बुद्धिजीवी वह जो खाली पेट तो भगवान से भोजन की याचना करे और जब पेट भरा हो, उसी भगवान को गाली देने में रत्ती भर भी संकोच न करे। बुद्धिजीवी वह परजीवी होता है जो खुद को सबसे बड़ा श्रमजीवी समझता है। बुद्धिजीवी वह जो चौबीस घण्टे काम करे मगर अपने कुर्ते में धूल की हल्की-सी परत भी न जमने दे। बुद्धिजीवी वह जो हर पल अपने मुखारविंद से बुद्धि का दान करता रहे। बुद्धिजीवी वह जिसके दरवाजे, दूसरे के खेत की कटी फसल खुद चलकर पहुँचे और नमस्कार करते हुए कहे..श्रीमान जी! मुझे खाने की कृपा करें। बुद्धिजीवी वह जो भक्त और उसकी भक्ति को आतंकवादी कहे मगर चुनाव के मैदान में उसी से पाला पड़ जाय तो उससे भी बड़ा भक्त कहलाए जाने के लिए उससे भी अधिक भजन-कीर्तन, हवन-पूजन करे।
समय के साथ परिभाषाएं बदल जाती हैं। एक जमाना था जब जामवंत जैसा दिखने वाला हर शक्श बुद्धिजीवी कहलाता था। बढ़ी दाढ़ी, खिचड़ी बाल, बेढंगे/मैले कपड़े, नशे में टुन्न होकर, हवा में सिगरेट के छल्ले उड़ाते किसी शक्श को देख हम झट से अनुमान लगा लेते थे कि यह पक्का बुद्धिजीवी होगा। अब ऐसा समझना मूर्खता का सूचक है। अब ऐसी दसा आम मजदूरों की होती है। बुद्धिजीवी अब सड़क पर नहीं भटकता, लोकतंत्र के हर खम्बे के ऊपर शान से चढ़ कर, अपने झण्डे गाड़ता है। पहले बुद्धिजीवियों के रहने का ठिकाना भी दुर्लभ होता था। आज तो, जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे बुद्धिजीवी।
बुद्धिजीवी बनने की एक शर्त यह भी होती है कि उसकी बुद्धि पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो और बाजार में समस्त मूर्खों/ बुद्धिजीवी बनने की प्रक्रिया में लगे सभी बुद्धिमानों के सूचनार्थ उपलब्ध हो। पुस्तक पढ़ना तो उसके लिए भी जरूरी नहीं जिसके नाम से पुस्तक छपी है। सर्वसाधारण को बस संसूचित होना चाहिए कि फलां बुद्धिजीवी इसलिए है कि उसने इतनी सारी किताबें लिखीं हैं। वैसे भी अधिक पुस्तकें लिखने वाले असली बुद्धिजीवी को भी कई साल पहले लिखी अपनी ही बात कहाँ याद रह पाती है! मन चाहे किसी की पुस्तक पढ़कर लेखक से उसी के लिखे से बहस भिड़ा कर देख लीजिए..अपने ही लिखे के विरोध में तर्क देने लगेगा। याद दिलाओ तो कह देगा.."ओह! ऐसा! वह सन्दर्भ ही दूसरा था, पूरा पढ़ो तब समझ पाओगे।" शायद इसी का नतीजा है कि चाहे जिस फील्ड में हों, प्रत्येक बुद्धिजीवी के नाम, कम से कम एक पुस्तक जरूर प्रकाशित होती है।
बुद्धिजीवी बनने के लिए पी.एच.डी. करके डॉक्टर कहलाने से ज्यादा जरूरी है, कोई श्रमिक आपके विचारों पर पी.एच.डी. करे। बुद्धिजीवी शब्द में ही इतना आकर्षण है कि हर नेता खुद को बुद्धिजीवी कहलाया जाना पसंद करता है। प्यादे से फर्जी भयो, टेढ़ो-टेढ़ो जाय के तर्ज पर हर नेता के पास मंत्री बनते ही बुद्धिजीवी बनने का सुअवसर हाथ लगता है। वह नहीं तो उसके चेले उसके नाम से एकाध पुस्तक छपवा ही देते हैं।
