10.9.23

बनारसनामा

8 सितम्बर, 2123 को श्री कन्हैया लाल गुप्त स्मृति भवन, रथयात्रा, वाराणसी में स्वर्गीय घनश्याम गुप्त जी की 82वीं जयंती मनाई गई। इस अवसर पर काशिका बोली में रचित उनकी छान्दसिक कृति 'बनारसनामा' का भव्य लोकार्पण किया गया। इस अवसर पर गुरुदेव श्री जितेन्द्र नाथ मिश्र सहित बनारस के कई साहित्यकार, वरिष्ठ पत्रकार और गुप्त जी के परिवार के सदस्य उपस्थित थे। वरिष्ठ गीतकार श्री सुरेन्द्र वाजपेयी जी ने सभा का कुशल संचालन किया।

'बनारस नामा' का प्रकाशन अभिनयम प्रकाशन, वाराणसी द्वारा किया गया है। पुस्तक पृष्ठ, छपाई, और ऐतिहासिक दृष्टि से समृद्ध है। मूलतः काशिका बोली में प्रकाशित इस कृति को पढ़कर बनारस के इतिहास को समझा जा सकता है। सरसरी तौर पर देखने मात्र से यह समझा जा सकता है कि पुस्तक काफी समृद्ध है और इसमें में तत्कालीन बनारस को जिया गया है।  लेखक बनारस के प्रसिद्ध मिष्टान्न भण्डार 'मधुर जलपान' के मालिक थे, इन दो पंक्तियों में उन्होंने बनारस की जो उपमा दी है, वह मुग्ध करने वाली है....

काशी कs दिल बहुत बड़ा हौ, इहाँ हौ पूरी दुनिया।

लगेला जैसे रस में डूबल इक दोनिया में बुनिया।।

कोई काम जब टल जाता है तो उसे हमेशा के लिए भुला दिए जाने की पूरी संभावना रहती है लेकिन मृत्यु के 23 वें वर्ष में उनकी पुस्तक का लोकार्पण यह बताता है कि यह बनारस के साहित्य प्रेमियों की और उनके परिवार की कितनी दबी इच्छा थी जो अब तक जीवित थी! पुस्तक घनश्याम गुप्त जी को विनम्र श्रद्धांजलि तो है ही, उनके प्रेमियों में मनुष्यता के जिन्दा रहने का प्रमाण भी है।


19.8.23

चार

घूमते-घूमते एक घने नीम के वृक्ष के नीचे पहुँचा। वैसे तो मैं जंगल में ही था और आसपास कई घने वृक्ष थे लेकिन यह थोड़ा अलग था। किसी ने शाखों को काट छांट कर बकायदा सीढ़ी का आकार दिया था, इससे ऊपर चढ़ना बहुत आसान था। मैं भी अपनी मानसिक उलझन में था, चढ़ता चला गया और ऊपर एक चौड़े शाख पर आराम से बैठकर सुस्ताने लगा। सफर कितना भी आसान हो, चढ़ाई तो चढ़ाई होती है।


बैठकर आसपास के दृष्यों का आनंद ले ही रहा था कि एक युवा कुल्हाड़ी लेकर धड़ल्ले से चढ़ता चला आया और सामने की शाख पर खड़े हो मुझे घूरने लगा! मैने भी उसे ध्यान से देखा।  हृष्ट पुष्ट, गेहूआं रंग, स्वस्थ शरीर, अवस्था 25-30 वर्ष। एक और खास बात थी, उसके हाथ, पैर, और सर में भी जगह-जगह गंदे कपड़े लपेटे हुए थे, कपड़ों में खून के धब्बे लगे थे और वह दर्द से कराह भी रहा था!

मैं कौतूहल से एक टक उसी को देखने लगा। उससे बड़ा नमूना मैने जिंदगी में कभी नहीं देखा था। उसे देख लग रहा था जैसे कालीदास का पुनर्जन्म हो गया है। इसने भी डाल के आगे की तरफ खड़े हो कर कुल्हाड़ी चलानी शुरू करी और हर वार पर जोर से चिल्लाता, "चार!" मुझसे रहा न गया, बोल पड़ा, 'पागल हो चुके हो क्या?' शाख कटेगी तो गिरोगे नहीं?

