23.5.23

सूरजमुखी के तोते

वैसे तो अमेरिका का देशज फूल है सूर्यमुखी का फूल लेकिन अब बहुत से देशों में पाया जाता है। अपने नाम को सार्थक करता हुआ यह हमेशा सूरज की ओर झुका-झुका, सूरज को देख, खिला-खिला दिखता है। इसके बीज तोतों को बेहद प्रिय हैं। इन्हीं बीजों को खाने के लिए ये प्रायः फूलों पर मंडराते दिख जाते हैं। 

धमेख स्तूप पार्क, सारनाथ के एक छोटे से जमीन के टुकड़े में इनके पौधे लगे हैं। प्रातः भ्रमण के समय, सूर्योदय के साथ इन पर मंडराते तोते दिखने लगते हैं। ये तोते घने नीम के वृक्षों के खोह में कहीं घोंसला बनाकर रहते हैं लेकिन सूर्योदय के साथ कभी स्तूप के ऊपर, कभी फूलों के ऊपर मंडराते दिख जाते हैं। प्रातः भ्रमण करते समय सूर्यमुखी के फूलों पर मंडराते तोतों को देखकर मुझे सरकारी कार्यालयों में बाबुओं के इर्द गिर्द चक्कर लगाने वाले लोग याद आ जाते हैं। अब ये तोते याद आए तो उल्लू  भी याद आने लगे!

सरकारी कार्यालयों में कई प्रकार के बाबू पाए जाते हैं। कुछ तो सूरजमुखी के फूलों की तरह खिले-खिले दिखते हैं। सूर्यमुखी के फूल तो सूरज की ओर झुके चले जाते हैं, ये अधिकारी को देख उनकी ओर खिंचे चले जाते हैं! अधिकारी के कमरों से निकलने के बाद ये और भी खिले-खिले नजर आते हैं! दूसरे प्रकार के वे होते हैं जिनको अधिकारी आते ही घंटी बजाकर अपने कमरे में बुलाता है और उन पर दिन भर के  काम का बोझा लाद देता है या पिछले बताए गए काम के बारे में पूछता है और काम को ठीक से न करने के लिए डांट पिलाता है। ये दुखियारे तो उल्लू की तरह अधिकारी के कमरे से बुझे-बुझे निकलते हैं। सूरज निकलने के बाद जैसे उल्लू बुझा-बुझा रहता है वैसे ही कुछ बाबू अधिकारी को देख मुर्झा जाते हैं।

हमारा ध्यान अभी उल्लुओं पर नहीं, सूर्यमुखी के फूलों की तरफ़ है। खिले-खिले फूलों की तरह खिले-खिले सरकारी बाबू सबको अच्छे लगते हैं। जैसे सूर्यमुखी के फूलों के बीज के लिए  सुबह-सुबह फूलों पर तोते मंडराने लगते हैं वैसे ही ऑफिस खुलते ही कुछ बाबुओं के इर्द गिर्द लोग जमा होना शुरू हो जाते हैं! जैसे कुछ बाबू सूर्यमुखी के फूलों की तरह खिले-खिले दिखते हैं वैसे ही इनके इर्द गिर्द मंडराने वाले लोग भी तोतों की तरह टांय-टांय करते रहते हैं। इन बाबुओं के पास भी सूर्यमुखी के बीजों की तरह कुछ चुंबकीय आकर्षण होता होगा जिसकी तलाश में ये लोग ऑफिस खुलते ही इनकी ओर मंडराने लगते हैं। 

उल्लुओं के पास कम लोग ही जाना पसंद करते हैं। सूर्योदय के साथ जैसे उल्लू बुझे-बुझे रहते हैं, अधिकारी के कमरे से निकलने के बाद कुछ बाबू एकदम से दुखी-दुखी दिखते हैं। अब जो पहले से मुरझाया हो, उसके पास कौन जाना चाहेगा? रात में उल्लू सुखी रहता है लेकिन दिन में किसी के आने की आहट से भी बेचैन हो जाता है। इसीलिए कुछ उल्लू रात में काम करते हैं, शायद इसी से खुश होकर लक्ष्मी ने इनको अपना वाहन बना रखा है। जिस पर लक्ष्मी की कृपा हो उस पर अधिकारी की शेर गुर्राहट का क्या भय!

सूरज का उगना, सूरजमुखी के फूलों का सूर्य की ओर आकर्षित होना, तोतों का बीजों के लोभ में सूर्यमुखी के फूलों के इर्द गिर्द मंडराना और बीज की तलाश में आए तोतों से अपना जिस्म नुचवाना, उल्लुओं का अंधेरे में देखना, दिन में अंधे होकर लक्ष्मी की आराधना करना शास्वत सत्य है। कार्यालय में कार्य करने की प्रवृत्ति, संसाधन बदल सकते हैं लेकिन उल्लू और सूरजमुखी के फूल तो हमेशा पाए जाएंगे। जब तक सूरजमुखी के फूल हैं, सूरजमुखी पर मंडराने वाले तोते भी दिखते रहेंगे। 

सूरजमुखी के फूलों को समझना चाहिए कि तोते उनके पास सिर्फ इसलिए आते हैं कि उन्हें उनसे नहीं, उनके बीजों से प्रेम है। बीजों का खत्म होना मतलब समूल नष्ट हो जाना। अधिकारियों को देखकर खिलें मगर हमेशा यह याद रहे कि ये तोते उनके मित्र नहीं हैं।

https://youtu.be/Olkq4om9un8 


18.5.23

व्यवस्था

वह बड़ा आदमी है

सबसे ऊँची मढ़ी पर बैठ 

नदी में फेंकता है

पत्थर!


