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14.5.22

इत्र की शीशियाँ

वर्षों पहले की बात है। तब टीवी, मोबाइल नहीं था, भारत को आजाद हुए दो दशक ही बीते थे। चेतगंज में घर था, कोई रिक्शा नहीं मिला तो हम दो भाई बनारस कैंट स्टेशन से इंग्लिशिया लाइन की तरफ पैदल ही जा रहे थे। रात के 11 बज चुके थे। खुशगवार बसन्त का मौसम था। रात होने के कारण सड़क पर भीड़ कम थी। चलते-चलते आगे दूसरी पटरी पर एक पुलिया दिखी। पुलिया पर एक आदमी झक्क सुफेद कुर्ता पैजामा पहने हुए बैठा था। सर पर सुफेद टोपी, पांवों में नक्काशीदार चप्पल। उसने हमे जाते हुए देखा तो इशारे से अपनी ओर बुलाया...


इतनी रात को कहाँ जा रहे हो? 

घर जा रहे हैं। 

पैदल क्यों जा रहे हो?

क्या करते, कोई रिक्शा ही नहीं मिला?

रिक्शा तुम्हारे पीछे ही तो खड़ा है! जाओ, बैठ जाओ।

हम लोग अवाक हो कर देखने लगे, एक रिक्शा पीछे ही खड़ा था और बैठने का इशारा भी कर रहा था!

हम पलटकर रिक्शे पर बैठने जाने लगे तो उस आदमी ने कहा..

सुनो! तुम्हारी जेब में इत्र की शीशियाँ हैं, निकालो, लगाया जाय।

हम दोनो आश्चर्य से एक दूसरे का मुँह देखने लगे! इसे कैसे पता चला कि हमारे पास इत्र की शीशियाँ हैं? खैर...एक छोटी शीशी निकाली और उसे दे दिया। उसने बड़े प्रेम से अपने हाथ- मुँह में लगाया और खूब तारीफ करी। हम रिक्शे पर बैठकर पुलिया पर बैठे हुए आदमी को देखने लगे तो आदमी गायब! अब उसी आदमी के बारे में सोचने लगे। दिमाग में यही प्रश्न गूंज रहा था...वह आदमी कहाँ गया? उसे कैसे पता चला कि जेब में इत्र  की शीशियाँ हैं? इतने में रिक्शा चेतगंज आ गया।


रात के 12 बज रहे थे। रिक्शे से उतरने के बाद रिक्शेवाले को देने के लिए फुटकर पैसे नहीं थे तो सोचा एक बीड़ा पान जमाया जाय, फुटकर भी हो जाएगा। वहीं एक पान की दुकान खुली थी। हम दोनों ने एक-एक बीड़ा पान जमाया और रिक्शेवाले को पैसा देने के लिए पलटे तो देखते क्या हैं कि रिक्शावाला गायब! दूर-दूर तक देखे तो रिक्शेवाला कहीं नजर नहीं आया।


हम आश्चर्य करते हुए घर जाने के लिए गली में मुड़े तो अँधरे में एक चबूतरे पर सुफेद कुर्ते-पैजामे वाला वही आदमी बैठा हुआ था। हमें देखते ही चहका..अमा यार! बड़ी जल्दी आ गए!!! तुम्हारे जेब में तो इत्र की और भी शीशियाँ हैं, एक और देना जरा। हम स्तब्ध हो उसे देखने लगे, उसके बगल में एक सफेद घोड़ा भी खड़ा था।

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