14.7.14

ढल रहा था दिन......



अकेले लेटा था

भागते घर के ए.सी. कमरे में

साइड वाले बिस्तर पर

सामने थी

शीशे की बंद खिड़की

पर्दा

आधा खुला था

दिख रहे थे

ठहरे हुए बादलों के छोटे-छोटे टुकड़े

तेजी से पीछे भागती

वृक्षों की फुनगियाँ

ढल रहा था दिन

हुआ एहसास

घर ही नहीं

भाग रही है

पूरी धरती ही।


अचानक से चाँद दिखा

चलने लगा साथ-साथ

ऐसे

जैसे पीछा कर रहा हो मेरा

युगों-युगों से

मैं मचला

जैसे मचलते हैं

लड़के

बादल सिंदूरी हो गये

मन कस्तूरी हो गया।


कुछ ही पलों के बाद

आगे यह भी हुआ

घर को

अँधेरी सुरंग ने छुआ

एक बाद दूसरी

दूसरी के बाद तीसरी

जब तक कटता

सुरंगों का सफ़र

चाँद

अँधेंरेमें

कहीं गुम हो चुका था।
....................

26 comments:

  1. दिन ढल गया, चाँद छुप गया तो क्या. सुबह फिर आएगी... बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति

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  2. ब्लॉग बुलेटिन आज की बुलेटिन, निश्चय कर अपनी जीत करूँ - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  3. लोहे के दौड़ने वाले घर से सफ़र और दृश्य दोनों ही शब्द चित्र दृश्यमान हो रहे हैं !
    सफर करते रहे हम भी कविता के साथ !

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  4. सुन्दर प्रस्तुति- -
    आभार आपका-

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  5. दिन ढलता है तो ढलने दे...

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  6. वाह ! ट्रेन के सफर में सारे जीवन की कथा ब्यक्त हो गई है.अँधेरे सुरंगों से गुजरते-गुजरते प्रिय लगनेवाला समय न जाने कहाँ गायब हो जाता है.

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  7. सुंदर यात्रा विवरण..

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  8. जिस कमरे से बैठकर यह कविता रची गयी है उसके साथ मेरा बहुत गहरा सम्बन्ध रहा है. इसलिये यह कविता मेरे दिल में घर कर गई! पाण्डे जी, आप मूलतः कवि हैं कि लेखक कि चायाचित्रकार कि यायावर कि और कुछ... इन सबों को मिलाकर मानुस रूप धारण किये हैं आप! धन्य हैं! जय हो!

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  9. प्रकृति नटी का रागरंग लिए सुन्दर भाव चित्र

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  10. सब सामने से निकलता चला जा रहा है -पकड़ने की कोशिश बेकार.समय एक पल रुकने को तैयार नहीं . दुनिया है या चलती ट्रेन का बंद डिब्बा - आधी खुली खिड़की वाला !.

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  11. बहुत सुन्दर चलचित्र सी प्रस्तुति

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  12. सुंदर अभिव्यक्ति बेहतरीन रचना,.....

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  13. सुन्दर अभिव्यक्ति

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