26.9.25

उल्लू पुराण




धमेख स्तूप पार्क में, प्रातः भ्रमण के समय, एक घने नीम वृक्ष की शाख पर उल्लू का एक जोड़ा रोज दिखलाई पड़ता है। एक दिन मैने उनसे पूछा, "लोग तुम्हें उल्लू (मूर्ख के अर्थ में ) क्यों कहते हैं? तुम्हारी हरकत तो बुद्धिजीवियों जैसी है!" मेरी बात सुनकर उन्होने ऐसे ऊपर मुंडी उठाई मानो ठहाके लगा रहे हों। मैं उन्हें अचरज से देखने लगा। मुझे लगाl, पूछ रहे हैं, "कवि हो क्या? और बता रहे हैं, प्रकाशक से मिलने से पहले हम भी कवि थे।"

मैं घबरा गया। ये बुद्धिजीवी तो लग रहे थे लेकिन अपनी ही बिरादरी के हैं, यह भयानक बात थी। मैने पूछा, प्रकाशक ने आप लोगों को कैसे उल्लू बनाया? किताब छापी की नहीं? 

अब यहाँ विकट समस्या थी। मेरा कहा तो वे झट से समझ लेते थे, उनका कहा पल्ले नहीं पड़ता था। वे मनुष्यों की बोली नहीं बोल पा रहे थे। बुद्धिजीवियों की तरह इशारे करते और अर्थ हमको लगाना पड़ता। मेरे प्रश्न के उत्तर में उन्होने अपनी मुंडी 360° डिग्री अंश में गोल-गोल घुमाई। मुझे लगा वे कह रहे हैं,"प्रकाशक ने हमारी सारी पाण्डुलिपि गोल कर दी, मतलब चुरा लिया! और हमें उल्लू बना दिया।

हमको आश्चर्य हुआ! प्रकाशक पाण्डुलिपि चुराने लगे तो समस्या हो जाएगी!!!  मैने जानना चाहा, "बात कैसे बिगड़ी?" लेकिन उनके इशारे पल्ले नहीं पड़ रहे थे। वे भी झुंझला कर उड़ गए और अलग-अलग शाख पर, दूर-दूर बैठ कर मुझे ऐसे घूरने लगे मानो मैं ही मूर्ख हूँ जो उनकी बात नहीं समझ पा रहा। मैने अनुमान लगाते हुए पूछा, "क्या प्रकाशक प्रकाशन के बदले अधिक रुपिया मांग रहा था?" सौदा तय नहीं हुआ? " 

वे फुर्र-फुर्र उड़ कर मेरे सामने अपने कोटर में बैठ गए और हौले-हौले मुड़ी हिलाने लगे। मुझे अब उनके दर्द का एहसास हुआ। गुस्से से पूछा, "तो पाण्डुलिपि क्यों छोड़ दी? दूसरा प्रकाशक मिलता। "

इस पर उन्होने बहुत रोनी सूरत बना दी! मुझे लगा कह रहे हैं, "इसी का तो रोना है। पुस्तक भी नहीं छापता, पाण्डुलिपि भी नहीं लौटा रहा है!"

मुझे बहुत दुःख हुआ, "अच्छे भले कवियों को एक लालची प्रकाशक ने उल्लू बना कर इस नीम के वृक्ष में मरने के लिए छोड़ दिया है!" काश इनकी पुस्तक छप जाती और ये पुनः मनुष्य बन पाते। 

मैने कई बार प्रकाशक का नाम पूछा, ताकि मिलकर बात समझी, सुलझाई जाय और उल्लूओं का उद्धार किया जाय, वे बता भी रहे थे लेकिन इन बुद्धिजीवियों की भाषा मेरे समझ में आ ही नहीं रही थी! मैं यह भी डर रहा था कि मुझे भी अपनी कविताएँ छपवानी हैं, कहीं प्रकाशक ने मुझे भी उल्लू बना दिया तो मैं क्या करुँगा? इनके जरिए कम से कम दुष्ट की पहचान तो हो जाएगी, ये बचें न बचें हम तो फँसने से बच जाएंगे। इनका दुर्भाग्य था कि ये गलत के चंगुल में फँस गए वरना सभी प्रकाशक तो लेखकों को उल्लू बनाते नहीं होंगे!

जब मेरे से कुछ न हुआ तो मैं रोज सुबह इनके दर्शन करता और हाल चाल लेता। मैं इनके इशारे नहीं समझ पा रहा था लेकिन मेरी हिन्दी ये खूब समझते थे। इसका लाभ उठाकर मैं अपनी नई कविताएँ भी उल्लुओं को सुनाने लगा। उल्लुओं के आँखों में चमक देखता तो लगता इन्हें मेरी कविताएँ अच्छी लग रही हैं, जब इनको अपने पंखों से कान खुजाते पाता तो समझ जाता ये मेरा व्यंग्य नहीं समझ पा रहे हैं! फिर समझाकर सुनाता, तब तक समझाता जब तक ये मुझे देखकर सर नहीं हिलाने लगते। 

इस मामले में मैं बहुत खुश किस्मत कवि था जिसे इतने बड़े बुद्धिजीवी, श्रोता के रूप में अनायास प्राप्त हो गए थे! आजकल कवि वैसे भी उल्लू श्रोता चाहते हैं जो उनकी कविता ध्यान से सुने और बिना समझे तारीफ करे, तालियाँ बजाए। इतना ही नहीं, सुने और अपनी कविताएँ सुना भी न पाएं! यह किसी भी नए जमाने के कवि के लिए बड़ी खुशी की बात थी। अपनी कविता सुनाने के लिए ऐसे कवि श्रोता मिल जांय जिनकी कविता भी न सुननी पड़े! कुल मिलाकर मैं बहुत खुश था। प्रत्यक्ष तो ये उल्लू थे लेकिन मैं जानता था कि ये बड़े बुद्धिजीवी कवि हैं जिन्हें एक प्रकाशक ने उल्लू बनाया हुआ है।

क्रमशः ... शेष अगले पोस्ट में।




1 comment:

  1. प्रकाशक बुद्धिजीवी होना चाहिए वैसे तो :)

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