25.1.24

लोहे का घर 75 (संस्मरण)

लोहे का घर का घर मेरा पीछा नहीं छोड़ता या मैने लोहे के घर को अपना आवास बना लिया है, नहीं पता। अभी मुंबई, गोवा, पुणे घूमकर 10 दिनों में घर आया ही था कि आज फिर दिल्ली जाने के लिए 'शिव गंगा एक्सप्रेस' पकड़ना पड़ा।

हुआ यूँ कि बिटिया छुट्टी लेकर आई थी लेकिन अचानक से 8 तारीख को ऑफिस पहुंचने का बुलावा आ गया। उसने 7 तारीख के लिए फ्लाइट का टिकट लिया था लेकिन खराब मौसम के कारण फ्लाइट निरस्त हो गई और मजबूरी में ट्रेन पकड़नी पड़ी। एक वर्ष के बच्चे के साथ उसे इतनी देर के सफर में अकेले भेजना ठीक नहीं लगा, मैं भी चल दिया। कल सुबह पहुंचेंगे, दिन में 3 बजे वन्दे भारत से वापस आना है, सिर्फ पहुंचाने जा रहे। थर्ड ac में दरवाजे के बगल वाली साइड लोअर/ अपर मिली है। रात्रि के 11 बजने वाले हैं, लगातार कोई न कोई आ/जा रहा है, सो नहीं पा रहे।


जिसका डर था, वही हुआ। बिटिया की तबीयत खराब हो गई। ठंड लग गई या बदहजमी हो गई 4-5 बार लगातार बाथरूम जाने से उसकी हालत पतली होने लगी। मुझे लगा, यही हाल रहा तो बेहोश हो जाएगी। टी टी से मदद मांगी। उसने फोन करके कानपुर में डॉ बुलवा लिया और मुझसे बोला, "अभी 40 मिनट में कानपुर आ जाता है, डॉ, दवाई सब मिल जाएगा।"


कानपुर स्टेशन अपने निर्धारित समय 2.45 पर पहुंची। ट्रेन रुकते ही डॉ, दवा के साथ उपस्थिति हो गए। एक घण्टे में उनकी दवा से आराम मिल गया। उसका बार -बार बाथरूम जाना रुका, मैं नाती को संभालता रहा। मेरे कूपे के सहयात्री भी सहयोगी मिल गए। मेरे पास एक अपर, एक साइड लोअर की 2 बर्थ थी, एक अपनी लोअर बर्थ देकर मेरी अपर बर्थ में सोने चला गया, इससे बहुत राहत मिली। नाती ने भी खूब सहयोग किया, अपनी अम्मा के तबियत खराब होने तक, गहरी नींद में सोया रहा। इस समय दोपहर के 12 बजने वाले हैं, ट्रेन 5घण्टे लेट चल रही है। इसे सुबह 8.30 पर दिल्ली पहुँचना था लेकिन अभी यह दिल्ली से 150 किमी दूर है। बिटिया का ऑफिस तो गया, अब चिंता यह है कि दोपहर 3 बजे से पहले दिल्ली पहुँच जाय और मैं दामाद जी को बिटिया, नाती हवाले कर वन्दे भारत पकड़ लूँ। वन्देभारत दिल्ली से 3 बजे छूटेगी। 😃

शिवगँगा 3 बजे के बाद पहुंची दिल्ली। अच्छा यह हुआ कि लौटने की ट्रेन 'वन्दे भारत' भी 2 घण्टे विलम्ब से चलने का मैसेज आ गया। मैने बता दिया था कि मैं स्टेशन से ही लौट जाऊंगा, घर में जरूरी काम है, लौटना जरूरी है। समधी, समधन और दामाद जी सभी भरपूर भोजन के साथ दिल्ली प्लेटफार्म पर मौजूद थे। मेरे पास 2घण्टे का समय था, मैं भी स्टेशन से बाहर निकल आया और कार में ही भोजन करके, बिटिया के साथ सबको विदा कर दिया और हाथ हिलाते हुए लौट चला प्लेटफार्म पर जहाँ से वन्दे भारत मिलनी थी। ट्रेन बहुत विलम्ब से आई, 7 बजे छूटी और चाल ठीक रही तो पहुंचाएगी भी 8 घण्टे बाद, भोर में 3 बजे। मतलब आते समय ट्रेन सुबह 8.30 के बजाय दोपहर में 3 के बाद आई थी और जाते समय यह रात्रि 11 के बजाय भोर में पहुंचाने वाली है। इस तरह आते/जाते का 16 घंटा ट्रेन ने खा लिया।

