एक सफर है जिंदगी तो एक सफर लोहे का घर,
आत्मा बेचैन की पैनी नजर लोहे का घर।
पूरे भारत का यहाँ दर्शन मिलेगा आपको,
भूल न पाएंगे पढ़ कर उम्रभर लोहे का घर।।
.... संतोष प्रीत।
गुदगुदी, उपदेश, ताना-वेदना, लोहे का घर।
सूक्ष्म-दृष्टि,विवेक-दृष्टि में सना लोहे का घर।
है गहन संवेदना का घर बना लोहे का घर-
हर कसौटी की कसौटी पर तना लोहे का घर।।
सगुन 16/03/2025
"लोहे के घर" पर विशेष
सुनें जब रेल का नाम याद आतीं है कई बातें।
अपरिचित यात्रियों से नित नए परिचय मुलाकातें।
बैठ खिड़की पर देखें कैसे पीछे भागती धरती।
नए स्थान पर जाने पहुंचने की खुशी रहती।
खेत खलिहान गांव शहर नदी नालों से होकर।
हमारे देश की रेलें चलें नित चीरती भूधर।
हरेक धर्म भाषा जाति के हैं इसमें चलते लोग।
करे गंतव्य तक जाने का,इसका हर कोई उपयोग।
हमारी जिंदगी भी रेलगाड़ी के सरीखी है।
यहां दिन रात सबने भागते रहने की सीखी है।
सभी का बोझ कंधे पर उठाये हुए चलती है।
जहां भी हो जरूरत, यह पटरियां भी बदलती है।
हजारों यात्रियों के मध्य बैठा एक कवि ऐसा।
देखता है जो सूक्ष्म सीसीटीवी कैमरे जैसा।
कई भावों में डूबकर, हजारों दृश्य को पढ़कर।
लिखा है "बेचैन आत्मा" ने ये "लोहे का घर"।
उन्हें जैसा दिखा है दृश्य अन्दर और बाहर का।
यथावत लिख दिया उसमें लगाकर रसों का तड़का।
इस तरह बन गयी "देवेन्द्र पाण्डेयजी" की अद्भुत कृति।
सभी के पठन-पाठन हेतु होती आज लोकार्पित।
"लोहे के घर" में रोचकता है और प्रवाह है अद्भुत।
बहुत पछताएगा जो इसको पढ़ने से रहेगा च्युत।
आइये पढ़ें "देवेंद्र पांडेयजी" का "लोहे का घर"।
और फिर निकल चलें भावनात्मक यात्रा पर।
साहित्याकाश में महकेगी यह ज्यों अंकुरित चन्दन।
प्रकाशक और लेखक युगल का हम करें अभिनंदन।।
🙏बुद्ध देव तिवारी🙏




























































यात्रा-वृत्तांत
देवेन्द्र पाण्डेय जी की सद्य: कृति" लोहे का घर " उनकी साहसिक कृति है । इस यात्रा वृत्तांत को यात्रा कहानी भी कह सकते हैं।
ये सच है कि कहानी उपन्यास आदि की तुलना मे संस्मरण पुस्तकों की मांग अपेक्षाकृत कम होती है।लेकिन साहित्यिक विकास यात्रा में इनकी अन्यतम ऐतिहासिक भूमिका होती है।
यात्रा संस्मरण आसान भी नही है । इसके लिये लेखक में कुछ नैसर्गिक और नैमित्तिक गुण होने चाहिये।
उनमें सर्वप्रथम लेखक को जिज्ञासु होना चाहिए जो बेचैन आत्मा ही हो सकता है।संभवत: लेखक देवेन्द्र पाण्डेय जी ने अपना उपनाम "बेचैन आत्मा" भी इसीलिये रक्खा होगा। साथ ही विभिन्न परिस्थितियों को आत्मसात करने के लिये उसे सहनशील और धैर्यवान भी होना चाहिए। यात्राओं का व्यय अथवा श्रम वहन करना होता है ।पदयात्रा से लेकर जानकारी एकत्र करने के लिये । हर हाल मे सकारात्मक होना होता है।
