25.7.10

सरकारी अनुदान



झिंगुरों से पूछते, खेत के मेंढक 

बिजली कड़की
बादल गरजे
बरसात हुयी

हमने देखा
तुमने देखा
सबने देखा

मगर जो दिखना चाहिए 
वही नहीं दिखता !

यार ! 
हमें कहीं, 
वर्षा का जल ही नहीं दिखता !


एक झिंगुर 
अपनी समझदारी दिखाते हुए बोला-

इसमें अचरज की क्या बात है !

कुछ तो 
बरगदी वृक्ष पी गए होंगे

कुछ 
सापों के बिलों में घुस गया होगा

मैंने 
दो पायों को कहते सुना है

सरकारी अनुदान
चकाचक बरसता है 
फटाफट सूख जाता है !

हो न हो
वर्षा का जल भी 
सरकारी अनुदान हो गया होगा..! 






( चित्र गूगल से साभार )

45 comments:

  1. वर्षा का जल भी
    सरकारी अनुदान हो गया होगा..!

    वाह, क्या तुलना की है।

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  2. बहुत अच्छी कविता।

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  3. बहुत अच्छी कविता....



    बहुत सुंदर पंक्तियाँ हैं.....

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  4. सच्ची ऊंट के मुंह में जीरा माफिक -मगर बनारस में तो वो भी नहीं -हाय कैसा सूरज तप रहा है !

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  5. बहुत बढ़िया कटाक्ष है देवेन्द्र जी
    क्या तुलना है वाह !
    प्रकृति को माध्यम बना कर आप वो कह जाते हैं जो दूसरे लोग सोच भी नहीं पाते
    बधाई

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  6. हो न हो
    वर्षा का जल भी
    सरकारी अनुदान हो गया होगा..!

    Kya badhiya kataksh hai!

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  7. पानी कहाँ से मिले, बादलों को ही कोई ले उड़ता है!
    सच्ची कल्पना!!

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  8. आपकी बैचेनगी काफी तीखे व्यंग करती है. बरगदी वृक्ष और साँप के बिल के माध्यम से जो आपने व्यंजक अर्थ दिए हैं गजब हैं. 'सरकारी अनुदान' नाम की यह रचना भविष्य में हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा गया तो उसमें इस रचना का उल्लेख किया जाना अवश्य चाहिए. और यदि मैंने लिखा तो अवश्य इस रचना का उल्लेख करूँगा.

    एक बार फिर,इस दमदार व्यंग के लिए बधाई.

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  9. धारदार व्यंग ! तंत्र पर जबरदस्त प्रहार ! गहरी चोट करते हुए शब्द !
    खूब देवेन्द्र भाई बहुत खूब !

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  10. मैंने
    दो पायों को कहते सुना है....

    बढ़िया कटाक्ष.....सटीक

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  11. आपकी कविता पढ़ने के बाद तो लगता है कि वृक्ष, कीट, सरीसृप कोई भी नहीं रहा उस तंत्र से जिसके बारे में किसी ने कहा था (शायद जानकी वल्लभ शास्त्री ने) कि
    ऊपर ऊपर पी जाते हैं, जो पीने वाले हैं
    कहते ऐसे ही जीते हैं, जो जीने वाले हैं.
    देवेंद्र जी, धन्यवाद!

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  12. शानदार ,सटीक व्यंग्य ।

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  13. बहुत बढिया व्यग्य!... सरकारी काम ऐसे ही होते है!

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  14. आज त अपना बात कहने के लिए दुष्यंत कुमार जी को कोट करने चाहेंगेः
    यहाँ तक आते आते सूख जाती हैं कई नदियाँ
    हमें मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा.

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  15. बहुत सुंदर जी बिलकुल सही कहा आप ने

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  16. सरकारी अनुदान
    चकाचक बरसता है
    फटाफट सूख जाता है !

    हो न हो
    वर्षा का जल भी
    सरकारी अनुदान हो गया होगा..!
    ....... तंत्र पर सटीक कटाक्ष...

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  17. हो न हो
    वर्षा का जल भी
    सरकारी अनुदान हो गया होगा..!

    करारा व्यंग है ... आपका जवाब नही इस कला में ...

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  18. वाह आज समझे कि आखिर ये दोनों कहां चले जाते हैं ........बहुत ही बढिया समझाया झिंगुर और बेंग ..दोनों ने मिल कर

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  19. aajkal chhoti kahaniyan likhana chhod diye kya ?

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  20. बढ़िया व्यंग ।
    लेकिन काश कि सारा बरसाती पानी सरकारी अनुदान की तरह लुप्त हो जाता ।
    फिर इतनी बाढ़ तो न आती ।

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  21. मैंने
    दो पायों को कहते सुना है

    सरकारी अनुदान
    चकाचक बरसता है
    फटाफट सूख जाता है !

    हो न हो
    वर्षा का जल भी
    सरकारी अनुदान हो गया होगा..!

    वाह जी वाह ...

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  22. हो न हो
    वर्षा का जल भी
    सरकारी अनुदान हो गया होगा..!

