(1)
सावन
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गड़गड़-कड़कड़, घन उमड़-घुमड़
टिप् टिप् टिप् टिप् टिप् टिपिर टिपिर
धरती पर बूंदें झरती हैं,
झर झर झर झर, झर झरर झरर।
मन फर फर फर फर उड़ता है
तन रूक-रूक, छुक-छुक चलता है
सावन की रिम झिम बारिश में
दिल धक-धक, धक-धक करता है।
यादों की खिड़की खुलती है
इक सुंदर मैना दिखती है
पांखें फैलाती झटक मटक
तोते से हंसकर मिलती है।
वो लंगड़े आमों की बगिया
वो मीठे जामुन के झालर
वो पेंग बढ़ा नभ को छूना
वो चोली को छूते घाघर।
पर इंद्र धनुष टिकता कब है?
कुछ पल में गुम हो जाता है
आँसू वाले पल मिलते हैं
चलना मुश्किल हो जाता है।
कुछ कीचड़ कीचड़ रूकता है
फिर एक कमल खिल जाता है
कुछ भौंरे गुन गुन करते हैं
दिन तितली सा उड़ जाता है।
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(2) पहली बारिश में
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शाम अचानक
बड़े शहर की तंग गलियों में बसे
छोटे-छोटे कमरों में रहने वाले
जले भुने घरों ने
जोर की अंगड़ाई ली
दुनियाँ दिखाने वाले जादुई डिब्बे को देखना छोड़
खोल दिये
गली की ओर
हमेशा हिकारत की नज़रों से देखने वाले
बंद खिड़कियों के
दोनो पल्ले
मिट्टी की सोंधी खुशबू ने कराया एहसास
हम धरती के प्राणी हैं !
एक घर के बाहर
खुले में रखे बर्तन
टिपटिपाने लगे
घबड़ाई अम्मा चीखीं...
अरी छोटकी !
बर्तन भींग रहे हैं रे !
मेहनत से मांजे हैं
मैले हो जायेंगे
दौड़!
रख सहेजकर।
बड़की बोली…
मुझे न सही
उसे तो भींगने दो माँ!
पहली बारिश है।
एक घर के बाहर
दोनो हाथों की उंगलियों में
ठहरते मोती
फिसलकर गिर गये सहसा
बाबूजी चीखे....
बल्टी ला रे मनुआँ..
रख बिस्तर पर
छत अभिये चूने लगी
अभी तो
ठीक से
देखा भी नहीं बारिश को
टपकने लगी ससुरी
छाती फाड़कर !
एक घर के बाहर
पापा आये
भींगते-भागते
साइकिल में लटकाये
सब्जी की थैली
और गीला आंटा
दरवज्जा खुलते ही चिल्लाये..
सड़क इतनी जाम की पूछो मत !
बड़े-बड़े गढ्ढे
अंधेरे में
कोई घुस जाय तो पता ही न चले
भगवान का लाख-लाख शुक्र है
बच गये आज तो
पहली बारिश में।
अजी सुनती हो !
तौलिया लाना जरा…..
बिजली चली गई ?
कोई बात नहीं
मौसम ठंडा हो गया है !
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(3)
प्रकृति
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बारिश से पहले
तेज हवा चली थी
झरे थे
कदम्ब के पात,
छोटे-छोटे फल,
दुबक कर छुप गये थे
फर-फर-फर-फर
उड़ रहे परिंदे,
तभी
उमड़-घुमड़ आये
बादल,
झम-झम बरसा
पानी,
मौसम
सुहाना हो गया।
बारिश के बाद
सहमे से खड़े थे
सभी पेड़-पौधे
कोई,किसी से
बात ही नहीं कर रहा था!
सबसे पहले
बुलबुल चहकी,
कोयल ने छेड़ी लम्बी तान,
चीखने लगे
मोर,
कौए ने करी
काँव-काँव
और...
बिछुड़े
साथियों को भुलाकर,
हौले-हौले
हँसने लगीं
सभी पत्तियाँ।
प्रकृति
सब गम भुलाकर जीना सिखाती है।
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बच्चों के हाथों में डोर है।
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कहने लगीं अब बूढ़ी दादियाँ
बच्चों के हाथों में डोर है।
शहरों की आबादी जब बढ़ी
खेतों में पत्थर के घर उगे
कमरों में सरसों के फूल हैं
चिड़ियों को उड़ने से डर लगे।
कटने लगी आमों की डालियाँ
पिंजड़े में कोयल है मोर है।
[कहने लगीं अब बूढ़ी दादियाँ.....]
प्लास्टिक के पौधे हैं लॉन हैं
अम्बर को छूते मकान हैं
मिटा दे हमें जो इक पल में
ऐसे भी बनते सामान हैं।
उड़ने लगी धरती की चीटियाँ
पंखों में सासों की डोर है।
[कहने लगीं अब बूढ़ी दादियाँ.....]
सूरज पकड़ने की कोशिश ने
इंसाँ को पागल ही कर दिया
अपनी ही मुठ्ठी को बंद कर
कहता है धूप को पकड़ लिया।
दिखने लगीं जब अपनी झुर्रियाँ
कहता है ये कोई और है।
[कहने लगीं अब बूढ़ी दादियाँ.....]
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