भाषाओं का ज्ञान होना और सीखने की समझने की प्रवृत्ति होनी चाहिये।देवेन्द्र पाण्डेय जी नेपाली मूल से आते हैं,लेखाधिकारी रहे हैं।अनेक भाषाएं जानते है
परिस्थिति के अनुकूल हो जाना या परिस्थिति को अनुकूल कर लेना बखूबी आता है जो इस पुस्तक में दिखाई देता है।
हालांकि यात्रा संस्मरण की बात जब भी करता है कोई सबके मुख मे पहला नाम महापंडित राहुल सांकृत्यायन का आता है।घुमक्कड़ शास्त्र के प्रणेता थे राहुल सांकृत्यायन जी । जो जीवन पर्यन्त भ्रमणशील रहे। बचपन से आमरण । सुदूर अंचलों की यात्राएं कीं और उन पर अनेक किताबें लिखीं।
खूब पैदल चले ।क्षेत्र के विभिन्न पहलुओं इतिहास, भूगोल, वनस्पति,लोक संस्कृति आदि की जानकारी जुटाई। लेखन के माध्यम से दुर्गम को सुगम बना दिया।
अज्ञेय जी का नाम भी इसी श्रेणी में आता है। जिनका पर्याय नाम ही यायावर बन चुका है। अज्ञेय ने फौजी ट्रक हांकते हुए पूर्वोत्तर के माझुली जैसे खूबसूरत द्वीप के बारे में जाना,समझा और पुस्तकों में लिपिबद्ध कर सर्वजन को अवगत कराने की कोशिश की।
लोहे का घर भी देवेन्द्र पाण्डेय जी की दैनिक रेलयात्रा , इस दौरान घटित समस्त भाव ।चाहे सहयात्रियों से वार्तालाप हो,डिब्बे में प्रतिदिन कुछ पुराने कुछ नये लोगो से बातचीत, आसपास सामान , चाय आदि बेचने वाले ,कभी सुखद कभी बमुश्किल सफर।इर्द-गिर्द जमे लोग और ट्रेन के बाहर के दृश्य । सब लेखक को प्राकृतिक प्रतिमानों से , उपादान से जोड़ते हैं।तब
यह पुस्तक रूप में आज हमारे सामने दृष्टिगत होती है।
पुस्तक के संदर्भ मे बात रखते हुए शीर्षक पर सबसे पहले ध्यान जाता है।
पुस्तक का आवरण पृष्ठ पुस्तक का आईना होता है जो पुस्तक के तथ्य कथ्य को प्रस्तुत करता है। आकर्षण का केन्द्र बिन्दु होता है।इस दृष्टि से लेखक को जितनी बधाई दी जाए कम है।
लोहे का घर याने ट्रेन की बोगी।देखते ही शीर्षक और आवरण बरबस ही आकर्षित करता है।
पुस्तक के अंदर लगभग 183 यात्रा-वृत्तांत या,कहानियां हैं जो लेखक की व्यक्तिगत अंतर्दृष्टि और अनुभवों को प्रकट करती हैं।
संस्मरणों की रोचक प्रस्तुति में निर्जीव वस्तु शहर, घटनाएं सब जीवंत हो उठते हैं और वह पात्रस्वरूप हो जाते हैं।
लोहे का घर से कृष्णा सोबती जी की " बुद्ध का कमण्डल लद्दाख " की स्मृति हो आती है।दिल्ली से लेह की यात्रा की डायरी की तरह है यह किताब। बहुत ही सुरुचिपूर्ण। पाण्डेय जी का यह यात्रा वृत्तांत भी लेखक के स्थानान्तरित होने के कारण प्रतिदिन जौनपुर आऑफिस आना जाना रहा।कभी कभार बलिया या व्यक्तिगत कारणों से कहीं और जाना हुआ। वाराणसी से जौनपुर मुख्य और कुछेक बलिया आदि अन्य स्थलों की यात्रा डायरी ही है। हां सोबती जी की इस डायरी में हर पन्ने पर रंगीन तस्वीरें,रेखांकन,वाक्यांश गद्य की शोभा बढ़ाते हैं। सहजता और आत्मीयता से लद्दाख की संस्कृति को परोसती चलती हैं। पाण्डेय जी ने चार पांच कविताएं उसी तेवर की रक्खी हैं।