लोहे के इस घर का मेरा पहला अनुभव है। हवाई जहाज की तरह सुफेद कूपे की सीटों पर यात्री लाइन से आगे /पीछे बैठे हैं। अपनी विंडो सीट है। हर रो में 3 चेयर कार हैं। मेरी बगल की दोनो सीट खाली है, शायद अगले स्टॉपेज कानपुर में भरे। दिल्ली और बनारस के बीच कानपुर और प्रयागराज यही 2 स्टॉपेज हैं। पानी, नाश्ता, चाय मिल गया। भले पैसा टिकट में लिया हो लेकिन कोई प्रेम से खिलाए तो अच्छा लगता है। थके शरीर को आनंद आया। सभी यात्री अपनी-अपनी सीट पर मगन हैं, दिखलाई नहीं दे रहे। मेरे बगल के 2 खाली बर्थ में से 1 में एक 2 जुड़वा पाँच वर्ष की बेटियों का पिता, जम कर लैपटॉप चलाने में लीन है। उसकी 2 बर्थ है, उसमें पत्नी और दोनो बच्चे बैठे हैं। मुझे देखता देख, हँसते हुए बोल रहे थे, 'अगली बार बच्चों के लिए भी बर्थ लेना पड़ेगा।' इन्हें कानपुर जाना है, आज तो इनका काम बन गया। कानपुर तक तो दोनो सीट खाली रहने वाली है। सामने बोगी की स्क्रीन पर, अगला स्टॉपेज कानपुर लिखकर आ रहा है और लगातार एक लाइन चल रही है, जिसमें चेतावनी प्रदर्शित हो रही हैं, "शिकायत इस नम्बर पर करें, लावारिस समानों से सावधान रहें, कमोड में कुछ न फेंके, मध्यपान, धूम्रपान न करें आदि।" कहीं किसी की मोबाइल की रिंगटोन, कहीं वीडियो की आवाज को छोड़ दिया जाय तो कूपे में शांति है, लिखने का माहौल है लेकिन अपना शरीर ही 24 घण्टे की बिना आराम वाली यात्रा के कारण थका हुआ है।

सुबह के 6 बजने वाले हैं, कानपुर के आउटर में ट्रेन रुकी है। कल शाम 7 बजे जब यह ट्रेन चली थी, इसे कानपुर पहुँच जाना था। कोहरे के कारण लेट है ट्रेन। लगता है बनारस पहुँचने में 10 बजाएगी। कानपुर उतरने वाले यात्री अपने सामान पैक कर तैयार हैं, पहुँचे तो उतरें। जिन्हें यहाँ नहीं उतरना है उनके खर्राटों की आवाजें आ रही हैं। यह मेरे घूमने का समय है, इस समय मुझे नींद नहीं आती। जितना सोना था, सो लिए। मेरे बगल में बैठे यात्री की 5 वर्ष की दोनो जुडवां बेटियाँ 'अंकल बाय' कहके माता पिता के साथ कानपुर उतरने के लिए दरवाजे पर चली गई हैं। कल शाम मैने अपनी आइसक्रीम इन्हें खिला दिया था, तभी से ये मुझसे बहुत खुश हैं। दोनो चुलबुली बेटियों से पूछता था, "तुम दोनो में कौन बड़ी है?" एक बोलती, "ये मुझसे 5 मिनट बड़ी है, लेकिन हाईट में मैं बड़ी हूँ!" कितनी बड़ी?, पूछने पर नहीं बता पाती, शरमा जाती, केवल हाथ से इशारा करती, "इत्ती बड़ी।" अब घर पहुँच कर पक्का पता लगाएगी कि हाईट में वो कित्ती बड़ी है? कानपुर आ गया, दोनो चली गईं। कानपुर से कोई नहीं चढ़ा, मेरे बगल की दोनो सीट खाली है और जहाँ बच्चे बैठे थे, वो कोना भी सूना हो गया है।

