चर्चा
आम मध्यम वर्गीय
नहीं देख पाते
मॉल में जाकर
फिलिम,
डाउन लोड कर के या मांग कर
देख लेते हैं
मोबाइल में ही।

आज के किसी गायक या संगीत पर
तारीफ या आलोचना के लिए
आम आदमी के पास
कुछ नही है
बहस का विषय
नहीं बन पाती किसी लेखक की नई पुस्तक
बहस होती है तो सिर्फ
राजनीति पर

लोगों के पास
समय का अभाव है
खर्च बढ़ गया है,
कमाने की होड़ है
बताने के लिए तो
आज भी
बहुत कुछ है,
कम है तो
सुनने/सहने की क्षमता
आज भी
वैसी ही हैं
बनारस की गलियाँ
लेकिन
अब वैसा नहीं रहा
गलियों का मिजाज।
......................

बनारस की गलियाँ-4 (प्रभु दर्शन)

सोम से रवि तक
अलग-अलग
सभी भगवानों के दिन निर्धारित हैं।

जब हम छोटे थे
जाते थे समय निकाल
निर्धारित वार
निर्धारित भगवान के दरबार

सोमवार-विश्वनाथ जी,
मंगलवार-संकटमोचन,
बुद्धवार-बड़ा गणेश,
बी वार-बृहस्पति भगवान,
शुक्रवार-संकठा जी,
शनिवार-शनिदेव,
रविवार-काशी के कोतवाल, भैरोनाथ के मंदिर।

कहना न होगा
इस तरह
भगवान के दर्शन करने में
रोज खाते थे
भीड़ का धक्का!

धक्के खाते-खाते एक दिन
भगवान जी ने ही बुद्धि दी..
भक्त!
रोज भीड़ में
क्यों लाइन लगाते हो?
खाली समय आया करो
मेरे दर्शन
आराम से पाया करो
मुझे भी अच्छा लगेगा,
तुम्हारा भी
कीमती समय बचेगा।

बस,
फिर क्या था!
मैने
मन्दिर जाने का क्रम बदल दिया
जो दिन
जिस मन्दिर के लिए निर्धारित था,
उस दिन
उस मंदिर में जाना छोड़ दिया!

अब रोज
आराम-आराम से
भगवान जी के दर्शन होने लगे
हम भगवान जी से और...
भगवान जी
हमसे खुश रहने लगे।

सोचता हूँ
यही आइडिया
आधुनिक भगवान जी पर लागू करूँ
जब वे
कुर्सी पर विराजमान न हों
उनके दर्शन
कर लिया करूँ
जैसे-जैसे
उनके दिन फिरेंगे
वैसे-वैसे
वे हम पर भी
कृपा करेंगे
प्राचीन भगवान जी के दिन
भले कभी न बदलें
आधुनिक भगवान जी के दिन
बदलते रहेंगे
कोई भक्त
हमेशा किसी एक से
कभी सन्तुष्ट
रह नहीं सकता।
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19.4.19

बनारस की गलियाँ-3

चबूतरे पर बैठे होते थे
प्याऊ
बड़े-से मिट्टी के घड़े में लेकर
ठंडा-ठंडा पानी
पेट भर पीते थे हम
होने पर कभी दे भी देेते थे
एक पइसा, दो पइसा या फिर पूरे पाँच पैसे भी
लेकिन नहीं माँगता था कभी
अपने मुँह से
एक पइसा भी
प्याऊ!

गर्मी की दोपहरी में
बनारस की गली में।
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सहमकर
चढ़ जाते हैं चबूतरे पर
बच्चों के साथ बड़े भी
जब सांड़ दौड़ाता है
गाय को।

छुट्टे घूमते हैं सांड़
तो खूँटे से बंधी नहीं होती
गाय भी
बनारस की गलियों में।
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बनारस की गलियाँ-2

ढेरा सारा
दाल-भात, साग-सब्जी खाकर
मस्त सांड़-सा
खिड़की के पास
पसर जाता था तोंदियल
भरता रहता था
जोर-जोर खर्राटे
पास बैठी उसकी पत्नी
निरीह गाय-सी
घुमाती रहती थी
गोल-गोल
घिर्रीदार हाथ का पंखा

पर्दा हटाकर
खिड़की से घर में
झांकना चाहता था
पूरा शहर
झांक पाते थे मगर
कुछ मेरी ही उम्र के
शरारती बच्चे

गर्मी की दोपहरी में
बनारस की गली में।
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बनारस की गलियाँ-1

उस गली से
लगते थे नारे..
दो बैलों की जोड़ी है
एक अंधा एक कोढ़ी है।

इस गली से
लगते थे नारे...
जिस दिये में तेल नही है
वह दिया बेकार है।

पता नहीं
वे गर्मियों के दिन थे या जाड़े के
पर याद है
हम भी
निकलते थे घर से
इन्कलाब जिंदाबाद को
तीन क्लास जिंदाबाद कहते हुए
बनारस की गली में।
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9.4.19

कबूतर और सरकारी कार्यालय

खिड़की के रास्ते
कमरे में
आ ही जाते हैं
कबूतर
मैने इन्हें कई बार कहा..
कहाँ तुम शांति के प्रतीक,
कहाँ यह सरकारी कार्यालय!
यहाँ मत आओ।

तुम चाहे 
जितने भी निर्बल वर्ग के हो,
इसमें तुम्हारा 
कोई स्थान नहीं!
प्राकृतिक संसाधनों पर
हम मनुष्यों का 
हो चुका है 
सम्पूर्ण कब्जा,
आरक्षण के साथ
हो चुका है
दाने-दाने का
बंटवारा,
तुम्हारा कोई बिल
बकाया हो ही नहीं सकता
यहाँ मत आओ।

यह सरकारी कार्यालय है
यहाँ
पर कतरने के 
मौजूद हैं
सभी सामान
छत पर टँगा हुआ पँखा,
तुम्हें दिखाई नहीं देता?
आवाजें
तुम्हें
भयभीत नहीं करतीं?
जा सकती है जान भी,
यहाँ मत आओ।

इन फाइलों में
चोंच गड़ा-गड़ा कर
पस्त हो जाते हैं मनुष्य भी
तुम्हारी क्या औकात?
तुम्हारी तो
निकल जाती है बीट भी!
यहाँ मत आओ।

दाना चुगे बिना.
व्यर्थ में,
कितने मरे?
इसका कोई आंकड़ा
किसी फ़ाइल में
मौजूद नहीं है
बस इतना जानता हूँ
शायद
असहाय मनुष्यों को भी
कार्यालय की 
सीढ़ियाँ चढ़ते देख
कबूतर 
अपने पँखों पर इतराते/
ललच जाते हैं!
खिड़की के रास्ते
कमरे में
आ ही जाते हैं।
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