कई लहरें उठती हैं

गिनता है

एक, दो...सात, आठ, नौ दस...बस्स!

पुनः प्रयास करता है,

बड़ा पत्थर फेंका जाय

और लहरें उठेंगी!!!


छोटा आदमी

छोटी मढ़ी पर बैठ

फेंकता है पत्थर

गिनता है लहरें

वह भी संतुष्ट नहीं होता

तलाशता है

और बड़ा पत्थर!


नदी किनारे

नीचे घाट पर बैठे बच्चे भी

देखते-देखते सीख जाते हैं

नदी में कंकड़ फेंकना!


पैतरे से

हाथ नचा कर

नदी में ऐसे कंकड़ चलाते हैं

कि एक कंकड़

कई-कई बार

डूबता/उछलता है!

कंकड़ के

मुकम्मल डूबने से पहले

बीच धार तक

बार-बार 

बनती ही चली जाती हैं लहरें!!!


न बड़े थकते हैं

न बच्चे रुकते हैं

बनती/बिगड़ती रहती हैं लहरें!


पीढ़ी दर पीढ़ी

खेल चलता रहता है

बस नदी

थोड़ी मैली,

थोड़ी और मैली 

होती चली जाती है।

........@देवेन्द्र पाण्डेय।

8.5.23

महाब्राह्मण

भारतीय, खासकर अपने पूर्वांचल के जाति जंजाल की बेबाकी से पड़ताल करता है महाब्राह्मण। यह इतना रोचक और उत्तेजित करने वाला उपन्यास है कि जिसे शुरू करने के बाद खतम किए बिना चैन नहीं पड़ता और खतम होने के बाद अंत हैरान कर देता है! इस पुस्तक को पढ़ने से पहले तक मैं इस जाति जंजाल से सर्वथा अपरिचित तो नहीं था, थोड़ा बहुत सुना भर था लेकिन इसके दर्द की जरा भी अनुभूति नहीं थी। 


जब आप इस उपन्यास को पढ़ना प्रारंभ करेंगे तो शुरु के पन्नों से ही यह उपन्यास आपको बुरी तरह से जकड़ लेगा। कभी आप रासलीला में मगन हो जाएंगे, कभी कामलीला में उत्तेजित हो जाएंगे और कभी महापातरों के झगड़े का हिस्सा बन उलझ जाएंगे, कभी नायक से गहरी सहानुभूति हो जाएगी, कभी उसकी सज्जनता पर क्रोध आएगा और जब उपन्यास खतम होगा तो सबसे ज्यादा गुस्सा इस उपन्यास के लेखक पर ही आएगा! यदि यह सच है तो इतना सच लिखने की क्या जरूरत थी?  


गुस्से के साथ कई प्रश्न उभरेंगे मगर किसी प्रश्न का कोई उत्तर नहीं मिलेगा। निराश होकर एक ही प्रश्न करेंगे कि जाने/अनजाने हमारे पूर्वजों ने जाति/उपजाति में जकड़े ऐसे समाज का निर्माण क्यों किया? हम कब तक इस जाति दंश को झेलते रहेंगे? और कब सिर्फ मनुष्य बन कर जी पाएंगे? मैं इसके लेखक, गुरूदेव श्री त्रिलोक नाथ पाण्डेय  को उनके श्रम और अनूठी कृति के लिए अभी कोई बधाई देने की स्थिति में नहीं हूं क्योंकि मैने अभी उपन्यास खतम किया है और अंत पढ़कर मैं गुस्से में हूं।


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5.5.23

साइकिल की सवारी 9

चाणक्य के जासूस पढ़ने के बाद से ही इस पुस्तक के लेखक 'श्री त्रिलोक नाथ पांडेय' सर के दर्शन करने और उनका आशीर्वाद लेने की इच्छा थी। महीनों से मन में एक अपराध बोध था कि गुरुदेव इसी शहर में रहते हैं और मैं उनसे आज तक नहीं मिल पाया। दूसरे शहर में नौकरी और छुट्टी के दिन प्रातः की साइकिलिंग, भ्रमण, घर के काम और शाम को साहित्यिक गोष्ठियों में जाने के शौक के कारण मित्रों से भी मुलाकात के लिए समय निकालना कठिन हो जाता है। बहुत सोचने के बाद तय किया कि क्यों न एक छुट्टी के दिन साइकिल गुरुदेव के घर की ओर मोड़ दिया जाय! अपनी साइकिलिंग/प्रातः भ्रमण भी हो जाएगी, गुरुदेव का आशीर्वाद भी मिल जाएगा।