वह मेरी बात सुनकर जोर से ठहाके लगाने लगा, "जानता था, तुमसे बर्दाश्त नहीं होगा और ज्ञान बाँटने चले आओगे। मैं क्या बोल रहा हूँ इस पर भी ध्यान दो और उसने कुल्हाड़ी चलाते हुए चीखा..."चार!"

शाख कटकर गिरने ही वाली थी, इसी रफ्तार से कुल्हाड़ी चलाता रहा तो अगले दो, तीन वार में यह व्यक्ति शाख के साथ जमीन पर होगा! मैने घबड़ाकर कहा, "ठीक है, काट लेना, आत्महत्या करने का मन है तो तुम्हें कौन रोक सकता है? लेकिन मरने से पहले मेरी जिज्ञासा तो शांत कर दो, कृपया मुझे बताओ कि ऐसा क्यों कर रहे हो और यह "चार-चार" क्या बोले जा रहे हो?"

मेरे विनम्र आग्रह से वह थोड़ा प्रभावित हुआ और शाख काटना छोड़, धच्च से उसी डाल पर बैठ गया और ठहाके लगाते हुए बोलना शुरू किया, "चार -चार का मतलब यह चौथी बार है! वह देखो, तीन शाख काट कर पहले ही गिरा चुका हूँ! इन कपड़ों में जो खून लगा है, मेरे ही हैं और तुम मुझी को समझा रहे हो कि गिर जाओगे? मैं जानता हूँ, तुम अब और परेशान हो चुके होगे, पूछोगे, ऐसा क्यों कर रहे हो? हा हा हा हा... तुम भी करो तो तुम्हें भी इसके आनंद का ज्ञान होगा! जिस डाल पर बैठो, उसी को काटो और धड़ाम से गिर जाओ! जितनी चोट लगेगी, जितना दर्द होगा, उतना आनंद आएगा!

क्या बकते हो! इससे तो जान भी जा सकती है!!! तीन बार भाग्यशाली रहे तो जरूरी थोड़ी न है कि चौथी बार भी बच जाओगे?

हा हा हा हा... मर जाएंगे इससे ज्यादा कुछ नहीं न होगा? जब तक जिन्दा रहेंगे दर्द का आनंद लेंगे। होशोहवाश में अपनी डाल काटने का आनंद ही कुछ और है, कम से कम इसमें पता तो रहता है, गिरेंगे और चोट लगेगी। आजकल जिसे देखो वही अपने पैरों में कुल्हाड़ी चला रहा है, जिस डाल में बैठा है उसी को काट रहा है, गिरता है तो चिल्लाता है, धोखा -धोखा! मैं तो पूरे होश में काट रहा हूँ। चोट भी मुझे ही लगेगी, दर्द भी मुझे ही होगा, उनकी तरह शैतान तो नहीं हूँ न जो पूरा जंगल काट रहे हैं? तुम बताओ, क्या अब किसी नदी का जल पी सकते हो? हवा, पानी सब प्रदूषित हो चुका है, क्या यह जिस डाल में बैठे हैं उसे काटना नहीं हुआ? तुम जंगल में क्यों भटक रहे हो? अपने पैरों में कुल्हाड़ी तो तुमने भी मारी है, गिरे तो तुम भी हो, जंगल में नहीं गिरे तो घर में ही गिरे होगे? धोखा तो तुमने भी खाया है, तुम्हारा दर्द तुम्हें जीने नहीं दे रहा इसलिए जंगल में भटक रहे हो। मैं पूरे होश में यह काम कर रहा हूँ, कोई धोखा नहीं, आनंद ही आनंद। मैं मर गया तो यह कुल्हाड़ी तुम उठा लेना, मैं तो चला डाल काटने, "चार!"
....@देवेन्द्र पाण्डेय।

16.8.23

काव्य गोष्ठी

कल 15 अगस्त का दिन अत्यधिक व्यस्तता का रहा। सुबह 5 बजे घर से निकला तो रात 10 बजे वापस लौट पाया। सुबह नमो घाट और कुष्ठ आश्रम से लौटने के बाद दिन में राजकीय लाइब्रेरी ( एल टी कॉलेज, कचहरी) में भाई श्री कंचन सिंह परिहार जी और श्री प्रसन्न वदन चतुर्वेदी जी के कुशल संचालन में शानदार काव्य गोष्ठी सम्पन्न हुई जिसकी अध्यक्षता वरिष्ठ कवि श्री महेन्द्र अलंकार जी ने किया। साथ ही, विभिन्न क्षेत्रों में विशिष्ठ योगदान के लिए 5 प्रतिभाओं को कर्मवीर पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया।

