9.2.13

शब्दों की रोशनी

अंधेरी राह में
घने वृक्षों के पास
कुछ शब्द दिखे
गुच्छ के गुच्छ!

जुगनुओं की तरह
आपस में टकराते,
बिखरते,
फिर लौट आते...
शायद वहीं
जहाँ से
उड़ना शुरू किये थे।

तेजी से
बदल रहे थे
शब्दों के क्रम
हो रहा था
चमत्कार!

मैं
मुग्ध हो
उनके अर्थ तलाशता रहा  रात भर
और
सुबह हो गई।

...........

16 comments:

  1. कुछ तो मैंने भी लिखा होता मगर ,
    कुछ अल्फाजों की कमी थी , कुछ एहसासों की |

    बहुत अच्छी रचना |

    सादर

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  2. ...अर्थ ढूँढ़ने ही होंगे ।

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  3. अपन पल्ले कुछ पड़ा नहीं.

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  4. ये रचना उत्तम है पर चश्मे वाली तो गजब है अब उसमें मेरा नम्बर काफी बाद में आता तो मै उसके लिये भी यहीं लिखे दे रहा हूं । भांति भांति के चश्मे लगाकर लोग देखते हैं अपनी अपनी नजरो से दुनिया को

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  5. सुबह न होती तो शब्दों के चमत्कृत रहस्य हम तक लेकर कैसे आते ........ शब्दों के ब्रह्माण्ड में कितने विस्मय होते हैं न

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  6. हकीकत है भाई जी-
    बहुत बढ़िया प्रस्तुति -

    नाका-रा-हुल दे गया, बजा गया वह बैंड -

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  7. जुगनुओं को अगर में खुशियाँ मान लूं तो सच में जीवन रुपी पेड़ के आसपास हम खुशियों को तलाश्ते रहते हैं और न जाने कब मृत्यु आ जाती है अर्थात सुबह हो जाती है यानी मोक्ष की प्राप्ति | सुन्दर रचना | आभार


    Tamasha-E-Zindagi
    Tamashaezindagi FB Page

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  8. मन के एक कोने में, रात की शान्ति के बाद उमड़ते भाव, उछलते शब्द..

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  9. शब्दों के अर्थ तलाशती अच्छी प्रस्तुति

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  10. रात भर!!
    फ़िर भी सस्ते छूटे, वरना तो जिन्दगियाँ गुजर जाती हैं कभी कभी इस तलाश में।

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  11. शब्‍दों का गुंजन होता ही रहता है, बहुत अच्‍छी रचना।

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  12. शब्दों के बदलते मायनी ... ओर इन मायनों की तलाश ... कब तक ...

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  13. और अर्थ नहीं मिला .....शायद अर्थ न मिलना भी एक अर्थ ही हो !

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