28.9.23

लोहे का घर 72

सेवानिवृत्ति के बाद कुछ दिनों के लिए लोहे का घर छूटा तो इसका मतलब यह थोड़ी न है कि शरीर सलामत हो, जीवन शेष हो फिर भी इसका साथ छूट जाय! मुझे तो ट्रेन पकड़ने का बहाना मिलना चाहिए। अमृतसर हावड़ा एक्सप्रेस 50टी डाउन में कई बार बैठे लेकिन कभी हावड़ा जाने का अवसर नहीं मिला। भालो-आछे, भालो-आछे कहते हुए जौनपुर से चढ़े और बनारस उतर गए। अब फिफ्टी डाउन बंद हो चुकी है, उसे कोरोना निगल गया। (कोरोना काल में जो बंद हुई कि हमेशा के लिए बंद हो गई।) अब हावड़ा जाने के लिए दूसरे विकल्प तलाशने पड़े तो यह विकल्प अच्छा लगा। आठ घण्टे में, होटल चेक इन के समय लगभग 10 बजे यह हावड़ा पहुंचा देगी।


राजधानी हावड़ा एक्सप्रेस में सुफेद चादर ओढ़कर लेटे हैं। पंडित दीन दयाल..... मुगलसराय से रात 2 बजे चढ़े हैं। सुबह के 6 बज चुके हैं, ट्रेन 509 किमी चलकर, धनबाद से पहले, पारसनाथ स्टेशन पर 2 मिनट रुककर चल चुकी है। जिस प्लेटफार्म में रुकी थी, सन्नाटा फैला था। अपनी बोगी में भी बहुत से बर्थ खाली हैं। कुल मिलाकर सन्नाटे का साम्राज्य है। सामने के लोअर बर्थ में श्रीमती जी और इधर के लोअर बर्थ में हम, ऊपर 2 और सामने 2 और बर्थ हैं, शेष पर्दे में डूबा हुआ। श्रीमती जी खर्राटे भर रही हैं और हमको नींद नहीं आ रही। वैसे भी यह मेरा साइकिल चलाने का समय है। ठीक इस समय नमो घाट, बनारस में भजन चल रहा होगा।


राजधानी एक्सप्रेस में रईसी से यात्रा कर रहे हैं लेकिन ट्रेन भारत के मेहनतकश मजदूरों, किसानों के इलाकों से गुजर रही है। बंद शीशे की खिड़की से बाहर झाँकता हूँ तो दूर दूर तक फैले वृक्षों के जंगल, खेत और हरे भरे मैदान दिख रहे हैं। कभी जब छोटे प्लेटफार्म से कूदती /फादती भागती है अपनी राजधानी तो दूर खेतों में उग आई चिमनियां/ कुछ पक्के मकान दिख जाते हैं। अपनी ट्रेन बोल भी रही है, "हम कुछ ही मिनटों में धनबाद पहुंचने वाले हैं!" मतलब बिहार से हम कोयले के खदानों वाले राज्य झारखण्ड आ गए।


धनबाद हम पहले भी आए हैं। बिटिया ने इसी शहर से MBA किया था। उसके प्रवेश से लेकर एग्जाम पास करके निकलने तक कई बार आना हुआ। एक बार तो वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गई थी और हॉस्पीटल में एडमिट करने के बाद उसकी सहेलियों ने फोन किया था, हम भागे-भागे आए थे। तब आजकी तरह राजधानी नहीं पकड़ते थे, लुधियाना धनबाद, किसान एक्सप्रेस पकड़ते थे जो शाम को बनारस से चलती और सुबह में धनबाद पहुँचाती थी।


ट्रेन खूब स्पीड में चल रही है। एक चायवाला आया। पहले तो हमने लोकल ट्रेन का चायवाला समझकर मना कर दिया लेकिन श्रीमती जी के कहने पर बुलाया तो पता चला यह राजधानी एक्सप्रेस की मुफ्त सर्विस है, जिसका पैसा टिकट में लिया जा चुका है! एक ट्रे में दो कप गरम पानी, चाय /दूध /शुगर के छोटे-छोटे पैकेट/सबको अच्छे से मिलाने के लिए सीक और दो बिस्कुट भी! चाय पीने के बाद समझ में आया कि अपन लोकल ट्रेन में चलने वाला रोज का यात्री, रइसों के इन चोचलों को इतनी जल्दी कैसे समझ ले? हमको जब भी अकेले सफर करना पड़ा, हम यही सोचते कि कम पैसे में कैसे जांय? जब परिवार के साथ चले तो यह सोचते कि कम से कम कष्ट में कैसे ले जांय? मेरी ही नहीं शायद सभी मध्यम वर्गीय अकेले गृहस्थी चलाने वाले की यही सोच होती होगी। हम एक महीने की MST बनाते थे तो जितनी भी लेट हो, ट्रेन ही पकड़ते थे, 73 रूपया अतिरिक्त देकर बस से आना गवारा नहीं होता था।


कभी राजधानी एक्सप्रेस के कारण अपनी पैसिंजर किनारे लगा दी जाती और 30-30 मिनट रोक दी जाती तो मन ही मन राजधानी एक्सप्रेस को खूब कोसते, "कहाँ से आ गई यह इस समय!" आज इसी राजधानी एक्सप्रेस से सफर कर रहे हैं जिसके आसनसोल स्टेशन आने की घोषणा हो रही है अब अगला ठहराव हावड़ा ही है।

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