शाम को श्री अख़लाक़ 'भारतीय', श्री अलोक सिंह 'बेताब' एवं श्री विकास पाण्डेय 'विदिप्त' के कुशल संचालन में बरेका वाराणसी के सभागार में एक भव्य काव्य गोष्ठी का आयोजन हुआ जिसकी अध्यक्षता कविताम्बरा के सम्पादक एवं वरिष्ठ कवि श्री मधुकर मिश्र जी ने किया।

वरिष्ठ गीतकार/गजलकार डॉ शरद श्रीवास्तव, श्री सुरेन्द्र मिश्र, श्री कुंवर सिंह कुंवर एवं श्री शमीम गाजीपुरी के साथ हमको भी दोनो काव्य गोष्ठीयों में भाग लेने का सौभाग्य मिला।

कल का दिन यादगार बनाने के लिए सभी साथियों का आभार।
















यूट्यूब लिंक....

https://youtu.be/u70PefZpzuo

23.5.23

सूरजमुखी के तोते

वैसे तो अमेरिका का देशज फूल है सूर्यमुखी का फूल लेकिन अब बहुत से देशों में पाया जाता है। अपने नाम को सार्थक करता हुआ यह हमेशा सूरज की ओर झुका-झुका, सूरज को देख, खिला-खिला दिखता है। इसके बीज तोतों को बेहद प्रिय हैं। इन्हीं बीजों को खाने के लिए ये प्रायः फूलों पर मंडराते दिख जाते हैं। 

धमेख स्तूप पार्क, सारनाथ के एक छोटे से जमीन के टुकड़े में इनके पौधे लगे हैं। प्रातः भ्रमण के समय, सूर्योदय के साथ इन पर मंडराते तोते दिखने लगते हैं। ये तोते घने नीम के वृक्षों के खोह में कहीं घोंसला बनाकर रहते हैं लेकिन सूर्योदय के साथ कभी स्तूप के ऊपर, कभी फूलों के ऊपर मंडराते दिख जाते हैं। प्रातः भ्रमण करते समय सूर्यमुखी के फूलों पर मंडराते तोतों को देखकर मुझे सरकारी कार्यालयों में बाबुओं के इर्द गिर्द चक्कर लगाने वाले लोग याद आ जाते हैं। अब ये तोते याद आए तो उल्लू  भी याद आने लगे!

सरकारी कार्यालयों में कई प्रकार के बाबू पाए जाते हैं। कुछ तो सूरजमुखी के फूलों की तरह खिले-खिले दिखते हैं। सूर्यमुखी के फूल तो सूरज की ओर झुके चले जाते हैं, ये अधिकारी को देख उनकी ओर खिंचे चले जाते हैं! अधिकारी के कमरों से निकलने के बाद ये और भी खिले-खिले नजर आते हैं! दूसरे प्रकार के वे होते हैं जिनको अधिकारी आते ही घंटी बजाकर अपने कमरे में बुलाता है और उन पर दिन भर के  काम का बोझा लाद देता है या पिछले बताए गए काम के बारे में पूछता है और काम को ठीक से न करने के लिए डांट पिलाता है। ये दुखियारे तो उल्लू की तरह अधिकारी के कमरे से बुझे-बुझे निकलते हैं। सूरज निकलने के बाद जैसे उल्लू बुझा-बुझा रहता है वैसे ही कुछ बाबू अधिकारी को देख मुर्झा जाते हैं।

हमारा ध्यान अभी उल्लुओं पर नहीं, सूर्यमुखी के फूलों की तरफ़ है। खिले-खिले फूलों की तरह खिले-खिले सरकारी बाबू सबको अच्छे लगते हैं। जैसे सूर्यमुखी के फूलों के बीज के लिए  सुबह-सुबह फूलों पर तोते मंडराने लगते हैं वैसे ही ऑफिस खुलते ही कुछ बाबुओं के इर्द गिर्द लोग जमा होना शुरू हो जाते हैं! जैसे कुछ बाबू सूर्यमुखी के फूलों की तरह खिले-खिले दिखते हैं वैसे ही इनके इर्द गिर्द मंडराने वाले लोग भी तोतों की तरह टांय-टांय करते रहते हैं। इन बाबुओं के पास भी सूर्यमुखी के बीजों की तरह कुछ चुंबकीय आकर्षण होता होगा जिसकी तलाश में ये लोग ऑफिस खुलते ही इनकी ओर मंडराने लगते हैं। 