प्रयागराज से आगे बढ़ी है वन्देभारत। अब कोहरा घना नहीं है। एनाउंस हो रहा है, "भारतीय रेलवे आपके सुखद और मंगलमय यात्रा की शुभकामनाएँ देती है।" जिस ट्रेन को कल रात 11 बजे वाराणसी स्टेशन पर होना था, आज 9 बजे दिन में प्रयागराज से चली है, यात्रा कितनी सुखद है, यह आप समझ ही सकते हैं। वैसे इसमें भारतीय रेलवे का कोई दोष नहीं, सब दोष कोहरे का है। आकाश में कोहरा घना होना, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना ही नहीं, लोहे के घर के विलम्ब से चलने के लिए हो रही आलोचना से बचाव का एक रास्ता भी है! इतनी शानदार गाड़ी में कुछ ही यात्री शेष हैं। लगता है विलम्ब के कारण टिकट निरस्त करा कर लोगों ने दूसरा रास्ता अपना लिया है।

अपन तो दुःख में सुख ढूंढते हैं। इतनी बड़ी गाड़ी में कुछ यात्रियों के साथ शांतिपूर्वक अपनी यात्रा चल रही है। बीच-बीच में चाय/नाश्ता भी मिल रहा है। अधिक देर ठहराने का कोई अतिरिक्त मूल्य भी नहीं चुकाना, अतिरिक्त नाश्ता भी शायद मुफ्त में मिले! लग रहा है बारात में चल रहे हैं और बरातियों की तरह रेलवे अपना स्वागत कर रहा है! और क्या चाहिए? सूर्यदेव के दर्शन हो रहे हैं, अब रफ्तार तेज हुई है, लगता है, 12 बजे तक घर पहुँच जाएंगे।

3.1.24

यात्रा संस्मरण, लोहे का घर 74

लोहेकेघर की लम्बी यात्रा है, बनारस से मुम्बई। हम साइड लोअर बर्थ में लेटे हैं, सामने की सभी बर्थ पर सारनाथ के साथी बैठे हैं। मुंबई से गोवा, गोवा से पुणे, पुणे से मुम्बई, मुंबई से वापस बनारस 10 दिन की घुमक्कड़ी की योजना है। 8 में 5 वरिष्ठ, 3 युवा हैं। यह ट्रेन नम्बर 12168 बनारस से लोकमान्य तिलक जाने वाली एक्सप्रेस ट्रेन की थर्ड ए. सी. बोगी है। सभी अपने- अपने तरीके से आनंद ले रहे हैं। कोई अमरूद काट रहा है, कोई मोबाइल चला रहा है और कोई आनंद दायक गप्प लड़ाने में मस्त हैं। लगता है सभी घर की कैद से मुक्त हो, दौड़ने वाले लोहे के घर मे आकर बहुत खुश हैं। सुबह-सबेरे आँगन में कलरव करने वाले परिंदों की तरह सभी चहक रहे हैं।

ट्रेन मिर्जापुर में रुकी है। बनारस से अगला स्टॉपेज प्रयागराज है, यह इसका ठहराव नहीं है। यदि अपने निर्धारित स्टेशन पर ही रुके तो फिर भारतीय रेल कैसे रहे! भारतीय रेल जुगाड़ से चलती है, टेसन से पहले और टेसन के बाद भी रूकती है। कब चलेगी, इसकी घोषणा नहीं होती, इनके पास एक ब्रह्म वाक्य है, "यात्रियों को हुई असुविधा के लिए खेद है।"