"लोहे का घर शीर्षक" नाम से आकर्षित करता है । पुस्तक के प्रति जिज्ञासा बढ़ाता है।
पुस्तक पढ़ने पर लोहे का घर सबको आसानी से समझ आता है। पाण्डेय जी ने यात्रा के अवसर से मोती चुनकर यानी बातें, कहानियां, घटनाएं, दृश्य, आचार-विचार, नवाचार सब कुछ जो देखते सुनते महसूस करते उसे वैचारिक ताने बाने के खांचे में फिट करते रहे। आपके चुटीले प्यारे व्यंग्य,हास परिहास की शैली ने इसे रोचक बना दिया। और लोहे के घर में संस्मरणों कौ कैद कर दिया।
लेखक ने अपने दो शब्द में लिखा है कि प्रतिदिन उन जैसे सैंकड़ों लोग ट्रेन से आफिस आना जाने वालों में होते थे। सफ़र अच्छा कट जाता था।हां उनकी बचपन से डायरी लिखने की आदत को मसाला मिलने लगा जिससे नियमित ब्लाग लिखने लगे।
ट्रेन में साथी मित्रों , अजनबियों से बातचीत, उनमें कहानियों को ढूंढने लगे। जिनमें रस,दर्शन सब भरा होता था।ये कहानियां बनावटी नहीं यथार्थ हैं। इन्हें जीवन-दर्शन के रूप में देखा जा सकता है।
लेखक की संवेदनशीलता अत्यंत सराहनीय है। ये सब निर्भर करता है लेखक के सूक्ष्म आब्जर्वेशन पर। कमाल की यह क्षमता लेखक के पास है।़
कहते हैं - ट्रेनें कई प्रकार की होती हैं । बहुत सी ट्रेनों के नाम आपने गिनाए हैं। बताया पैसिंजर ट्रेनें रुक रुक कर चलती हैं- छुक,छुक छुक छुक....सुपर फास्ट धक धक धक धक । जब कोई मसला फंसता है पैसिंजर सेटिंग में डाल दी जाती है।एक्सप्रेस धड़ल्ले से चीखती चिल्लाती गुज़र जाती है।
पैसिंजर के यात्री कम पैसे के टिकट पर ही इतने खुश रहते हैं कि घंटों के अनावश्यक ठहराव को खुशी खुशी सह लेते हैं । यह सुख गरीबी रेखा से नीचे वाले राशन कार्ड के लाभ जैसा है।भले ही रेंग कर चले, सरकार की कृपा से ज़िन्दगी चलती तो है।
कितने सलीके से बड़ी बात का ज़िक्र कर दिया।ऐसी ही तमाम विचार बिन्दुओं तक लेखक पहुंचते और कोई न कोई दर्शन, ज्ञान पाठकों के लिये छोड़ते हैं।
रास्तों,दृश्यों के मनोहारी दृश्य रोमांचक हैं।
"शिव जी तमिल हैं"आस्था को पटविहीन करता और बताता है आस्था के लिये भाषा नही भाव चाहिये।
"सनातन काल यात्री "- धर्म दर्शन पर विचारणीय सोच पर आधारित है।
यूसुफपुर का मिर्जा सीख देता है।
वाराणसी से बलिया " में भौगोलिक चित्रण तो सुकोमल,मनोरम है पर व्यंग्य देखिये - पैसिंजर ट्रेन खरगोश की तरह उछलने के बाद चींटी की तरह रेंगने लगी।
मानवीकरण गजब का है-
" एक मालगाड़ी किसी उद्योगपति का माल लादे पैसिंजर ट्रेन को हिकारत की नजरों से देखती, गुर्राती तेजी से निकल गई।"
समाज की कई विसंगतियों पर दृष्टि डाली और वर्णन किया है।।
मनमोहक शैली में सभी संस्मरण लिखे हैं। ट्रेनों की स्थिति को रुचिकर ढंग से रखते हैं "आपस में बतियाती हैं ट्रेनें" में।
" सुबह मेरी हावड़ा अमृतसर को उलझा दिया और शाम को तो गुम ही कर दिया।पता नहीं कहां है।गंगा सतलुज आई कोहरे को चीरती,सीटी बजाती, गुनगुनाती-