उल्लुओं के पास कम लोग ही जाना पसंद करते हैं। सूर्योदय के साथ जैसे उल्लू बुझे-बुझे रहते हैं, अधिकारी के कमरे से निकलने के बाद कुछ बाबू एकदम से दुखी-दुखी दिखते हैं। अब जो पहले से मुरझाया हो, उसके पास कौन जाना चाहेगा? रात में उल्लू सुखी रहता है लेकिन दिन में किसी के आने की आहट से भी बेचैन हो जाता है। इसीलिए कुछ उल्लू रात में काम करते हैं, शायद इसी से खुश होकर लक्ष्मी ने इनको अपना वाहन बना रखा है। जिस पर लक्ष्मी की कृपा हो उस पर अधिकारी की शेर गुर्राहट का क्या भय!

सूरज का उगना, सूरजमुखी के फूलों का सूर्य की ओर आकर्षित होना, तोतों का बीजों के लोभ में सूर्यमुखी के फूलों के इर्द गिर्द मंडराना और बीज की तलाश में आए तोतों से अपना जिस्म नुचवाना, उल्लुओं का अंधेरे में देखना, दिन में अंधे होकर लक्ष्मी की आराधना करना शास्वत सत्य है। कार्यालय में कार्य करने की प्रवृत्ति, संसाधन बदल सकते हैं लेकिन उल्लू और सूरजमुखी के फूल तो हमेशा पाए जाएंगे। जब तक सूरजमुखी के फूल हैं, सूरजमुखी पर मंडराने वाले तोते भी दिखते रहेंगे। 

सूरजमुखी के फूलों को समझना चाहिए कि तोते उनके पास सिर्फ इसलिए आते हैं कि उन्हें उनसे नहीं, उनके बीजों से प्रेम है। बीजों का खत्म होना मतलब समूल नष्ट हो जाना। अधिकारियों को देखकर खिलें मगर हमेशा यह याद रहे कि ये तोते उनके मित्र नहीं हैं।

https://youtu.be/Olkq4om9un8 


18.5.23

व्यवस्था

वह बड़ा आदमी है

सबसे ऊँची मढ़ी पर बैठ 

नदी में फेंकता है

पत्थर!


कई लहरें उठती हैं

गिनता है

एक, दो...सात, आठ, नौ दस...बस्स!

पुनः प्रयास करता है,

बड़ा पत्थर फेंका जाय

और लहरें उठेंगी!!!


छोटा आदमी

छोटी मढ़ी पर बैठ

फेंकता है पत्थर

गिनता है लहरें

वह भी संतुष्ट नहीं होता

तलाशता है

और बड़ा पत्थर!


नदी किनारे

नीचे घाट पर बैठे बच्चे भी

देखते-देखते सीख जाते हैं

नदी में कंकड़ फेंकना!


पैतरे से

हाथ नचा कर

नदी में ऐसे कंकड़ चलाते हैं

कि एक कंकड़

कई-कई बार

डूबता/उछलता है!

कंकड़ के

मुकम्मल डूबने से पहले

बीच धार तक

बार-बार 

बनती ही चली जाती हैं लहरें!!!


न बड़े थकते हैं

न बच्चे रुकते हैं

बनती/बिगड़ती रहती हैं लहरें!


