26.3.23

साइकिल की सवारी-6

5 बजे प्रातः भ्रमण के लिए निकलने की तैयारी कर रहा था, याद आया आज तो रविवार है। ऑफिस जाने की कोई जल्दी नहीं, कुछ साहसिक काम किया जाय। साइकिल चला कर दूर निकला जाय। बनारस मंदिरों का शहर है, घूम-घूम कर दर्शन किया जाय। दर्शन करने के लिए नहाना जरूरी है, नहा लिया जाय। जब नहा लिए तो सोचा, पहले घर के देवता की पूजा कर ली जाय, पता नहीं घूमने में कितना समय लगे। पूजा करके निवृत्त हुआ तो घड़ी में सुबह के 6.30 बज रहे थे, लेकिन अभी पूरी तरह उजाला नहीं हुआ था, आकाश में बादल छाए थे लेकिन जब मूड बना लिया तो बना लिया। साइकिल लेकर निकल पड़ा घर से बाहर। 

साइकिल बढ़िया चल रही थी, पिछले दिनों की तरह दम नहीं लगाना पड़ रहा था। चलते-चलते कुछ अलग करने का मूड हुआ, हमेशा की तरह आशापुर, कपिलधारा, सरायमुहाना, बसंता कॉलेज होते हुए नमोघाट जाने का विचार त्याग दिया और साइकिल लेढूपुर, सँस्कृत विश्वविद्यालय, आदर्श कॉलेज होते हुए महामृत्युंजय मन्दिर की तरफ मोड़ दिया। साइकिल बढ़िया चल रही हो और घर से नहाकर निकले हों तो सीधे मन्दिर का ही रास्ता दिखता है।

सुबह-सुबह मृत्युंजय महादेव मन्दिर के सामने फूल वाले की दुकान पर साइकिल खड़ी कर ताला लगाने लगा तो बोला, "जा!ताला काहे बन्द करत हौआ! हम हई न।" हमने भी उस पर विश्वास कर एक माला खरीदी और अंदर चला गया। रविवार को शिवजी के मन्दिर में भीड़ कम होती है, दिव्य दर्शन हुआ। यहीं अपने बचपन का मित्र श्रीकांत रोज आता है और बाबा की आराधना करता है। अधिक नहीं ढूँढना पड़ा, पाठ करते मिल गया। हम दोनो एक दूसरे को देख खुश हुए। वह अपने पाठ में लीन था,  हाल चाल, सब ठीक है के बाद बस इतना ही बोल पाया, 'कभी घर आओ।' हमने भी घर जल्दी ही आने का वादा किया और निकल पड़े। बाहर साइकिल वैसे ही खड़ी थी। उसी ने बताया, "उनकर नाँव सुपाड़ी गुरु हौ!" यह मेरे लिए नई बात थी, मित्र श्रीकांत से 'सुपाड़ी गुरु' कब हो गया! समय कैसे अपनों को बदल देता है और हम जान ही नहीं पाते!

मृत्युंजय महादेव से आगे बढ़े तो भैरोनाथ से पहले गुजरात विद्या मंदिर में अपनी साइकिल खड़ी कर दी। जानता था, रविवार को बनारस शहर के कोतवाल, भैरोनाथ जी के मन्दिर में भयंकर भीड़ होती है। भीड़ से अपना मन घबड़ाता है, भगवान से फुरसत में मिलने की इच्छा होती है, पतली गली पकड़ कर भीड़ से रास्ता बनाते आगे बढ़ गया। भीड़ के साथ मन्दिर को दूर से प्रणाम किया, मन ही मन बोला, "भैरो बाबा की जय।" हम कोई VIP  तो हैं नहीं कि भीड़ में बिना लाइन लगाए दर्शन पा जाएंगे! और फिर जिस दिन इतने फरियादी जुटे हों, भैरोबाबा मेरी ही क्यों सुध लेंगे! उन्हें धर्मसंकट में डालना ही क्यों? वे शहर कोतवाल हैं, मैं कोई नेता हूँ?

