23.5.23

सूरजमुखी के तोते

वैसे तो अमेरिका का देशज फूल है सूर्यमुखी का फूल लेकिन अब बहुत से देशों में पाया जाता है। अपने नाम को सार्थक करता हुआ यह हमेशा सूरज की ओर झुका-झुका, सूरज को देख, खिला-खिला दिखता है। इसके बीज तोतों को बेहद प्रिय हैं। इन्हीं बीजों को खाने के लिए ये प्रायः फूलों पर मंडराते दिख जाते हैं। 

धमेख स्तूप पार्क, सारनाथ के एक छोटे से जमीन के टुकड़े में इनके पौधे लगे हैं। प्रातः भ्रमण के समय, सूर्योदय के साथ इन पर मंडराते तोते दिखने लगते हैं। ये तोते घने नीम के वृक्षों के खोह में कहीं घोंसला बनाकर रहते हैं लेकिन सूर्योदय के साथ कभी स्तूप के ऊपर, कभी फूलों के ऊपर मंडराते दिख जाते हैं। प्रातः भ्रमण करते समय सूर्यमुखी के फूलों पर मंडराते तोतों को देखकर मुझे सरकारी कार्यालयों में बाबुओं के इर्द गिर्द चक्कर लगाने वाले लोग याद आ जाते हैं। अब ये तोते याद आए तो उल्लू  भी याद आने लगे!

सरकारी कार्यालयों में कई प्रकार के बाबू पाए जाते हैं। कुछ तो सूरजमुखी के फूलों की तरह खिले-खिले दिखते हैं। सूर्यमुखी के फूल तो सूरज की ओर झुके चले जाते हैं, ये अधिकारी को देख उनकी ओर खिंचे चले जाते हैं! अधिकारी के कमरों से निकलने के बाद ये और भी खिले-खिले नजर आते हैं! दूसरे प्रकार के वे होते हैं जिनको अधिकारी आते ही घंटी बजाकर अपने कमरे में बुलाता है और उन पर दिन भर के  काम का बोझा लाद देता है या पिछले बताए गए काम के बारे में पूछता है और काम को ठीक से न करने के लिए डांट पिलाता है। ये दुखियारे तो उल्लू की तरह अधिकारी के कमरे से बुझे-बुझे निकलते हैं। सूरज निकलने के बाद जैसे उल्लू बुझा-बुझा रहता है वैसे ही कुछ बाबू अधिकारी को देख मुर्झा जाते हैं।

हमारा ध्यान अभी उल्लुओं पर नहीं, सूर्यमुखी के फूलों की तरफ़ है। खिले-खिले फूलों की तरह खिले-खिले सरकारी बाबू सबको अच्छे लगते हैं। जैसे सूर्यमुखी के फूलों के बीज के लिए  सुबह-सुबह फूलों पर तोते मंडराने लगते हैं वैसे ही ऑफिस खुलते ही कुछ बाबुओं के इर्द गिर्द लोग जमा होना शुरू हो जाते हैं! जैसे कुछ बाबू सूर्यमुखी के फूलों की तरह खिले-खिले दिखते हैं वैसे ही इनके इर्द गिर्द मंडराने वाले लोग भी तोतों की तरह टांय-टांय करते रहते हैं। इन बाबुओं के पास भी सूर्यमुखी के बीजों की तरह कुछ चुंबकीय आकर्षण होता होगा जिसकी तलाश में ये लोग ऑफिस खुलते ही इनकी ओर मंडराने लगते हैं। 

उल्लुओं के पास कम लोग ही जाना पसंद करते हैं। सूर्योदय के साथ जैसे उल्लू बुझे-बुझे रहते हैं, अधिकारी के कमरे से निकलने के बाद कुछ बाबू एकदम से दुखी-दुखी दिखते हैं। अब जो पहले से मुरझाया हो, उसके पास कौन जाना चाहेगा? रात में उल्लू सुखी रहता है लेकिन दिन में किसी के आने की आहट से भी बेचैन हो जाता है। इसीलिए कुछ उल्लू रात में काम करते हैं, शायद इसी से खुश होकर लक्ष्मी ने इनको अपना वाहन बना रखा है। जिस पर लक्ष्मी की कृपा हो उस पर अधिकारी की शेर गुर्राहट का क्या भय!