एक भले साथी ने आलू पूड़ी का नाश्ता करा दिया, सभी ने चटखारे लेकर खाए, पान जमाया और अपनी-अपनी मोबाइल खोल ली। जैसे कक्षा में नाश्ते के बाद लड़के पुस्तक पलटने लगते हैं, वैसे ही लोहे के घर में यात्री नाश्ते के बाद मोबाइल खोल लेते हैं। 😃

ट्रेन मानिकपुर से आगे चली है। जब रोज के यात्री थे, दूर से आने वाली लेट ट्रेन, अपने ऑफिस से छुट्टी के समय मिल जाती थी तो खुशी होती थी, आज हम स्वयं दूर के यात्री हैं और अपनी ट्रेन एक घण्टे लेट है तो साथी यात्री मायूस हैं। जाके पैर न पड़ी बिवाई, ऊ का जाने पीर पराई! वाली बात है।

इधर एक रोचक घटना घटी। सारनाथ के ही एक यात्री मिल गए। इनकी टिकट कन्फर्म नहीं है, वेटिंग में है। अपने 9 साथियों में एक नहीं आ पाए तो अपने पास एक बर्थ खाली है। इस तरह वेटिंग टिकट वाले यात्री की समस्या का समाधान हो गया, हम लोग भी अपने परिचित साथी को अकस्मात पा कर खुश हुए। मंजिल चाहे जब मिले, सफर का आनंद लेना चाहिए और आनंद मिल गया।

जबलपुर पहुँचने वाली है ट्रेन। हम लोगों ने घर से लाया हुआ भोजन मिलबाँटकर कर लिया। तीन प्रकार की सब्जी और पूड़ी हो गई। अब सभी बिस्तर की तलाश में हैं। पूरे कूपे में हमारे सिवा कोई और है ही नहीं, आठों बर्थ में अपने ही साथी हैं, नई कहानी कहाँ से ढूंढे! बगल के कूपे में लोग खाना आर्डर देकर जबलपुर आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। उनका खाना जबलपुर में आएगा। हमारे साथियों ने घर से भरपूर पूड़ी सब्जी लाई थी, हमे खाना मंगाने की जरूरत नहीं पड़ी। अब धीरे-धीरे लोग कंबल, चादर ओढ़/बिछा रहे हैं।

लोहे के घर में सुबह चौंकाने वाली हुई। अलॉर्म चीखने लगा, "कोच में आग है, गलियारे से निकलें!" नींद खुली तो देखा सभी साथी हड़बड़ा कर जग रहे हैं। ट्रेन रुकी थी, अफरा तफरी का माहौल था लेकिन आग कहीं नहीं दिख रही थी। अभी हम सोच ही रहे थे कि बैग लेकर उतरें या छोड़ कर एक साथी बोले, "केहू सिगरेट पीले होई, एमे सेंसर लगल हौ, वही बजत हौ।" तब तक सुरक्षाकर्मी डंडा, टार्च लेकर दौड़ने/देखने लगे। कुछ भीतर कुछ बाहर कोच के नीचे पहियों में टार्च जलाकर देखने लगे। कुछ देर बाद चार कर्मी एक आदमी को पकड़े ले जा रहे थे और पूछ रहे थे, "किसको सिगरेट पीते देखे हो, बताओ?" यहाँ सबको देखने के बाद वे आगे बढ़ गए, अलार्म बजना बंद हुआ, लगभग 30 मिनट बाद ट्रेन चल दी। सभी ने संतोष की सांस ली और सब कुछ सामान्य हो गया।

अब नींद पूरी तरह खुल चुकी है। 'लोहे का घर' खुद भी जगा, सबको जगा भी दिया। कुछ अभी अलसाए पड़े हैं, कुछ फ्रेश होकर चाय पी रहे हैं। चाय,पानी बेचने वाले वेंडर लगातार आ/जा रहे हैं। सुबह के सात बजने वाले हैं, कोच के भीतर बल्ब अभी जल रहा है, बाहर भी रौशनी फैल रही है। बाहर/भीतर का अंधकार यूं चुटकियों में दूर हो जाय तो बस आनंद ही आनंद है। ट्रेन भुसावल से आगे चल रही है, अगला स्टेशन 'नासिक रोड' है।