चौखम्भा, गोपालमन्दिर होते हुए संकठा जी के मन्दिर का रास्ता पकड़ लिया। जानता था आज माँ फुरसत में होंगी, उनके दरबार में शुक्रवार को भीड़ होती है, आज रविवार है। बनारस में सुबह-सुबह नहाकर घूमने निकले हों या गंगा जी नहाने जा रहे हों तो मिजाज ही कुछ और होता है। लगता है जैसे हमने सब काम कर लिया, अब प्रभु दर्शन ही शेष है। 

संकठा जी के मन्दिर में भीड़ बहुत कम थी, अभी सुबह के 8.15 हो रहे थे, माँ एकदम फुरसत में थीं, बस दौड़कर गोदी में नहीं उठाया, दिव्य दर्शन से आह्लादित कर दिया। मन्दिर में गणेश जी, शिवलिंग और आँगन में नवग्रह विद्यमान हैं। बाहर निकलते समय एक सिंह की विशाल प्रतिमा है। प्रवेश करते समय एक बड़ा सा नगाड़ा दिखता है। 9 बजे के आसपास मिश्रा जी अपने ढोलक के साथ आते हैं और मन्दिर में खूब भजन गाते हैं। बचपन से इस मन्दिर में आते रहने के कारण भी यह मन्दिर मुझे अतिशय प्रिय है। यहाँ आकर लगता है सचमुच माँ के दरबार मे आ गए। यदि दिल में कोई दर्द हो तो कुछ देर बैठकर ध्यान करने के बाद आँखों से पानी अपने आप बहने लगते हैं। आज तो मन पहले से प्रसन्न था, और प्रसन्न हो गया।

संकठा जी का मन्दिर सिंधियाघाट के ऊपर है, सिंधियाघाट के बगल में विश्वप्रसिद्ध मणिकर्णिका घाट है। मन्दिर से बाहर निकल कर घाट की तरफ न जा कर, बाईं ओर दस कदम मुड़ें तो गंगामहल मिलता है। महल का कुछ हिस्सा ढह चुका है लेकिन घुसते ही सामने आँगन में राधा कृष्ण की खूबसूरत प्रतिमा अभी विद्यमान है। इस मन्दिर के पुजारी अभी रोज पूजा/ आरती करते हैं। बगल में एक बरामदा खुलता है, जहाँ से गंगा घाट और गंगा जी का दिव्य दर्शन होता है। यहाँ भीड़ नहीं होती, बस मेरे जैसे कुछ जानने वाले स्थानीय लोग ही आते हैं। हम जब यहाँ पहुँचे आरती शुरू होने ही वाली थी। मुझे भी आरती में शामिल होने प्रसाद पाने का सौभाग्य मिला।

गंगामहल से उतरकर सिंधियाघाट की सीढियाँ उतरने लगा तो देखा घाट पर कुछ लड़के क्रिकेट खेल रहे हैं। किशोरावस्था में गलियों में रहते समय कभी हम भी ऐसे ही क्रिकेट खेला करते थे। सिंधियाघाट के बगल मे मणिकर्णिका घाट का अपना अलग ही रंग था। लाशें आ रही थीं, राम नाम सत्य है की ध्वनि निरन्तर सुनाई पड़ रही थी, शिवलिंग सजे हुए थे, चिताएँ जल रही थीं, इन्ही से होकर, बगल से रास्ता बनाते हुए, नव निर्मित विश्वनाथ कॉरिडोर के सामने जा कर खड़े हो गए। यहाँ आने पर मुख से अनायास निकल पड़ता है...हर हर महादेव।

अपने स्वास्थ्य और उम्र के हिसाब से थककर चूर हो गए थे, बाहर से हाथ जोड़कर लौटने का मन था लेकिन जब लोगो को यह कहते सुना, 'आज भीड़ बहुत कम है!'  दर्शन का लालच आ ही गया और एक-एक कर सीढियाँ चढ़ने लगा। अंदर भीड़ वास्तव में रोज की तुलना में कम थी, आकाश में बादल भी घिरे थे, बारिश की संभावना थी, शायद भीड़ कम होने के पीछे यही कारण हो। जो भी हो, दर्शन का मूड बन गया तो करके ही लौटना था, चाहे जितनी देर लगे। जहाँ तक कैमरा ले जाने की अनुमति थी, वहाँ तक फोटो खींचने के बाद कैमरा  और जूता जमा किया, दर्शन के लिए लाइन में लग गए।

खुशकिस्मती से अधिक इंतजार नहीं करना पड़ा। जहाँ से दर्शन करना शुरू किया, कोई VIP आगे-आगे जा रहे थे, हम भी उनके अनुयायियों में शामिल हो गए और पाँच मिनट में दिव्य दर्शन करके बाहर आ गए। मुख से फिर निकला, 'हर हर महादेव' आज दिन अच्छा लग रहा है!