आज बुद्ध पुर्णिमा की छुट्टी थी तो मन ही मन आज भोर का दिन तय किया। गुरुदेव DLW मार्ग में निराला नगर कॉलोनी, महमूरगंज के पास रहते हैं।  भोर में उठकर गूगल सर्च किया तो मैप मेरे घर से निराला नगर की दूरी 11 किमी दिखा रहा था। सोचा, नमो घाट १० किमी दूर है, वहां तक तो जाता ही रहता हूं, बस एक कि.मी. ही अधिक चलना पड़ेगा, जाया जा सकता है, इतनी सुबह गुरुदेव मिल ही जाएंगे।

जब घर से निकला, भोर के 4.30  हुए थे, आकाश में भोर वाले तारे और पूनम का चांद खिला हुआ था,सड़कों पर लैंप पोस्ट की सभी बत्तियां जल रही थीं, बनारस शहर के मध्य मार्ग से जाना था, भीड़ तो होनी ही थी लेकिन अभी वाहन कम थे और इक्का दुक्का मॉर्निंग वॉकर भी दिखाई दे रहे थे। 

पांडेपुर चौराहे से होते हुए वरुणापुल, चौकाघाट पहुुंच कर वरुणा नदी के दर्शन करने लगा। पुल के दोनो ओर झालर जल रहे थे, G20 के कारण शहर की सजावट की गई थी, वह अभी दिख रही थी। रुककर एक तस्वीर खींचकर ज्यों ही आगे बढ़ा, साइकिल ने चलने से इनकार कर दिया! उतरकर देखा तो चकित रह गया, पिछले पहिए में हवा ही नहीं थी! यह कैसे हुआ? घर से निकलने से पहले मैंने खूब हवा भरी थी, कहीं कोई कील तो नहीं धंस गई!!! पहिया घुमाकर ध्यान से देखने पर जल्दी ही एक लम्बी कील हाथ में आ गई। समझ गया, भरत मिलाप से पहले लंका कांड यहीं हो गया। वरुणापुल पर बैठे एक ठेले वाले से पंचर बनाने वाले के बारे में पूछा तो उसने ठगा सा जवाब दिया, "आठ बजे से पहिले केहू ना मिली, इतना सबेरे के आई?" 

अब मेरे सामने दो ही विकल्प था, पैदल वापस लौट चलूं या हिम्मत कर आगे बढूं, शायद कोई पंचर बनाने वाला मिल जाय! वापस लौटना बुजदिली होती, मैने हिम्मत दिखाई और पैदल पैदल आगे बढ़ चला। सोचा, कोई पंचर बनाने वाले की दुकान दिख जाय बस, वह नहीं होगा तो साइकिल वहीं लॉक करके ऑटो पकड़ लुंगा, गुरुदेव से मिलकर वापस लौट कर पंचर बनवाऊंगा। 

चौका घाट चौराहा पार कर लगभग 100 मीटर आगे बढ़ा तो पटरी पर बाईं तरफ एक पंचर बनाने वाला दिख गया! उस समय मुझे वह बहुत प्यारा लगा। साइकिल वहीं खड़ी कर मैने सबसे पहले उसका नाम पूछा, उसने न केवल  प्रेम से अपना नाम बताया, बल्कि मेरे साइकिल का ट्यूब भी खोलने लगा। ट्यूब की जांचकर ओम प्रकाश ने बताया, "दू जगह कटिया छेद कइले हौ।" मैने कहा, "तू मिल गइला, अब कउनों चिंता नाहीं, दू जगह पंचर होय या तीन जगह, कै बजे दुकाने आवला?" उसने हंसते हुए कहा, "हम त भोरिए में पांचे बजे आ जाइला मालिक!"

वहीं चबूतरे पर बैठे-बैठे मन ही मन वरुणापुल के ठेले वाले की बात याद करने लगा, "आठ बजे से पहिले केहू ना मिली, इतना सबेरे के आई?" अगर उसकी बात से डर कर लौट गया होता तो कितनी बड़ी बेवकूफी होती! आम आदमी जिस विषय में कोई ज्ञान नहीं होता, वहां भी वह अपनी राय देने से नहीं चूकता! नहीं पता हो तो कह सकता था, 'हमको नहीं पता' लेकिन नहीं, उस विषय में भी ज्ञान देना है जिसकी उसको कोई जानकारी नहीं!!!"

