18.8.12

काहे हउआ हक्का-बक्का..!


काहे हउआ हक्का-बक्का !
छाना राजा भांग-मुनक्का !

काहे चीखत हउवा चौचक
अरबों-खरबों कs घोटाला !
चिन्नी चोर गली-गली में
केहू संसद में ना जाला ।

भ्रष्टाचार में देश धंसल हौ
का दुक्की का चौका, छक्का !

[काहे हउआ हक्का-बक्का…]

बहती गंगा मार ले डुबकी
लगा के चंदन, जै जै बोल
दीन दुखी जे मिले अकेले
छीन के गठरी, जै जै बोल

कलियुग कs अब धर्म यही हौ
नाहीं तs खइबा तू गच्चा !

[काहे हउआ हक्का-बक्का…]

चिखबा ढेर तS दंगा होई
ध्यान बटी सब चंगा होई
केहू के नाहीं हौ चिंता
माई रोई, नंगा होई।

जाति-धर्म हौ तुरूप कs पत्ता
बंट जइबा जब घूमी चक्का।

[काहे हउआ हक्का-बक्का…]

देश प्रेम कs भाव जगल हौ
मिल जुल के तब ईद मनावा
घर में ही जे भयल पराया
दउड़ के पहिले गले लगावा।

माफी मांगा कान पकड़ के
अब गलती ना होई पक्का।

[काहे हउआ हक्का-बक्का…]

जब बिल्ली कs झगड़ा होई
बंदर वाला लफड़ा होई
चोरी-चोरी चीखत रहबा
डाकू चौचक तगड़ा होई।

सांपनाथ औ नागनाथ के
उलट-पुलट फिर मनबा कक्का।

[काहे हउआ हक्का-बक्का…]

......................................

काशिका.. कठिन शब्द के अर्थ।


हक्का-बक्का=आश्चर्य-चकित।

मुनक्का=भांग की मीठी गोली जिसमे मेवा मिला रहता है।
गच्चा=धोखा।
तुरूप कs पत्ता=ताश के खेल में रंग का पत्ता सबसे शक्तिशाली होता है।

20 comments:

  1. घोटाले की रकम में जीरो कितनी लगेंगी, हम तो इसी हिसाब में हो गए वही, का बोलते हैं हक्का-बका:)

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  2. उन सबनन के पिछवाड़े माँ,
    पाण्डे जी अब ऊख उग गईल,
    लाख करीं कबिताई लेकिन
    ऊ कहिहैं कि छाया हो गईल,
    लूट रहेंन सब माल-मलाई,
    जनता रोवे फाड़ के बुक्का,
    हम पूछत हईं हमरे भैया,
    काहे हउआ हक्का-बक्का!!

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  3. हक्का बक्का आधारित ,आपकी कोई एक रचना पहले भी कभी पढ़ी है शायद ?

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    1. जी,
      काहे हउआ हक्का-बक्का
      छाना राजा भांग-मुनक्का
      ...इस तर्ज पर एक और कविता है बाकी सब मैटर हालात के अनुसार बदल गये हैं। हम धन्य हुए कि आपको याद है।

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    2. हमको भी याद है :)

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  4. जनता जनार्दन का ध्यान बांटने के लिए दंगा फसाद है ही , उसकी ओट में जीमने वाले पंगत लगाये बैठे हैं !

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  5. अपने मुलुक के हालात यही हैं ।
    लोकभाषा मा बढ़िया कबिताई ।

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  6. बहुत बढ़िया भाई जी ||

    गिरहकटों का काम है, पूरा धक्का मार |
    ध्यान बटा कि सटा दें , इक ब्लेड की धार |
    इक ब्लेड की धार, मरो ससुरों दंगों में |
    माल कर गए पार, हुई गिनती नंगों में |
    झूठ-मूठ के खेल, जान-जोखिम का शिरकत |
    देंगें बम्बू ठेल, आँख बायीं है फरकत ||

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  7. हमहू रह गए हक्का बक्का.... चोचक कविता.

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  8. बहुत अच्छी प्रस्तुति!...

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  9. गाण्डीव में छपने वाले चकाचक के स्तम्भ की याद आ गई....उनके बाद उस स्तम्भ की रौनक ही चली गई.....

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  10. सही हाल लिखा है आज कल के चालबाजों का ...
    मस्त कर दिये हो ... का बात ... का बात ...

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  11. भांग-मुनक्का वाली एक कविता पहले भी आपने लिखि थी.वो बी मजेदार थी,ये भी मजेदार है.
    "मिलजुल के तब ईद मनावा की जगह मिलजुल के सब ईद मनावा" शायद ठीक लाइन हो.

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  12. पहली पंक्ति के साथ मिलाकर पढ़ने का कष्ट करें...

    देश प्रेम क भाव जगल हौ
    मिल जुलकर तब ईद मनावा

    ..यदि देश प्रेम का भाव जगा है तो...

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