पीढ़ी दर पीढ़ी

खेल चलता रहता है

बस नदी

थोड़ी मैली,

थोड़ी और मैली 

होती चली जाती है।

........@देवेन्द्र पाण्डेय।

8.5.23

महाब्राह्मण

भारतीय, खासकर अपने पूर्वांचल के जाति जंजाल की बेबाकी से पड़ताल करता है महाब्राह्मण। यह इतना रोचक और उत्तेजित करने वाला उपन्यास है कि जिसे शुरू करने के बाद खतम किए बिना चैन नहीं पड़ता और खतम होने के बाद अंत हैरान कर देता है! इस पुस्तक को पढ़ने से पहले तक मैं इस जाति जंजाल से सर्वथा अपरिचित तो नहीं था, थोड़ा बहुत सुना भर था लेकिन इसके दर्द की जरा भी अनुभूति नहीं थी। 


जब आप इस उपन्यास को पढ़ना प्रारंभ करेंगे तो शुरु के पन्नों से ही यह उपन्यास आपको बुरी तरह से जकड़ लेगा। कभी आप रासलीला में मगन हो जाएंगे, कभी कामलीला में उत्तेजित हो जाएंगे और कभी महापातरों के झगड़े का हिस्सा बन उलझ जाएंगे, कभी नायक से गहरी सहानुभूति हो जाएगी, कभी उसकी सज्जनता पर क्रोध आएगा और जब उपन्यास खतम होगा तो सबसे ज्यादा गुस्सा इस उपन्यास के लेखक पर ही आएगा! यदि यह सच है तो इतना सच लिखने की क्या जरूरत थी?  


गुस्से के साथ कई प्रश्न उभरेंगे मगर किसी प्रश्न का कोई उत्तर नहीं मिलेगा। निराश होकर एक ही प्रश्न करेंगे कि जाने/अनजाने हमारे पूर्वजों ने जाति/उपजाति में जकड़े ऐसे समाज का निर्माण क्यों किया? हम कब तक इस जाति दंश को झेलते रहेंगे? और कब सिर्फ मनुष्य बन कर जी पाएंगे? मैं इसके लेखक, गुरूदेव श्री त्रिलोक नाथ पाण्डेय  को उनके श्रम और अनूठी कृति के लिए अभी कोई बधाई देने की स्थिति में नहीं हूं क्योंकि मैने अभी उपन्यास खतम किया है और अंत पढ़कर मैं गुस्से में हूं।


........

5.5.23

साइकिल की सवारी 9

चाणक्य के जासूस पढ़ने के बाद से ही इस पुस्तक के लेखक 'श्री त्रिलोक नाथ पांडेय' सर के दर्शन करने और उनका आशीर्वाद लेने की इच्छा थी। महीनों से मन में एक अपराध बोध था कि गुरुदेव इसी शहर में रहते हैं और मैं उनसे आज तक नहीं मिल पाया। दूसरे शहर में नौकरी और छुट्टी के दिन प्रातः की साइकिलिंग, भ्रमण, घर के काम और शाम को साहित्यिक गोष्ठियों में जाने के शौक के कारण मित्रों से भी मुलाकात के लिए समय निकालना कठिन हो जाता है। बहुत सोचने के बाद तय किया कि क्यों न एक छुट्टी के दिन साइकिल गुरुदेव के घर की ओर मोड़ दिया जाय! अपनी साइकिलिंग/प्रातः भ्रमण भी हो जाएगी, गुरुदेव का आशीर्वाद भी मिल जाएगा।

आज बुद्ध पुर्णिमा की छुट्टी थी तो मन ही मन आज भोर का दिन तय किया। गुरुदेव DLW मार्ग में निराला नगर कॉलोनी, महमूरगंज के पास रहते हैं।  भोर में उठकर गूगल सर्च किया तो मैप मेरे घर से निराला नगर की दूरी 11 किमी दिखा रहा था। सोचा, नमो घाट १० किमी दूर है, वहां तक तो जाता ही रहता हूं, बस एक कि.मी. ही अधिक चलना पड़ेगा, जाया जा सकता है, इतनी सुबह गुरुदेव मिल ही जाएंगे।

जब घर से निकला, भोर के 4.30  हुए थे, आकाश में भोर वाले तारे और पूनम का चांद खिला हुआ था,सड़कों पर लैंप पोस्ट की सभी बत्तियां जल रही थीं, बनारस शहर के मध्य मार्ग से जाना था, भीड़ तो होनी ही थी लेकिन अभी वाहन कम थे और इक्का दुक्का मॉर्निंग वॉकर भी दिखाई दे रहे थे। 