सूरज का उगना, सूरजमुखी के फूलों का सूर्य की ओर आकर्षित होना, तोतों का बीजों के लोभ में सूर्यमुखी के फूलों के इर्द गिर्द मंडराना और बीज की तलाश में आए तोतों से अपना जिस्म नुचवाना, उल्लुओं का अंधेरे में देखना, दिन में अंधे होकर लक्ष्मी की आराधना करना शास्वत सत्य है। कार्यालय में कार्य करने की प्रवृत्ति, संसाधन बदल सकते हैं लेकिन उल्लू और सूरजमुखी के फूल तो हमेशा पाए जाएंगे। जब तक सूरजमुखी के फूल हैं, सूरजमुखी पर मंडराने वाले तोते भी दिखते रहेंगे। 

सूरजमुखी के फूलों को समझना चाहिए कि तोते उनके पास सिर्फ इसलिए आते हैं कि उन्हें उनसे नहीं, उनके बीजों से प्रेम है। बीजों का खत्म होना मतलब समूल नष्ट हो जाना। अधिकारियों को देखकर खिलें मगर हमेशा यह याद रहे कि ये तोते उनके मित्र नहीं हैं।

https://youtu.be/Olkq4om9un8 


18.5.23

व्यवस्था

वह बड़ा आदमी है

सबसे ऊँची मढ़ी पर बैठ 

नदी में फेंकता है

पत्थर!


कई लहरें उठती हैं

गिनता है

एक, दो...सात, आठ, नौ दस...बस्स!

पुनः प्रयास करता है,

बड़ा पत्थर फेंका जाय

और लहरें उठेंगी!!!


छोटा आदमी

छोटी मढ़ी पर बैठ

फेंकता है पत्थर

गिनता है लहरें

वह भी संतुष्ट नहीं होता

तलाशता है

और बड़ा पत्थर!


नदी किनारे

नीचे घाट पर बैठे बच्चे भी

देखते-देखते सीख जाते हैं

नदी में कंकड़ फेंकना!


पैतरे से

हाथ नचा कर

नदी में ऐसे कंकड़ चलाते हैं

कि एक कंकड़

कई-कई बार

डूबता/उछलता है!

कंकड़ के

मुकम्मल डूबने से पहले

बीच धार तक

बार-बार 

बनती ही चली जाती हैं लहरें!!!


न बड़े थकते हैं

न बच्चे रुकते हैं

बनती/बिगड़ती रहती हैं लहरें!


पीढ़ी दर पीढ़ी

खेल चलता रहता है

बस नदी

थोड़ी मैली,

थोड़ी और मैली 

होती चली जाती है।

........@देवेन्द्र पाण्डेय।

8.5.23

महाब्राह्मण

भारतीय, खासकर अपने पूर्वांचल के जाति जंजाल की बेबाकी से पड़ताल करता है महाब्राह्मण। यह इतना रोचक और उत्तेजित करने वाला उपन्यास है कि जिसे शुरू करने के बाद खतम किए बिना चैन नहीं पड़ता और खतम होने के बाद अंत हैरान कर देता है! इस पुस्तक को पढ़ने से पहले तक मैं इस जाति जंजाल से सर्वथा अपरिचित तो नहीं था, थोड़ा बहुत सुना भर था लेकिन इसके दर्द की जरा भी अनुभूति नहीं थी। 


जब आप इस उपन्यास को पढ़ना प्रारंभ करेंगे तो शुरु के पन्नों से ही यह उपन्यास आपको बुरी तरह से जकड़ लेगा। कभी आप रासलीला में मगन हो जाएंगे, कभी कामलीला में उत्तेजित हो जाएंगे और कभी महापातरों के झगड़े का हिस्सा बन उलझ जाएंगे, कभी नायक से गहरी सहानुभूति हो जाएगी, कभी उसकी सज्जनता पर क्रोध आएगा और जब उपन्यास खतम होगा तो सबसे ज्यादा गुस्सा इस उपन्यास के लेखक पर ही आएगा! यदि यह सच है तो इतना सच लिखने की क्या जरूरत थी?  