सही समय पर लोकमान्य तिलक टर्मिनल पहुंची अपनी ट्रेन। वहाँ से तिलक नगर स्टेशन से लोकल ट्रेन पकड़कर छत्रपति शिवाजी स्टेशन पहुँचे। अपना सामान 'अमानती घर' में जमा किया और खा/पी कर 'गेटवे ऑफ़ इंडिया' घूमने निकल पड़े। छत्रपति शिवाजी टर्मिनल से यह बहुत पास था। गेटवे ऑफ़ इण्डिया के ठीक सामने है 'होटल ताज'। होटल ताज को देखकर आतंकवादी घटना याद आ गई, जिसने पूरे देश को हिला दिया था। जिसके सामने भूतपूर्व प्रधानमंत्री बी पी सिंह की मृत्यु की खबर दब कर रह गई थी।

गेटवे ऑफ़ इण्डिया से घुमते हुए पैदल-पैदल मरीन ड्राइव तक गए। वहाँ लगभग एक घण्टे समुन्द्र के किनारे बैठकर सूर्यास्त का दर्शन किए फिर घूमते हुए वापस स्टेशन। मडगांव के लिए अगली ट्रेन रात 11 बजे थी। अभी ट्रेन में बैठे हैं। यह लगभग 11 बजे मडगांव पहुंचाएगी, वहाँ से गोवा घूमने जाना है।






गोवा घूम लिए। यहाँ का मौसम गर्म है। धूप इतनी तेज है कि काला चश्मा खरीदना पड़ा। बनारस में कड़ाके की ठण्ड और कोहरे का समाचार सुनकर यहाँ हर वर्ष आने की इच्छा हो रही है। शायद इसीलिए लोग हर वर्ष गोवा आते हैं।

वास्को रेलवे स्टेशन के पास रुके थे, यहाँ से कार लेकर एक दिन नार्थ गोवा, दूसरे दिन साऊथ गोवा चले गए। मांडवी रिवर,कोको बीच,कांडोली बीच, कलंगुट बीच,थँडर वर्ड,बाघा बीच, पंजी, शांता दुर्गा मन्दिर, मंगेश शिव मन्दिर, नेवी म्यूजियम, जापानी गार्डेन, कैसीनो पंजी सब घूम लिए। यहाँ Beach बहुत हैं, सबका नाम याद रखना भी कठिन काम है। बाघा बीच में समुन्द्र स्नान भी हुआ। समुन्द्र में नहाने के बाद बाहर निकल कर साफ पानी से भी स्नान किया।

यह 8 मित्रों का जीवंत ग्रुप है। कुछ अधिक जीवंत हैं जिन्हें बियर के बाद स्कॉच भी चाहिए। कुछ शाम तक इंतजार करते हैं, कुछ को सुबह जागने से ही चाहिए होता है। कुछ धार्मिक, शाकाहारी हैं, कुछ मांसाहारी लेकिन किसी को किसी के खान पान से कोई परेशानी नहीं है। सभी आनंद लेने में जुटे हैं। आज दिन में 3 बजे वास्को से पूना के लिए ट्रेन पकड़नी है, ट्रेन कल भोर में पुणे पहुंचेगी, वहाँ 4 दिन रुककर आस पास के इलाकों में घूमने की योजना है।


























गोवा एक्सप्रेस में बैठ गए। यह 3 बजे 'वास्को डी गामा' स्टेशन से चलकर 'निजामुद्दीन' तक जाएगी, हमको पूना जाना है। यह पुणे कल सुबह 4.15 पर पहुंचाएगी। ग्रुप में 5 वरिष्ठ नागरिक हैं लेकिन सभी अपर या मिडिल अपर बर्थ मिली है। पता नहीं इस बार रेलवे ने वरिष्ठ नागरिकों का कोई ध्यान क्यों नहीं रखा! बनारस से मुम्बई होते हुए गोवा चले आए लेकिन कहीं कोई जाँच नहीं हुई। मुम्बई में जब 'गेटवे ऑफ़ इण्डिया' में घूम रहे थे और ताज होटल को देख रहे थे तो यह खयाल आया कि यहाँ अपनी कोई जाँच नहीं हुई! पुलिस आतंकवादी घटना के बाद कितनी सक्रीय हो गई थी!!! मतलब घटना के बाद जाँच होती है, पहले नहीं।