-.... आजा मेरी बोगी में बैठ जा .. मैं लपक कर बैठ गया।मैं बैठ कर सोचने लगा आज का दिन ही खराब है यह आई भी देर से चल भी रही है हंस की चाल।एक स्टेशन पर देर तक रूकी रहती है। लगता है खड़ी होकर फोन लगाती होगी अपनी सहेलियों को।हाय फिफ्टी! तुम कैसी हो? मैं जाफराबाद आ गई।तुम कहां फंसी हो।? बहुत कोहरा है ।संभल कर चलना ।इन यात्रियों की चीख पुकार से तनिक ना घबड़ाना। बोलना पहुंचा रही हूं ना ,यही क्या कम है। फिफ्टी डाउन बोल रही होगी।- मैं तो वहां रात 12 बजे तक पहुंचूंगी।अभी सुल्तानपुर में सो रही हूं।मेरी फिकर न करो,मन करे तो एक नींद लें लो तुम भी ।ये यात्री तो ऐसे होते ही हैं ।अभी लड़ भिड़ जाओगी तो सब तुम्हें ही कोसेंगे।
इसी तरह "भोला,अहा कितना प्यारा" आदि आदि भी संस्मरण कथाएं रिफ्रेश करती हैं। मज़ेदार हैं।
वैसे भी पाण्डेय जी प्रतिदिन के यात्री हैं। बनारस से बाहर गए तो वहां घूमना और यहां रहे तो यहां की यात्रा करते ही हैं।
लिखने के लिये बहुत कुछ है इस पुस्तक में ।अति पठनीय है।काशी से इस यात्रा-वृत्तांत की अलख जगाई है देवेन्द्र पाण्डेय जी ने जो उन्हे यशस्वी बनायेगा।अशेष शुभकामनाओं के साथ पुन: हार्दिक बधाई।
डाॅ मञ्जरी पाण्डेय
(कवयित्री,लेखिका,रंगकर्मी)
राष्ट्रपति सम्मान प्राप्त सेवानिवृत्त शिक्षिका
सारनाथ, वाराणसी।
दूरभाष- 9973544350
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‘लोहे का घर’ : एक अनूठा यात्रा-वृत्त संग्रह
साहित्य समाज का दर्पण होता है और यात्रा-वृत्तांत उसके जीवन का जीवंत चित्रण। प्रसिद्ध लेखक एवं सुकवि देवेन्द्र पाण्डेय द्वारा रचित यात्रा-वृत्त संग्रह ‘लोहे का घर’ इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए हमें जीवन और यात्रा के बीच गूढ़ संबंधों से परिचित कराता है। लेखक ने अपने गहरे अनुभवों और संवेदनशील दृष्टिकोण से इस पुस्तक को एक अनोखे सफरनामे के रूप में प्रस्तुत किया है, जहाँ वे ट्रेन को शरीर और आत्मा को यात्री मानते हैं तथा मंजिल को मोक्ष। यह यात्रा केवल भौतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक भी है।
‘लोहे का घर’ केवल एक यात्रा-वृत्त नहीं, बल्कि जीवन के गूढ़ रहस्यों को उजागर करने वाला दार्शनिक दृष्टिकोण भी है। लेखक ने यात्राओं के माध्यम से जीवन के विभिन्न पहलुओं को समझने और समझाने का प्रयास किया है। वे ट्रेन की खिड़की से झांकते हुए जीवन के अलग-अलग रंगों को देख पाते हैं—कभी धूल भरे प्लेटफार्म, कभी हंसते-खेलते बच्चे, कभी पसीने से लथपथ कुली, तो कभी आशा-निराशा में उलझे यात्री। यह सब मिलकर जीवन के उन अनछुए पहलुओं को उजागर करते हैं, जिन्हें हम अक्सर नजरअंदाज कर देते हैं।