गुस्से के साथ कई प्रश्न उभरेंगे मगर किसी प्रश्न का कोई उत्तर नहीं मिलेगा। निराश होकर एक ही प्रश्न करेंगे कि जाने/अनजाने हमारे पूर्वजों ने जाति/उपजाति में जकड़े ऐसे समाज का निर्माण क्यों किया? हम कब तक इस जाति दंश को झेलते रहेंगे? और कब सिर्फ मनुष्य बन कर जी पाएंगे? मैं इसके लेखक, गुरूदेव श्री त्रिलोक नाथ पाण्डेय  को उनके श्रम और अनूठी कृति के लिए अभी कोई बधाई देने की स्थिति में नहीं हूं क्योंकि मैने अभी उपन्यास खतम किया है और अंत पढ़कर मैं गुस्से में हूं।


........

5.5.23

साइकिल की सवारी 9

चाणक्य के जासूस पढ़ने के बाद से ही इस पुस्तक के लेखक 'श्री त्रिलोक नाथ पांडेय' सर के दर्शन करने और उनका आशीर्वाद लेने की इच्छा थी। महीनों से मन में एक अपराध बोध था कि गुरुदेव इसी शहर में रहते हैं और मैं उनसे आज तक नहीं मिल पाया। दूसरे शहर में नौकरी और छुट्टी के दिन प्रातः की साइकिलिंग, भ्रमण, घर के काम और शाम को साहित्यिक गोष्ठियों में जाने के शौक के कारण मित्रों से भी मुलाकात के लिए समय निकालना कठिन हो जाता है। बहुत सोचने के बाद तय किया कि क्यों न एक छुट्टी के दिन साइकिल गुरुदेव के घर की ओर मोड़ दिया जाय! अपनी साइकिलिंग/प्रातः भ्रमण भी हो जाएगी, गुरुदेव का आशीर्वाद भी मिल जाएगा।

आज बुद्ध पुर्णिमा की छुट्टी थी तो मन ही मन आज भोर का दिन तय किया। गुरुदेव DLW मार्ग में निराला नगर कॉलोनी, महमूरगंज के पास रहते हैं।  भोर में उठकर गूगल सर्च किया तो मैप मेरे घर से निराला नगर की दूरी 11 किमी दिखा रहा था। सोचा, नमो घाट १० किमी दूर है, वहां तक तो जाता ही रहता हूं, बस एक कि.मी. ही अधिक चलना पड़ेगा, जाया जा सकता है, इतनी सुबह गुरुदेव मिल ही जाएंगे।

जब घर से निकला, भोर के 4.30  हुए थे, आकाश में भोर वाले तारे और पूनम का चांद खिला हुआ था,सड़कों पर लैंप पोस्ट की सभी बत्तियां जल रही थीं, बनारस शहर के मध्य मार्ग से जाना था, भीड़ तो होनी ही थी लेकिन अभी वाहन कम थे और इक्का दुक्का मॉर्निंग वॉकर भी दिखाई दे रहे थे। 

पांडेपुर चौराहे से होते हुए वरुणापुल, चौकाघाट पहुुंच कर वरुणा नदी के दर्शन करने लगा। पुल के दोनो ओर झालर जल रहे थे, G20 के कारण शहर की सजावट की गई थी, वह अभी दिख रही थी। रुककर एक तस्वीर खींचकर ज्यों ही आगे बढ़ा, साइकिल ने चलने से इनकार कर दिया! उतरकर देखा तो चकित रह गया, पिछले पहिए में हवा ही नहीं थी! यह कैसे हुआ? घर से निकलने से पहले मैंने खूब हवा भरी थी, कहीं कोई कील तो नहीं धंस गई!!! पहिया घुमाकर ध्यान से देखने पर जल्दी ही एक लम्बी कील हाथ में आ गई। समझ गया, भरत मिलाप से पहले लंका कांड यहीं हो गया। वरुणापुल पर बैठे एक ठेले वाले से पंचर बनाने वाले के बारे में पूछा तो उसने ठगा सा जवाब दिया, "आठ बजे से पहिले केहू ना मिली, इतना सबेरे के आई?" 