    वा....वाह .....क्या बात है ......
    क्या सोच है ......आपकी नहीं .......झिगुरों और मेढकों की .....

    लगता है खुली खिड़कियाँ बंद करनी पडेंगी .......सारी की सारी हवा उधर ही बह जाती है .......!!

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  23. बहुत अच्छा और करारा व्यंग्य किया हैं आपने.
    इस व्यंग्य से आपने कटु-सत्य भी उजागर किया हैं.
    बहुत बढ़िया.
    धन्यवाद.
    WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM

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  24. "हो न हो
    वर्षा का जल भी
    सरकारी अनुदान हो गया होगा..!"
    करारा व्यंग,गजब की सोच, बेहतरीन अभिव्यक्ति.

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  25. भाई देवेन्‍द्र जी आपकी कविता में जो लोगों को देखना चाहिए था वह सचमुच नहीं दिखा मुझे ऐसा लगता है। मतलब-मगर- नहीं दिखा। अरे भैया ये मगरमच्‍छ ही तो असली अनुदान डकार जाते हैं सो वर्षा का जल भी डकार गए होंगे।

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  26. सरकारी अनुदान और वर्षा, दोनों ही जिनके लिये ज्यादा जरूरी है बस उन तक नहीं पहुंचते। जहां जरूरत नहीं है वहां जरूर और जरूरत से ज्यादा पहुंचते हैं।

    बहुत खूबसूरती से तुलना की है।

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  27. बरगदी वृक्ष और साँपों के बिल । सरल शब्दों में गहरी बात - श्रेष्ठ कविता की पहचान है। कहना नहीं होगा कि यह कविता एकदम खरी है।

    एक और तरह के बिल होते हैं जो विधायिका में प्रस्तुत किए जाते हैं। यकीन मानिए अनुदान को साँपों के बिल में ठेलने की प्रस्तावना इन्हीं बिलों में लिखी होती है।

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  28. वर्षा का जल है या सरकारी अनुदान ...
    जबरदस्त कटाक्ष ...!

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  29. वाह देवेन्द्र जी....ये भी बेहतरीन...सुंदर भाव ..रचना के लिए बधाई हो...

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  30. वर्षा का जल भी
    सरकारी अनुदान हो गया होगा..!
    क्या कटाक्ष है
    वाह

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  31. हो न हो
    वर्षा का जल भी
    सरकारी अनुदान हो गया होगा..!
    जी हाँ सरकारी अनुदान का भी यही हाल है या यूँ कहें कि वर्षा के जल का हाल सरकारी अनुदान जैसा है.
    सामयिक और सुन्दर रचना

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  32. सरकारी अनुदान
    चकाचक बरसता है
    फटाफट सूख जाता है !
    ..ha..ha..ha. teekha vyangya.

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  33. वाह! क्या बात है! लाजवाब प्रस्तुती!

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  34. कविता आपकी ही एक सूखे से संबंधित खूबसूरत कविता की याद दिलाती है..हमेशा की तरह कविता मे लोकगीत सी सरलता और नुक्कड़ नाटकों सी मारकता है...नैसर्गिक प्रतीकों के बहाने व्यवस्था पर व्यंग्य वैसे भी आपकी विशेषता है..जिस जंगल मे हम रहते हैं..वहाँ बरगदी वृक्षों और साँप के बिलों की भरमार है..सरकारी अनुदान की बारिश इस वृक्षों को हरा और बिलों को आबाद रखती है...भ्रष्टाचार की जमीन सारी बारिशों को कितनी जल्दी सोख जाती है..पता भी नही लगता...कविता अपने उद्देश्य मे पूर्णतया सफ़ल है...

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  35. बहुत ही सटीक कटाक्ष. शुभकामनाएं.

    रामराम

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  36. Jis baat ko kehne me kai page rangne hote use kitni asani se kah diya.badhai.

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  37. लाज़वाब...ऐसे ही होते है सरकारी अनुदान...सटीक प्रस्तुति...रचना अच्छी लगी..प्रणाम देवेन्द्र जी

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  38. बिलकुल सही कहा आप ने.............
    बहुत अच्छा व्यंग्य किया हैं आपने.....

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  39. ओह !!! क्या बात कही.....लाजवाब....

    एकदम सटीक तुलना की है आपने....
    लाजवाब रचना....वाह !!!

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  40. आपकी सादगी की तो मैं फैन हूँ...

    सरकारी अनुदान
    चकाचक बरसता है
    फटाफट सूख जाता है !

    हो न हो
    वर्षा का जल भी
    सरकारी अनुदान हो गया होगा..!

    क्या व्यंग्य है !!!! लाजवाब !

    इधर बहुत दिनों बाद आ पायी आपके ब्लॉग पर. आज से अनुसरण कर लेती हूँ फिर कोई पोस्ट नहीं छूटेगी

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  41. अभी अभी सावन की बरसात में भीग कर आया हूँ और यह कविता पढ़ रहा हूँ ..पारम्परिक कविता से हटकर अनूठे व्यंग्य के साथ बहुत अच्छी लगी यह कविता .. इस तरह के सामाजिक सरोकार आज की कविता की मांग है ।

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  42. वाह! चकाचक कविता।

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