मैं भी बुद्धिजीवी बनने के मार्ग पर हूँ। पूजा करता हूँ मगर कभी नहीं भी करता। कष्ट में ईश्वर को जरूर याद करता हूँ मगर जब आनंद में होता हूँ, पूछ बैठता हूँ..ईश्वर कौन है? मैं भी बुद्धिजीवी बनने के मार्ग पर हूँ। पुस्तक नहीं छपी मगर कोई प्रकाशक मुफ्त में छापने की कृपा करे तो छपवा भी सकता हूँ। प्रकाशन के लिए पत्रिकाओं में लेख नहीं भेजता मगर कोई मित्र छपवा दे तो पढ़कर खुश भी होता हूँ। जाड़े में बिना नहाए भी रह लेता हूँ मगर गर्मी में रोज नहाने का उपदेश देता हूँ। पँछी को कभी दाना-पानी दिया तो फेसबुक में पोस्ट करना नहीं भूलता। मैं भी बुद्धिजीवी बनने के मार्ग पर हूँ। गर्मी में गर्मी का रोना रोता हूँ, बारिश में भीगने से डरता हूँ और जाड़े में ठंड से काँपने लगता हूँ। मैं भी बुद्धिजीवी बनने के मार्ग पर हूँ।
मैं भी बुद्धिजीवी बनने के मार्ग पर हूँ। मेरी तरह और भी बहुतेरे ब्लॉगर्स/ फेसबुकिए राइटर, बुद्धिजीवी बनने के मार्ग पर हैं। कोई-कोई तो पुस्तक-उस्तक छपवाकर, ईनाम-विनाम पाकर बाकायदा बुद्धिजीवी घोषित हो चुके हैं। कोई प्रिंट मीडिया से दोस्ती भिड़ाकर, अपने लिखे कूड़े को भी छपवाकर सर्वमान्य बुद्धिजीवी बन चुके हैं। कुछ असली बुद्धिजीवियों को लगा कि फेसबुक में तो बहुत से बुद्धिजीवी हैं तो वे भी इस प्लेटफॉर्म का उपयोग अपने प्रकाशित पुस्तकों के प्रचार प्रसार के लिए करने लगे। हमको इस आभासी संसार मे सबसे सही बुद्धिमान वे लगे जो लेखन, आलोचना छोड़, सीधे प्रकाशक ही बन बैठे। अब इस घालमेल में असली/नकली का भेद कर पाना बड़ा ही कठिन काम है। जो बुद्धिमान होगा वह तो झट से फर्क कर लेगा, जो अनाड़ी होगा वह लाइक और कमेंट को ही बुद्धिजीवी होने का पैमाना मान कर चलेगा। बुद्धिजीवियों की असली पहचान तब होती है जब देश में चुनाव होते हैं। बड़े-बड़े बुद्धिजीवी भी किसी पार्टी के गली के कार्यकर्ता की तरह आपस में झगड़ते देखे जाते हैं। चुनाव के समय बुद्धिजीवियों के चेहरे से बुद्धि का रंग उतरते देख आप भी दांतों तले उँगलियाँ दबा कर चीख पड़ते हैं.. अरे! यह तो रँगा सियार था!
जैसे सच्चाई छुप नहीं सकती बनावट के वसूलों से, खुशबू आ नहीं सकती कभी कागज के फूलों से, वैसे ही जो नकली बुद्धिजीवी हैं अपने समय के साथ विस्मृत हो जाएंगे और जो असली बुद्धिजीवी हैं, कबीर की तरह लोगों के जेहन में खोपड़ी-खोपड़ी कूदते हुए सदियों-सदियों तक नज़र आते रहेंगे। बुद्धिजीवी होना गाली नहीं, घनघोर तपस्या का फल है जो सदी में बिरले के भाग में नसीब हो पाता है। आप भी बुद्धिजीवी होने के मार्ग पर हैं तो कुछ गलत नहीं कर रहे बस यह मानना छोड़ दीजिए कि मैं बुद्धिजीवी हूँ। बुद्धिजीवियों की दिल्ली से, मेरी तरह आप भी, अभी कोसों दूर हैं।