28.12.14

ओ दिसम्बर!

आजकल
शाम होते ही
कोहरे की मोटी चादर ओढ़
सोने लगती है धरती

मुर्गा
समय पर देता है बांग
पंछी
नहीं भूलते चहचहाना
छटपटाने लगते हैं
दो पाये
उठाते-उठाते
थक जाता है सूरज
मगर
सोती रहती है धरती
देर तक

आसानी से नहीं जगती माँ
किरणें
धूप दिखा
करती हैं मन्नतें
सूरज
हौले-हौले
कोहरे की चादर को
बादलों में कहीं
छुपा देता है
तब कहीं जाकर
अलसाई-अलसाई
जगती है धरती

जगते ही
देखती है घड़ी
मुँह बिचकाती
सूरज को कोसती
बच्चों को खाना खिला
करने लगती है
फिर से
सोने का उपक्रम
बड़बड़ाती है
अभी नहीं आया
नववर्ष!

ओ दिसम्बर!
तू उदास मत हो
तू ही तो है
जिसके आने पर
धरती के मन में
नई जनवरी
खिलने लगती है।

9 comments:

  1. सार्थक रचना

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  2. एक पूरी तस्वीर दिसम्बर की और आख़िरी पंक्तियों में नववर्ष की आहट... देवेन्द्र भाई, लाजवाब!

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  3. सुन्दर बिम्ब में कंपकंपाहट लिए हुए सुन्दर रचना..

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  4. सार्थक प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (30-12-2014) को "रात बीता हुआ सवेरा है" (चर्चा अंक-1843) "रात बीता हुआ सवेरा है" (चर्चा अंक-1843) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  5. good imagination , Ktm ki hawa to kaha rahi hai , Pade raho bistare me .

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  6. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

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