कुछ शब्द दो
उछालूँ दर्द भर कर हवा में
नभ चीर कर बरसें बादल उमड़-घुमड़
भर जाए
ताल-तलैयों से
धरती का ओना-कोना
हरी-भरी हो
धरती।
कुछ शब्द दो
तट पर जा
अंजुलि-अंजुलि चढ़ाऊँ
स्वच्छ/निर्मल
कल-कल बहने लगे
गंगा।
कुछ शब्द दो
गूँथ कर पाप, सारे जहाँ के
हवन कर दूँ
बोल दूँ..
स्वाहा!
शब्दों से हो सकता हो चमत्कार तो
कुछ शब्द दो
दूर हो
पर्यावरण का संकट
जीवित रहें
जल चर, थल चर, नभ चर
मर जायें सभी
मनुष्य रूपी
भष्मासुर!
............
उछालूँ दर्द भर कर हवा में
नभ चीर कर बरसें बादल उमड़-घुमड़
भर जाए
ताल-तलैयों से
धरती का ओना-कोना
हरी-भरी हो
धरती।
कुछ शब्द दो
तट पर जा
अंजुलि-अंजुलि चढ़ाऊँ
स्वच्छ/निर्मल
कल-कल बहने लगे
गंगा।
कुछ शब्द दो
गूँथ कर पाप, सारे जहाँ के
हवन कर दूँ
बोल दूँ..
स्वाहा!
शब्दों से हो सकता हो चमत्कार तो
कुछ शब्द दो
दूर हो
पर्यावरण का संकट
जीवित रहें
जल चर, थल चर, नभ चर
मर जायें सभी
मनुष्य रूपी
भष्मासुर!
............
सुंदर प्रार्थना..लेकिन शब्दों में दर्द क्यों भरें..हर्ष क्यों नहीं...
ReplyDeleteजो है वही न भरेंगे।
Deleteविचारणीय बिंदु
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत ही प्यारी रचना
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