पंचर बनवाकर लगभग 2 किमी आगे मलदहिया चौराहे से काशी विद्यापीठ का मार्ग पकड़ा तो दिखा, दाईं ओर फूलों की मंडी सजी हुई थी, गेंदों के फूलों की बड़ी-बड़ी मालाएं बिक रही थीं, और भी कई प्रकार के फूल थे, वहीं रुककर सब नजारे देखने लगा फिर सोचा, इतनी सुबह बिना बताए किसी के भी घर जाना अच्छी बात तो नहीं, पता नहीं गुरुदेव किस हाल में होंगे! जगे भी होंगे या नहीं, आज बुद्ध पुर्णिमा है कहीं गंगा स्नान को निकल गए होंगे तो जाना बेकार ही होगा! हालांकि गुरुदेव से फेसबुक चैट के माध्यम से बहुत पहले घर का पता और मोबाइल नंबर ले लिया था लेकिन सोचा, पता पूछने के बहाने कम से कम अपने आने की सूचना दे दी जाय और गुरुदेव का हाल तो ले ही लिया जाय, न होंगे तो यहीं से लौटने में भलाई है, अभी भी गूगल 4 किमी की दूरी बता रहा है, पर्याप्त साइकिलिंग तो हो ही चुकी।  यही सब सोचते सोचते मैने मोबाइल लगा ही दिया।

गुरूदेव अभी सो कर उठे थे। खूब उत्साह से उन्होंने रास्ता बताया और आने के लिए स्वागत किया। यह उनकी विनम्रता है कि फेसबुक मित्र सूची में होने के कारण वे मुझे मित्र संबोधित करते हैं, यह अलग बात है कि उनकी उम्र और योग्यता के आगे नतमस्तक होने के कारण मैं उन्हें गुरुदेव मानता हूं। उनकी बातें सुनकर मेरा उत्साह दूना हो गया और साइकिल की पैडिल तेज चलने लगी। 

बनारस के पक्के महाल की गलियों की तरह संकरी गलियों से गुजरते हुए, उनके बताए पते पर जब मैं पहुंचा तो वे घर के दरवाजे पर ही खड़े मिले। खूब आत्मीयता से उन्होंने मेरा स्वागत किया और घर की एक मंजिल ऊपर बने बैठके में प्रेम से बिठाया। सबसे पहले तो घर की बनी मिठाई और पानी ले आए फिर कहा, "दूर से साइकिल चलाकर आए हैं, पहले आराम कीजिए। चाय कैसी पिएंगे? शुगर फ्री या चीनी वाली?" वे फुर्ती से एक मंजिल उतरकर पानी लाते, चाय लाते और मैं शर्म से गढ़ा जा रहा था, "आज मैने देव को कितना कष्ट दिया!" 

बहुत देर तक गुरूदेव से पारिवारिक/सेवा/लेखन संबधी बातें हुईं, शरीर स्वस्थ, मन प्रसन्न और आत्मा तृप्त हुई। गुरूदेव ने बताया, "देर से सोते हैं, देर से उठते हैं, आपकी तरह घूमने कहीं नहीं जाते, घर में ही पड़े रहते हैं। अभी मेरे और पत्नी के अलावा घर में कोई नहीं रहता, बच्चे अपने-अपने काम के स्थान पर हैं।" 

गुरुदेव किसी परिचय के मोहताज नहीं, जितना श्रम उन्होंने सेवा के समय किया होगा, उसकी कल्पना भी हम नहीं कर सकते। सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने लेखन शुरू किया और एक से  बढ़कर एक साहित्यक सृजन अनवरत जारी है। अंग्रेजी का विद्वान सेवानिवृत्ति के बाद हिंदी साहित्य को इतना कुछ दे रहा है, यह अचरज की बात है। प्रेम लहरी, चाणक्य के जासूस, खुपिया गिरी युगे-युगे, काशी कथा जैसी अनवरत जारी इस शृंखला में 'चाणक्य के जासूस' पढ़कर मैं इनका मुरीद तो बहुत पहले हो चुका हूं, अभी 'राज कमल प्रकाशन' से प्रकाशित एक ताजा कृति 'महाब्राह्मण' पढ़ने के लिए मेरे पास धरी है। बातों ही बातों में पता चला कि अभी हनुमान जी की आत्मकथा पर उनकी लेखनी चल रही है!   इतना कुछ पढ़ने/लिखने के बाद भी कितनी सहजता से कहते हैं, "कुछ नहीं करता, घर पर ही पड़ा रहता हूं!" जीवन में अपनी थोड़ी सी उपलब्धि पर गौरवान्वित होने और अहंकार में डूब जाने वाले व्यक्ति बहुत देखे हैं लेकिन इतना सफल जीवन जीने के बाद, इतनी सरलता कम ही लोगों में दिखती है। ईश्वर से बस यही प्रार्थना है कि उनको खूब लम्बा और स्वस्थ जीवन दे ताकि हमें उनसे बहुत कुछ पढ़ने/सीखने को मिले।

भोर में साइकिल चलाना आनंद दायक है, धूप निकलने के बाद साइकिल चलाना कष्टप्रद होता है। सुबह के 7.30 होने जा रहे थे, धूप सर पर सवार हो चुकी होगी, अब निकलना चाहिए, सोचकर मैने देव से जाने की अनुमति मांगी और फिर आने का वादा कर आशीर्वाद लिया और घर की ओर लौट चला। आज की साइकिलिंग सबसे अच्छी और यादगार रही।

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25.4.23

साइकिल की सवारी 8

रोज की तरह आज भी साइकिल उठाकर भोर में घूमने के लिए निकल पड़े। दरवाजे से बाहर आते ही मोबाइल में घड़ी देखी तो सुबह के 4 बजने में अभी 15 मिनट शेष था! यह तो बहुत जल्दी है!!! अभी तो सारनाथ का बुद्ध मन्दिर या धमेख स्तूप पार्क सब बंद होगा। आज छुट्टी भी नहीं है कि दूर चला जाय लेकिन घर से निकल लिए तो फिर लौटना मतलब घर जा कर सो जाना, नींद आ गई, तो गए काम से, घूमना भी नहीं हो पाएगा। इसी उधेड़बुन में लगे रहे और मन ही मन तय किया कि गंगाजी चलते हैं, जो होगा देखा जाएगा। कभी अपना लिखा याद आया...