पांडेपुर चौराहे से होते हुए वरुणापुल, चौकाघाट पहुुंच कर वरुणा नदी के दर्शन करने लगा। पुल के दोनो ओर झालर जल रहे थे, G20 के कारण शहर की सजावट की गई थी, वह अभी दिख रही थी। रुककर एक तस्वीर खींचकर ज्यों ही आगे बढ़ा, साइकिल ने चलने से इनकार कर दिया! उतरकर देखा तो चकित रह गया, पिछले पहिए में हवा ही नहीं थी! यह कैसे हुआ? घर से निकलने से पहले मैंने खूब हवा भरी थी, कहीं कोई कील तो नहीं धंस गई!!! पहिया घुमाकर ध्यान से देखने पर जल्दी ही एक लम्बी कील हाथ में आ गई। समझ गया, भरत मिलाप से पहले लंका कांड यहीं हो गया। वरुणापुल पर बैठे एक ठेले वाले से पंचर बनाने वाले के बारे में पूछा तो उसने ठगा सा जवाब दिया, "आठ बजे से पहिले केहू ना मिली, इतना सबेरे के आई?" 

अब मेरे सामने दो ही विकल्प था, पैदल वापस लौट चलूं या हिम्मत कर आगे बढूं, शायद कोई पंचर बनाने वाला मिल जाय! वापस लौटना बुजदिली होती, मैने हिम्मत दिखाई और पैदल पैदल आगे बढ़ चला। सोचा, कोई पंचर बनाने वाले की दुकान दिख जाय बस, वह नहीं होगा तो साइकिल वहीं लॉक करके ऑटो पकड़ लुंगा, गुरुदेव से मिलकर वापस लौट कर पंचर बनवाऊंगा। 

चौका घाट चौराहा पार कर लगभग 100 मीटर आगे बढ़ा तो पटरी पर बाईं तरफ एक पंचर बनाने वाला दिख गया! उस समय मुझे वह बहुत प्यारा लगा। साइकिल वहीं खड़ी कर मैने सबसे पहले उसका नाम पूछा, उसने न केवल  प्रेम से अपना नाम बताया, बल्कि मेरे साइकिल का ट्यूब भी खोलने लगा। ट्यूब की जांचकर ओम प्रकाश ने बताया, "दू जगह कटिया छेद कइले हौ।" मैने कहा, "तू मिल गइला, अब कउनों चिंता नाहीं, दू जगह पंचर होय या तीन जगह, कै बजे दुकाने आवला?" उसने हंसते हुए कहा, "हम त भोरिए में पांचे बजे आ जाइला मालिक!"

वहीं चबूतरे पर बैठे-बैठे मन ही मन वरुणापुल के ठेले वाले की बात याद करने लगा, "आठ बजे से पहिले केहू ना मिली, इतना सबेरे के आई?" अगर उसकी बात से डर कर लौट गया होता तो कितनी बड़ी बेवकूफी होती! आम आदमी जिस विषय में कोई ज्ञान नहीं होता, वहां भी वह अपनी राय देने से नहीं चूकता! नहीं पता हो तो कह सकता था, 'हमको नहीं पता' लेकिन नहीं, उस विषय में भी ज्ञान देना है जिसकी उसको कोई जानकारी नहीं!!!"

पंचर बनवाकर लगभग 2 किमी आगे मलदहिया चौराहे से काशी विद्यापीठ का मार्ग पकड़ा तो दिखा, दाईं ओर फूलों की मंडी सजी हुई थी, गेंदों के फूलों की बड़ी-बड़ी मालाएं बिक रही थीं, और भी कई प्रकार के फूल थे, वहीं रुककर सब नजारे देखने लगा फिर सोचा, इतनी सुबह बिना बताए किसी के भी घर जाना अच्छी बात तो नहीं, पता नहीं गुरुदेव किस हाल में होंगे! जगे भी होंगे या नहीं, आज बुद्ध पुर्णिमा है कहीं गंगा स्नान को निकल गए होंगे तो जाना बेकार ही होगा! हालांकि गुरुदेव से फेसबुक चैट के माध्यम से बहुत पहले घर का पता और मोबाइल नंबर ले लिया था लेकिन सोचा, पता पूछने के बहाने कम से कम अपने आने की सूचना दे दी जाय और गुरुदेव का हाल तो ले ही लिया जाय, न होंगे तो यहीं से लौटने में भलाई है, अभी भी गूगल 4 किमी की दूरी बता रहा है, पर्याप्त साइकिलिंग तो हो ही चुकी।  यही सब सोचते सोचते मैने मोबाइल लगा ही दिया।

