26.7.25

काव्य पाठ

 


एकल काव्य पाठ की रिकॉर्डिंग हो गई। आकाशवाणी वाराणसी से इसका प्रसारण 26 जुलाई 2025, 7.31 PM से होगा। इसमें मैने ये 6 गीत सुनाए...

(1)

सावन

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गड़गड़-कड़कड़, घन उमड़-घुमड़

टिप् टिप् टिप् टिप् टिप् टिपिर टिपिर

धरती पर बूंदें झरती हैं,

झर झर झर झर, झर झरर झरर।


मन फर फर फर फर उड़ता है

तन रूक-रूक, छुक-छुक चलता है

सावन की रिम झिम बारिश में

दिल धक-धक, धक-धक करता है।


यादों की खिड़की खुलती है

इक सुंदर मैना दिखती है

पांखें फैलाती झटक मटक

तोते से हंसकर मिलती है।


वो लंगड़े आमों की बगिया

वो मीठे जामुन के झालर

वो पेंग बढ़ा नभ को छूना

वो चोली को छूते घाघर।


पर इंद्र धनुष टिकता कब है?

कुछ पल में गुम हो जाता है

आँसू वाले पल मिलते हैं

चलना मुश्किल हो जाता है।


कुछ कीचड़ कीचड़ रूकता है

फिर एक कमल खिल जाता है

कुछ भौंरे गुन गुन करते हैं

दिन तितली सा उड़ जाता है।

.......


 



(2) पहली बारिश में

......................


शाम अचानक

बड़े शहर की तंग गलियों में बसे

छोटे-छोटे कमरों में रहने वाले

जले भुने घरों ने

जोर की अंगड़ाई ली

दुनियाँ दिखाने वाले जादुई डिब्बे को देखना छोड़

खोल दिये

गली की ओर

हमेशा हिकारत की नज़रों से देखने वाले

बंद खिड़कियों के

दोनो पल्ले

मिट्टी की सोंधी खुशबू ने कराया एहसास

हम धरती के प्राणी हैं !


एक घर के बाहर

खुले में रखे बर्तन

टिपटिपाने लगे

घबड़ाई अम्मा चीखीं...

अरी छोटकी !

बर्तन भींग रहे हैं रे !

मेहनत से मांजे हैं

मैले हो जायेंगे

दौड़!

रख सहेजकर।


बड़की बोली…

मुझे न सही

उसे तो भींगने दो माँ!

पहली बारिश है।


एक घर के बाहर

दोनो हाथों की उंगलियों में

ठहरते मोती

फिसलकर गिर गये सहसा

बाबूजी चीखे....

बल्टी ला रे मनुआँ..

रख बिस्तर पर

छत अभिये चूने लगी

अभी तो

ठीक से

देखा भी नहीं बारिश को

टपकने लगी ससुरी

छाती फाड़कर !


एक घर के बाहर

पापा आये

भींगते-भागते

साइकिल में लटकाये

सब्जी की थैली

और गीला आंटा

दरवज्जा खुलते ही चिल्लाये..

सड़क इतनी जाम की पूछो मत !

बड़े-बड़े गढ्ढे

अंधेरे में

कोई घुस जाय तो पता ही न चले

भगवान का लाख-लाख शुक्र है

बच गये आज तो

पहली बारिश में।


अजी सुनती हो !

तौलिया लाना जरा…..

बिजली चली गई ?

कोई बात नहीं

मौसम ठंडा हो गया है !

…………………………….


(3)


प्रकृति

........ 


बारिश से पहले

तेज हवा चली थी

झरे थे

कदम्ब के पात,

छोटे-छोटे फल,

दुबक कर छुप गये थे

फर-फर-फर-फर

उड़ रहे परिंदे,


तभी

उमड़-घुमड़ आये

बादल,

झम-झम बरसा

पानी,

मौसम

सुहाना हो गया।


बारिश के बाद

सहमे से खड़े थे

सभी पेड़-पौधे

कोई,किसी से

बात ही नहीं कर रहा था!


