9.4.19

कबूतर और सरकारी कार्यालय

खिड़की के रास्ते
कमरे में
आ ही जाते हैं
कबूतर
मैने इन्हें कई बार कहा..
कहाँ तुम शांति के प्रतीक,
कहाँ यह सरकारी कार्यालय!
यहाँ मत आओ।

तुम चाहे 
जितने भी निर्बल वर्ग के हो,
इसमें तुम्हारा 
कोई स्थान नहीं!
प्राकृतिक संसाधनों पर
हम मनुष्यों का 
हो चुका है 
सम्पूर्ण कब्जा,
आरक्षण के साथ
हो चुका है
दाने-दाने का
बंटवारा,
तुम्हारा कोई बिल
बकाया हो ही नहीं सकता
यहाँ मत आओ।

यह सरकारी कार्यालय है
यहाँ
पर कतरने के 
मौजूद हैं
सभी सामान
छत पर टँगा हुआ पँखा,
तुम्हें दिखाई नहीं देता?
आवाजें
तुम्हें
भयभीत नहीं करतीं?
जा सकती है जान भी,
यहाँ मत आओ।

इन फाइलों में
चोंच गड़ा-गड़ा कर
पस्त हो जाते हैं मनुष्य भी
तुम्हारी क्या औकात?
तुम्हारी तो
निकल जाती है बीट भी!
यहाँ मत आओ।

दाना चुगे बिना.
व्यर्थ में,
कितने मरे?
इसका कोई आंकड़ा
किसी फ़ाइल में
मौजूद नहीं है
बस इतना जानता हूँ
शायद
असहाय मनुष्यों को भी
कार्यालय की 
सीढ़ियाँ चढ़ते देख
कबूतर 
अपने पँखों पर इतराते/
ललच जाते हैं!
खिड़की के रास्ते
कमरे में
आ ही जाते हैं।
...............

18 comments:

  1. बहुत सुंदर सूक्ष्म दृष्टि युक्त रचना

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  2. वाह ! प्रभावशाली रचना..

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  3. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 11.4.19 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3302 में दिया जाएगा

    धन्यवाद

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  4. मैने इन्हें कई बार कहा..
    कहाँ तुम शांति के प्रतीक,
    कहाँ यह सरकारी कार्यालय!
    यहाँ मत आओ।
    वाह !!!

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  5. रचना के माध्यम से बहुत कुछ कह रहे हैं आप ...
    इस व्यवस्था पे चोट करती लाजवाब रचना है देवेन्द्र जी ...

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  6. बहुत खूब.....
    सरकारी कार्यालय में फिर भी आ ही जाते हैं ये
    आखिर कबूतरखाने से जो हो चुके सरकारी कार्यालय...
    वाह!!!
    लाजवाब तंज...

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  7. बहुत बढ़िया

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