सड़क पर घूमते पहिये, गगन में चाँद तारे थे
सुबह जब घूमने निकले, परिंदे भोर वाले थे।

सड़क पर कुछ कुछ घूमते पहिए और चांद तारों का साथ लेकर 4,5 कि.मी. कम रोशनी में साइकिल चलाते रहे, कुत्तों के झुण्ड भौंकते हुए आते और साइकिल वाला देखकर लौट जाते। मुझे लगा शायद इन आवारा कुत्तों को साइकिल वालों से प्रेम होता है, अंधेरे में बाइक वालों या कार वालों पर अधिक गुस्साते हैं और भौंकते हुए पीछा करते हैं, साइकिल वाले को कैसे छोड़े जा रहे है! आवारा कुत्तों को साइकिल वालों से इतना प्रेम क्यों होता है? यह शोध का विषय है।

सारनाथ से नमो घाट जाने के कई मार्ग हैं। एक रास्ता गांव- गांव घूमते हुए, पंचकोशी मार्ग से कपिलधारा, सराय मोहाना, वरुणा-गंगा के संगम तट, आदि केशव घाट, बसंता कॉलेज होते हुए जाता है, एक आशापुर से सीधे कज्जाकपुरा रेलवे क्रासिंग होते हुए जाता है, एक पांडेयपुर, चौकाघाट होते ही राजघाट की ओर मुड़ता है और चौथा नख्खी घाट होते हुए, वरुणा पुल पार करता है। अंधेरा होने के कारण गांव वाले रास्ते को छोड़ दिया हालांकि अधिक दूर होते हुए भी वह रमणीक और शहर के कोलाहल से दूर शांत मार्ग है। पांडेयपुर, चौकाघाट वाला मार्ग कार से जाने के लिए अच्छा है, साइकिल से जाने के लिए दूर भी है और शहरी प्रदूषण वाला भी। कज्जाकपुर क्रासिंग वाले मार्ग में ओवरब्रिज निर्माण का कार्य प्रगति पर है इसलिए उससे भी जाना असंभव था। अब एक ही नजदीक वाला मार्ग बचा 'नख्खी घाट',  हमने चलते-चलते उधर ही साइकिल मोड़ दी।

कुत्तों से डरते/बचते हुए जब नख्खी घाट रेलवे क्रासिंग के पास पहुंचे तो दिमाग घूम गया। न केवल रेलवे क्रासिंग बंद थी बल्कि यहां भी निर्माण का कार्य चल रहा था, क्रासिंग खुलने की कोई संभावना नहीं थी! सबको पहले से पता होगा इसलिए लोग भी कम थे, कोई भीड़ नहीं थी। मायूस होकर सोचने लगा, "अब क्या किया जाय, लौट चला जाय?" तभी आशा कि एक किरण दिखाई दी! एक ग्रामीण बंद रेलवे, क्रासिंग के नीचे से साइकिल निकालकर कुछ दूर पटरी-पटरी जा रहा था! मैने तत्काल उनका अनुसरण किया, साइकिल झुकाकर मैं भी पटरी- पटरी चलने लगा। आगे साइकिल लाइन पारकर, रेलवे क्रासिंग भी पार करते हुए, सड़क पार कर चुकी थी। न किसी ने रोका न टोका! हम मुख्य सड़क पर आ चुके थे। रास्ते में आई बाधा ग्रामीण की प्रेरणा से दूर हो चुकी थी। यहां से वाराणसी सिटी स्टेशन पार करते हुए हम तेजी से राजघाट की ओर बढ़ चले।

राजघाट के बगल में ही नमो घाट है। नमो घाट पहुंचकर जब पार्किंग में साइकिल खड़ी की, सुबह के 5 बजने में अभी 15 मिनट बाकी थे और भोर का उजाला हो रहा था। राजघाट पुल की बत्तियां जल रही थीं, इक्का दुक्का प्रातः भ्रमण वाले स्थानीय नागरिक आने शुरू ही हुए थे। नमो घाट, नया और खूबसूरत घाट है। एक चक्कर लगाने के बाद राजघाट पुल के नीचे घाट की सीढ़ियां उतरते चले गए और जहां से नाव पकड़ने के लिए घाट किनारे पानी में न डूबने वाले पीपे के चौकोर चकत्ते लगे हैं, वहीं पूर्व दिशा की ओर मुंह करके, पलेठी मारकर, इत्मीनान से बैठ गया। मन ही मन बोला,"आइए सूर्यदेव! आज हम आपके स्वागत के लिए बिलकुल सही समय पर तशरीफ रख चुके हैं।"