हमारी बोगी जहाँ है, एक स्पीकर तेज आवाज में लगातार अपनी ट्रेन की घोषणा कर रहा है। अब इसकी घोषणा से खीझ हो रही है। सुन-सुन कर कान दर्द करने लगा। ट्रेन यहीं से बनकर चलती है, हम लोग होटल से 12 बजे चेक आउट कर गए, कहाँ जाते!ट्रेन आ गई तो बैठ गए। आधे घण्टे पहले बैठने का परिणाम यह हुआ कि ट्रेन चलने तक मराठी, हिंदी और अंग्रेजी में लगातार की जाने वाली घोषणा सुननी पड़ेगी। घोषणा खत्म हुई, इंजन का हारन बजा, ट्रेन चल दी। बाय-बाय गोवा, फिर मिलेंगे।

भयंकर भीड़ है गोवा एक्सप्रेस में। जो भीड़ चढ़ चुकी है वे मराठी के अलावा दूसरी भाषा भी बोल रहे हैं। भोलपन से कहते हैं, "जनरल समझ कर चढ़ गए!" टी टी भी परेशान है, एक डिब्बे से भगाता हैं, दूसरे में चले जाते हैं। दरवाजे के पास चपे हुए हैं। हड़काता है, "अगले स्टेशन में उतर जाओ, नहीं तो पेनाल्टी लगाएंगे।" ये सर्वहारा दिखते हैं, फाइन देने लायक भी नहीं दिखते। लोअर बर्थ वाले परेशान हैं, सभी चढ़े जा रहे। अब लगता है रेलवे ने बड़ी कृपा करी कि हमको अपर बर्थ दे दिया। बीच से भगाए गए तो ये अब दरवाजे के पास जमा हैं। इस डिब्बे में लगभग 200 से ज्यादा बिना बर्थ वालों की संख्या है। कुछ देर में ये जमीन पर सो भी जाएंगे। यह स्लीपर बोगी है।

हमारे साथी इधर-उधर बिखरे हैं। सभी की यहाँ-वहाँ अपर बर्थ है। इधर ठंड नहीं होगी, एक रात की यात्रा है, मानकर इन्होने स्लीपर में रिजर्वेशन करा लिया। ठंड तो नहीं है, भीड़ ज्यादा है। घाटप्रभा स्टेशन में ट्रेन रुकी है, टी टी सबको उतार रहा है। उतारते-उतारते ट्रेन चल दी! अब कैसे उतारेगा!!! बाहर तो फेंक नहीं सकता। अब फाइन मांग रहा है। पुलिस को बुलाने की धमकी दे रहा है। आसान नहीं है टी टी की नौकरी। हमको इस भीड़ का खूब अनुभव है लेकिन जो परिवार के साथ यात्रा कर रहे हैं, परेशान हैं।

एक वेंडर वाला बड़ा पाव लेकर आया। मैने पूछा, "कितने का है?" बोला, "30/-का 2 बड़ा, 2 पाव।" मैने पूछा, "बड़ा कितने का, पाव कितने का?" वो बोला, "बड़ा 25/-का 2। मैने कहा, "5/- का 2 पाव देना!" वह मुकर गया! हड़बड़ा कर बोला, "ऐसा थोड़ी न होता है।" मैं हँसने लगा, "मैं दाम तो तुम्हारे ही हिसाब से दे रहा हूँ, बड़ा 25/- का तो पाव 5/-का ही न हुआ? वह बड़बड़ाते हुए चला गया, "लेना हो तो पूरा लो!" नीचे बैठे सभी यात्री हँसने लगे। दूसरा वेंडर बड़ा पाव लेकर आया, उसने दाम बताया, 2बड़ा 20/-का, 2पाव 10/-का। मैने 20/-में 2 बड़ा खरीद लिया। नीचे बैठे यात्री हँसने लगे, एक बोला, "अभी तो आपको 2पाव चाहिए था!" मैं भी हँसने लगा, "नहीं, हमको 2 बड़ा चाहिए था, यह ईमानदार वेंडर है, इसलिए ले लिया।" लोग फिर हँसने लगे! पता नहीं मेरी बातों से लोग क्यों हँसने लगते हैं!🤔