देवेन्द्र पाण्डेय की भाषा शैली सहज, प्रवाहमयी और प्रभावशाली है। वे कहीं-कहीं व्यंग्य का सहारा लेते हैं तो कहीं भावनात्मक गहराई से पाठकों को जोड़ते हैं। उनकी लेखनी में एक खास प्रकार की संवेदनशीलता और साहित्यिक सौंदर्य देखने को मिलता है। उनके शब्द चित्रण इतने सजीव हैं कि पाठक को ऐसा प्रतीत होता है जैसे वह स्वयं ट्रेन में बैठा हो और इस यात्रा का हिस्सा बन रहा हो। पुस्तक में प्रयुक्त भाषा न केवल रमणीय है, बल्कि अत्यंत सरस भी है जो हर वर्ग के पाठकों को आकर्षित करने में सक्षम है।
इस कृति में लेखक ने केवल अपने अनुभवों को नहीं, बल्कि सहयात्रियों के जीवन को भी बड़ी बारीकी से उकेरा है। ट्रेन में मिलने वाले भिन्न-भिन्न यात्रियों के विचार, उनकी जीवनशैली, उनके संघर्ष, उनकी आशाएँ और विश्वास सभी को लेखक ने अपने सूक्ष्म अवलोकन से इस कृति में जीवंत कर दिया है। पुस्तक में ट्रेन का हर यात्री एक अलग कहानी कहता है—कोई अपने परिवार से मिलने की खुशी में मग्न है तो कोई रोजगार की तलाश में दूर देश जा रहा है। किसी के चेहरे पर चिंता की लकीरें हैं तो कोई अपने अतीत के पन्नों को पलट रहा है। इन सभी किरदारों के माध्यम से लेखक हमें भारतीय समाज की विविधता से परिचित कराते हैं।
पुस्तक में लेखक ने यात्राओं को केवल एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने की क्रिया न मानकर, इसे जीवन के गूढ़ तत्वों से जोड़ा है। शरीर को ट्रेन और आत्मा को यात्री के रूप में परिभाषित करना एक अत्यंत गहरी और दार्शनिक दृष्टि को दर्शाता है। यह दृष्टिकोण भारतीय दर्शन और वेदांत से जुड़ा हुआ प्रतीत होता है, जिसमें जीवन को एक यात्रा माना गया है और अंतिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति। लेखक का यह दृष्टिकोण पुस्तक को एक नई ऊँचाई प्रदान करता है और इसे केवल एक यात्रा-वृत्त से बढ़ाकर जीवन-दर्शन की श्रेणी में रखता है।
स्याही प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस कृति की साज-सज्जा अत्यंत उत्कृष्ट है। पुस्तक की छपाई, पृष्ठों की गुणवत्ता और कवर पृष्ठ का डिजाइन इसे और भी आकर्षक बनाता है। कवर पृष्ठ पर ट्रेन का चित्रण पुस्तक के शीर्षक को सार्थक बनाता है और पाठकों को पहले ही दृष्टि में अपनी ओर खींच लेता है।
‘लोहे का घर’ केवल एक यात्रा-वृत्त संग्रह नहीं, बल्कि जीवन के उतार-चढ़ाव, अनुभवों, आस्थाओं और विश्वासों का अनूठा दस्तावेज़ है। लेखक की लेखनी में गहराई, सहजता और संवेदनशीलता का अनूठा मिश्रण देखने को मिलता है। यह पुस्तक न केवल यात्रा प्रेमियों के लिए, बल्कि उन सभी के लिए पठनीय है जो जीवन को एक नए दृष्टिकोण से देखना चाहते हैं।
इस उत्कृष्ट कृति के लिए लेखक देवेन्द्र पाण्डेय, प्रकाशक स्याही प्रकाशन, और पं0 छतिश द्विवेदी ‘कुण्ठित’ को हार्दिक बधाई। यह पुस्तक निश्चित रूप से हिंदी साहित्य की यात्रा-वृत्त श्रेणी में एक मील का पत्थर साबित होगी।
... सुरेन्द्र वाजपेई।
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