सूर्यदेव अपने समय पर निकले और हम अपलक सूर्योदय का दर्शन करते रहे। मोबाइल से खूब तस्वीरें खींची, वीडियो बनाए और सेल्फी भी ली। घर से, स्नान की तैयारी से निकले ही नहीं थे, स्नान होना भी नहीं था लेकिन मां गंगा की गोद में, ध्यान और देव दर्शन दोनो हो गया। गंगा किनारे जन्म होने और जवान होने तक का संबंध हो या कुछ और गंगा तट पर आज भी थोड़ी देर के लिए बैठने या घाट घूमने का सौभाग्य मिल जाता है तो मन अतिरिक्त ऊर्जा से भर जाता है। गंगा तट पर मन उदास हो, ऐसा नहीं हुआ।

आजकल सूर्यदेव कुछ समय के लिए ही मोहक लगते हैं, ज्यों- ज्यों समय बीतता जाता है, सर पर सवार हो, आग उगलने लगते हैं। यही सोचकर सूर्यदेव को नमस्कार किया और लौट चला। घाट की सीढ़ियां चढ़कर जैसे ही पुनः नमो घाट पहुंचा, अजय बाबू (नींबू की चाय वाले) ने आवाज लगाई, "आज यहां कैसे? आज तो मंगलवार है!" अजय बाबू जानते हैं कि मैं दूर से आता हूं और छुट्टी के दिन के सिवा नहीं आ सकता। मैने उन्हे हाथ से अभी आने का वादा किया और घाट के एक चक्कर लगाने लगा। अब घूमने का शौक नहीं बचा था लेकिन डर था कि सूर्यदेव और ऊपर चढ़ गए तो मोबाइल से उनकी तस्वीरें उतारना संभव नहीं।

एक चक्कर घूम कर सूर्यदेव की खूब तस्वीरें लीं, जहां पर तीन हाथ जोड़ने वाली मुद्रा में पक्की मूर्तियां बनीं हैं, उसी के सामने ला कर रखे, बालू के ढेर पर कलाकारों ने हाथ जोड़ने वाली मूर्तियों की नकल करते हुए बालू पर खूबसूरत कलाकारी कर रखी है और उस पर लिखा है, G 20 मैने उसकी भी तस्वीरें लीं और घूमते हुए अजय बाबू के पास वापस आ कर, वहीं बने एक चबूतरे पर बैठकर, नींबू की चाय सुड़कते हुए, सूर्यदेव, गंगा जी और घाटों की सुंदरता को हृदय से लगाने लगा।

मोबाइल में घड़ी देखी, सुबह के 6 बज चुके थे, आज ऑफिस भी जाना है, अब रुकने का समय शेष नहीं था। समय हो तब भी सूर्योदय के बाद जाड़े की तरह घाटों में अधिक देर घाट- घाट नहीं घूमा जा सकता, साइकिल निकाली और पैदल ही चल दिया। दरअसल नमो घाट से मुख्यमार्ग तक पहुंचने के लिए लगभग 100 मीटर की खड़ी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है, उतरते समय तो मजा आता है लेकीन चढ़ते समय, साइकिल चलाकर नहीं चढ़ा जा सकता। जैसे सुख के दिन ढलान की तरह कब खतम हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता और दुःख के दिन मेहनत से काटने पड़ते हैं वैसे ही हमने मुश्किल से साइकिल चढ़ाई और मुख्य मार्ग पर पहुंचकर बसंत महिला महाविद्यालय वाला, गांव-गांव जाने वाला रास्ता पकड़ा। अब सुबह हो चुकी थी, इस मार्ग से जाना अच्छा था, यह शहर के कोलाहल और प्रदूषण से मुक्त मार्ग है।

देर हो रही थी इसलिए रास्ते में पड़ने वाले जिंदा कुआं (अमृतकुंड) की तरफ देखा भी नहीं, आदिकेशव घाट के पास बने पुल को पार करते हुए, गंगा वरुणा के संगम तट पर एक निगाह दौड़ाई और चलता चला गया लेकिन  पुलिया तक पहुंचते पहुंचते शरीर ने जवाब दे दिया। पुलिया पर बैठकर वहीं आराम करने लगा, पुलिया में मेरे अलावा कोई नहीं था,  पिछली साइकिल की सवारी में जो लोग मिले थे, पुलिया में उनसे से भी कोई नहीं आया था। कुछ समय थकान मिटाने  और दो कुत्तों की दोस्ती देखने के बाद वहां से चला तो रास्ते में नेपाली टोपी पहने, पुलिया की ओर आ रहे श्री खम बहादुर सिंह' दिख गए। मेरे पास समय नहीं था इसलिए रुका नहीं, केवल हाथ उठाकर 'जय नेपाल' किया, उन्होंने भी मुझे देखा और पहचान कर/ खुश होकर 'जय नेपाल' बोला। मेरे लिए यही बड़ी बात थी। एक बार दस मिनट की पुलिया पर बैठकर होने वाली बातचीत के बाद कोई आदमी आपको राह चलते पहचान ले तो यह खुशी की बात है! शायद स्वाभाविक प्राणी प्रेम है। यहां से आगे बढ़ने के बाद घर पहुंचकर ही दम लिया। अभी बहुत देर नहीं हुई थी, घड़ी में सुबह के सात बजे थे, अभी ऑफिस जाने के लिए शरीर में ताकत कम थी लेकिन घड़ी में बहुत समय बाकी था।
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22.4.23