बोगी की भीड़ कुछ कम करने में टी टी को सफलता मिल गई। रात के 10 बज रहे हैं, लोगों ने अपना बर्थ सजा लिया है। ट्रेन 46मिनट विलम्ब से रायाबाग पहुंची है। अब हम भी लिखना बंद कर सोते हैं, सुबह 4 बजे उठना है।

गोवा एक्सप्रेस अपने सही समय भोर में पूना पहुँच गई। ट्रेन में ही पुणे के एक यात्री की सलाह पर पूना रेलवे स्टेशन से 2km दूर 'पंद्रह अगस्त चौक' पर होटल 'टूरिष्ट' मिल गया, वहाँ 4दिन रुके। पहले दिन तो खूब आराम किया गया और पूना शहर में दागड़ू सेठ गणेश जी' का दिव्य दर्शन किया गया और आस पास शहर में ही घूमा गया।

दूसरे दिन एक कार लेकर वहाँ से 123 किमी दूर छठें ज्योतिर्लिंग 'भीमा शंकर' का दर्शन किया गया। वहाँ एक अलग प्रकार की अव्यवस्था देखने को मिली। मन्दिर से 2 किमी पहले ही दूर से आने वाली गाड़ियों को रोक दिया जा रहा था और वहाँ से दूसरे लोकल वाहन से प्रति व्यक्ति 20/- लेकर मन्दिर तक पहुंचाया जा रहा था। इस व्यवस्था का लाभ स्थानीय वाहनों को खूब मिल रहा था। मन्दिर से बहुत पहले से ही लम्बी लाइन शुरू हो गई थी। पंक्तिबद्ध घंटों खड़े होकर शिवलिंग का दिव्य दर्शन हुआ। काशी विश्वनाथ में तो अब हम काशी वासी शिवलिंग को छू नहीं पाते लेकिन यहाँ 'स्पर्श दर्शन' का सुख मिला। एक साथी तो वहीं शिवलिंग पकड़कर दण्डवत लेट गए। लौटने के रास्ते में सीढ़ियों के किनारे कई प्रकार की दुकाने सजी थीं। मुख्य रूप से खोए से बने खाद्य पदार्थों, निम्बूरस पिलाने वालों की अधिकता थी।

तीसरे दिन लोनावला और खंडाला घूमने गए। पुणे से लोकल ट्रेन मात्र 15/- रुपए के टिकट पर लोनावला पहुंचाती है। साथियों की राय बनी कि आने/जाने में कार में हजारों रुपिया क्यों खर्च किया जाय! वहाँ पहुँच कर गाड़ी ले लेंगे। हम लोगों ने यही किया। लोकल ट्रेन में खूब भीड़ थी लेकिन बैठने की जगह मिल गई, लोकल ट्रेन में घूमने का यह नया आनंद दायक अनुभव था। बैठने की सीट मिल जाय तो लोकल ट्रेन में यात्रा करना कोई बुरा नहीं है लेकिन दोनो बांहों से सिक्कड़ पकड़ कर, धक्के खाते हुए, खड़े होना पड़े तो भारी पड़ता है। रोज लोकल ट्रेन में यात्रा करने वालों को शायद ही सीट मिल पाती होगी।

