2.6.12

बंदर



बंदर
टेढ़ी कर देते हैं
टाटा-स्काई की छतरी
तोड़ देते हैं
फोन के तार
घुस आते हैं
कीचन में
उठा ले जाते है
फल या ताजी बनी रोटियाँ
नहाते हैं
पानी की टंकी में घुस कर
डालते है
दिन दहाड़े डाका
हम
लाठी लेकर
बमुश्किल
खुद को
बचा ही पाते हैं।

अकेले हों तो
भले भाग जांय
मगर जब होते हैं झुण्ड में
नतमस्तक हो
खुद ही भागना पड़ता है
इनसे

हमारी तरह चलती है
इनकी सरकार
इनकी संसद
इनके कानून

आपकी श्रद्धा और विश्वास का
ये भी उठाते हैं
भरपूर लाभ

देखा है
संकट मोचन के बंदर
खाते हैं
चने के साथ
शुद्ध देशी घी के
लड्ढू भी !
......................... 

नोटः आपका ब्लॉग न पढ़ पाने के पीछे इन बंदरों का भी बहुत बड़ा हाथ है।:)

22 comments:

  1. bahut sateek likha hai ....!!
    shubhkamnayen.

    ReplyDelete
  2. हमारा ब्लाग तो और भी लोग नहीं पढ़ पाते पर उनसे ये शिकायत नहीं रहती कि उन्होंने कमेन्ट नहीं किया :)

    कविता की तारीफ करके बंदरों का हौसला नहीं बढ़ाऊंगा , मुझे पता है कि वे किस कदर खुराफात कर रहे हैं ! कभी हम भी उनके शिकार थे बस इसी लिए :)

    ReplyDelete
  3. बेचारे बन्दर, इंसानों की दखलन्दाज़ी के शिकार! बनारस में लड्डू तो खा रहे हैं, शेष भारत में तो रगेदे जा रहे हैं।

    ReplyDelete
    Replies
    1. बनारसी लोगों का मिजाज भी गज़ब का विरोधाभासी है। घर में ये बंदरों से आतंकित रहते हैं। हनुमान मंदिर में जाकर इन्ही बंदरों को बजरंगबली के रूप मानकर चना-लड्ढू खिलाते हैं। बंदर और आदमी दोनो एक दूसरे को नुकसान पहुँचाते हैं। दोनो एक दूसरे से भय खाते हैं। दोनो एक दूसरे को डराते हैं। दोनो एक दूसरे को बिना वजह मारते, काटते भी नहीं। बंदर को चाहिए रहने का आश्रय, खाने के लिए भोजन बस इसी की तलाश में भटकते रहते हैं।

      Delete
  4. संकट मोचन तो नहीं मगर दुर्गा मंदिर में मेरे छोटे भाई ने एक बंदरिया के प्यारे से बच्चे को प्यार से दुलार भर लिया था.. बंदरिया ने जो पैर में जो घाव दिया वो उसके पहचान पत्र में उसका शिनाख्ती निशान बन गया!! आपकी टाटा स्काई और इंटरनेट वियोग पर लिखी ये कविता मानूँ या वानर-स्तुति कविता... दोनों स्थितियों में सुन्दर!!!

    ReplyDelete
  5. इनके उत्पात से बचने का फत्तुआ फार्मूला उपलब्ध है -
    http://mosamkaun.blogspot.in/2010/06/good-night-till-morning.html

    p.s. जनहित में जारी

    ReplyDelete
  6. एक तो मनुष्य शेष सारे पशु-पक्षियों का हिस्सा दबाये बैठा है ,उनपर मनमाने प्रयोग करता है ,.और कहीं वे ज़ोर पकड़,जायँ तो शिकायत भी उन्हीं की !आदमी जैसे चालाक वे लोग नहीं हैं .

    ReplyDelete
    Replies
    1. बंदर से चालाक हुए तभी तो आदमी हुए। एक बंदराश्रम का विचार बन रहा है।

      Delete
  7. आप भी हद हैं -
    प्रात नाम जो लेई हमारा ता दिन ताहि न मिलै अहारा ....
    आज सुबह सुबह यी पोस्ट पढ़ें दिखिए दाना पानी नसीब होता भी है या नहीं! :(

    ReplyDelete
  8. सच कहा, अब इन बंदरों से देश को कौन बचाये।

    ReplyDelete
    Replies
    1. ..अन्ना और बाबा लगे हुए हैं...!

      Delete
  9. धार्मिक स्थलों पर तो इनकी दादागिरी खूब चलती है !

    ReplyDelete
  10. एक सर्वथा अन्छुए विषय को आपने काव्य का रूप दिया है। बेहतरीन।
    जब हम मेदक (आं.प्र.) में थे तो ये अवासीय परिसर में नहीं निर्माणी में घुसकर कई लोगों के कान खा (काट) गए।

    ReplyDelete
  11. ये इतना उत्पात इस लिए मचाते हैं क्योंकि इनको लगता है की हमारे भाइयों ने ही हमारे साथ दगा किया . खुद तो विकसित बन गए और हमें पीछे छोड़ गए .

    ReplyDelete
  12. बचपन में एक बार एक बन्दर ने मुझे तबियत से नोचा था !

    ...आपको शुभकामनाएँ !

    ReplyDelete
    Replies
    1. बचपन में थप्पड़ मार कर मेरे हाथ से रोटी छीन चुका है। बड़े काम की हैं आपकी शुभकामनाएँ..

      Delete
  13. बाहर,अंदर
    दर-दर
    मस्त कलंदर
    बंदर ही बंदर!
    (ये दुनिया बंदर मय है!)

    ReplyDelete
  14. ये बिचारे बन्दर भी क्या करें .. तेज़ी से कटते जंगल ... शहर का फैलाव .. आखिर ये कहां जाएँ ... वैसे हम भी तो बन्दर हैं ... हम भही तो शहर की तरफ ही ज्यादा भागते हैं ...

    ReplyDelete
  15. काश ये बन्दर इस रचना को पढ़ लेते तो शायद फिर दुस्साहस नहीं करते

    ReplyDelete
  16. ये बेचारे करें भी तो क्या करें इन्हें यहाँ आने पर मजबूर करने वाले हम मनुष्य ही हैं, थोडा सा इन्होने परेशान कर दिया तो क्या बुराई है, ये तो बेचारे सिर्फ अपने पेट का सवाल लेकर आते हैं, हमारी तरह रोटी, कपडा, मकान और शिक्षा नहीं मांगते ना...सुन्दर सटीक भाव

    ReplyDelete
  17. अब भैया बनारस ही क्या इनका उत्पात तो हर जगह है...तो अब पता लगा क्यूँ इतने बाद दिखाई देते हो आप ब्लॉग पर :-)

    ReplyDelete