सोने के सिक्के

जहां वह खड़ा था वहां दूर-दूर तक, जिधर निगाह जाती, मिट्टी गीली थी। हल्की-फुल्की जमीन धंस भी रही थी लेकिन कहीं दलदल नहीं दिखा। आराम-आराम से धंसते-उठते चल पा रहा था। एक नया अनुभव था, रोमांच हो रहा था! जब चलना प्रारंभ किया, शुरू शुरू में डर लगने लगा लेकिन अब कोई भय नहीं था, उल्टे मजा आ रहा था।


एक स्थान पर मिट्टी से सने कुछ सिक्के दिखाई दिए, लपक कर उठा लिया और रूमाल निकाल कर मिट्टी पोंछने लगा। मिट्टी गीली थी, सिक्के जल्दी ही चमकने लगे। सिक्के देखकर मन ही मन खुशी से चीख पड़ा,"अरे! ये तो सोने के हैं!!!" 


लालची मनुष्य! इतने से संतुष्ट नहीं हुआ। चारों तरफ निगाह दौड़ाने लगा, 'शायद कहीं कुछ और हों!' चलते-चलते आखिर एक स्थान पर कुछ सिक्के और मिल गए, वे भी सोने के थे!! अब लालच और बढ़ गया। अनुमान लगाने लगा, 'यह पूरा इलाका ही सोने के सिक्कों से भरा होगा, मिट्टी गीली है इसलिए नहीं दिख रहा!"


अब वह चलते-चलते, सिक्के बीनते-बीनते पूरी तरह थककर चूर हो चुका था। उसके दोनो जेब सोने के सिक्कों से भर चुके थे। गीली मिट्टी की कोई सीमा नहीं दिख रही थी! अभी भी जहां तक दृष्टि जाती, मिट्टी ही मिट्टी! अब तो उसे यह भी याद नहीं रहा कि उसने कहां से चलना शुरू किया था? पलटकर पीछे देखता, दाएं देखता, बाएं देखता, जिधर देखता गीली/ धंसती मिट्टी ही मिट्टी! 


धंसते-उठते पैरों ने अब चलने से इनकार करना शुरू कर दिया था। जब थोड़ा रुकता, थोड़ा और धंसने लगता, जल्दी से वापस पैर खींच कर भागने लगता, अब रोमांच, लालच सब खतम हो चुका था। मेहनत से बीने सिक्के भी बोझ लगने लगे थे! अब उसे सिर्फ भूख और जान बचाने की चिंता थी। 


सोने के सिक्के हाथों से छूटकर वापस मिट्टी में मिलने लगे! सिक्के क्या, अब तो वह भी मिट्टी में धंसने लगा!!तभी अचानक चमत्कार हुआ। लंबी गरदन, बड़ी चोंच और पूरी तरह मिट्टी से सने 8 पैरों वाला एक पंछी सामने आया और पूछने लगा, "सोना चाहिए या अभी और जीना चाहते हो?" रोते हुए उसके मुख से एक ही वाक्य निकला, "मुझे बचाओ! लंबी गरदन वाले पंछी ने दया दिखाई, उसे अपनी चोंच से पकड़ कर पीठ में बिठाया और पलक झपकते ही उड़ चला। 


आदमी की नींद खुली तो उसने अपने आपको गंगा किनारे गीली मिट्टी में पड़ा पाया। यहां सोने के सिक्के नहीं थे लेकिन सामने रेत पर ककड़ी/खरबूजे/ तरबूजे बिखरे पड़े थे जो सोने के सिक्कों से अधिक अच्छे लग रहे थे और यहां की मिट्टी भी नहीं धंस रही थी! सामने मेहनती पुरुष और महिलाएं खेतों में काम कर रही थीं। 

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14.4.23

लोहे का घर 71

शाम के 6.10 बज चुके हैं। दून अभी जफराबाद में खड़ी है। इसे खड़ी कर एक मालगाड़ी को पास दिया गया है। अब मालगाड़ी अगले स्टेशन पर पहुंचेगी तब इसे छोड़ेगा। आज बोगी में खूब भीड़ है, रोज के यात्रियों (बंगालियों) के बीच बैठे हैं, सब चर्चा में लीन हैं। एक का ट्रांसफर बनारस हो गया है, सब उसी साथी की चर्चा कर रहे हैं और ट्रेन को कोस रहे हैं। 

पानी वाले वेंडरों की चांदी हो चुकी है। घूम-घूम कर पानी बेच रहे हैं। ट्रेन का अनायास देर तक रुकना इनके लिए सौभाग्य है, अच्छी बिक्री हो जाती है। 'खाना' वाले वेंडर भी अपना ऑर्डर ले रहे हैं। ट्रेन अपने निर्धारित समय से लगभग 4 घंटे विलम्ब से चल रही है। 