लोनावला पहुँच कर एक ऑटो से हम 4 लोग 4 घण्टे घूमते रहे। हम 8 लोगों के ग्रुप में 4 साथी पूना न आकर, 'दमन दीप' चले गए। 4 लोगों के साथ घूमना थोड़ा आसान पड़ता है, जहां जाओ, गाड़ी आसानी से मिल जाती है। सोचे थे, खंडाला में मौसम ठंडा होगा लेकिन यहाँ भी धूप/गर्मी थी। जैकेट बांहों में लेकर घूमना पड़ा। एक बात और समझ में आई कि पूना से लोनावला जाने के बजाय, लोनावला में ही होटल लेकर सुबह/ शाम घूमते तो पहाड़ों में घूमने का और आनंद आता, लेकिन 31 दिसम्बर/1जनवरी का दिन होने के कारण यह लगा कि वहाँ होटल बहुत मंहगा मिलेगा, पूना से जाया /आया जाय, पूना का होटल बढ़िया है, इसे न छोड़ा जाय। खंडाला से पुणे लौटने में शाम हो गई।

थका देने वाली यात्रा के बाद चौथे दिन कहीं दूर घूमने की इच्छा नहीं हुई। पूना में ही शाम के समय 'सारस बाग' घूमने गए। 'सारस बाग' में सारस नहीं मिला, गणेश जी का मन्दिर और मूर्तियों का संग्रह मिला। पार्क खूबसूरत है, एक तालाब भी है। तालाब में कमल थे, कछुए थे। पार्क के पीछे की तरफ एक मेला लगा था। खाने /पीने की दुकाने सजी हुई थीं। साल का पहला दिन होने के कारण खूब भीड़ थी। 'सारस बाग' से निकल कर मन हुआ एक बार फिर दगडू सेठ भव्य गणेश जी का दर्शन किया जाय। यहाँ भी खूब भीड़ थी। मंदिरों में भीड़ देखकर लगा कि सनातनियों ने पहली जनवरी को एक बड़े त्योहार के रूप में अंगिकृत कर लिया है! अब होटल जा कर आराम करना था, रात में हमलोगों की मुंबई जाने वाली ट्रेन थी।
































रात की ट्रेन पकड़कर 2 जनवरी को, भोर में लोकमान्य तिलक टर्मिनल पहुँचे। यहाँ अमानती में अपना सामान जमा कर 60-70 किमी दूर जीवदायिनी देवी के दर्शन का प्रोग्राम बना। साथियों को लोकल ट्रेन में चलने का आनंद मिल चुका था। मात्र 20/- प्रतिव्यक्ति की टिकट कटा कर हम लोग तिलक नगर टर्मिनल से कुर्ला, दादर में लोकल ट्रेन बदलते हुए 'वीरार' पहुँचे। वीरार से 2 किमी की दूरी पर ऑटो रिक्शे से 'जीवदायिनी मन्दिर' पहुँचे। माता जी का मन्दिर बहुत ऊँचाई पर है। मन्दिर तक पहुँचने के लिए रोप वे, लिफ्ट की सुविधा है। माताजी का दिव्य दर्शन करने के बाद हम लोग फिर लोकल ट्रेन पकड़ कर दादर आ गए। तबतक आधा दिन बीत चुका था, लोकमान्य तिलक टार्मिनल से अपनी ट्रेन देर शाम 10.45 पर थी।

दादर में भोजनपरान्त एक कार ले लिया और मुम्बा देवी, महालक्ष्मी मन्दिर दर्शन करते हुए, समुन्द्र के किनारे- किनारे वापस लोकमान्य तिलक टर्मिनल पहुँच गए। जहाँ से रात में ट्रेन पकड़नी थी।

इस समय ट्रेन इटारसी पहुँचने वाली है। आरक्षण बढ़िया मिला है। पूरे कूपे की आठों बर्थ पर हम आठ साथियों का कब्जा है। सभी आनंद से अपनी यात्रा का संस्मरण करते हुए फोन से अपने-अपने घर बतिया रहे हैं। हम संस्मरण लिख रहे हैं। खबर लगी है, बनारस में कड़ाके की ठण्ड पड़ रही है, कल बारिश भी हुई थी। रात 2 बजे अपनी ट्रेन बनारस पहुँचेगी। लग रहा है बनारस पहुँचते ही सबकी गर्मी निकल जाएगी।