अब मेरे सामने दो ही विकल्प था, पैदल वापस लौट चलूं या हिम्मत कर आगे बढूं, शायद कोई पंचर बनाने वाला मिल जाय! वापस लौटना बुजदिली होती, मैने हिम्मत दिखाई और पैदल पैदल आगे बढ़ चला। सोचा, कोई पंचर बनाने वाले की दुकान दिख जाय बस, वह नहीं होगा तो साइकिल वहीं लॉक करके ऑटो पकड़ लुंगा, गुरुदेव से मिलकर वापस लौट कर पंचर बनवाऊंगा। 

चौका घाट चौराहा पार कर लगभग 100 मीटर आगे बढ़ा तो पटरी पर बाईं तरफ एक पंचर बनाने वाला दिख गया! उस समय मुझे वह बहुत प्यारा लगा। साइकिल वहीं खड़ी कर मैने सबसे पहले उसका नाम पूछा, उसने न केवल  प्रेम से अपना नाम बताया, बल्कि मेरे साइकिल का ट्यूब भी खोलने लगा। ट्यूब की जांचकर ओम प्रकाश ने बताया, "दू जगह कटिया छेद कइले हौ।" मैने कहा, "तू मिल गइला, अब कउनों चिंता नाहीं, दू जगह पंचर होय या तीन जगह, कै बजे दुकाने आवला?" उसने हंसते हुए कहा, "हम त भोरिए में पांचे बजे आ जाइला मालिक!"

वहीं चबूतरे पर बैठे-बैठे मन ही मन वरुणापुल के ठेले वाले की बात याद करने लगा, "आठ बजे से पहिले केहू ना मिली, इतना सबेरे के आई?" अगर उसकी बात से डर कर लौट गया होता तो कितनी बड़ी बेवकूफी होती! आम आदमी जिस विषय में कोई ज्ञान नहीं होता, वहां भी वह अपनी राय देने से नहीं चूकता! नहीं पता हो तो कह सकता था, 'हमको नहीं पता' लेकिन नहीं, उस विषय में भी ज्ञान देना है जिसकी उसको कोई जानकारी नहीं!!!"

पंचर बनवाकर लगभग 2 किमी आगे मलदहिया चौराहे से काशी विद्यापीठ का मार्ग पकड़ा तो दिखा, दाईं ओर फूलों की मंडी सजी हुई थी, गेंदों के फूलों की बड़ी-बड़ी मालाएं बिक रही थीं, और भी कई प्रकार के फूल थे, वहीं रुककर सब नजारे देखने लगा फिर सोचा, इतनी सुबह बिना बताए किसी के भी घर जाना अच्छी बात तो नहीं, पता नहीं गुरुदेव किस हाल में होंगे! जगे भी होंगे या नहीं, आज बुद्ध पुर्णिमा है कहीं गंगा स्नान को निकल गए होंगे तो जाना बेकार ही होगा! हालांकि गुरुदेव से फेसबुक चैट के माध्यम से बहुत पहले घर का पता और मोबाइल नंबर ले लिया था लेकिन सोचा, पता पूछने के बहाने कम से कम अपने आने की सूचना दे दी जाय और गुरुदेव का हाल तो ले ही लिया जाय, न होंगे तो यहीं से लौटने में भलाई है, अभी भी गूगल 4 किमी की दूरी बता रहा है, पर्याप्त साइकिलिंग तो हो ही चुकी।  यही सब सोचते सोचते मैने मोबाइल लगा ही दिया।

