8.7.17

बरसात

उमड़-घुमड़ जब बादल गरजते हैं तो मनोवृत्ति के अनुरूप सभी के मन में अलग-अलग भाव जगते हैं। नर्तक के पैर थिरकने लगते हैं, गायक गुनगुनाने लगते हैं, शराबी शराब के लिए मचलने लगता है, शाबाबी शबाब के लिए तो कबाबी कबाब ढूँढने लगता है। सभी अपनी शक्ति के अनुरूप अपनी प्यास बुझाकर तृप्त और मगन रहते हैं लेकिन कवि? कवि एक बेचैन प्राणी होता है। किसी एक से उसकी प्यास नहीं बुझती। जिधर देखो उधर टाँग घुसाता नजर आता है। यत्र तत्र सर्वत्र बादलों के साथ मंडराना चाहता है। कवि बरसात पर कविता नहीं लिखता, खुद बरसात हुआ जाता है!

बरसात के मौसम में जब कवियों की याद आती है तो सबसे पहले उन कवियों की कविता याद आती है जिन्हें खुद कवि के मुखारविंद से सुनने का सौभाग्य मिला हो या फिर वो जिसे हम पाठ्य पुस्तक में पढ़ते, गुनते, गुनगुनाते हुए जवान हुए हों। जब बादल उमड़ते घुमड़ते हैं मुझे तो सबसे पहले स्व० कवि चकाचक बनारसी की कविता याद आती है...

बदरी के बदरा  पिछवउलस, सावन आयल का!
खटिया चौथी टांग उठउलस, सावन आयल का!!

बादल केवल घिर कर रह जाते हैं, ताकते रहो बरसते ही नहीं तो सुरेंद्र वाजपेयी के गीत की दर्द भरी एक लाइन याद आती है...

तुमने बादल को आते देखा होगा
हमने तो बादल को जाते देखा है!

बादल बरसते ही नहीं, सूखा पड़ जाता है। तो आधुनिक तुलसी दास कवि बावला किसान का दर्द सुनाते थे...
तोड़ि के पताल के आकाश में उछाल देबे
ढाल देबे पानी-पानी पूरा एक दान में।
रूठ जाये अदरा अ बदरा भी रूठ जाये
भदरा न लागे देब, खेत-खलिहान में!

कवि कहाँ नहीं पहुँचता! किसके खुशी से खुश, किसके दर्द से बेचैन नहीं होता! शायद इसीलिए कहा गया है..जहाँ न पहुँचे रवि, वहॉं पहुँचे कवि! धान रोपती महिलाओं को देखा तो गीत गाया, शराबी के पाँव फिसले तो गीत गाया। किसी ने टोका तो झल्लाया....

हम पथरे पे दूब उगाइब, तोरे बाप क का?
जामुन सालीग्राम बनाइब, तोरे बाप क का?
पूरे सावन बम बम बोलब, तोरे बाप क का?
तोता से मैना लड़वाइब, तोरे बाप क का?

रात भर उमड़ घुमड़ कर बादल बरसे। खेत मे सुबह पानी की एक बूंद नहीं दिखी! पीले मेंढक ने सर उठा कर बूढ़े झिंगुर से पूछा..

बादल गरजे
रात भर बारिश हुई
हमने देखा
तुमने देखा
सबने देखा
यार!
सब दिखता है
मगर जो दिखना चाहिये
वही नहीं दिखता
हमें कहीं वर्षा का जल नहीं दिखता?

बूढ़ा झिंगुर
हौले-हौले झिनझिनाते हुए बोला..

कुछ तो
बरगदी वृक्ष पी गये होंगे
कुछ
सापों के बिलों में घुस गया होगा
हमने
दो पायों को कहते सुना है
सरकारी अनुदान
चकाचक बरसता है
फटाफट सूख जाता है
वर्षा का जल भी
सरकारी अनुदान
हो गया होगा!

11 comments:

  1. सरकारी अनुदान की बात बिल्कुल सही कही है .

    ReplyDelete
  2. गज्जब का व्यंग लिखा आपने, बरसात की आड़ में सरकारी अनुदानों को भी धो डाला, बहुत लाजवाब।
    रामराम
    #हिंदी_ब्लागिंग

    ReplyDelete
  3. बहुत ही बढ़िया, और जिस तरीके से बाकि कवियों की कविताओं का उल्लेख किया वो बढ़िया लगा पढ़ना

    ReplyDelete
  4. वर्षा का जल भी
    सरकारी अनुदान
    हो गया होगा!.......मारक! वाह१!

    ReplyDelete
  5. समसामयिक,अति सुन्दर व्यंग्य..

    ReplyDelete
  6. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (10-07-2017) को "एक देश एक टैक्स" (चर्चा अंक-2662) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete
  7. बहुत सुंदर प्रस्तुति,व्यंग्य काबिलेतारीफ है.

    ReplyDelete
  8. वाह ! उधर बादल बरसा और इधर कविता ने जन्म लिया...लगता है बादलों ने ही कितनों को कविता करना सिखा दिया होगा, यहाँ असम में तो बरसे ही जा रहे हैं बादल, दिन-दिन भर बरसते हैं, मन नहीं भरता तो रात भर भी बरसते हैं..तो कबीर दास ही याद आ रहे हैं, अति का भला न बरसना..

    ReplyDelete
  9. बहुत खूब ... नेक कवियों की बातें फिर आपका व्याग ... बरसात पे भी अंकुश न लग जाये कहीं ...
    बादल और कविता का गहरा सम्बन्ध अनादी काल से ही रहा है जो आज भी अट्टू है ...

    ReplyDelete