गुरूदेव अभी सो कर उठे थे। खूब उत्साह से उन्होंने रास्ता बताया और आने के लिए स्वागत किया। यह उनकी विनम्रता है कि फेसबुक मित्र सूची में होने के कारण वे मुझे मित्र संबोधित करते हैं, यह अलग बात है कि उनकी उम्र और योग्यता के आगे नतमस्तक होने के कारण मैं उन्हें गुरुदेव मानता हूं। उनकी बातें सुनकर मेरा उत्साह दूना हो गया और साइकिल की पैडिल तेज चलने लगी। 

बनारस के पक्के महाल की गलियों की तरह संकरी गलियों से गुजरते हुए, उनके बताए पते पर जब मैं पहुंचा तो वे घर के दरवाजे पर ही खड़े मिले। खूब आत्मीयता से उन्होंने मेरा स्वागत किया और घर की एक मंजिल ऊपर बने बैठके में प्रेम से बिठाया। सबसे पहले तो घर की बनी मिठाई और पानी ले आए फिर कहा, "दूर से साइकिल चलाकर आए हैं, पहले आराम कीजिए। चाय कैसी पिएंगे? शुगर फ्री या चीनी वाली?" वे फुर्ती से एक मंजिल उतरकर पानी लाते, चाय लाते और मैं शर्म से गढ़ा जा रहा था, "आज मैने देव को कितना कष्ट दिया!" 

बहुत देर तक गुरूदेव से पारिवारिक/सेवा/लेखन संबधी बातें हुईं, शरीर स्वस्थ, मन प्रसन्न और आत्मा तृप्त हुई। गुरूदेव ने बताया, "देर से सोते हैं, देर से उठते हैं, आपकी तरह घूमने कहीं नहीं जाते, घर में ही पड़े रहते हैं। अभी मेरे और पत्नी के अलावा घर में कोई नहीं रहता, बच्चे अपने-अपने काम के स्थान पर हैं।" 

गुरुदेव किसी परिचय के मोहताज नहीं, जितना श्रम उन्होंने सेवा के समय किया होगा, उसकी कल्पना भी हम नहीं कर सकते। सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने लेखन शुरू किया और एक से  बढ़कर एक साहित्यक सृजन अनवरत जारी है। अंग्रेजी का विद्वान सेवानिवृत्ति के बाद हिंदी साहित्य को इतना कुछ दे रहा है, यह अचरज की बात है। प्रेम लहरी, चाणक्य के जासूस, खुपिया गिरी युगे-युगे, काशी कथा जैसी अनवरत जारी इस शृंखला में 'चाणक्य के जासूस' पढ़कर मैं इनका मुरीद तो बहुत पहले हो चुका हूं, अभी 'राज कमल प्रकाशन' से प्रकाशित एक ताजा कृति 'महाब्राह्मण' पढ़ने के लिए मेरे पास धरी है। बातों ही बातों में पता चला कि अभी हनुमान जी की आत्मकथा पर उनकी लेखनी चल रही है!   इतना कुछ पढ़ने/लिखने के बाद भी कितनी सहजता से कहते हैं, "कुछ नहीं करता, घर पर ही पड़ा रहता हूं!" जीवन में अपनी थोड़ी सी उपलब्धि पर गौरवान्वित होने और अहंकार में डूब जाने वाले व्यक्ति बहुत देखे हैं लेकिन इतना सफल जीवन जीने के बाद, इतनी सरलता कम ही लोगों में दिखती है। ईश्वर से बस यही प्रार्थना है कि उनको खूब लम्बा और स्वस्थ जीवन दे ताकि हमें उनसे बहुत कुछ पढ़ने/सीखने को मिले।

भोर में साइकिल चलाना आनंद दायक है, धूप निकलने के बाद साइकिल चलाना कष्टप्रद होता है। सुबह के 7.30 होने जा रहे थे, धूप सर पर सवार हो चुकी होगी, अब निकलना चाहिए, सोचकर मैने देव से जाने की अनुमति मांगी और फिर आने का वादा कर आशीर्वाद लिया और घर की ओर लौट चला। आज की साइकिलिंग सबसे अच्छी और यादगार रही।

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