सबसे पहले

बुलबुल चहकी,

कोयल ने छेड़ी लम्बी तान,

चीखने लगे

मोर,

कौए ने करी

काँव-काँव

और...

बिछुड़े

साथियों को भुलाकर,

हौले-हौले

हँसने लगीं

सभी पत्तियाँ।


प्रकृति

सब गम भुलाकर जीना सिखाती है।


.......




बच्चों के हाथों में डोर है।

..................................


कहने लगीं अब बूढ़ी दादियाँ

बच्चों के हाथों में डोर है।


शहरों की आबादी जब बढ़ी

खेतों में पत्थर के घर उगे

कमरों में सरसों के फूल हैं

चिड़ियों को उड़ने से डर लगे।


कटने लगी आमों की डालियाँ

पिंजड़े में कोयल है मोर है।

[कहने लगीं अब बूढ़ी दादियाँ.....]


प्लास्टिक के पौधे हैं लॉन हैं

अम्बर को छूते मकान हैं

मिटा दे हमें जो इक पल में

ऐसे भी बनते सामान हैं।


उड़ने लगी धरती की चीटियाँ

पंखों में सासों की डोर है।

[कहने लगीं अब बूढ़ी दादियाँ.....]


सूरज पकड़ने की कोशिश ने

इंसाँ को पागल ही कर दिया

अपनी ही मुठ्ठी को बंद कर

कहता है धूप को पकड़ लिया।


दिखने लगीं जब अपनी झुर्रियाँ

कहता है ये कोई और है।

[कहने लगीं अब बूढ़ी दादियाँ.....]


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काव्यगोष्ठी

https://youtu.be/FIRBfrDI-2k?si=jMALfmbAq4QDjvsA

कल शाम  उद्गार सभागार, स्याही Syahi Prakashan में प्रिय Yogendra Narayan Viyogi जी की 73 वीं जयंती मनाई गई। बनारस के साहित्यकारों ने उन्हें खूब याद किया और अपना संस्मरण सुनाया। इस अवसर पर आदरणीय पूर्व जज श्री ChandraBhal Srivastava 'सुकुमार' जी की अध्यक्षता में एक सफल काव्यगोष्ठी का भी आयोजन हुआ जिसका कुशल संचालन भाई Liyakat Ali जलज ने किया।






16.6.25

उद्गार शतक का विमोचन

 कल दिनांक 15 जून 2025 को स्याही प्रकाशन द्वारा प्रकाशित उद्गार शतक का विमोचन हुआ। 



30.3.25

पुस्तक लोकार्पण

 'रामु न सकहिं, नाम गुन गाई' पुस्तक लोकार्पण समारोह की कुछ झलकियाँ। लेखक...प्रो0 उदय प्रताप सिंह। दिनांक 28-03-2025, स्थान: राजकीय पुस्तकालय, वाराणसी।











29.3.25

बेचैन आत्मा से...

सुबह हुई! गंगा नहायें

तुम हमें घुमाओ, हम तुम्हें घुमायें


सड़क छोड़ पगडंडी पकड़ें

जौं, गेहूँ की बाली देखें

उगता सूरज दिख जाए तो

धरती माँ की लाली देखें 


दूर बह रही गंगा जी हैं

चलो नहायें, तैरें, गायें

रस्ते में कोई मिल जाए

'जै गंगा जी' कहते जायें


कर्मों की सूची लम्बी है

भरे पड़े हैं दुःख के किस्से

अंधियारी रात कटी है

नई सुबह फिर अपने हिस्से


तेरे घर में रहता हूँ मैं

तुझे घुमाना फर्ज है मेरा

मेरे कारण तू जिन्दा है

मुझे घुमाना फर्ज है तेरा


हम-तुम साथी इक दूजे के

किसको ढूढ़ें? पास बुलाएँ!

ईश्वर यहीं-कहीं रहता है

चलो, चलें! उससे मिलवायें


सुबह हुई! गंगा नहायें

तुम हमे घुमाओ, हम तुम्हें घुमायें।

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