जूते पहन कर मोबाइल लेने के बाद जब विश्वनाथ कॉरिडोर की सीढियाँ एक-एक कर उतरने लगे तब समझ में आया आज तो अति हो चुकी है, शरीर थककर जवाब दे चुका था, अभी 3, 4 किमी पैदल चलकर साइकिल तक पहुँचना और 10 किमी साइकिल चलाकर सारनाथ वापस जाना था। 

पुनः मणिकर्णिका घाट से होते हुए लौटने लगे तो एक मुर्दा फूँकने के लिए लकड़ी बेचने वाली दुकान पर बड़ी सी तराजू टँगी देख मन मे खयाल आया, क्या यह बता सकता है, "मुझे फूँकना हो तो कितनी लकड़ी की आवश्यकता है?" डरकर नहीं पूछा, बनारसी है, पलटकर गाली देगा, "आवा! पहिले तोहें मुहाई तब न बताई!" मित्र की तरह थोड़ी न कहेगा, "शुभ-शुभ बोलिए, ऐसी बातें नहीं सोचते।" 

आगे बढ़े तो वहीं मणिकर्णिका घाट पर दो गौरैयों के बीच जमकर झगड़ा हो रहा था! जैसे कोई दो सौतन एक पुरूष के लिए झगड़ रही हों! चुपचाप वीडियो बनाने लगा लेकिन वे मानने को तैयार ही नहीं थीं, इतने में दो चिड़ा और आकर बीचबचाव करने लगे लेकिन वे तभी हटीं जब किसी आदमी ने उन्हें भगाया। 

वहाँ से आगे बढ़कर सिंधियाघाट की सीढ़ियाँ एक एक कर मुश्किल से चढ़ने लगा, शरीर थककर चूर हो चुका था, सोच रहा था, ऊपर चढ़कर पहले कुछ देर चबूतरे पर बैठकर आराम करता हूँ तभी लियाकत भाई का फोन आ गया...."एक दुखद समाचार है पाण्डेजी, वियोगी जी नहीं रहे, हम सब उनके आवास शिवपुर की ओर जा रहे हैं!" खबर सुनकर हम वहीं सीढ़ी पर धम्म से बैठ गए। 

वियोगी जी का पूरा नाम श्री योगेन्द्र नारायण चतुर्वेदी था। वे 'वियोगी' उपनाम से साहित्य सृजन करते थे। हमसे उम्र में 10 वर्ष से अधिक बड़े होंगे लेकिन वजन में कम थे। साहित्य गोष्ठियों में उनकी उपस्थिति पूरे माहौल को हरसमय खुशनुमा बनाए रखती थी। उनके गीत, छंद और श्रृंगार रस में लिखे मुक्तक सभी को आनंदित करते थे। इधर कुछ समय से बीमार चल रहे थे। दीनदयाल उपाध्याय अस्पताल में भर्ती थे, हमने मिलने का समय भी निकाला लेकिन दुर्भाग्य यह कि जब तक पहुँचते प्रीत भाई का फोन आया, 'वे डिसचार्ज होकर घर जा चुके हैं, परेशान मत होइए।' हमने समझा अब ठीक हो चुके होंगे, तभी आज यह समाचार सुनने को मिला। मुझसे ही क्या, सभी पर उनका प्रगाढ़ स्नेह था। उनको देखकर ही ऊर्जा का संचार होता था। उनकी कमी बनारस के सभी साहित्यकारों को बहुत दिनों तक खलती रहेगी। 

सोचता रहा, "सामने मणिकर्णिका घाट है, कुछ घण्टों बाद वे यहीं लाए जाएंगे, फोन के एक कॉल से कैसे समय बदल जाता है! अभी तक हो रही आनन्द दायक घुमाई, विनम्र श्रद्धांजलि में बदल गई। अभी सोच रहा था, अपने लिए कितनी लकड़ी लगेगी? अभी वियोगी जी के लिए पूछना पड़ेगा, "कितनी लकड़ी लगेगी?" एक राम नाम ही सत्य है, बाकी झूठा है यह संसार। वियोगी जी को श्रद्धांजलि देने का सबसे उपयुक्त स्थान तो यही है, "ईश्वर उनको मोक्ष प्रदान करे, विनम्र श्रद्धांजलि।"😢

22-01-2023 की पोस्ट है।