ट्रेन का हॉर्न बजा, चलने का सिग्नल हुआ और ट्रेन चल दी। दुखी यात्रियों के चेहरे पर मुस्कान आ गई। वे इसी बात पर खुश हैं कि केवल एक मालगाड़ी को पास दिया। कभी-कभी तो तीन-तीन मालगाड़ियों के गुजरने के बाद चलती है! आज तो एक के बाद ही छोड़ दिया!!! हर लेट ट्रेन के आगे एक मालगाड़ी होती है, अपने आगे भी एक चल रही है।

अभी बाहर उजाला है, खेतों में चरती बकरियां दिख रही हैं। एक आदमी लुंगी और बनियाइन में पगडंडी-पगडंडी चल रहा है, उसके पीछे एक ग्रामीण महिला हाथ में टोकरी लिए चल रही है। ट्रेन की रफ्तार तेज हुई और दृश्य बदल गए। मैं खिड़की के पास बैठा हूं और लिखते-लिखते बाहर भी नजर दौड़ा रहा हूं। कहीं खेतों के बीच सजा कर रखे उपलों के गट्ठर दिख रहे हैं, कहीं झोपड़ी और नाद से बंधे भैंस दिख रहे हैं। 

मेरे सामने एक नवयुवक बैठा है। रुड़की से BBA कर रहे हैं। पश्चिम बंगाल में दमदम में रहता है। रुड़की से हरिद्वार गया और वहां से यह ट्रेन पकड़ा। ट्रेन में चढ़ते समय मेरा चश्मा कहीं गुम हो गया था। बैठने पर पता चला जेब में चश्मा नहीं है! इसी युवक ने ढूंढकर चश्मा लाया और मुझे पकड़ा दिया। इस तरह मेरी एक बला टली और मैं लिख पा रहा हूं, मैने लड़के को खूब धन्यवाद दिया। लड़का बोल रहा है, "हॉस्टल में खाना मसालेदार मिलता है, खाना पसंद नहीं है, हॉस्टल छोड़ने भी नहीं दे रहे और खाना भी अच्छा नहीं बना रहे हैं।" वेस्ट बंगाल से phonics grup of institution में जाकर अपने को फंसा हुआ महसूस कर रहा है।  पहले सेमेस्टर की परीक्षा देकर घर जा रहा है। एक/दो महीने बाद लौटेगा, कोई छुट्टी नहीं लेकिन अभी पढ़ाई भी नहीं होगी।  वेस्ट बंगाल में BBA करने के लिए कॉलेज है लेकिन फीस बहुत ज्यादा है। जहां पढ़ रहा है, फीस कम है, इसलिए इतनी दूर रुड़की में पढ़ रहा है। 

ट्रेन जलालपुर से आगे हवा से बातें कर रही है, मैं लड़के से बातें कर रहा था। लोहे के घर में अनजान यात्रियों से बातें करो तो नई-नई कहानी मिलती है। अब बाहर खूब अंधेरा हो चुका है। ट्रेन खालिसपुर में रूक गई है, यहां इसका स्टॉपेज नहीं है। इस रूट पर चलने वाली ट्रेनें स्टॉपेज पर ही रुकेगी, यह जरूरी नहीं है। आगे चल रही मालगाड़ी इसे हर स्टेशन पर रुकने के लिए बाध्य कर रही है। 

चलती ट्रेन की खिड़की से बाहर अंधेरे में झांको तो टिमटिमाते बल्ब दिख रहे हैं। इस पूरे रास्ते में जंगल नहीं हैं, खेत हैं और तेजी से गांवों का शहरी करण हो रहा है। झोपड़ियां कम दिखती हैं, दूर दूर तक पक्के मकान और मकानों में जलते बल्ब दिख ही जाते हैं। लोहे के घर के भीतर खूब उजाला है। बंगाली बतियाने में मस्त हैं। बतियाने के लिए कोई न कोई विषय मिल ही जाता है। एक रोज के यात्री खूब चाव से अपने पढ़ाई के समय का संस्मरण सुना रहे हैं। सामने बैठे लड़के ने जो अपने कॉलेज का हाल बताया कि पूरा माहौल ही शिक्षा और कॉलेजों की चर्चा पर केंद्रित हो गया। साथी अपने कॉलेज का संस्मरण सुना रहे हैं। पश्चिम के कॉलेजों के वर्क कल्चर की तारीफ हो रही है। 

ट्रेन रुकते/चलते कभी स्पीड से, कभी मंथर चाल से चल रही है। अब बाबतपुर से आगे चली है। लगता है आज बनारस पहुंचने में शाम के आठ बज जाएंगे। रोज के यात्रि इस बात से खुश हैं कि कल तो अंबेडकर जयंति की छुट्टी है, कल नहीं आना है। इसे ही कहते हैं दुःख में सुख ढूंढना। रोज के यात्रि ऐसे ही दुःख में सुख ढूंढ लेते हैं।