गुरूदेव अभी सो कर उठे थे। खूब उत्साह से उन्होंने रास्ता बताया और आने के लिए स्वागत किया। यह उनकी विनम्रता है कि फेसबुक मित्र सूची में होने के कारण वे मुझे मित्र संबोधित करते हैं, यह अलग बात है कि उनकी उम्र और योग्यता के आगे नतमस्तक होने के कारण मैं उन्हें गुरुदेव मानता हूं। उनकी बातें सुनकर मेरा उत्साह दूना हो गया और साइकिल की पैडिल तेज चलने लगी। 

बनारस के पक्के महाल की गलियों की तरह संकरी गलियों से गुजरते हुए, उनके बताए पते पर जब मैं पहुंचा तो वे घर के दरवाजे पर ही खड़े मिले। खूब आत्मीयता से उन्होंने मेरा स्वागत किया और घर की एक मंजिल ऊपर बने बैठके में प्रेम से बिठाया। सबसे पहले तो घर की बनी मिठाई और पानी ले आए फिर कहा, "दूर से साइकिल चलाकर आए हैं, पहले आराम कीजिए। चाय कैसी पिएंगे? शुगर फ्री या चीनी वाली?" वे फुर्ती से एक मंजिल उतरकर पानी लाते, चाय लाते और मैं शर्म से गढ़ा जा रहा था, "आज मैने देव को कितना कष्ट दिया!" 

बहुत देर तक गुरूदेव से पारिवारिक/सेवा/लेखन संबधी बातें हुईं, शरीर स्वस्थ, मन प्रसन्न और आत्मा तृप्त हुई। गुरूदेव ने बताया, "देर से सोते हैं, देर से उठते हैं, आपकी तरह घूमने कहीं नहीं जाते, घर में ही पड़े रहते हैं। अभी मेरे और पत्नी के अलावा घर में कोई नहीं रहता, बच्चे अपने-अपने काम के स्थान पर हैं।" 

गुरुदेव किसी परिचय के मोहताज नहीं, जितना श्रम उन्होंने सेवा के समय किया होगा, उसकी कल्पना भी हम नहीं कर सकते। सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने लेखन शुरू किया और एक से  बढ़कर एक साहित्यक सृजन अनवरत जारी है। अंग्रेजी का विद्वान सेवानिवृत्ति के बाद हिंदी साहित्य को इतना कुछ दे रहा है, यह अचरज की बात है। प्रेम लहरी, चाणक्य के जासूस, खुपिया गिरी युगे-युगे, काशी कथा जैसी अनवरत जारी इस शृंखला में 'चाणक्य के जासूस' पढ़कर मैं इनका मुरीद तो बहुत पहले हो चुका हूं, अभी 'राज कमल प्रकाशन' से प्रकाशित एक ताजा कृति 'महाब्राह्मण' पढ़ने के लिए मेरे पास धरी है। बातों ही बातों में पता चला कि अभी हनुमान जी की आत्मकथा पर उनकी लेखनी चल रही है!   इतना कुछ पढ़ने/लिखने के बाद भी कितनी सहजता से कहते हैं, "कुछ नहीं करता, घर पर ही पड़ा रहता हूं!" जीवन में अपनी थोड़ी सी उपलब्धि पर गौरवान्वित होने और अहंकार में डूब जाने वाले व्यक्ति बहुत देखे हैं लेकिन इतना सफल जीवन जीने के बाद, इतनी सरलता कम ही लोगों में दिखती है। ईश्वर से बस यही प्रार्थना है कि उनको खूब लम्बा और स्वस्थ जीवन दे ताकि हमें उनसे बहुत कुछ पढ़ने/सीखने को मिले।

भोर में साइकिल चलाना आनंद दायक है, धूप निकलने के बाद साइकिल चलाना कष्टप्रद होता है। सुबह के 7.30 होने जा रहे थे, धूप सर पर सवार हो चुकी होगी, अब निकलना चाहिए, सोचकर मैने देव से जाने की अनुमति मांगी और फिर आने का वादा कर आशीर्वाद लिया और घर की ओर लौट चला। आज की साइकिलिंग सबसे अच्छी और यादगार रही।

..................